व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां
-शन्नो अग्रवाल
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[शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ
पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और
व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक
और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी
इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं
और सरोकारनामा
पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव
से लिख भेजती
हैं । ]
शन्नो अग्रवाल
अब
तक मैं दयानंद जी की 25 कहानियों में गोता लगा चुकी हूं ...यानि उन्हें पढ़
चुकी हूं l जिन में कुछ प्रेम कहानियां , कुछ पारिवारिक जीवन और कुछ व्यवस्था
पर हैं l आप के लेखन में समकालीन जीवन के रहन-सहन और उनकी समस्यों का विवरण
बड़े खूबसूरत और व्यवस्थित ढंग से देखने व पढ़ने को मिलता है l आपकी ये सात
कहानियां व्यवस्था पर हैं l अगर जीवन में व्यवस्था सही ना हो तब भी बहुत
समस्या हो जाती है l
व्यवस्था चाहें इंसान के अपने घर में हो या देश के
प्रशासन में अगर ये सही नहीं है तो जीवन में उथल-पुथल मच जाती है l और
अफसरों की तानाशाही का असली रूप भी अगर कोई अच्छी तरह जानना या देखना चाहे
तो उसे दयानंद पांडेय जी के उपन्यास व कहानियों को पढ़ कर ही अंदाज़ा हो सकता
है l अव्यवस्था किसी इंसान की कितनी मट्टी पलीद कर सकती है इस पर आप ने कई
कहानियां लिखी हैं l किसी जगह जाने-आने पर उस जगह की व उस से संबंधित
अन्य व्यवस्थाएं ठीक ना होने से एक इंसान के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है
और वो समस्याएं उस की क्या हालत कर देती हैं इस का दयानंद जी की इन कहानियों
में अच्छा चित्रण है l एक लेखक की हैसियत से आप की कलम ने इन कहानियों में
किस तरह व्यवस्था पर रोशनी डाली है इस पर हम एक-एक कर नज़र डालेंगे :
हम
सभी जानते हैं कि इंसान के जीवन में व्यवस्था से क्या प्रभाव पड़ता है ।
अगर व्यवस्था सही ना हो तो चाहें इंसान हो या जानवर उस का हुलिया ही बदल
जाता है । अव्यवस्था एक गैरतमंद इंसान को कितना बेगैरत कर देती है और उस
की
कितनी मट्टी पलीद कर देती है इस बात का अहसास इस कहानी 'मुजरिम चांद ' को
पढ़ कर होता है। देश का प्रशासन कितना संवेदनहीन है सोच कर मन भयभीत हो उठता
है। नेता-अभिनेता सभी को मीडिया से गरिमा व ग्लैमर की अपेक्षा रहती है
और इन के स्वागत व चमचागिरी के लिये प्रयोजक लोग इन के चरणों में बिछे
रहते
हैं पर मीडिया के लोगों को इन लोगों से क्या मिलता है? समय-असमय का ध्यान
ना रखते हुए रिपोर्टर व पत्रकार जब किसी समारोह व सम्मेलन के स्थल पर अपनी
ड्यूटी करने पहुंचते हैं तो इन लोगों के पीछे भागते हुए और इन का कवरेज
लेते हुए उन की क्या हालत हो जाती है इसे हर कोई नहीं जानता। दयानंद
जी ने एक पत्रकार के संघर्षमय जीवन की हकीकत को अपनी इस कहानी में अपने
मुख्य पात्र राजीव के जरिये बखूबी दिखाया है । मीडिया के कर्मचारियों का
जीवन भी कितना अजीब होता है कि जो लोग बड़े-बड़े नेताओं आदि का इंटरव्यू लेते
हैं एक दिन उन्हीं के लिए उन की अपनी इज्ज़त पर बन आती है । एक छोटी सी बात
को इतना बढ़ा दिया जाता है कि जेल जाने तक की नौबत आ जाती है । इस कहानी से
विदित होता है कि एक पत्रकार या रिपोर्टर का जीवन इतना आसान नहीं होता
जितना हम सोचते हैं । उन्हें नेताओं व अभिनेताओं पर न्यूज बनाने में पसीने
बहाने पड़ते हैं और कभी-कभार उन्हें बेइंतहा बेइज्जती का भी सामना करना
पड़ता है। जहां हवा का रुख जरा सा बदला नहीं कि शासकीय व्यवस्था ऐसे लोगों
को ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे समझ कर यातनायें देने में कसर नहीं छोड़ती। प्रशासन
में छोटे से ले कर बड़े कर्मचारी तक इनका तमाशा बना कर मजे लेते हैं।
उन की नज़रों में इन की क्या कीमत है इस का इस कहानी को पढ़ कर आइडिया होता
है। दयानंद जी ने देश की तमाम तरह की व्यवस्थाओं पर कई कहानियां लिखी हैं
और ये
कहानी 'मुजरिम चांद ' भी इन में से एक है। प्रेस रिपोर्टर अपने इंटरव्यू
में
किसी नेता, मिनिस्टर या गवर्नर आदि के गुणगान गाते रहें तब तक इनका भला।
लेकिन इन बड़े व्यक्तित्व के लोगों को लेकर धोखे से या अनजाने में ही
अगर किसी पत्रकार या रिपोर्टर से कभी कोई गलती हो गई तो ये लोग बड़ी मुसीबत
में पड़ जाते हैं। इन के साथ बड़ा बुरा सलूक किया जाता है और तब इन के लेने
के देने पड़ जाते हैं । इन की नौकरी तक को खलास किया जा सकता है । प्रशासन
इन के बॉस से शिकायत कर के इन की ऐसी तैसी कर देता है l इन लोगों को काम से
निकलवा देना, इन का डिमोशन करावा देना या फिर नौकरी से ही हाथ धो बैठना या
कहीं और तबादला करवा देना आदि बातों का सामना करना पड़ता है । इन के दंड
भुगतने का तमाशा व्यवस्था में नीचे से ले कर ऊपर तक के सभी अफसर देखते हैं
और ये सब के सब संवेदनहीन होते हैं । एक छोटी सी बात को ले कर किसी पर आरोप
लगा कर उसे इतना गंभीर रूप देते हैं जैसे कि उस से कोई बहुत बड़ा जुर्म हो
गया
हो l और भुगतने वाला इंसान अपने को नंगा महसूस करने लगता है। ऐसी ही
त्रासदी का शिकार हुआ है इस कहानी का नायक राजीव । वह एक दिन अच्छे मूड
में घर से प्रस्थान करता है । टैक्सी में बैठा गांव का प्राकृतिक आनंद
लेते हुए किसी जगह एक गवर्नर का और अभिनेता दिलीप कुमार का इंटरव्यू लेने
जाता है l शायद किसी खराब घड़ी ही निकला है घर से कि जाते ही वह मुसीबत में
पड़ जाता है l समारोह स्थल पर पहुंच कर किस परेशानी में जा कर पड़ेगा इस का
उसे
कोई भान नहीं l राज्यपाल जी के आने की भगदड़ के बीच में उसे टॉयलेट जाना
पड़ता है, वह भी मजबूरी में एक डाकबंगले में l और यहीं से उस की मुसीबत
शुरू हो जाती है l नैचुरल काल आने पर कोई टॉयलेट ढूँढते हुये डाकबंगले आ
जाता है जहां किस्मत से एक पुलिस आफिसर उसे टॉयलेट का इस्तेमाल करने देता
है किंतु ये नहीं बताता कि उस साफ सुथरे टॉयलेट को राज्यपाल के लिये तैयार
किया गया है । एक तरफ राजीव ने नेचुरल काल का प्रेशर दूर किया तो दूसरी
तरफ बाहर निकलते ही उसे किसी और प्रेशर ने दबोच लिया । यानि उसे एक
पुलिस अधिकारी पकड़ लेता है और अपने सवालों से उस का अपमान करता है । राजीव
को पता नहीं था कि उस ने अनजाने में खास तौर से राज्यपाल के लिए तैयार किये
गये साफ-सुथरे टॉयलेट को इस्तेमाल कर लिया था। उसे भान नहीं था कि जब वह
टॉयलेट में था तो उस समय राज्यपाल ही दरवाजा खटखटा रहे थे । फिर बेसब्री
में प्रेशर ना रोक पाने पर उन्हें सर्वेंट क्वार्टर के गंदे टॉयलेट का
इस्तेमाल करना पड़ा l राज्यपाल का प्रेशर भी रिलीव हो गया किंतु अब मुसीबत
आई तो राजीव पर। बिना राज्यपाल के जाने हुए व्यवस्था बीच में कूद पड़ी ।
राजीव को पुलिस के निरीक्षण में रखा जाता है। राजा-रंक सभी को ही
टट्टी-पेशाब लगती है। फ़र्क है तो केवल उनके टॉयलेट का l जिस तरह किसी राजा
को अगर प्रेशर लग रहा हो तो मजबूरी में उसे किसी खेत या किसी झाड़ के पीछे
करने की मनाही नहीं है उसी प्रकार एक साधारण इंसान भी मजबूरी में किसी
प्रभावशाली व्यक्ति के लिये बनाए गए टॉयलेट को यूज कर सकता है । लेकिन इस
कहानी में शासन की अटपटी व्यवस्था ने एक हगने-मूतने जैसी स्वाभाविक बात को
ले कर ऐसा बखेड़ा खड़ा कर दिया और राजीव को ऐसी मुसीबत भुगतनी पड़ी जिस की
उसने
कभी कल्पना तक ना की होगी। उस पर इल्जाम लग गया और वो अपराधी की तरह
महसूस करने लगा कि उस ने वह टॉयलेट इस्तेमाल क्यों किया। प्रेशर रिलीव
करना भी जैसे गुनाह हो गया। प्रशासन को लगता है कि सर्वेंट क्वार्टर का
टॉयलेट इस्तेमाल करने से राज्यपाल की इज्ज़त को बट्टा लग गया और उस का
ज़िम्मेदार राजीव है जिस की उसे सजा भुगतनी है । अब तो राजीव को लेने के
