Sunday, 31 July 2016

सरलता और साफगोई की एक प्राचीर नीलाभ

दयानंद पांडेय 

 शिमला के एक कार्यक्रम में हम दोनों 


नीलाभ की आभा में एक तरलता थी जो बांधती हुई बहती थी । आत्मीयता , निजता और खुलेपन की एक त्रिवेणी  थी जो बांध लेती थी अनायास । हर किसी को । बिना किसी भूमिका के । इलाहाबाद के संगम की सी सरलता , शालीनता और सौम्यता उन में जैसे गश्त करती थी । [ गो कि लोग उन्हें अक्खड़ भी कहते रहे हैं , पर मुझे उन में यह तत्व नहीं मिला । ] हिंदी में इस तरह खुले लोग कम ही मिलते हैं , किसी होलडाल की तरह बंधे लोग , अहंकार में अकड़े लोग ज़्यादा मिलते हैं । लेकिन नीलाभ के पास होलडाल ही नहीं था , अहंकार ही नहीं था , इस लिए खुल कर मिलते थे । बीते बरस पहाड़ों की रानी शिमला में मुझे वह मिले थे । लगता था कितने बरसों से मुझे जानते हैं । तरलता में डूबी दो हसीन शाम उन के साथ गुज़री थी । एक शाम शाम विष्णु नागर भी साथ रहे ।  नीलाभ की भाषा , उन का वाचन , चमकता हुआ उन का वाक्य विन्यास , उन का अध्ययन जैसे मुझे मथता रहता है। सरलता और साफगोई की भी एक प्राचीर होती है , यह नीलाभ से मिल कर ही जाना । उन के दांपत्य जीवन के एक अप्रिय प्रसंग पर एक लंबा लेख भी उन्हीं दिनों लिखा था मैं ने । जो विवादास्पद होने के कारण लगातार चर्चा में था । लेकिन नीलाभ ने उस मुलाकात में भूल कर भी उस लेख का ज़िक्र नहीं किया । न कोई मलाल , न कोई कड़वाहट , न कोई शिकवा, न शिकायत , न कोई आह । न आदि , न इत्यादि। 

कहां हैं हिंदी में ऐसे  लोग अब ?  

कार्यक्रम के बाद माल रोड से हम लोग होटल  के लिए टैक्सी लेने के लिए पैदल ही चले ।  नीलाभ , विष्णु नागर और मैं । मशोबरा के एक होटल में हमें ठहराया गया था । जो शिमला शहर से थोड़ी दूरी पर था । रिज होते हुए रास्ते में पड़ रही दुकान दर दुकान घूमते नीलाभ जाने क्या तलाश रहे थे । खैर थोड़ी देर बाद विष्णु नागर ने मुस्कुरा कर इस बाबत पूछा तो वह बच्चों की सी विजयी मुस्कान के साथ बोले , '  मिल गई । ' वह अपनी पसंदीदा टी बैग का डब्बा हाथ में लिए हुए थे । होटल पहुंच कर पता चला कि वह अपने झोले में अपनी चाय , अपनी शराब और अपनी ग्लास सर्वदा रखते हैं । जैसे अपने गले में अंगोछा । किसी के भरोसे नहीं रहते , अपनी व्यवस्था ख़ुद किए रहते हैं । ऐसा उन्हों ने एकाधिक बार बताया । खैर होटल के कमरे में पहुंच कर उन्हों ने अपने झोले से तहमद निकाली। पहनी । अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए वह लुक ऐसे हो रहे थे गोया पंजाबियत और मुसलमानियत का कोलाज हों । बाथरुम गए । हाथ मुंह धो कर निकले और वेटर को बुला कर ग्लास पानी और कुछ खाने के लिए मंगा कर जाम बनाने लगे । खिड़की से पहाड़ ताकते हुए वह विष्णु नागर और मेरा जाम बना कर अपना जाम उन्हों ने अपनी झोले वाली ग्लास में ही बनाया । मेरे मुंह से निकल गया , लाहौरी ग्लास में पटियाला पैग ! वह बड़ी देर तक यह बताते रहे कि ग्लास भले थोड़ी बड़ी है , पर लाहौरी नहीं है । पैग भी बड़ा है , पर पटियाला नहीं है । वगैरह-वगैरह । फिर वह अपने बी बी सी के दिनों में डूब गए । विष्णु नागर के जर्मनी रेडियो और जाने किन-किन लोगों के दिनों में डूब गए । अपने अनुवाद कार्यों की चर्चा , अपनी कविता और धर्मयुग में नामवर सिंह द्वारा लिखी गई अपनी कविता पुस्तक की समीक्षा की चर्चा पर आ गए । दिल्ली के लोगों , इलाहाबाद के लोगों पर भी तारीफ़ , निंदा आदि भाव में हम लोग बतियाते रहे । लखनऊ में गोरखपुर की कात्यायनी की बहुत तारीफ़ करते हुए उन के अनथक कामों की चर्चा में डूब गए । जनचेतना से अपने जुड़ाव की लहक में खो गए । एक बोतल ख़त्म हो गई तो झोले से उन्हों ने दूसरी निकाल ली । कहने लगे कि कम नहीं पड़नी चाहिए , इस लिए मुकम्मल इंतज़ाम रखता हूं । वह शराब की बोतल हाथ में लिए थोड़ी देर ऐसे बतियाते रहे गोया उन की बाहों में महबूबा हो , बोतल नहीं । पहले रायल स्टैग थी । अब यह सोलन नंबर वन थी । सोलन नंबर वन और सोलन शहर की ख़ासियत और उस की तमाम तफ़सील में वह आ गए। सोलन , मोहन मीकिन और लखनऊ । शाम बीत कर आधी रात में तब्दील होने लगी । अंत में इंटरकाम पर फ़ोन आया कि डिनर का समय ख़त्म होने को है । आप लोग अब आ जाएं । बाद में दिक़्क़त होगी । मयकशी छोड़-छाड़ कर हम लोग भोजन के लिए चल दिए । 

