Sunday, 10 July 2016

हे मुख्य न्यायाधिपति कभी इन मसलों पर भी अपने आंसू छलका लीजिए

भारत के मुख्य न्यायाधिपति तीरथ सिंह ठाकुर

न्यायाधीशों की सुविधाएं और पतन बढ़ता गया है, साख गिरती गई है  

इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच में सीनियर एडवोकेट  
इंद्र भूषण सिंह की मुख्य न्यायाधिपति को खुली चिट्ठी 

भारत के मुख्य न्यायाधिपति महोदय,

इंद्र भूषण सिंह
माननीय उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति न किए जाने के दुःख से आप की आंखों में आंसू आ गए , यह देख कर हम सभी अधिवक्ताओं को भी अति दुःख हुआ और हमारे भी आंखों में आंसू आ गए परंतु माननीय न्यायालयों से आम जनता को न्याय न मिल पाने के कारण भी क्या आप की आंखों में कभी आंसू आए ? क्या आप को यह लगता है कि आप के सभी न्यायाधीश बहुत ही ईमानदार व योग्य है ? क्या कारण है कि सालों साल बीत जाने के बावजूद भी, एक भी न्यायाधीश, चाहे वो अधीनस्थ न्यायालय या उच्च न्यायालय का हो, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़ कर, उन के ऊपर कोई मुक़दमा नहीं चलाया जाता।  इतने बड़े न्यायपालिका में बस चंद ऊंगलियों पर गिनने लायक ही उदहारण हैं, बाक़ी क्या सब ईमानदार हैं ?

भारत के संविधान से अलग हो कर भारत संघ से अलग आप लोगों ने एक भारत न्यायपालिका संघ की रचना स्वयं ही कर डाली। इस में आप ने यह व्याख्या की कि न्यायपालिका में उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में न्यायधीशों के नियुक्ति के लिए व्यक्ति का चयन, उस की संस्तुति, नियुक्ति, शपथ तथा सेवा संबंधी सभी शर्तें आदि-आदि सब आप लोगों के ही हाथ में रहेगा। आप लोगों ने स्वयं ही फैसला ले लिया कि आप लोगों को क्या क्या सुविधाएं मिलेंगी। आप लोगों ने यह भी फैसला ले लिया कि आप लोगों के वाहन  पर लाल बत्ती भी लगनी चाहिए। आप लोगों ने यह भी फैसला ले लिया कि यदि कोई अधिवक्ता किसी न्यायिक अधिकारी की शिकायत करे तो उस पर विशेष ध्यान नहीं देना चाहिए क्यों कि झूठी शिकायत करना तो अधिवक्ताओं की आदत होती है।

न्यायालय के समक्ष बहस करते समय हमें यही सिखाया गया है कि कभी भी न्यायाधीश से या न्यायालय से कोई प्रश्न नहीं पूछना चाहिए । यदि पूछना ही है तो कुछ इस तरह पूछो कि, “ माई लार्ड, मैं अपने आप से यह पूछना चाहता हूं कि...”. तो माई लार्ड, मैं अपने आप से यह पूछना चाहता हूं कि आज से तीस वर्ष पूर्व न्यायालयों में न्यायाधीश महोदय अपनी सवारी से आते थे, मात्र दो चपरासी उन्हें मिलते थे, खुली अदालत में अपना निर्णय दे देते थे, कभी कोई बेईमानी का किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाता था। परंतु आज क्या हो गया है कि न्यायाधीशों को पहले अम्बेस्डर फिर हौंडा सिटी फिर करोला मिला। छः छः चपरासी, रिटायरमेंट के बाद भी एक चपरासी का वेतन सहायक रखने के लिए, न्यायाधीश व परिवार वालों के सुख सुविधा के लिए हर क्षेत्र जैसे अस्पताल, पीजीआई, एअरपोर्ट, रेलवे, बैंक आदि-आदि जगह प्रोटोकाल अधिकारी, मोबाइल, लैपटॉप, लाइब्रेरी, कार में भरवाने के लिए पेट्रोल, एक समान न्यूनतम पेंशन, मुख्यमंत्री व मंत्रियों के बगल में आलिशान बंगला, अधिकतर सरकारी कर्मचारियों को एल टी सी का लाभ नहीं मिलता है, और जिन को मिलता है उन्हें एक वर्ष में एक ही का लाभ मिलता है जब कि माननीय न्यायमूर्तियों को एक वर्ष में दो दो एल टी सी की सुविधा प्राप्त है आदि- आदि तमाम सुविधाओं के बावजूद आम जनता को न्याय देने में इतनी कोताही क्यों ? आज के अधिकतर न्यायधीश भोजनावकाश के बाद क्यों नहीं काम करना चाहते हैं ? और अधिकतर न्यायाधीश जब भी न्यायालयों का संचालन करते हैं तो इतना क्रोधित क्यों रहते है ? किस कानून ने उन्हें अधिवक्ताओं, वादकारियों, राजनीतिज्ञों, और अधिकारियों पर अनाप शनाप टिप्पणी करने का और क्रोध करने का अधिकार दे रखा है ? पहले का न्यायाधीश कभी किसी राजनेता या अधिकारी से संबंध बनाने से दूर भागता था और आज का न्यायाधीश किसी भी नेता या अधिकारी से संबंध बनाने में कोई संकोच नहीं करता। क्यों ? आज के कुछ न्यायाधीश न्यांयालय में अपने विश्राम कक्ष में शासन के अधिकारियों से सब की जानकारी में मिलता है। क्या इस की कोई जानकारी आप को नहीं मिलती ? आज का न्यायाधीश मंत्रियों और मुख्यमंत्री के साथ सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेता है और खुले आम फोटो खिंचवाता है, क्या इस की सूचना आप को नहीं मिलती ? और यदि मिलती है तो आप उस पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते ? क्या माननीय उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों के लिए कोई आचार संहिता, संहिताबद्ध कभी होगा ? और यदि होगा तो उसे कौन करेगा, संसद या माननीय सर्वोच्च न्यायालय ? और यदि हो भी जाएगा तो उस का कौन पालन कराएगा?