देने पड़ जाते हैं । पल बीतने के साथ राजीव की चिंता बढ़ती है दिलीप कुमार का
इंटरव्यू लेने की । लेकिन प्रशासन के क्रूर लोग किसी की मजबूरी के बारे में नहीं सोचते । वहां हर कोई अपने से बड़े के आर्डर का इंतज़ार करता
रहता है l राजीव की ये हालत हो जाती है कि 'आये थे हरिभजन को, ओटन लगे
कपास ! ' पुलिस अफसरों को समझाने-बुझाने और उनसे मिन्नतों के वावजूद भी
राजीव को एक चिड़ियाघर के जानवर की तरह निगरानी में रखा जाता है । उसे तंबू
के बाहर भी झांकने की इज़ाज़त नहीं दी जाती कि कहीं वह भाग न जाए । उसे
कुर्सी पर बैठने से रोका जाता है, उस पर कड़ी निगरानी रखी जाती है ।
राजीव राज्यपाल को जानता है पर फिर भी कोई उस का संदेशा उन तक नहीं
पहुंचाना चाहता । बड़े-बड़े लोगों का इंटरव्यू ले कर उन्हें गरिमा देने वाला
सूटेड-बूटेड इंसान ज़मीन पर एक क्रिमिनल की तरह बैठा उन से याचना करता रहता
है। पर वहां कोई उस की बात समझना नहीं चाहता l ज़रा सी पेशाब करने वाली बात
राई का पहाड़ जैसी बन गई l इस सब की उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की
होगी। सभी अफसर उस से बदसलूकी का व्यवहार करते हैं। जैसे इतना ही काफी
नहीं उसे और भी अपमानित करने के लिए थाने भी ले जाया जाता है। यहां उस से
कुछ अच्छा व्यवहार किया जाता है पर कोई उस की सहायता की याचना नहीं सुनता ।
मुसीबत के समय कई बार इंसान के जीवन में कुछ लोग देवदूत बन कर आ जाते हैं।
और ऐसा ही होता है राजीव के केस में। उस के अपने साथी जो लखनऊ से उस के
साथ आए थे वो तो राजीव की सहायता करने की वजाय राज्यपाल का कवरेज लेने
में व्यस्त हो जाते हैं जिसे जान कर राजीव को चोट सी पहुंचती है। पर उस की
सहायता को कुछ स्थानीय पत्रकार व प्रेस फोटोग्राफर आ जाते हैं । क्यों कि
वो
लोग भी मीडिया में हैं और जानते हैं कि अगर वो राजीव के शहर में इस तरह की
मुसीबत में होते तो शायद उन्हें भी किसी की हेल्प की ज़रूरत पड़ती। और कि वह
अभी उस की मदद नहीं करते तो बाद में प्रशासन उन को भी हलके में लेने लगेगा
। प्रशासन
के लोगों में तो कोई इंसानियत नहीं । थाने में पुलिस के लोग बैठे गपशप
करते हैं । और तभी कोई एक स्थानीय वकील भी राजीव के बारे में सुन कर उस की
हेल्प करने आ जाता है l वह भले ही अधिक काबिल ना हो और उसे कानून की कई
धाराओं का ज्ञान ना हो पर थाने के लोगों को कोर्ट कचेहरी की भाषा व कानून
का कतई ज्ञान ना होने से वह बड़ी चतुराई से कानूनी दांव-पेंच में दारोगा से
बात कर के राजीव को मुसीबत से निकाल लेता है l बाद में कलक्टर का आर्डर भी
मिल जाता है उस की रिहाई के लिए । हर जगह के थाने के लोग अच्छी
अंग्रेजी नहीं जानते किंतु फिर भी अपने पद का रुआब झाड़ कर किसी भी
पढ़े-लिखे को धमकाते रहते हैं। स्थानीय लोग जहां इतने शरीफ होते हैं किसी
की सहायता करने को वहीं प्रशासन के लोग पत्थर दिल। स्थानीय वकील
और पत्रकारों ने शराफत दिखा कर राजीव के बुरे समय में साथ न दिया होता तो
शायद वह जेल की हवा खा रहा होता और उस की नौकरी भी छिन जाती ।
लेकिन
ऐसे
लोग जानते हैं कि अगर वो लोग भी किसी दूसरे शहर में जा कर किसी मुसीबत में
पड़ जाएं तो शायद अपनी तरह के लोगों की उन्हें भी सहायता की ज़रूरत पड़ सकती
है l इस तरह की इंसानियत ही लोगों के काम में आती है। राजीव उन लोगों की
सहायता से इस मुसीबत से निकलता है और दिलीप कुमार का इंटरव्यू कर पाता है ।
इस व्यवस्था में नेताओं, अभिनेताओं को चाहें कोई मरे या जिए हर अवसर पर
उन को फूल-मालाएं अर्पित की जाती हैं । और उन के आने के समय यदि कोई और
हेलीकाप्टर पहले आ जाता है अन्य व्यक्ति को लिए हुए तो उतरने वाले की
पहचान किए बिना उसे कोई नेता या अभिनेता समझ कर झपट कर लोग उस के गले में
फूल-माला डाल देते हैं । तो क्या ये भी अपराध हो गया? नहीं । तो फिर किसी
गवर्नर के लिये तैयार टॉयलेट को अगर कोई मजबूरी में और अनजाने में इस्तेमाल
कर ले तो ये कैसे अपराध हो जाता है?
और बड़े पद के लोगों की किसी छोटे व
गंदे टॉयलेट के इस्तेमाल से क्या नाक कट जाती है? देश में ये कैसी
व्यवस्था है? नेता-अभिनेता सभी को ग्लैमर और गरिमा चाहिए। और पब्लिक व
मीडिया इन लोगों के गौरव व गरिमा को बढ़ाने इन के लिए भाग-भाग कर आते हैं l
चाहें वह लोग भीड़ में कुचल कर मर ही क्यों न जाएं। इंसान की नैचुरल काल
कब और कहां प्रेशर मारने लगे इस का पहले से पता नहीं होता और इसे कहीं सभ्य तरीके
से रिलीव करना कोई अपराध नहीं होता। जब प्रेशर लग रहा हो तो उस समय
जाने की जल्दी होती है, चाहें खेत, तालाब हों या फिर कोई उचित टॉयलेट। उस
समय किसे चिंता होती है कि वो टॉयलेट किस के लिए है। पैंट में निकल जाने
से तो अच्छा है कि कोई स्थान मिल जाए करने के लिए। लेकिन इस व्यवस्था के
बारे में क्या होना चाहिए ? जिस जगह इतने लोगों के आने का कार्यक्रम होता
है वहां तमाम लोगों को टॉयलेट भी जाना होता है । तो फिर उस जगह सिर्फ़
एक-आध टॉयलेट होना नाइंसाफी है। और इस के लिये व्यवस्था करने वालों को ही
दोषी ठहराना चाहिए। इस अपमानजनक घटना से राजीव को इतना मानसिक आघात लगता
है कि संध्या होते वह दिलीप कुमार आदि के जाते ही पागलों की तरह अपने बारे
में हुई नाइंसाफी के बारे में सोचने लगता है l रात होने वाली होती है और
चांद के निकलने का समय भी तो उसे लगता है कि रात दरवाज़ा खटखटा रही होगी
चांद के निकलने का। अपनी तुलना वह चांद से करने लगता है । सोचता है कि
चांद के निकलने पर रात के आंचल में जब चांदनी बिखरेगी तो क्या चांद को उस
के
लिए मुजरिम ठहराया जाएगा? चांद के लिए शोले फ़िल्म का डायलाग याद आता है,
'अब तेरा क्या होगा कालिया?' फिर चांद को बचाने के लिये कहां से वकील आएगा
? उस के लिए तो प्रकृति ही जिम्मेवार है जैसे कि व्यवस्था करने वाले,
टॉयलेट की व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार होने चाहिए थे । दिन-रात व
चांद-चांदनी को बनाने वाली तो प्रकृति ही जिम्मेवार है। तो चांद फिर
मुजरिम क्यों हुआ ? इंसान की जब कोई गलती नहीं होती है और फिर भी उसे
अन्याय
का सामना करना पड़ता है तो उस का दिमाग ऐसी बातों से अपनी तुलना करने लगता
है । दिमाग में फितूरपना सा छाने लगता है । राजीव को एक ही दिन में
क्या-क्या भुगतना पड़ा ये वही समझ सकता है ।
पब्लिक में होने वाले किसी
समारोह आदि में जाने से टॉयलेट आदि जैसी कामन बातों को ले कर इंसान की क्या
हालत हो जाती है इस पर यह कहानी चौंकाने वाली है l इंतज़ाम करने वाले लोग और
प्रशासन के लोग इतने संवेदनहीन हैं कि एक पत्रकार की भी कोई इज्ज़त नहीं
रहती l
कहते
हैं कि दुनिया कहां से कहां
आ गई । कोई ऐसा समय भी था जब मोबाइल या इंटरनेट के बारे में किसी को कुछ
भी पता नहीं था। उन के आने के बाद ये फ़ेसबुक और ट्विटर की दुनिया आई तो
इस में उलझते हुए इंसान अपनी वास्तविक जिंदगी में परिवार और दोस्तों से दूर
होने लगा। दयानंद पांडेय जी की ये कहानी 'फ़ेसबुक में फंसे चेहरे' हर
फ़ेसबुकिया की कहानी है। इस में आप ने रामसिंगार भाई जैसे पात्र को गढ़ कर
फ़ेसबुकियों की जिंदगी व उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को दिखाने की भरपूर कोशिश
की है। रियल लाइफ में तो लोग कुछ दोस्तों से भी अकसर नहीं मिल पाते पर
फ़ेसबुक पर करीब-करीब रोज ही ढेरों लोगों से मिलना हो जाता है l लोग घंटों
बतिया लेते हैं । लेकिन क्या फ़ेसबुक पर कोई सुख-दुख का साथी है या फ़ेसबुक
सब को खुश रख सकता है? पर लोगों के सुख-दुख के समाचार रोज ही पढ़ने को मिलते
हैं। और अगर किसी बात पर लोगों की आपस में ठन गई तो लोगों का स्ट्रेस
रिलीव होने की वजाय बढ़ ही जाता है । पर जो भी इस पर रहना चाहता है उसे ये