भोजन के बाद लोग सोने जा रहे थे पर हम लोग होटल से बाहर निकले चहलक़दमी के लिए । बिलकुल आवारों की तरह । इधर-उधर की बतियाते हुए । सड़क बराबर थी । मतलब चढ़ाई-उतराई नहीं थी । सुरुर , वादी और ठंडी हवा थी । थोड़ी दूर तक स्ट्रीट लाईट ने साथ दिया । फिर गुम होने लगी आहिस्ता-आहिस्ता । जब तक रौशनी की परछाईं मिली हम लोग बतियाते हुए , घने पेड़ों के बीच , अंधेरा चीरते हुए बढ़ते रहे । रौशनी बिलकुल ख़त्म हो गई । घुप्प अंधेरा आ गया । विष्णु नागर  बोले , अब लौटना चाहिए । नीलाभ  बोले , थोड़ा और चलो यार ! लेकिन ज़रा सा और चलने के बाद विष्णु नागर हम दोनों का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोले, ' बस , अब वापस चला जाए !' नीलाभ हंसते हुए बोले , ' चलो भाई तुम्हारी भी मान लेते हैं ।'  दूसरी सुबह विष्णु नागर दिल्ली वापस चले गए । उन को विदा करने के बाद हम लोग कमरे में लौटे तो नीलाभ कहने लगे , ' विष्णु ने आज मेरी नींद ख़राब कर दी । भोर में ही उठ कर अंधेरे में खटर-पटर करने लगा । मैं ने पूछा , ' क्या हुआ ? तो कहने लगा कि ए सी लगता है बंद है । उमस हो रही है । ए सी का स्विच खोज रहा हूं। ' तो मैं ने कहा , ' कंबल हटा कर सो जाओ ! यहां ए सी नहीं है । यह दिल्ली नहीं , शिमला है ! ' हंसते हुए कहने लगे बताईए , ' शिमला में ए सी और ए सी का स्विच खोजना भी कोई काम है ? लेकिन हिंदी कवि ! कुछ भी कर सकता है !'   