माना कि माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों की नियुक्ति में केंद्र शासन की ओर से देरी की जा रही है परंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार ही नामों की संस्तुतियां तो माननीय उच्च न्यायालय व माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा और उस में केंद्र सरकार या राज्य सरकार की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा । फिर कुछ प्रश्न मैं स्वयं से पूछना चाहता हूं कि ऐसे व्यक्तियों के नाम की संस्तुति क्यों की जाती है जिन का कार्यकाल आठ महीने, साल भर, तीन साल ही होती है ? ऐसा भी हम लोगों ने देखा है कि कुछ जनपद न्यायाधीश अवकाश प्राप्त करने के बाद अपने पारिवारिक व्यापार में लग जाते हैं कि अचानक उन्हें सूचना दी जाती है कि उन की नियुक्ति माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के रूप में एक या सवा साल के लिए हो गई । इतने अल्प अवधि में उन का न्याय देने में क्या योगदान होगा ? मात्र इतना कि उन के पेंशन की राशि बढ़ जाएगी और वो दो या तीन एल टी सी का और लाभ ले लेंगे।

हम लोगों ने यह भी देखा है कि किस प्रकार से कुछ न्यायमूर्ति अवकाश ग्रहण के ठीक पूर्व किसी राजनीतिक पार्टी या राजनीतिज्ञ विशेष के पक्ष में, दो न्यायमूर्तियों के पीठ में बैठते हुए, अपना अकेले का फैसला पढ़ कर बीच में ही उठ कर चले गए जब कि दूसरे न्यायमूर्ति अपना निर्णय देने को अभी तैयार ही नहीं थे। आखिर ऐसे न्यायमूर्ति के भी नाम की संस्तुति भी आप लोगों ने ही की होगी। आज सत्तर प्रतिशत से अधिक न्यायाधीश किसी भी बड़े या तकनीकी मामले में अपना निर्णय खुले न्यायालय में बोलने में असमर्थ हैं ।

क्यों?

आखिर ऐसे भी न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आप ही लोगों ने संस्तुति की होगी ना। माननीय मुख्य न्यायाधिपति महोदय, आखिर आप के आंसू संख्या को ले कर क्यों निकले, उन के कार्य व ईमानदारी व पवित्रता की गुणवत्ता को ले कर क्यों नहीं निकले ?

कुछ और भी प्रश्न हम अधिवक्ताओं के मन में उमड़ घुमड़ कर रहा जाता है। वह यह कि क्या न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चयन का पूरी क्षमता और अधिकार न्यायाधीशों में ही है, और यदि है तो ऐसा लगता है कि जिस मानदंड से यह किया जा रहा है वह मानदंड ही खराब है। वैसे तो सैकड़ों उदहारण दिए जा सकते हैं। लेकिन एक ही उदाहरण यहां देना चाहूंगा। लखनऊ के एक पूर्व न्यायाधीश, जिन का नाम लेना उचित नहीं होगा परंतु लखनऊ के किसी भी अधिवक्ता से पूछा जाए तो वह नाम ले लेगा, उन में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने की योग्यता, उन की सत्यनिष्ठा, उन की ईमानदारी में क्या कमी थी। इस का उत्तर पूरे उत्तर प्रदेश का अधिवक्ता ढूंढ रहा है। सिवा इस के कि किसी एक न्यायाधीश के अहंकार को उन्हों ने ठेस पहुंचा दी होगी।  पहले जब नियुक्तियां शासन से संदर्भित वकीलों में से होता था तो उच्च न्यायालय के बाक़ी के अधिवक्ता प्रसन्न हो जाते थे कि नियुक्ति पाने वाले अधिवक्ता की हज़ारों हज़ार फाइलें अन्य अधिवक्ताओ में बंट जाएंगी परंतु अब ऐसे नामों की संस्तुति क्यों की जाती है जिन के पास न्यायाधीश बनते समय एक भी प्राइवेट केस नहीं होता है तो बंटेगा क्या ?

क्या इन सभी विषयों पर भी कभी आप के आंसू निकलते हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर मैं स्वयं से पूछता हूं पर नहीं मिलता है। और जब उत्तर नहीं मिलता है तो मेरे आंसू निकल ही आते हैं । और मुझे पूरी उम्मीद है की मेरी ही तरह उन लाखों-लाख अधिवक्ताओं के भी आंसू  निकल आते होंगे जो इस व्यवसाय से जुड़े हैं ।

[ इंद्र भूषण सिंह , एडवोकेट से 09415011163 पर संपर्क किया जा सकता है ]

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