सब फ़ेस करना ही पड़ता है । ये सब जानते हुए भी लोग फ़ेसबुक के और क्रेजी हुए
जा रहे हैं । इस कहानी से जाहिर होता है कि कुछ लोग फ़ेसबुक पर घंटों
बिता देते हैं और फिर घर वालों की फटकार खाते रहते हैं । पर बिना फ़ेसबुक के
उन का खाना नहीं पचता । कुछों का कहना है फ़ेसबुक ने उन के पारिवारिक व
सामाजिक जीवन को अव्यवस्थित कर दिया है । घर में पत्नियों को तो घर का काम
करना पड़ता है, यदि पति कुछ फ़ेसबुक की बात शेयर भी करना चाहे तो पत्नी को
दिलचस्पी नहीं होती या फिर उसे भी फ़ेसबुक पर होना चाहिए। जो भी फ़ेसबुक का
आदी है उस की अपनी पर्सनल लाइफ भी कुछ न कुछ सफर करने लगती है । पत्नी कोई
बात करना चाहे तो पति टालमटोल करते रहते हैं । किंतु फ़ेसबुक पर रहने वाले
इसके जोक शेयर करने को उतावले रहते हैं। फ़ेसबुक में जो चेहरे फंसते
हैं वो मुश्किल से ही अपने को इस से जुदा कर पाते हैं । जो यहां आके चिपका
तो चिपका ही रहा । फ़ेसबुक का फंदा जिस के गले में पड़ा तो मजबूत ही होता
जाता
है। तमाम प्रौढ़ लोग जिन्हें फ़ेसबुक पर आने की तमन्ना है लेकिन इस के बारे
में अधिक नहीं जानते वह अपने बच्चों या मित्रों की हेल्प से अकाउंट खुलवा
कर उनकी ही मदद से पोस्ट करते रहते हैं। फिर धीरे-धीरे इस के बारे में
अपने मतलब भर का सीख जाते हैं । रामसिंगार भाई भी फ़ेसबुक की समस्याओं को
फेस करने में कोई अधिक होशियार नहीं हैं । उन्हें भी फ़ेसबुक पर कुछ पोस्ट
या पेस्ट करने को अपने बच्चों का सहारा लेना पड़ता है पर ये बात बताते किसी
को नहीं। पर जरा चौकन्ने रहते हैं कि कहीं कोई अंट-संट बात उन की प्रोफाइल
पर ना दिख पाए जैसा कि उन के दफ़्तर के एक सहयोगी के साथ हो चुका है हुआ
था। और जब तक उन्हें किसी की हेल्प नहीं मिली वो बात वहीं चिपकी रही । बात
ये हुई कि अपने दफ़्तर की एक लड़की से फ़ेसबुक अकाउंट खुलवाया तो उस ने
अपने ही गर्ल्स कालेज का नाम डाल दिया । लेकिन उन्हें इस का तब अहसास हुआ
जब
रामसिंगार भाई ने उन की प्रोफाइल पर इसे नोटिस किया और उन्हें बताया । तो
वह चिढ़ गए और फिर कुछ दिन बाद पोल खुल गई कि उन्हें फ़ेसबुक पर पोस्ट करना
नहीं आता। उनके दफ़्तर की लड़की ने ही हेल्प करते समय वो सब किया था l
इस लिये राम सिंगार भाई कुछ चौकन्ने रहते हैं और अपनी प्रोफाइल बार-बार चेक
करते रहते हैं । अगर कोई शंका वाली बात लगती है तो उसे रिमूव करवा देते हैं
। पर अपने दफ़्तर के उस सहयोगी से कुछ अधिक ही अकलमंद हैं । फ़ेसबुक पर आने
के बाद कुछ कारणों से लोग ऊबने लगते हैं और सोचते हैं कि अब अपना अकाउंट
क्लोज कर दें । राम सिंगार भाई भी कोई अपवाद नहीं हैं ।
लेकिन कुछ
दिनों बाद उन का भी चित्त फ़ेसबुक के बिना उदास होने लगता है l जैसे जिंदगी
से कोई अहम बात जुदा हो गई हो । राम सिंगार भाई की तरह ही हम सभी
फेसबुकिये कुछ दिनों निष्क्रिय रहने के बाद फिर इस पर आने को बेचैन होने
लगते हैं। फिर एक्टिव हो जाते हैं। फेसबुक पर जो आया वो इसी का हो कर रह
जाता है। फ़ेसबुक एक उलझन है, हम सब इस से लाचार हैं । ये जैसे एक नशा है
इस की लत एक बार जिसे पड़ी तो
छूटती नहीं । चाहें घरवाले धिक्कारें या
इंसान खुद को पर फ़ेसबुक पर आ कर अपना अकाउंट डिलीट करना लोगों को अपना गला
दबाने जैसा लगने लगता है । शुरू-शरू में जिन्हें अधिक इस के बारे में अधिक
जानकारी नहीं वो लोग अपने बच्चों से फेसबुक का अकाउंट या कोई फर्जी अकाउंट
भी खुलवा कर औरों से चैटिंग आदि की हसरत पूरी किया करते हैं । लेकिन ये राज
वो लोग किसी से नहीं बताते । रामसिंगार भाई को अपनी वाल पर फोटो लगाने
का बड़ा शौक है किंतु उन का रोना ये है कि उन के परिवार के लोग उन की फ़ेसबुक
की बातों में दिलचस्पी नहीं रखते । शादी-शुदा हैं पर दिमाग है सड़ा, पत्नी
से रोते हैं अकेलेपन का दुखड़ा। उस बिचारी को कैसा लगता होगा? जिन के पतियों
को फ़ेसबुक पर फ्लर्ट करने का चस्का है उन की पत्नियों को फ़ेसबुक विधवा कर
देता है । पतियों का दिल-दिमाग सब फ़ेसबुक में और पत्नी का दिमाग घर के काम में। उसे पता ही नहीं चलता कि पति महोदय फ़ेसबुक पर गुलछर्रे मार रहे
हैं । उन की जिंदगी में टेसू के फूल खिल रहे हैं। और पत्नी इन सब बातों से
बेखबर है । जब कोई चीज़ ज़रूरत से ज्यादा हो जाती है तो उसे मैनिया कहते हैं l
तो क्या रामसिंगार भाई जैसे लोग फ़ेसबुक मैनिया के शिकार हो गये हैं? वो
पहले न्यूज चैनल देखा करते थे फिर ऊब कर फ़ेसबुक पर आए । अब इस पर भी समस्या
पैदा हो रही है तो वो क्या करें?
इंसान अकेलापन या ऊब
मिटाने को कुछ न
कुछ तो करता ही है । फ़ेसबुक को कुछ दिनों को तजकर गांव गए तो वहां की
सड़क, बिजली व स्कूल की सुव्यवस्था को देखकर प्रभावित हुए जिस के पीछे एक
रेलवे बाबू का हाथ था। तो उन्हें उन के फ़ेस व उस गांव के बदले हुए फ़ेस को
फ़ेसबुक पर दिखाने की चाहना हुई और उस उमंग में वह उस सब की तारीफ़ लिख कर
पोस्ट लगा बैठे। पर लोगों ने उसे पढ़ने व कमेंट देने में कोई रूचि नहीं
दिखाई क्यों कि फ़ेसबुक सोशल साइट होने से अधिकतर लोग हल्की-फुल्की
गप्प-शप्प वाली बातों में ही दिलचस्पी रखते हैं । फोटो आदि को देखने में और
उस पर कमेंट देने में अधिक दिमाग नहीं लगाना पड़ता है । कुछ लोगों ने एकाध
कमेंट में कुछ अटपटी बातें लिख दीं तो राम सिंगार भाई खिसिया गए । लेकिन
फिर सोचते हैं कि उन के फ़ेसबुक छोड़ देने से दुनिया तो बदल नहीं जायेगी और न
ही इस के लोग । तो मन मसोस कर फ़ेसबुक पर चिपके रहते हैं । कहानी के एक
पात्र गिरीश जी भी उन लोगों में से हैं जो यात्रा से वापसी पर फ़ेसबुक पर
फोटो लगाने में विलंब नहीं करते और परिवार के लोगों से ही वाह-वाही लूटने
लगते हैं । पत्नी को काम से फुर्सत नहीं होती पर उन्हें तो अपनी फोटो सारी
दुनिया को दिखाने की पड़ी है। कुछ लोग तो हर समय अपने तरह-तरह के पोज की
फोटो लगा कर लोगों से चुहलबाजी करते रहते हैं। कुछ लोग जिन्हें कुछ और
नहीं सूझता वो सिर्फ़ तसवीरें और जोक्स ही लगाते रहते हैं । मतलब ये कि यहां
हर कोई अपन शो चला रहा है। रामसिंगार भाई सब समझते हैं कि मित्रता की
आड़ में यहां लोग अकेले ही भटकते रहते हैं। कुछ लोगों को तो फोटो लगाने का
इतना मैनिया है कि हर दिन धार्मिक या अधार्मिक फोटो लगा कर मित्रों को टैग
किए जाते हैं । इतनी अधिक टैगिंग से भी कभी-कभार मन दुखी हो जाता है ।
लोग
अब ब्लाकिंग की धमकी देते रहते हैं पर टैगिंग करने वालों के कणों पर जूं
नहीं रेंगती । लाइफ चलती रहती है । फ़ेसबुक बुराइयों और शिकायतों से भरा
हुआ है फिर भी लोग बिन इसके जी नहीं पा रहे हैं । लाइक बटन पर क्लिक करो
तो अप्रत्यक्ष रूप में लोग शिकायत करने लगते हैं कि कमेंट क्यों नहीं लिखा।
लेकिन कभी-कभी सत्य कड़वा होता है जिसे पचाने की लोगों में क्षमता नहीं
होती । उन्हें अपनी आलोचना नहीं सिर्फ़ तारीफ़ चाहिए । फ़ेसबुक पर महान
और दिवंगत आत्माओं की भी भीड़ लगी रहती है। जिस की वाल पर भी नमन या
श्रद्धांजलि अर्पण करना भूल जाओ बस उसी के तेवर चढ़ जाते हैं। लोगों की
खामोशी भी बहुत कुछ कह जाती है। और कभी-कभी खामोशी बोलने से भी अधिक भयानक
होती है। कई बार लोगों के स्टेटस में मुद्दा कुछ और होता है पर लोग रोमन
में कुछ ऊटपटांग लिख कर कन्फ्यूज करते रहते हैं। रोमन में लिखा मन को अधिक
अच्छा नहीं लगता, समझ में अधिक नहीं आता। स्पेलिंग तक सही सही नहीं
होती तो मतलब भी समझ नहीं आता l उसका मतलब पूछो तो जबाब नदारद। फिर उस
इंसान की आहट तक नहीं मिलती शायद चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं। ईमानदारी
की राय देने पर लोगों को बुरा भी लग जाता है । और उस के गले पर छुरी चल
जाती
है यानि उसे फ्रेंडशिप से आउट कर दिया जाता है, यहां तक कि उसे ब्लाक भी
कर देते हैं l चित्त भी अपनी और पट्ट भी अपनी वाली बात। आक्रोश में