दिन में हम लोग कार्यक्रम छोड़-छोड़ कर शिमला का माल रोड और रिज वगैरह बेसबब घूमते रहे । बतियाते रहे । और वह घूम-फिर कर विष्णु जी का भोर में ए सी चलाने के लिए स्विच खोजना रह-रह किसी संपुट की तरह याद करते रहे । अपने कैमरे से वह जब तब फ़ोटो भी तमाम खींचते रहे थे । वह कवि , गद्यकार और अनुवादक ही नहीं फ़ोटोग्राफ़र भी बहुत अच्छे थे । खैर , दूसरी शाम भी हम लोग देर तक साथ बैठे । रस रंजन के बीच उन का ठहर -ठहर कर बतियाना भूलता नहीं । उन की भाषा पर तो मैं पहले ही से फ़िदा था , उन के अध्ययन पर भी अब फ़िदा हो गया था । उन की मुहब्बत और मुहब्बत भरी आंखों में कैद हो कर रह गया था । उन की बातों में तो चाव था ही , आंखों में भी अजब खिंचाव था । उन की रंगी हुए खिचड़ी बाल पर सफ़ेद दाढ़ी गोया कोई जाल थी जो बांध-बांध लेती थी । बात करते-करते वह अचानक अपना मोबाईल नंबर देते हुए बोले , मेरा नंबर सेव कर लीजिए । और कभी दिल्ली आईए तो घर आईए। फिर बैठेंगे । बतियाएंगे । उन्हों ने अपना नया पता भी दिया । अगली सुबह वह भी शिमला से चले गए । मुझे एक दिन और रुकना था , और शिमला घूमना था । अगले दिन लौटना था । बाद के दिनों में भी उन का फ़ोन आता था , दिल्ली आने के इसरार भरा । मुलाकात के वायदे में लिपटा हुआ । फिर अभी जब वह भूमिका जी के साथ फिर एक हुए तो एक शाम उन का फ़ोन आया । कहने लगे , आप तो आए नहीं दिल्ली पर आप के लिए फिर एक स्कूप है । वह बतियाते हुए ख़ुश ऐसे थे गोया किसी बच्चे का उस के पसंदीदा स्कूल में एडमिशन हो गया हो । उन की आवाज़ में चहक सी थी । यह भूमिका द्विवेदी से पुनर्मिलन की चहक थी । वह चाहते बहुत थे कि भूमिका जी और उन के फिर से एक हो जाने पर मैं ज़रूर लिखूं । वह कहते भी थे कि हमारे फिर से एक होने में  आप के उस लेख का बड़ा हाथ है । उसे पढ़ कर बहुत से मित्रों ने मुझे न सिर्फ़ एक होने की सलाह दी बल्कि दबाव भी बनाया । मैं जी - जी , बिलकुल- बिलकुल कहता रहा उन से लेकिन जाने क्यों उन के इस पुनर्मिलन पर कुछ लिख नहीं पाया । अफ़सोस जीवन भर रहेगा उन के इसरार पर भी उन के और भूमिका जी के इस पुनर्मिलन पर न लिख पाने का । क्या पता था कि वह इस जल्दी में हैं , कूच कर जाने की जल्दी में हैं । वह तो पहले ही की तरह ख़ुश हो कर भूमिका जी के साथ अपनी फोटुएं फिर से फ़ेसबुक पर चिपकाने लगे थे । क्या पता था कि वह अंधेरी यात्रा की इस जल्दी में हैं जिस यात्रा में घुप्प अंधेरे में कोई विष्णु नागर हाथ पकड़ कर नहीं कहेगा कि ,  ' बस , अब वापस चला जाए !' और हंसता हुआ कोई नीलाभ  बोले , ' चलो भाई तुम्हारी भी मान लेते हैं ।'

पर अब यह कहा-सुना सिर्फ़ एक कल्पना ही है । तब तो मान गए थे लेकिन , इस बार मान कहां पाए नीलाभ ? 

रोका तो बहुत होगा । कम से कम भूमिका द्विवेदी ने तो रोका ही होगा । ज़रुर रोका होगा ।

अब जब नीलाभ चले गए हैं तो उन की वह आत्मीय मुस्कान मन में आ-आ कर बैठ जा रही है । मुस्काते हुए खड़े हो जा रहे हैं । हिंदी में इतनी आत्मीय मुस्कान मैं ने अमृतलाल नागर में ही देखी और बांची थी । नीलाभ की बातें जैसे इलाहाबादी अमरुद थीं । इलाहाबादी अमरुद की महक , पंजाबियत में डूबी तबीयत और बातचीत में नफ़ीस उर्दू की सदाक़त । अदभुत अध्ययन और उस को माज कर सरलता के साथ बातचीत में रख देने की तरबियत । 