कोई रचना लिख बैठता है या लेख। यहां कितने ही लोग झूठी-सच्ची हर बात को
पोस्ट करते रहते हैं । प्रोफाइल में अपनी असली फोटो तमाम लोग नहीं लगाते
हैं । इस फ़ेसबुक के लोक में किस का फ़ेस किस की प्रोफाइल पर चिपका है पता
नहीं
लगता l कई सारे यंग लड़कियां व लड़के अभिनेत्रियों व अभिनेताओं की फोटो
अपनी
प्रोफाइल में चिपकाए दिखते हैं l एक तरीके से फ़ेसबुक पर रहना भी
बहादुरी का काम है l कितने ऐसे लुच्चे-लफंगे भी हैं जो मेसेज बाक्स में आ
कर
औरतों को तंग करते हैं l बिना चेहरे वाले लोग भूत जैसे लगते हैं। एक बात
और कि यहां जो डर गया वो मर गया। कितने ही लोगों के ब्लॉग भी फसलों की तरह
उग रहे हैं, ग्रुप्स बन रहे हैं जिन में लोग बिना पूछे ही सम्मिलित कर
लिए
जाते हैं l फिर शिकायतें होती हैं कि अपनी वाल को तो मैनेज करना मुश्किल तो
इन ब्लाग को पढ़ने व ग्रुप की एक्टिविटी के लिये इंसान कहां से समय लाए ।
फ़ेसबुक पर केवल ब्लॉगस और ग्रुप्स ही नहीं उग रहे हैं बल्कि नितदिन
यहां और भी नई समस्याएं उगती रहती हैं। फ़ेसबुक के मंच पर हर प्रकार के
लोग अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं । लेखकों को लेखन से संबंधित
प्रचार-प्रसार करने के लिए इस से अच्छी जगह और कहां मिल सकती है। लेकिन
जो
लेखक हैं वो अपना लिखने में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने
मुरीदों का लिखा पढ़ने की फुर्सत नहीं l यहां ज्योतिष, ट्रैवेल एजेंसी,
दुनिया भर की न्यूज, राजनीतिक और सामाजिक चर्चायें, गीत-संगीत की महफ़िलें,
दुनिया भर के दृश्य, खाने आदि की रेसिपी व उन के फोटो आदि सभी देखने को
मिलते हैं। लेकिन इन सब बातों को एन्जॉय करते हुये कुछ दिनों बाद फ़ेसबुक
की समस्याओं पर भी ध्यान जाने लगता है। लोग जब कोई चकल्ल्सबाजी वाला स्टेटस
डालते हैं तो
मित्र लोग उस पर खूब कमेंट करते हैं l जैसे कि कहानी
में एक जगह जूते-चप्पलों के ढेर वाली 'वाल फोटो' का ज़िक्र है जिस पर
धड़ल्ले से लोगों के कमेंट आते हैं। किंतु कोई लेख हो तो उन्हें उसे
पढ़ना टाइम वेस्ट करने जैसा लगता है और पोस्ट करते ही उसे बिना पढ़े तुरंत
लाइक बटन दबा कर लोग चलते बनते हैं l हो सकता है कि पढ़ने के लिये लोगों के
पास अधिक समय नहीं होता होगा पर कई बार लोग लेखों को बिलकुल ही पढ़ना
नहीं चाहते इसलिए नज़रअंदाज़ कर देते हैं । लिखने वाले अधिक हो रहे हैं और
पढ़ने वाले कम। लेखक को ये बात चुभती है । पर लोगों की बला से, ब्लाक हो भी
गये तो क्या हुआ। तू नहीं और सही l फ़ेसबुक पर लोगों की कोई कमी नहीं । आज
का सच ही ये है कि फ़ेसबुक पर लेखकों की गिनती पढ़ने वालों से कहीं अधिक है l
हर कोई अपना लेखन पढ़वाना चाहता है पर दूसरे का पढ़ने के लिए उस के पास समय
नहीं l इस तरह की चालबाजियों से मन ऊबने लगता है l ये आभासी दुनिया कहां रह
गई ? इस पर तो असल जिंदगी के लोग हैं जिनमें ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा
आदि जैसी चीजें पनपती हैं। लोगों की वाल पर बहसें होती देखी हैं और
कभी-कभी बात इतनी बिगड़ जाती है कि जूता-पैजार तक की नौबत आ जाती है । ऐसा
होने पर कई तमाशबीन लोग बिना कमेंट दिए पतली गली से खिसक लेते हैं क्यों
कि उन्हें अपनी वाल और अपनी इमेज की फ़िक्र होती है ।
यहां
सब मुंह देखी
की दोस्ती है फिर भी फ़ेसबुक को सभी झेल रहे हैं। शायद इस लिए कि ये सोशल
साइट है और मनुष्य एक सोशल प्राणी है। इस साइट पर फाइट होती रहती हैं पर
फिर भी बेशर्मी से हम सब एक दूसरे से इन्वाल्व रहते हैं l किसी को यहां
सहानुभूति या खुशी मिलती है या नहीं पर लोग यहां अपनी हर सुख-दुख की बात
को
शेयर करने अपने स्टेटस में डालते रहते हैं क्यों कि फ़ेसबुक शेयर करने का
नाम है l इस शेयरिंग में कितनी केयरिंग होती है ये कोई नहीं जानता l
लेकिन कमेंट कम मिलें तो लोग उदास हो जाते हैं l तो क्या कमेंट अधिक
मिलने को ही केयरिंग कहते हैं ? वरना कई लोग फ्रेंडलिस्ट से आउट कर दिए
जाते हैं l ये कैसी है फ़ेसबुक की फ्रेंडशिप, कैसे हैं इसके रूल जहाँ दोस्ती
की गर्दन कमेंट ना मिलने पर खलास हो जाती है ? हर फ़ेसबुक वाला दोस्त किसी
के मरे-जिये में क्या शरीक हो पायेगा ? यहां तो लोगों को अपने सभी
मित्रों के नाम भी याद नहीं रहते l कुछ लोग इतने नीच टाइप के होते हैं कि
लोगों की रचनाएं आदि चुरा कर अपने नाम से भी प्रकाशित करवा लेते हैं l और
कुछ पुरुष लोग स्त्रियों वाली प्रोफाइल इस्तेमाल करते हैं l बड़ा मुश्किल है
यहां किसी पर विश्वास करना l असल जिंदगी में तो मित्रों से रोज मिलना
मुश्किल है तो फ़ेसबुक पर हजारों की संख्या में किस-किस दोस्त से मिलने को
याद रहे l लोग मित्र सूची में कइयों को भर लेते हैं फिर उन में से कुछ
खास के नाम ही याद रहते हैं l बाकी पर उनको जन्मदिन की मुबारकबाद देते हुए
निगाह पड़ती है l और ये कहानी हर फ़ेसबुकिया की है l कितने ही लोग यहां
रामसिंगार भाई जैसे हैं जो कन्फ्यूज रहते हैं और अकेलेपन के मुद्दे पर
लोगों का मनोबिश्लेषण करते रहते हैं l औरतों से सवाल करते हैं तो अपने
मुंह
की खाते हैं l यहां किसी को किसी से सरोकार नहीं l कड़वा सच ये है कि
लोग सिर्फ कमेंट के भूखे हैं l कमेंट से दोस्ती है, इंसान से नहीं l
लोगों को जलन और कुढन भी यहां बहुत हो जाती है l और ज़रा सी देर में लोग
ब्लाक भी कर दिए जाते हैं ताकि मेसेज बाक्स तक में उनके प्रकट होने की
संभावना ना रहे l इतना सब होने पर भी जिसे फ़ेसबुक का चस्का एक बार लगा उसे
इस के बिना चैन नहीं l उन का जैसे इस के बिना खाना नहीं पचता l जो लोग वादा
करते हैं इसे छोड़ देने का वो देर-अबेर लौट कर इस पर फिर आ जाते हैं l न्यूज
फीड में निरंतर चौबीसों घंटे स्टेटस फ्लोट करते रहते हैं l
न्यूज फीड की गंगा में स्टेटस बहते रहते हैं
मित्र लोग आ कर उन पर बहसें करते रहते हैं
बटन दबाओ ‘लाइक’ का सुंदर होय कमेंट
वरना मित्र लोग सूची से आउट करते रहते हैं।
सच
कहूं तो ये फ़ेसबुक एक जादुई संसार सा लगता है जहां दुनिया भर के लोग बटन
की एक क्लिक पर हाजिर हो जाते हैं l कभी ज़रूरत या मजबूरी से निष्क्रिय होना
अलग बात है पर बिरला ही कोई होगा जो एक बार अकाउंट खोलने के बाद उसे डिलीट
करे l घर से बाहर होने पर भी मोबाइल से लोग फ़ेसबुक पर बराबर एक्टिव रहते
हैं l यहां सभी तरह के नमूने देखने को मिलते हैं l संग, सत्संग और हुड़दंग
सब ही यहां l धार्मिक जगहों की तस्वीरें व उन जगहों के वर्णन भी पढ़ने
को मिलते हैं तो लगता है जैसे तीर्थ यात्रा हो गई घर बैठे ही l कौन कैसा है
इस बारे में लोग एक दूसरे की नब्ज टटोलते रहते हैं l कुछ लोग कमेंट लेने
को आतुर रहते हैं पर देने के नाम पर चुप्पी साध जाते हैं l पारिवारिक,
साहित्यिक, राजनीतिक चर्चाएं , देश-विदेश की बातें, प्रचार, प्रसार, खुशी
और गम सबका ही संगम यहाँ देखने को मिलता है l पर फ़ेसबुक के चेहरों की
असलियत नहीं पता लग पाती l फ़ेसबुक पर बिना किसी वजह के भी लोगों की नाखुशी व
बेरुखाई सहनी पड़ती है l फिर भी फ़ेसबुक पर लोग चहकते, बहकते और बहलते रहते
हैं l और इस आभासी दुनिया में भटकते हुये इस के लोगों में अपनापन ढूंढ़ने की
कोशिश में मन को झूठी तसल्ली देते रहते हैं l आत्मसंतोष और खुशी का अहसास
करते हुए उन की ज़िंदगी के दिन फ़ेसबुक पर किसी तरह कटते रहते हैं l कितनी
हास्यास्पद बात है कि फ़ेसबुक पर लोग हजारों फ्रेंड बनाये बैठे हैं l कुछ
साल पहले शुरू-शुरू में हजारों मित्र बनाना लोगों के लिये एक प्रेस्टिज का
सवाल था l सभी तरह के लोगों को बिना सोचे समझे खटाखट अपनी मित्र-सूची में
जोड़ते रहते थे l लेकिन अब उन्हीं लोगों को संभालना मुश्किल हो रहा है l
उनमे से तमाम लोग सरदर्द बन गए और मित्र सूची में पड़े रहते हैं l जिन्हें
बेकार समझ कर कुछ लोग अकसर समय-समय पर निकालते रहते हैं या निकालने की
धमकियां भी देते रहते हैंl ऐसे लोगों को निकाल कर लोग अपनी मित्र सूची
हलकी कर लेते हैं l कई बार उन निकाले गए लोगों को शायद कोई आइडिया नहीं
हो पाता होगा कि कब और किसने उन्हें निकाल दिया l इतने सारे मित्रों और
उन के चित्रों का नाम कैसे याद रखा जाए ? कुछ खास लोगों के नाम ही जहन में
रहते हैं, या जिनसे कमेंट से वास्ता पड़ता रहता है l यही है फ़ेसबुक का
जीवन l जिस के बिना अब लोगों का किसी और चीज़ में मन नहीं लगता और खाना
नहीं
पचता l और दयानंद जी ने अपने पात्रों द्वारा फ़ेसबुक की दुनिया की तमाम
सचाइयों को इस कहानी में उतारा है।
प्लेन,
पायलट, रिपोर्टरों, मुख्यमंत्री और गांव में बनी एक हवापट्टी को ले कर
लेखक
ने कहानी को जो हवा दी है उस में पाठक हास्यास्पद दृश्यों का अवलोकन करता
चलता है l जिंदगी में अगर किसी ने कोई चीज़ नज़दीक से ना देखी हो तो उसे पास
से देखने का कौतूहल बना रहता है l और जब वही वस्तु कभी पास से देखने को
मिलती है तो उसके बारे में और भी जिज्ञासा होती है l लोग उसे पास से देखने
और उसे छूने का भी प्रयास करते हैं l इस कहानी को पढ़ कर यही आभास होता
है l गांवों में कोई विकास हो या वहां कोई नई चीज़ आए तो पूरा गांव उसे
देखने वहीं सिमट आता है l उन में एक कौतूहल रहता है उस चीज़ के बारे में l
ऐसा ही इस कहानी में भी होता है l किसी मुख्यमंत्री के भाषण का कवरेज लेने
जब एक प्लेन में कुछ रिपोर्टर एक नेता के संग आते हैं तो उस गांव में बनी
हवाई पट्टी पर प्लेन को उतरने में जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है
उस का लेखक की कलम से शब्दों में मजेदार चित्रण हुआ है l सालों से इस्तेमाल
ना की गयी उस हवाई पट्टी का जो हाल गांव वालों ने कर रखा है उसे देख कर
पायलटों के होश फाख्ता हो जाते हैं l गांव के सीधे-सादे अज्ञान लोग उस हवाई
पट्टी का इस्तेमाल खुला आंगन समझ कर उपले पाथने-सुखाने व चारपाइयां डाल कर
सुस्ताने के लिए करने लगे हैं l निसंदेह कभी उस जगह पैंठ भी लगती होगी और
चौपाल की तरह भी उस का इस्तेमाल होता होगा l गाय-बैल, बकरियां आदि भी वहां
टहलने-घूमने और हवा खाने आते होंगे l बरसों के बाद कोई प्लेन आया देख कर
लोग
उस जगह आने लगते हैं और भीड़ इकठ्ठा हो जाती हैं l उन्हें ये नहीं पता कि
वो जगह प्लेन के उतरने के लिये है और वहां खड़े होने से उन की जान को खतरा
है
l मजे की बात तो ये है कि जब प्लेन उतरने की कोशिश करता है तब एक जीप का
ड्राइवर उससे होड़ लेने लगता है जैसे प्लेन ना हुआ कोई दूसरी जीप या
मोटरसाइकिल हो l ऐसी सिचुएशन में पायलेट को तो पसीने आने लगे होंगे l और
हनुमान जी का सहारा ले कर पाठ करते हुये कितनी मुश्किल से प्लेन उतारा होगा
इस की कल्पना की जा सकती है l गांव के अज्ञान लोग ये भी नहीं जानते कि
प्लेन
से जीप टकराई तो उन की जान भी जा सकती है l ऐसी जगहों में कितनी मुश्किल
से
पायलेट जब प्लेन को नीचे उतारते हैं तो भीड़ उसे देखने उस के चारों तरफ
ऐसी इकट्ठी हो जाती है जैसे अजायबघर से कोई चीज़ आई हो l ऐसी जगह सेफ्टी के
लिये पुलिस की तैनाती होनी चाहिए पर व्यवस्था में ढीलम ढाल होने से फोर्स
का कहीं अता-पता नहीं l उस भीड़ में ना केवल भोले-भाले बच्चे, जवान व बूढ़े
हैं बल्कि थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे दबंग टाइप लड़के भी हैं जो पायलट पर अपना रुआब
जमाने की कोशिश करते हैं l दोनों पायलट घंटों इंतज़ार करते रहते हैं कि लोग
इशारा समझ कर वाहन से टलें और प्लेन से दूर जा कर खड़े हों पर उन लोगों की
समझ में आता ही नहीं l वहां साइकिल और मोटरसाइकिल वालों के साथ बूढ़े बच्चों
का भी तांता लग जाता है l जिसे संभालने को वहाँ पुलिस ना होने से और भी
मुश्किल हो जाती है इस की कल्पना की जा सकती है l गांव के कुछ गुंडे और
सिरफिरे लोग वहाँ आ कर डींग हांकते हैं कि उन्हों ने पहले भी प्लेन देखा है
और उस प्लेन को अंदर से देखना चाहते हैं l ऐसे में पायलट की चिंता के
मारे बुरी हालत हो जाती है कि कहीं वो लोग कोई गुंडईपाना की हरकत करके
प्लेन में कोई तोड़फोड़ ना कर दें l बाद में उन से डिप्लोमेसी से पेश आते हैं
l
और प्लेन को अंदर से दिखाने का लोभ दे कर उन की हेल्प से वहां से भीड़ का
सैलाब हटाने में सफल होते हैं l इस तरह कथा और आगे बढ़ती है l फिर नेता जी
सहित सभी रिपोर्टर कार में बैठ कर मुख्य मंत्री जी तक पहुंचते हैं l और
वहां फोर्स भेजने की इनफार्मेशन देने वाले को ले कर जो चर्चा होती है उस
में
एस पी नहीं बल्कि नेता जी मुख्यमंत्री की झड़प खाते हैं l नेता जी बोले,'असल
में पाठक जी को इनफार्म करना था l वह कल ही हास्पिटलाइज हो गए l' 'तो आप
भी हास्पिटलाइज हो गए होते l यहां आने की क्या ज़रूरत थी ?'' मुख्यमंत्री
बोले,' अगर मीडिया के हमारे मित्रों को कुछ हो गया होता दुर्भाग्य से तो
मैं देश को मुँह दिखाने लायक होता भला? मुंह पर कालिख पुतवा देते आप लोग
l'
बेचारे
नेता जी जो कुछ घंटों पहले पायलेट को पेमेंट के लिये धमका रहे थे उन का ये
हाल! मंत्री लोगों के तो मजे होते हैं l उन की सुविधा का ध्यान रखा जाता है
और रिपोर्टरों से भी दोस्ती कर के वह उन्हें खुश रखते हैं l ताकि अखबारों
में उन के भाषण आदि की अच्छी रिपोर्ट लिखी जाए l पर अगर प्रशासनिक व्यवस्था
सही ना हुई तो किसी भी समारोह के अवसर पर अंजाम अधिकतर मीडिया के लोग ही
भुगतते हैं l इस कहानी से ऐसे अवसरों पर प्लेन यात्रा करते हुये नेता,
मंत्रियों और रिपोर्टरों की क्या हालत होती है इस का अच्छा विवरण मिलता है, इस कहानी में l
पायलट का कंट्रोल रूम से कांटैक्ट टूट जाना, एक्सीडेंट की संभावना,
समय-असमय होने से कहीं पहुंचने में बिलंब और कभी किसी गलत रिपोर्ट के छप
जाने से रिपोर्टर का सस्पेंड हो जाना आदि l स्वयं पत्रकारिता का विस्तृत
अनुभव होने से लेखक ने मीडिया और राजनीति के कोलाज में रची इस कहानी से उस के अंदर का बहुत कुछ जाहिर किया है l
कहते
हैं कि बेईमान और नियत खोर लोगों को कोई पसंद नहीं करता पर इस कहानी से
पता चलता है कि कुछ लोगों की लायकी और ईमानदारी ही उन के जीवन में जहर घोल
देती है l पर फिर भी वह अपने सिद्धांतों का पल्ला पकड़े रहते हैं l उन के
प्रति लोगों का सलूक कैसा भी रहे, दुनिया कुछ भी कहती रहे फिर भी ऐसे लोग
देश के भविष्य को संवारने का सपना देखते रहते हैं l और टस से मस नहीं होते l
इस कहानी के नायक चतुर्वेदी जी भी ऐसे ही हैं जो अपने कानों में रुई
ठूंस कर किसी की नहीं सुनते l और अपने छोटे से कद के बावजूद सीने में लोहे
का दिल ले कर वह अपने सिद्धांतों और कर्तव्यों से विमुख नहीं होते l अन्य आई
ए एस आफिसरों की तरह वह देश की दौलत को नाजायज़ तरीके से लूट कर अपना घर और
बैंक बैलेंस मजबूत करने की बजाय पूरे देश को मजबूत करने का सपना देखते हैं l
वह देश या किसी और को लूटना नहीं चाहते l उस का नाजायज फायदा नहीं
उठाना चाहते l चतुर्वेदी का ईमानदार होना, देश सुधार का सपना देखना उन्हें
सब की आंखों में सनकी बना देता है l उन की बातों पर लोग उन पर झींकते रहते हैं
और उन से खिंचे-खिंचे रहते हैं l लोगों की आँखों में उन का महत्व कम होता
रहता है पर फिर भी उन के उसूलों पर कोई आंच नहीं आती l उन के आई ए एस आफिसर
होंते हुए भी लोग उन की सोच से परेशान रहते हैं l इस वजह से किसी भी विभाग में उन का अधिक दिनों तक टिकना दूभर हो जाता है l सर्विस में उन की वफादार रहने
की जिद उन की ईमानदारी का प्रमाण है जो उन के आस पास या विभागीय लोगों को
नहीं सुहाती l अपने चारों तरफ भ्रष्टाचार और बेईमानी में सने लोगों के बीच
ईमानदारी के युद्ध वह अकेले ही लड़ते रहते हैं l अफसर, मंत्री जो भी हैं सभी