नीलाभ के साथ मैं , डाक्टर अरविंद कुमार और मितवा जी
नीलाभ को पहले हम उपेंद्रनाथ अश्क के पुत्र के रुप में ही जानते थे । नीलाभ नाम से ही अश्क जी अपना प्रकाशन भी था । फिर उन की कविताओं से परिचित हुए । उन की बी बी सी की बातें भी कानों तक आईं । लेकिन हम उन के मुरीद हुए तब जब उन के संस्मरण पढ़े । पहला संस्मरण उन के इलाहबाद आने का था । कैसे उपेंद्रनाथ अश्क अपनी गृहस्ती ले कर इलाहाबाद में पड़ाव डाल रहे हैं । गोया कोई नाविक लंगर डाल रहा हो । कोई सेनापति अपना लश्कर ले कर आया हो । जैसे कोई पथिक किसी पेड़ के नीचे सुस्ता रहा हो । और बालक नीलाभ का बचपन अपनी मां की गोद में बैठा चुपके-चुपके झांक रहा हो । निहार रहा हो इलाहाबाद को । इक्के पर बैठा इठलाता नीलाभ का बचपन इलाहाबाद के खुरदरेपन को , अपने पिता को , पिता के लंबे चौड़े परिवार को , पिता की पत्नियों को , पिंजड़े और असबाब को सब को ही मन ही मन सहेज कर के, कपड़े की तरह तह कर अपनी यादों में रखता जा रहा हो । पिता के प्यार को , उस की पुलक को पुकारता जा रहा हो । नीलाभ बड़ा हो रहा है , पिता से दूरी बढ़ रही है , संवादहीनता का एक छोर भी आ जाता है लेकिन पिता से आत्मीयता , आत्मीयता का संगम नहीं छूटता । पिता न हों गोया लोहे का कोई बड़ा फाटक हों , घर को न छोड़ते हों । पिता से तनाव के इतने बारीक व्यौरे परोसे हैं नीलाभ ने कि पूछिए मत । रवींद्र कालिया के एक संस्मरण में लेकिन उसी पिता का पक्ष लेने के लिए नीलाभ दूसरों से मरने-मारने पर आमादा हैं । जूते निकल लेते हैं । पिता उपेंद्रनाथ अश्क और उन की पत्नियों और अलग-अलग माताओं के बच्चों का भी बहुत बारीक विवरण नीलाभ परोस गए हैं । 

नीलाभ के लिखे कई सारे संस्मरण मेरी यादों में हैं । लेखकों , उस्तादों , पिता के मित्रों और फिर अपने मित्रों तक भी वह आहिस्ता-आहिस्ता दाखिल करवाते चलते हैं । लेकिन एक संस्मरण है उन का नाव से यमुना यात्रा का । नौका विहार का । अल्ल सुबह से देर रात तक की एक दिन की यात्रा । जाना और लौट आना । तरह-तरह के पड़ाव हैं , लोग हैं , यमुना का जल है , नाव है नाविक है , लिट्टी चोखा है और सुमित्रानंदन पंत की कविता है । विवरण जैसे लासा है , चिपक-चिपक जाता है , मुझ जैसे पाठक से । भाषा उन के हुजूर में है । सुमित्रानंदन पंत की कविता का ऐसा दुर्लभ उपयोग मैं ने अन्यत्र कभी , कहीं और नहीं देखा , जैसा इस संस्मरण में देखा। कि सुमित्रानंदन पंत भी कभी वह विवरण पढ़ लें , वह संस्मरण पढ़ लें मय अपनी कविता के उद्धरण के तो कह उठें वाह ! हम तभी से यह पढ़ कर ही नीलाभ से इश्क कर बैठे । उन की भाषा से इश्क कर बैठे । मर मिटे हम उन की भाषा पर । रश्क हुआ इस यात्रा से और तय किया कि अब हम भी यह यमुना यात्रा करेंगे । दुर्भाग्य कि अभी तक लाख योजना के यह मुमकिन नहीं हो पाया है । पर सपना अभी टूटा नहीं है । न ही वह इश्क । ख़ैर यह पढ़ कर मंगलेश डबराल से नीलाभ का फ़ोन नंबर मांगा और इलाहाबाद में उन्हें फ़ोन कर बात की । अपने इश्क का इजहार किया । वह हंस पड़े । बाद में उन्हों ने उस संस्मरण को पुस्तक रुप में भी मुझे भेजा । जिस में नामवर सिंह की भाव विभोर टिप्पणी भी है । बाद में नीलाभ के और भी संस्मरण पढ़े । हालां कि इलाहाबाद में संस्मरणों के एक ही मास्टर हुए वह हैं रवींद्र कालिया । इलाहाबाद ही क्या हिंदी में कोई दूसरा मास्टर नहीं है संस्मरणों में रवींद्र कालिया सरीखा । लेकिन संस्मरणों में जो भाषा और खुलापन नीलाभ के पास है वह किसी भी के पास नहीं है । रवींद्र कालिया के पास भी नहीं । लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि संस्मरणों के यह दोनों जादूगर कुछ ही दिनों में हम से बिछड़ गए हैं । कालिया के संस्मरणों में साफगोई है , निर्मम ईमानदारी है लेकिन नीलाभ के संस्मरणों में जो भावनात्मक उद्वेग है , तरलता है , निश्छलता और भावुकता है वह अविरल है । नीलाभ के यहां वह जोड़-घटाना या वह गुणा-भाग नहीं है कि फला क्या कहेगा या फला से कभी काम पड़ेगा तो यह दबा दो , वह उभार दो । न , ऐसा कोई छल-कपट नहीं था । दिन है तो दिन है , रात है तो रात है । हीरा है तो हीरा , कमीना है तो कमीना । आप को भला मानना हो भला मानिए , बुरा मानना है तो बुरा मान जाइए । पर नीलाभ को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था । लेकिन वह आईने  की तरह थे , कोई उन्हें ज़रा भी बेशऊरी से छू दे तो वह टूट जाते थे । टूट कर कांच हो जाते थे । और लोगों को चुभने लगते थे । जीवन में भी , लेखन में भी , फ़ेसबुक पर भी । जाने कहां - कहां । वह जैसे खुली किताब थे । कोई  भी उन्हें पढ़ सकता था , जान सकता था । उन के पास जैसे छुपाने के लिए कुछ था ही नहीं । न अपनी मिठास , न अपनी कड़वाहट , न अपना कमीनापन । अभी जाते-जाते भी जिस तरह कुछ प्रायश्चित लिखते हुए गए हैं , वह अविरल है । राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी और उन के बेटे से उन के माफ़ीनामे की गूंज अभी मन में शेष ही थी कि पत्नी भूमिका द्विवेदी और भूमिका की मां के नाम लिखा उन का माफ़ीनामा विचलित कर गया । उन की अपनी ग़लतियों की गवाही ने , उन के नाम पर लगे दाग़ बहुत हद तक साफ कर दिए थे । उन के विचलन और भटकाव को माफ़ कर गए । लेकिन कुछ अतिवादी विद्वान नीलाभ के इस ईमानदार प्रायश्चित पर भी हज़ारों प्रश्न ले कर उपस्थित हो गए ।  घाव पर नमक और मिर्च छिड़कते हुए । तो अफ़सोस बहुत हुआ । इस लिए भी कि नीलाभ में आत्म-मुग्धता भी नहीं थी , अपने तमाम पूर्ववर्तियों और समकालीनों की तरह ।