लोग उन से दूर रहना चाहते हैं कि कहीं ऐसा ना हो उन की कलई खुल जाए l एक
योग्य आफिसर की ईमानदारी उन सब बेईमानों के लिए भारी पड़ जाती है l कोई
भी उन्हें अपने आस-पास नहीं देखना चाहता l अपनी निष्ठा और कर्तव्यों के
प्रति सजगता उनकी दुश्मन बन जाती है l और उनके पैर किसी भी डिपार्टमेंट में
अधिक देर नहीं जम पाते पर जहाँ भी उनके तबादले होते हैं वहां लोग उन को
महत्ता नहीं देते l और उन से कतराते रहते हैंl वह सब की आंखों में कांटा
बन कर चुभते रहते हैं l पर उन के जीवन में जो सादगी और शालीनता है, मन
में जो संतोष है वो चाहें किसी के मन भाये या नहीं उन्हें इस की कोई परवाह
नहीं l पर हां उन के इलाके में उन की ईमानदारी को ले कर उन के नाम से लोगों ने
'चना जोर गरम' ज़रूर बेचा और उस नाम से उन को 'चना जोर गरम चतुर्वेदी जी के
नाम से जाना जानेलगा ।' चतुर्वेदी जी की सहनशीलता, ईमानदारी और संघर्षों पर
दया आती है और उन से ना चाहते हुये भी मन कहने लगता है,'जहाँ हर गली हो
बदनाम, वहां शराफत का क्या काम l' वह सब से उपेक्षित हो कर अपनी डगर पर
अकेले ही चलते रहते हैं l खैर, जैसे उन का ये दुख कम ना हो किस्मत उन के लिये
कुछ और भी सोचे बैठी है l उन के दुखी जीवन में इजाफा करने माथुर जी की
एंट्री होती है l किसी समय में प्रादेशिक आई ए एस अफसरों में जातिवाद को
लेकर विवाद रहता था जिन में चतुर्वेदी और माथुर दोनों में दुश्मनों की तरह
निभती थी l और अब उसी माथुर से चतुर्वेदी जी की निजी जीवन में साबका पड़
जाता है l किस्मत के भी कैसे अजीब खेल होते हैं? जो एक दूसरे को फूटी
आँखों भी ना सुहाते थे वो अब किस्मत की वेवफाई से रिश्तेदार बन बैठे l और
चतुर्वेदी जी के जीवन का रहा सहा उत्साह भी जैसे ठंडा पड़ जाता है l उन की
इज्ज़त की रही सही कसर परिवार की तरफ से निकल जाती है l वह अपने बेटे की
शादी उस की पसंद की लड़की से होने देते हैं जो माथुर की भांजी है l चतुर्वेदी
और माथुर में जाति धर्म को ले कर जो विरोधाभास हुआ करता था उस में अब
माथुर को सर ऊंचा कर के चलने की वजह मिल जाती है l क्यों कि चतुर्वेदी तामझाम
करने वालों में से नहीं इस लिए बारातियों में भी उन के तबके का कोई नहीं
नज़र आता सिवाय एक दोस्त के और वह भी इत्तफाक से लड़की वालों की तरफ से
न्योता गया है l समय के साथ बच्चों की खुशी के लिए कितने ही माता-पिता
अपनी सोच बदल देते हैं और फिर चतुर्वेदी एक हारे हुए इंसान थे जो अब
जातिवाद आदि को भूल कर सुधार करना चाहते हैं l दोस्त से उन का कहना उन की सोच
के बारे में साबित करता है,'तुम्हें दिये वादे के मुताबिक देश का भाग्य तो
ठीक से नहीं संवार पाया, मौका ही नहीं मिला जातिवादी सरकारों की फजीहत में
तो क्या करता भला? सिनिकल मान लिया लोगों ने उलटे l' कहते हुए चतुर्वेदी
जी की आँखें छलछला आईं l वह बोले,'सोचा कि बेटे का ही भाग्य संवार दूँ l
उस की मर्जी ही से सही l हर जगह हवा के खिलाफ होना ज़रूरी है? सो बेटे की
खुशी अपनी मान मैं भी आ गया हूं बारात में l क्यों कि बच्चों की खुशी में
ही अपनी खुशी है l' वह बोले,'आखिर कहाँ-कहाँ खुशी होम करें?' चतुर्वेदी जी
बोले,'समझाऊँगा पत्नी को भी, लोगों को भी l धीरे-धीरे बताऊंगा कि
जाति-पांति में कुछ नहीं धरा l बेटे की पसंद है l फिर ईमानदार आदमी की बेटी
है l' वह ज़रा रुके और बोले,'फिर कुंआरी लड़की की कोई जाति-पांति नहीं
होती l वह तो पूरी तरह पवित्र होती है l शास्त्र भी शायद ऐसा बता गए हैं l
और फिर समाज बदल रहा है, ग्लोबलाइज हो गया हैl' समय के फेर में चतुर्वेदी
जी भी अपने मन को समझाने के अलावा क्या करें? लेकिन अपनी ईमानदारी और दृढ़
सिद्धांतों के पुर्जे वह अब भी ढीले नहीं करना चाहते,' देखो यार एक तो
जिंदगी की ए. बी. सी. फिर से नहीं शुरू हो सकती l दूसरे अब डेढ़ साल में
रिटायरमेंट हो जाएगा l तो अब क्या मुसलमां होना क्या हिंदू होना l' आज
के ज़माने में समाज और प्रशासन में जो व्यवस्था है उसे देखते हुए लोग
व्यवहारिक जीवन में समझदारी और सिद्धांत दोनों बदल लेते हैं l पर दयानंद जी
की कहानियों में अब भी चतुर्वेदी जैसे पात्र ज़िंदा हैं जिन के दृढ़ संकल्प,
ईमानदारी और सिद्धांतों को तूफां भी नहीं डिगा सकते l दुनिया के लोगों की
समझ अगर तूफान बन कर उन्हें बुझाना चाहती है तो चतुर्वेदी जी एक दिये के
समान हैं जो संघर्ष सहते हुए भी अपनी लौ बुझने नहीं देते l चतुर्वेदी जी
पर सिनेमा के एक गाने की लाइन फिट बैठती है,'निर्बल से लड़ाई बलवान की, ये
लड़ाई है दिये और तूफान की l' हां, ये और बात है कि समय के साथ लोगों की
खुशी के लिए कुछ चीज़ों को स्वीकार करने की उन में समझदारी ज़रूर आ जाती है l
ये
कहानी आजकल की रोजगारी से संबंधित समस्या पर है l इस में राकेश प्लाजा के बाहर बैठा अपने जाब से संबंधित एक अहम फ़ैसले
का इंतज़ार कर रहा है, जो उस की यूनियन के लोगों व मैनेजमेंट के बीच किसी
सामने की बिल्डिंग में होने वाला है l और उन इंतज़ार के पलों में उसे 16
वर्ष पुराने अपने एक और अहम फैसले के बारे में याद आ जाती है जो उस की शादी
से संबंधित था l जब वह अपनी बीवी को छोड़ना चाह कर भी उसे छोड़ नहीं पाया
था l और वो फ़ैसला भी उस ने प्लाज़ा आ कर एक फिल्म देख कर ही किया था l राकेश
के इस फैसले के बारे में पढ़ कर अचानक ही दयानंद जी की एक पारिवारिक कहानी
'संगम के शहर की लड़की' की याद आ गयी l 'प्लाजा' का आरंभ का हिस्सा उस कहानी
से बहुत मेल खाता है l उस कहानी 'संगम के शहर की लड़की' मे एक लड़की की शादी
किसी शादी-शुदा व्यक्ति से धोखे में हो जाती है l न उसे और ना ही उस के
माता-पिता को पहली शादी के बारे में पता होता है l इस समाज में लोगों को
इस तरह के धोखे कई बार होते रहते हैं l माता-पिता दहेज ना लेने वालों के
इरादों को जाने बिना अपनी बेटी की शादी करने की जल्दबाजी में रहते हैं l
लड़के के बारे में अधिक छान बीन नहीं करते कि कहीं हाथ में आया मौका ना निकल
जाए l अपनी पत्नी से ऊबा हुआ कहानी का नायक चुपचाप इस लड़की से दूसरी शादी
कर लेता है l बाद में फिर पहली पत्नी के पास रहने की सोच कर इस लड़की का
त्याग कर देता है l अब तक लड़की व उसके घर वालों को पता चल जाता है उस की
पहली बीवी के बारे में फिर भी लड़की अपने पति को छोड़ना नहीं चाहती, उस ने उसे
ही अपना पति मान लिया है l पर उस का बाप चाहता है कि उस की बेटी अपने पति से
तलाक ले l और यहां इस कहानी 'प्लाज़ा ' में राकेश भी अपनी अनचाही बीवी का
त्याग कर के दूसरी शादी करने के चक्कर में था l यहां तक कि उस ने एक लड़की
भी पसंद कर ली थी और लड़की के पिता को राकेश की पहली बीवी के बारे में पता
होने पर भी जल्दी थी कि उन की बेटी की शादी राकेश से हो जाए l क्यों कि यहाँ
भी दहेज का चक्कर नहीं था l किंतु बाद में राकेश की बुद्धि महेश भट्ट की
फिल्म 'अर्थ' देख कर ठिकाने आ जाती है और अनर्थ होते-होते बच गया l उस की आंखें खुल गईं कि वह दो औरतों के चक्कर में कहीं का नहीं रहेगा l और दूसरी
शादी का शादी का विचार त्याग कर उसी पत्नी के संग जीवन गुजारने का फ़ैसला कर लेता है l दयानंद जी के उपन्यास व कहानियों में सभी तरह के
सामाजिक, नैतिक, अनैतिक, राजनीतिक और पारिवारिक समस्याओं के मुद्दे मिलते
हैं l इन में कोई बेबस होता है और कोई उस की मजबूरी का फ़ायदा उठाना चाहता है l
कभी राकेश भी किसी बाप की मजबूरी का फायदा उठाना चाहता था और आज उस की
मजबूरी का फ़ैसला उसकी यूनियन और मैनेजमेंट के बीच होने वाला है l कहानी
से पता चलता है कि उस के स्वाभिमान के कारण उस की नौकरी पर बन आई है l और
अब महेश, उस का पहले वाला बॉस हमदर्द बन कर उसे सहयोग दे रहा है l उसे
तसल्ली देता है और यूनियन और मैनेजमेंट की बुराई करते हुए उस के जख़्मों को