शायद इसी लिए साहित्य में तो वह सधे हुए अनुवादक थे ही , अपने जीवन में दुःख-सुख के भाषाई अनुवाद भी उन के व्यवहार में समाहित थे । वह जैसे खुली किताब थे । अपने दैनंदिन जीवन को भी नहीं छुपाते थे । अपना मान , अपना अपमान भी जैसे भाषा  में घोल कर शिव की तरह पी जाते थे । अपने विचलन , अपने भटकाव भी वह ख़ुद ही बताते फिरते थे । नहीं , लोगों के जीवन में जाने क्या-क्या गुज़र जाता है , स्याह-सफ़ेद होता रहता है , लोग लगातार उसे छुपाते , ढकते , झूठ बोलते घूमते रहते हैं ।  नीलाभ ऐसा नहीं करते थे । अपनी ग़लतियां भी इस पुलक से , इस प्यार से , इस मुहब्बत से वह  बता  बैठते थे गोया कोई नन्हा बच्चा अपनी शैतानी , अपनी पूरी मासूमियत से क़ुबूल कर रहा हो । वह गाली-गलौज करते हुए लोगों से लड़ भी लेते थे । लेकिन छूटते ही , ग़लती समझ आते ही , माफ़ी  मांगने में भी देरी नहीं लगाते थे । ऐसा कम ही लोग कर पाते हैं । नीलाभ यह बार-बार कर लेते थे । वह अभी तो आप लौंडे हैं कह कर किसी लौंडे लेखक या नौसिखिया लोगों को भी नहीं टालते थे । फ़ेसबुक पर मैं ने देखा कि जिन को एक वाक्य ठीक से लिखने की तमीज़ नहीं है , अध्ययन नहीं है , धैर्य नहीं है , उन्हें भी वह अपनी भरसक  स्नेहवत बतिया कर , बर्दाश्त कर निभाते भी थे । उन लोगों से भी चोंच लड़ा लेते थे , बराबरी से , जो उन से उम्र और लेखन दोनों में लौंडे थे । और कि वह लौंडे उन से ही क्या सब से ही बड़ी बेअदबी से पेश आते हैं । आम का इमली , इमली का बबूल बनाते फिरते रहने की जिन्हें बीमारी है । और कि यही उन की हैसियत भी । भूमिका द्विवेदी से उन के दांपत्य विवाद के बाद कुछ ऐसे ही लौंडों ने उन पर बिलो दि बेल्ट भी आरोप प्रत्यारोप किए  । लेकिन नीलाभ ने धैर्य नहीं खोया । शालीनता और तर्क के साथ उपस्थित रहे । 

गंभीर से गंभीर विवाद में भी अपनी बात रखते समय वह अपनी तल्खी और तुर्शी में शालीनता का , भाषा की मर्यादा का निर्वाह नहीं छोड़ते थे और लोग निरुत्तर हो जाते थे । बीते बरस उदय प्रकाश ने अनिल जनविजय की फ़ेसबुक वाल पर मेरा नाम ले कर , मेरे लिए हिकारत भरी भाषा में एक अभद्र टिप्पणी लिखी । अपनी एक महिला मित्र के फ्रस्ट्रेशन के दबाव में आ कर । वह महिला मित्र जो फ़ेसबुक पर फर्जी आई डी बना कर लोगों से अनर्गल बात करने , अनर्गल आरोप लगाने के काम में निरंतर सक्रिय रहती है । बीमारी की हद तक । अभी भी यह बीमारी उस महिला की गई नहीं है । ख़ैर जब उदय प्रकाश जो कि तब तक मेरे बरसों पुराने मित्र थे , दिनमान के समय से , ने अपनी इस महिला मित्र के उकसावे में मेरे लिए अभद्र टिप्पणी लिखी तो प्रतिवाद में मैं ने उदय प्रकाश की हिप्पोक्रेसी और आत्म-मुग्धता पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक लंबा लेख ही लिख दिया । इस लेख के रुप में उन के सामने एक आईना रख दिया । बहुत से लोग वाद-विवाद-संवाद में आए । उदय प्रकाश या उन की उस मगरुर और बीमार महिला मित्र की तरफ से लेकिन अभी तक कोई प्रतिवाद नहीं आया , अब क्या आएगा भला । हां , अकेले अनिल जनविजय उदय प्रकाश की पैरवी में आ खड़े हुए । अनिल जनविजय की पैरवी के प्रतिवाद में नीलाभ आए । देखिए ज़रा अनिल जनविजय और नीलाभ की टिप्पणियां : 


  • उदय मेरा बहुत गहरा दोस्त है। कभी-कभी असहज हो जाता है। लेकिन दोस्त तो दोस्त होता है। मैंने दोस्ती में ही भारत यायावर को थप्पड़ मार दिया था। लेकिन वह मेरे उस थप्पड़ को चुपचाप पी गया। बाद में मुझे ही दुख हुआ। लेकिन हमने कभी इस बारे में बाद में कोई बात नहीं की। भारत आज भी मेरा वैसा ही गहरा दोस्त है। मैं उदय के घर पड़ा रहता था। उन दिनों मैं बेरोज़गार था। उदय ही मुझे खाना खिलाता था। उदय ने ही मेरी जमानत दी थी। आपात्काल में सरकार-विरोधी सक्रियता के कारण एक मुकदमे में फंसा हुआ था मैं। उदय ख़ुद भी कोई काम नहीं करता था और उदय की पत्नी को मुंह दिखाई में मिली गिन्नी बेचकर जैसे-तैसे जीवन के दिन खींचे थे। उसी उदय ने फिर एक दिन मुझे अपने घर से निकाल दिया था। मैं मास्को से आया था। उदय से मिलने गया। उदय को गलतफ़हमी हो गई और उसने मुझे घर में नहीं घुसने दिया। लेकिन हम आज भी दोस्त हैं। गहरे दोस्त हैं। दोस्ती में इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, लेकिन दयानन्द जी, आपकी तरह पलटकर वार मैंने नहीं किया था। क्योंकि मैं उदय का दोस्त था और दोस्त हूं। आप उदय के दोस्त नहीं थे और न कभी बनेंगे। बाक़ी आप जो हैं, सो हैं। पुरस्कार तो नागार्जुन ने भी इन्दिरा गांधी से लिया था। उन्हीं इन्दिरा गांधी से, जिन्होंने आपात्काल लगाया था और जिन्हें बाबा अपनी कविताओं में लताड़ते रहे थे। क्या नागार्जुन के इन्दिरा गांधी से पुरस्कार लेने पर भी ऐसा कोई लेख लिखा गया है? मैंने तो नहीं देखा। न जाने कितना बड़ा गुनाह कर दिया है उदय ने कि किसी आर०एस०एस० के नेता से पुरस्कार ले लिया? सब उदय विरोधी बस इसी एक बात को गाते रहते हैं। उदय की रचनाओं पर बात करिए और तब बताइए कि आप कहां पर हैं?

 - अनिल जनविजय

  • अनिल तुम्हारी बात ऐसी ही है, जैसे कोई कहे कि दाऊद इब्राहिम होंगे डौन पर मेरे साथ उनके अच्छे सम्बन्ध हैं. उदय प्रकाश कभी-कभी नहीं अक्सर असहज ही रहते हैं. ऊपर से वे एक उलटे हीनता बोध के मारे हुए भी हैं. योगी के हाथ से वे पुरस्कार न लेते तो मैं कभी समझ न पाता कि यह योगी ठाकुर है, मैं तो उसे बांभन समझा था. जब इसकी आलोचना हुई तो उदय ने ऐतराज़ करने वाले सभी लोगों को चुन-चुन कर गालियां दीं और ब्राहमणवादी कहा. जहां तक उदय की रचनाओं पर बात करने का सवाल है, डियर, तुम लोगों की आंख पर पट्टी बंधी है, वरना तुम्हें "रामसजीवन की प्रेम कथा" और "पाल गोमरा का स्कूटर" जैसी रचनाओं का खोट नज़र आ जाता. और "तिरिछ" का सच जाननेके लिएमार्केज़ के "क्रौनिकल औफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड" को पढ़ लो. बाक़ी, मेरा तो अब यह पक्का मानना है कि हिन्दी के लेखकों में दम नहीं रहा, वरना उदय की रक्षा करने के लिए नागार्जुन को न घसीट लाते. नागार्जुन की भी आलोचना हुई थी पर उन्होंने, और मैं उद्धृत कर रहा हूं, कहा था, "पुरस्कार क्या इन्दिरा गान्धी के बाप का था." बस. किसी ऐतराज़ करने वाले को बुरा-भला नहीं कहा था. इसलिए दोस्ती उतनी निभाओ जितनी ज़रूरत हो. और भी हैं जिनकी स्मृति तुम जितनी ही अच्छी है. ज़रा कभी देवी प्रसाद मिश्र से पूछना कि उदय ने उनके साथ कैसा प्रेम और नफ़रत भरा सुलूक़ किया था.