सहला रहा है l राकेश जैसे ही कितने लोग अपने काम की सुरक्षा के बारे में
यूनियन और मैनेजमेंट की दया के पात्र बन जाते हैं l और उन्हें सहारा देने
वाले भी कहीं से आ जाते हैं l किसी दिन इसी बॉस ने भी अपनी अकड़ के कारण
अचानक इस्तीफ़ा दे दिया था l लेकिन उस के पास अनुभव था और कंसल्टेंसी का काम
कहीं करने लगता है l लेकिन राकेश को अपने भविष्य की चिंता खा रही है l
डिप्रेशन में वो ना ही ढंग से सोच पाने में समर्थ है और ना ही उस का चित्त
किसी बात में लगता है l यूनियन के लोग उसे साथ ले जा सकते थे पर नहीं ले गए l इस लिए उसे और चिंता है l घंटो इंतज़ार करते हुए तरह-तरह के डर
उसे सताते हैं और आखिर में शाम ढले वो लोग आ कर बताते हैं तो पता चलता है कि
उसका जॉब तो सुरक्षित है पर उस की पदावनित हो गई है और उस का ट्रांसफर
दिल्ली से चंडीगढ़ हो गया है l इस पर उस का गुस्सा और झुंझलाहट लोगों के बीच
निकल जाता है l उसे तमाम तरह के ख्याल सताते हैं कि बीवी -बच्चों का यहां
दिल्ली में रहना और उस के चंडीगढ़ जाने से कितनी समस्या हो जाएगी l इस सब से
कितनी मुश्किल हो जाएगी l और फिर इस सब के लिए इतना पैसा कहां से
आएगा? लेकिन फ़ैसले करने वाले भगवान एम डी को कौन समझाए ? यूनियन के हाथ
में कुछ नहीं होता वो तो सिर्फ़ सिफारिश ही कर सकती है l कंपनी में ये कैसी
व्यवस्था होती है जो अपने कर्मचारियों के लिये कोई संवेदना नहीं महसूस करती
l बड़ी कुर्सी पर बैठा हुआ इंसान अपने पद का दुरुपयोग भी कर सकता है l किंतु उन के नीचे के कर्मचारियों को उन का फ़ैसला मानना ही पड़ता है l
उन के फ़ैसलों से किसी इंसान के भविष्य व उस के पारिवारिक जीवन पर क्या असर
पड़ेगा उन्हें इस की कोई चिंता नहीं होती l उन्हें तो अपने अहम की परवाह है l
लेकिन ये अहम सभी तरह के लोगों में होता है l चाहें इसे अकड़ या स्वाभिमान
कह लें या फिर अहम l यही इंसान को कभी ले डूबता है तो कभी किस्मत भी बदल
देता है l पुराना बॉस कुछ रुपए पैसे दे कर सहायता करना चाहता है पर राकेश का स्वाभिमान उसे लेने से रोकता है l सोचता है भले ही उस का डिमोशन हो गया हो
पर वह बेरोजगार तो नहीं हुआ, अभी भिखारी की औकात तो नहीं हुई l अपने
स्वाभिमान से वह अपने बॉस महेश की निगाह में ऊंचा उठ जाता है l जिंदगी और
रोजगार के बीच फंसे एक इंसान की कशमकश, और उस के पदाधिकारियों या व्यवस्था
के फ़ैसलों का उस के जीवन व मनोस्थिति पर क्या असर पड़ता है इस सबको दयानंद जी
ने इस कहानी में बखूबी शब्दांकित किया है। इस कहानी में ट्रेड
यूनियन और प्रबंधन का गठजोड़ कैसे किसी कर्मचारी के जीवन और कॅरियर से खेल
जाता है , यह बात भी बड़ी शिद्दत से सामने आती है ।
राजनीति के
जंगल में औरतों के भूखे न जाने कितने भेड़िये रहते हैं जो उन की देह चाटते
रहते हैं l उन्हें औरतों से नहीं बल्कि उन की देह की खोह से मोह है l कभी
हाथों से टटोलना और कभी आंखों से और वह भी एक खोह को नहीं, इस में कोई भी
संदेह नहीं l उन के निशाने पर नई-नई खोहें बनती रहती हैं l ये भेड़िये शराब और
औरत की देह के भूखे रहते हैं l औरत की देह के भूखे नेह का मेह नहीं बरसाना
जानते बल्कि उन्हें आंखों से लीलते हैं या औरत की देह को मेह समझ कर पी
जाते हैं l वरना इन का काम नहीं चलता l ये लोग वासना के जंगल में नई
हिरनियां हर जगह खोज लेते हैं l औरत की देह वीणा के तार सी झंकृत हुए बिना बेस्वर बजती रहती है l देहों का समर्पण होता रहता है l औरत की देह को तो
एक ही मांझी और एक ही किनारा चाहिए पर वासना के मांझियों को ये पसंद नहीं l
इन मांझियों को एक नाव नहीं कइयों में पैर रखने की आदत होती है l लगता
है राजनीति का माहौल पुरुषों को बिगड़ैल बना देता है और वह सारी औरतों को
अपनी रखैल बना लेना चाहते हैं l 'देह-दंश' में भी एक विधायक एक कला की
पुजारिन की देह जब भोगता है तो वह उस की पहली नाव नहीं होती l और वह उस की
देह भोगते हुये राजनीति की राह में मंत्री बन कर और भी गुमराह होना चाहता है
l और शेखचिल्ल्यों की तरह सपने देखता है कि कभी शायद वह मुख्यमंत्री बन
जाए l उधर औरत के मन में हरसिंगार खिलने की नौबत नहीं आती l मन के
आंगन में हरसिंगार का पेड़ ही नहीं पनप पाता l एक औरत और एक आदमी l एक की
राजनीति और दूसरे की कला मिल कर जो जलजला होना चाहिए वो हो नहीं पाता l
उन का संगम तो होता है पर उन की धारायें मिल नहीं पातीं l देश की रूप रेखा
संवारने वालों की आकांक्षाएं असीमित होती जाती हैं l राजनीति में आ कर हर
पुरुष जैसे कन्हैया हो जाता है जिस के लिए जहां-तहां बृजबालाओं का होना ज़रूरी है l अकेलेपन को झेलती कोई सुहागिन रुक्मिणी अपने पति के इंतज़ार में आंखें बिछाए दिन काटती रहती है और उस का कन्हैया किसी की बाहों में रातें
गुज़ारता है l बालाओं और अबलाओं का शिकार करते रहते हैं l इन राजनीति के
कन्हैयों को राधा या मीरा का प्रेम नहीं रुचता l इन्हें तो देह दंश मारने
को किसी की देह चाहिए l चाहें स्त्री की हो या देश की l एक बार सत्ता की
ताकत मिली नहीं कि वह देश में भी दंश मारने लगते हैं l लेखक ने इस
कहानी में कला, राजनीति, मीडिया, विधायक, विधायिका, मंत्री, संपादक, देह,
देश, फोटोग्राफर, कैमरा, मंच, पब्लिक आदि से बना एक ऐसा कोलाज प्रस्तुत
किया है जिस में इन सभी लोगों की महत्वाकांक्षाओं के रंग भरे हैं l कहानी की
शुरूआत होती है एक भोली और कमसिन लड़की से, एक गायिका निर्मला के अतीत से जब
वह पहली बार एक विधायक से मिलने पर उस की बातों में फंस कर उसे देह दे
बैठती है l और हर औरत की तरह वह उसे अपना साहिल भी समझ बैठती है पर उस
विधायक के लिये जीवन में निर्मला से अधिक मंत्री पद की लालसा है जिस के लिये
मुख्यमंत्री की निगाह में आना ज़रूरी है l हर औरत की तरह निर्मला भी चाहती
है कि उसकी ख्वाहिश पूरी हो और वह उस के जीवन में स्थापित हो सके l बाद में
मिश्रा जी और गायिका निर्मला दोनों के सपने पूरे होते हैं l एक मंत्री बनता
है और दूसरी पत्नी l फिर एक अंतराल बाद उन्हीं मुख्यमंत्री से मुलाक़ात
होती है l अतीत की यादों के झटकों के साथ मुख्यमंत्री, मिश्रा और मिसराइन
के बीच कितने ही संवाद उन के ओंठों से नहीं, मन ही मन में होते रहते हैं l
शराब और सेक्स में लिपटे राजनीति के ऐसे माहौल में मंत्री पद पाने के लिए
कुछ लोगों की पत्नियाँ भी मुख्यमंत्री का अहसान नहीं भूल पातीं l निर्मला
जी को मुख्यमंत्री जी से भीड़ में मिलने जाने की क्या ज़रूरत थी? लेकिन
नहीं भीड़ में होने वाले खतरों की परवाह किए बिना मुख्यमंत्री से हाय-हेलो
कहने फरफराती हुई पहुंच जाती हैं l मुख्मंत्री को और क्या चाहिए ? अब उन के
हाथों को तोड़ा तो नहीं जा सकता l इतनी भीड़ की आड़ लेते हुए उन के हाथ
निर्मला जी के बदन पर मचल ही जाते हैं l ऐसे लोग मौका पाते ही भीड़-भाड़ में
भी कमीनी हरकतें करने से बाज नहीं आते l अपनी भड़ास निकाल ही लेते हैं l
औरतों की देह पर डंक मार ही देते हैं l लेकिन स्मार्ट मीडिया के कैमरे की आंख और फिर कन्हैया व प्रभाकर जैसे लोगों की आंखों से कुछ छुपा नहीं रहता l
ये लोग ऐसी बातों में मिर्च-मसाला मिला कर चटपटा बनाते रहते हैं l किसी की
पारिवारिक इज्ज़त जाए तो उन की बला से l ऐसे लोगों को इंतज़ार रहता है कि कब
पब्लिक में खिंची किसी औरत के बारे में अश्लील फोटो अखबार में छपे l जैसा
कि मुख्यमंत्री और निर्मला मिश्रा की तसवीर को ले कर होता है l उधर
मिश्रा व मिश्राइन दोनों को ही ये चिंता खाए जा रही है कि कहीं वो फोटो
किसी के हाथ ना लग जाएं या अखबार में ना छप जाएं l और मुख्यमंत्री के
हाथों का शिकार बनी मिसराइन बाथटब में अपने को रगड़ कर क्या उस दंश का
प्रभाव अपने दिमाग से मिटा पाएंगी? ऐसी ओछी और घिनौनी हरकतें करने वाले