- नीलाभ

नीलाभ ऐसे ही थे । यह और ऐसे तमाम मौके याद आते हैं जहां नीलाभ पूरी सख़्ती से अपनी बात कहते याद आते हैं । नीलाभ अपने तमाम समकालीनों की तरह न पलटी मारते थे , न चुप्पी साधते थे , न हिप्पोक्रेसी के भंवर में फंसते थे । उन का लिखा एक संस्मरण याद आता है । इलाहाबाद से वह दिल्ली गए हुए हैं । विष्णु नागर के घर कुछ कवि लेखक मिलते हैं । विष्णु जी की किताब पर जश्न है । रसरंजन में  विष्णु खरे से नीलाभ का कुछ विवाद भी हो जाता है । जाड़े की रात है । देर हो गई है । लेकिन वह अकेले उस सर्दी की रात मंडी हाऊस जहां कि वह ठहरे हुए हैं , लौट रहे हैं । वहां उपस्थित सभी अभिन्न मित्रों को लानत - मलामत भेजते हुए कि इस घोर सर्दी में इतनी रात गए किसी ने अपने घर में ही रुकने का आग्रह क्यों नहीं किया ? जब कि सभी मित्रों के घर वहीं आस-पास हैं । तो क्या सब की आत्मीयता सूख गई है ? बदलती दिल्ली ने लोगों को इतना बदल दिया ? तब जब कि यही दोस्त एक समय नीलाभ की मेहमाननवाज़ी के लिए आतुर रहते थे । आहत भाव में लिखा उन का यह संस्मरण भूल नहीं पाता हूं। ज्ञानरंजन पर लिखा उन का संस्मरण , बी बी सी के उन के संस्मरण सब यादों में जैसे तैर रहे हैं । उन की नफ़ीस उर्दू में भीगी भाषा और आत्मीयता में छलकती बातें । उन की बातों में पंजाबी , उर्दू और अवधी का जो संगम था , जो ठाट था , अदभुत था । खांटी देसी आदमी , गले में अंगोछा लपेटे , आंखों-आंखों में प्यार का दरिया बहाते ।  लगता ही नहीं था कि यह आदमी इतनी अच्छी अंगरेजी का भी मालिक है । बरसों विलायत में रह चुका है । लेकिन  जब कभी अंगरेजी की नाव पर बैठ कर वह बतियाते थे तो पूछिए मत । अपने अनुवाद की गमक में वह ख़ुद  भी डूब जाते थे ।

हम भी डूब गए थे जब बीते बरस शिमला में उन से अचानक भेंट हुई एक कार्यक्रम में । अब तक डूबे हुए हैं । अब तो बस उन की यादें हैं । उन का लिखा हुआ है । पर वह ही नहीं हैं । नीलाभ अभी तो आप से दिल्ली में मिलना शेष था । कहना चाहता हूं कि भाषा भले आप के हुजूर में थी नीलाभ , हम तो आप के हुजूर में थे , हैं और रहेंगे । आप की इस एक लंबी कविता के एक खंड को पढ़ रहा हूं आप की अनुपस्थिति में तो आप के होने का अर्थ और समझ में आता है । अनवरत आप द्वारा पिये गए जहर और उस का ज़ख्म समझ में आता है । उस की थकन , अकेलापन , उदासी और अपमान की अनवरत यात्रा जो हम सभी के जीवन में उपस्थित है । क्रमश: । प्रेम की तलाश में । 

अपने आप से लंबी बहुत लंबी बातचीत



उस जलते हुए ज़हर से गुज़र कर

तुम्हें विश्वास हो गया है:

जो तुम जानते हो

उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे लिए उसका महत्व है

    जो तुम महसूस करते हो

आग की सुर्ख़ सलाख़ों की तरह

बर्फ़ की सर्द शाख़ों की तरह


तुम्हें मालूम है: जब कभी तुम्हारा सच

उनकी नफ़रत और शंका

   और अपमान से टकराता है -

     टूट जाता है


इसी तरह टूट जाता है हर आदमी निरन्तर

भय और आतंक, अपमान और द्वेष में रहता हुआ


सच्ची बात कह देने के बाद

अपने ही लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता

     सहता हुआ।

और अब तुम थके कदमों से

   अपने घर की तरफ़ लौटते हो

और जानते हो कि

तुम्हारे जलते हुए और असहाय चेहरे पर कोई पहचान नहीं।

अब तुम लौटते हो। अपने घर की तरफ़। थके कदमों से।

   अकेले...और उदास...और नाकामयाब...

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