मंत्रियों और विधायकों की इमेज पब्लिक में तो बगुला भगत सी होती है
पर
इन के निवास पर क्या-क्या होता है इस कहानी से साफ जाहिर होता है l इन
लोगों
की बातों में और इन की जिंदगी में बात-बात में गंदी गालियां और कितनी
अश्लीलता भरी होती है इसे पढ़ कर पाठक के दिमाग का जाला साफ होने लगता है l
विधायक से मंत्री बने मिश्रा जी का खून मुख्यमंत्री की घिनौनी हरकत से इतना
खौलता है कि पूछो ना l उन का बेकाबू होना लाजिमी है l पर बदला कैसे
निकालें मुख्यमंत्री जी से? उन्हीं के तलवे चाट कर तो ये पदवी हासिल हुई है
l
'मिश्रा जी का मन बड़ा उद्विग्न है l मलिन है, खिन्न है l खिला-खिला मन
अचानक कुम्हला गया है किसी कुम्हड़े की बतिया की तरह l बसिया गया है मन,
बिलबिला गया है, जैसी कहीं कुछ महत्वपूर्ण बिला गया हो l बुझ गये हैं वह l'
राजनीति की चमक-दमक में इंसान अपने निजी जीवन में कितना कुछ खो देता है l
मिश्रा जी कितना भी बिलबिलायें या झल्लायें पर समय की सुई तो नहीं
घुमाई जा सकती कि वह दंश लगने से पहले भीड़ में दनदनाती मिसेज मिसरा को रोक
लें l मन का दंश भी किसी देह दंश से कम नहीं होता l मिसराइन बाथटब में
कितना भी शरीर रगड़ें पर ना तो उन के मन और शरीर का दंश मिट पायेगा और ना
ही
मिश्रा जी के मन की छटपटाहट l जो होना था वो हो चुका l यह कहानी राजनीति ,
देह और मीडिया की दुरभिसंधि को तार-तार करती है ।
अपने
बचपन की यादें ऎसी चीज है जिसे कोई नहीं भूल पाता और ना ही भूलना चाहता है
l उन यादों को कभी भी कोई मिटा नहीं पाता l वह यादें कभी न कभी उभर कर मन
में हलचल करने लगती हैं l हर किसी को जब अपना बचपन याद आता है तो जीवन में
कभी उस जगह को भी जा कर देखने को मन करता है जहां इंसान पैदा हुआ और
पढ़-लिख कर बड़ा हुआ l सालों गुज़र जाने पर, जिंदगी के रूप बदल जाने पर भी
यादें जैसी की तैसी रहती हैं l यादों को उखाड़ कर फेंका नहीं जा सकता l
कई मायनों में गांव बदल जाते हैं, शहर बदल जाते हैं, वहां रहने वाले लोग व
उन की बातें बदल जाती हैं-पर वो यादें नहीं बदलतीं l इंसान जब उस जगह को
देखने कभी पहुंचता है तो वहां की हर चीज़ व व्यवस्था बदली हुई मिलती है l ये
कहानी भी उसी बात को ले कर लिखी गई है l कोई संगी-साथी मिलने पर और उस के
कुरेदने पर मन पता नहीं कहां -कहां बचपन की यादों में भटकने लगता है, उलझने लगता है l और अपने बचपन से संबंधित बातों को इंसान शेयर करने लगता
है l यही होता है इस कहानी में जब शरद कई सालों बाद अपने एक दोस्त के साथ
अपने बचपन के एक छोटे से शहर में आता है तो वहां के पार्क, स्कूल, सड़कें,
बिल्डिंगे और लोगों को ढूंढ़ता फिरता है l तो वहां शहर में तमाम कुछ बदल
चुका होता है l स्कूल भी वैसा नहीं रहता l वह चीज़ें, दुकाने और गिल्ली-डंडा
खेलना सब याद आने लगता है पर ना ही वह चीज़ें रहती हैं, ना ही तमाम
इंसान या गिल्ली डंडा l उन की जगह औरों ने ले ली होती है l स्कूल में होने
वाले नाटक आदि सब याद आने लगते हैं उसे l और जैसा कि आम तौर पर होता है कि
बड़े हो कर लड़के अपने संगी-साथियों से सेक्स और लड़कियों की बातें अकसर करंते
रहते हैं l तो इस कहानी में भी यही दर्शाया गया है l साथ में पढ़ने वाले
छात्रों की बात चलते ही प्रमोद लड़कियों पर आ जाता है l शरद के बचपन की
यादों में भी लड़कियां हैं l एक कोई छोटी सी लड़की थी जिस पर शरद को क्रश हो
गया था l इस तरह के क्रश की बातों से दयानंद जी की कई प्रेम कहानियों के
पात्र याद आ जाते हैं l जिनमे से कुछ में स्कूल या कालेज के दिनों में
प्रेम प्रस्फुटित हुआ किंतु कभी परिस्थितियों तो कभी संकोचवश उन का टांका
उन लड़कियों से नहीं फिट हो पाया l कुछ चिट्ठियां लिख कर रह जाते हैं जैसे
कि
'सुंदर भ्रम' में, तो कुछ अतीत में हुए संवादों को मन में अकसर
दोहराते रहते हैं l 'प्रतिनायक मैं ' में धनंजय का शिप्रा से संकोचवश अपनी
प्रेम
भावना को न बता पाने से उस की शादी अन्यत्र हो जाती है l और वह हाथ मलता
रह
जाता है l 'वक्रता' के प्रेमी का भी कुछ यही हाल होता है l खैर, हर किसी
का बचपन बड़ा अनूठा होता है और उन दिनों के संगी-साथियों को लोग बूढ़े हो
जाने पर भी नहीं भूल पाते l इस कहानी में भी यही दिखाया गया है कि शरद
की यादें सजीव होने लगती हैं l स्कूल के दिनों की बातों में प्रमोद लड़कियों
की बात छेड़ता है तो शरद खुलासा करता है बताता है उसे भी किसी सविता नाम की
लड़की पर क्रश था और एक इमली खाने वाली लड़की से भी लगाव हुआ था पर संकोचवश
उस लड़की को शरद अपनी भावनायें नहीं बता पाया और उस की शादी कहीं हो जाती है
l
ऐसा जीवन में हो जाता है और लोग हाथ मलते रह जाते हैं l शरद अपने बचपन की
यादों में डूब कर हर बात प्रमोद को बहुत पैशन से बताता है l लेकिन
प्रमोद उसे लड़कियों के बारे में और कुरेदता रहता है l प्रमोद को तो आते ही
शरद के शहर की लड़कियां आकर्षक लगने लगती हैं और वह उन पर लट्टू होने लगता
है
l उस की बातें और जिज्ञासा सिर्फ़ लड़कियों के बारे में है l वह उन की भोली
छवि व सादगी पर मोहित होने लगता है l चलती-फिरती और घूमती लड़कियों में वह न
जाने क्या देखता है कि शरद को अपनी इच्छा बताता है कि वह शादी भी उसी
के शहर की लड़की से करना चाहता है l यहां तक कि शरद के किसी परिचित के यहां
जाने पर उन की शादी योग्य बेटी को ही पसंद कर बैठता है और इतना उतावला है
कि
उसी समय शादी की बात चलाने की कोशिश करना चाहता है l इस तरह के लोग ये
नहीं सोचते कि जिस तरह की उन की आदतें हैं तो उन से कौन अपनी बेटी की शादी
करना चाहेगा l उस ने तो लड़की पसंद कर ली किंतु क्या लड़की भी ऐसे इंसान से
शादी करना चाहेगी जो हर लड़की पर लट्टू हो जाता हैl जिसके लिये सेक्स व
ऊपरी सुंदरता सब कुछ है वह इंसान भंवरे की तरह अपनी पत्नी को किसी भी दिन
छोड़ सकता है l और तो और वो तो वहां के रेड लाइट एरिया में कोठे वाली के पास
तक जाना चाहता है l लेकिन समस्या होने से उस की दाल नहीं गलती और फिर उस
का
मन वहां से उखड़ जाता है l जाहिर है कि वह उन लोगों में से है जिन की
दिलचस्पी केवल शराब, शबाब और कबाब में होती है l
शुरू से
आखिर तक शरद
के संग घूमते-फिरते उसके बचपन के स्कूल और उस की यादों में दिलचस्पी लेते
हुए प्रमोद का केंद्र -बिंदु सिर्फ़ लड़कियां ही हैं l वह अन्य बातें भी
करता है जैसे कि गानों की l लेकिन उन पुराने गानों को लिखने की वजह सुंदर
लड़कियों को बताता है l सोचता है कि उन्हें लिखने वालों के शहर की लड़कियां
भी सुंदर रही होंगीं l लौट-फिर कर हर बात में लड़कियां ही हैं उस की चर्चा
का
विषय l उसे अच्छी तो लग रही हैं भोली लड़कियां लेकिन खुद की आदतें सही
नहीं हैं l अंजान चीजों की तरह ही शहर की व्यवस्था भी बदल चुकी होती है
जिस से इंसान की पहचान नहीं l देश की बेतरतीब प्रशासन व्यवस्था, अफसरों की
तानाशाही और उन के व्यवहार के असली रूप को अगर कोई अच्छी तरह जानना चाहे तो
उसे दयानंद पांडेय जी के उपन्यास व कहानियों को पढ़कर ही अंदाज़ा हो सकता
है l
इस व्यवस्था का रूप हमें आपकी इन कहानियों के अलावा कुछ उपन्यासों
जैसे 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' व 'वे जो हारे हुए' आदि में भी देखने को
मिलता है l स्वयं भी पत्रकारिता और लोगों के इंटरव्यू का अनुभव रखने वाले
लेखक की पैनी नज़र से उन की इन समकालीन कहानियों में व्यवस्था के हर रूप का
ज़िक्र हुआ है l भविष्य में भी आप की कलम की प्रतिबद्धता यूं ही बनी रहे ऐसी
मनोकामना है l
[ व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य कहानी संग्रह की भूमिका ]
-शन्नो अग्रवाल
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आपका हार्दिक धन्यबाद l
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