बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल |
हिंदी ब्लागिंग के आदि पुरुष और अगुआ, फुरसतिया ब्लॉग तथा चिटठा चर्चा के जनक अनूप शुक्ला जी कल जबलपुर से कानपुर होते हुए लखनऊ आए तो आज हमारे घर भी अपने चरण ले आए । साथ में सत्यार्थमित्र डॉट काम के सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी भी आए । बाद में विवेक जी भी आ गए । मनो बैठे-बैठे ब्लागियों की छोटी-मोटी बैठकी हो गई। इन दिनों अनूप शुक्ल भले जबलपुर की सर्वहारा पुलिया का हाल - हवाल बांचते रहते हैं पर कभी सूरज से दोस्ती गांठ कर रोज सूरज से बतकही कर हम सब को लाल सूरज के सवाल भी बताते थे और सूरज का कोई सामाजिक सरोकार भी हो सकता है , यह उन की सूरज की बतकही से फरियाता रहता था । हम तो सूर्य और उस की रोशनी , उस की आग को जानते थे । सूर्यपुत्र कर्ण और उस के सुलगते सवाल जानते थे । ओजोन लेयर निरंतर फटता जा रहा है प्रदूषण के चलते और धरती पर उस की आग बढ़ती जा रही है , यह और ऐसी तमाम बातें जानते थे । सूर्य की पहली किरन से सूर्य की अंतिम किरन तक को जानते थे ।और भी तमाम कथाएं , अवांतर कथाएं । वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक बातें । हेन और तेन भी । और अजय गुप्त की वह कविता भी कहीं मन में थी जो अनूप शुक्ल के सौजन्य से पढ़ने को मिली थी :
सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
लेकिन आग का गोला सूरज इतना रोमेंटिक और इतना सहृदय भी हो सकता है , इतना सरल और संवेदनशील, इतना भावुक और इतना विह्वल भी हो सकता है हम नहीं जानते थे । यह तो अनूप शुक्ल रोज-रोज सुबह-सुबह अपनी पोस्ट पर बतियाते हुए बता देते थे । सूरज से बतियाने के बहाने अनगिन सुख और दुःख वह कब और कैसे शेयर करते-करते, सूरज से बतियाते-बतियाते वह कब उसे चाय पिला कर विदा कर देते थे पता ही नहीं चलता था । कई बार गुलज़ार के धारावाहिक ग़ालिब की याद आ जाती थी । जैसे गुलज़ार ग़ालिब की किसी ग़ज़ल से अचानक कोई एपीसोड समाप्त कर देते थे और उस एपीसोड के ख़त्म हो जाने से दिल धक से हो जाता था , ठीक वैसे ही अनूप शुक्ल को सूरज को विदा करने पर होता था । इन अनूप शुक्ल और इन का सूरज जैसे मेरी आदत बन चले थे । फेसबुक पर मेरी दोस्त निरुपमा पांडेय जी को दो एक बार अनूप जी की पोस्ट कॉपी कर के भेजी तो वह अनूप जी के सूरज को पढ़ कर बहुत खुश हो गईं । मैं ने उन्हें बताया कि यह मेरे मित्र अनूप शुक्ल की पोस्ट है , आप चाहें तो उन की वाल पर जा कर रोज यह पढ़ सकती हैं । उन को अनूप शुक्ल जी का फेसबुक लिंक भी मैं ने दे दिया सुविधा के तौर पर । फिर वह भी अनूप जी के सूरज का नित्य पाठ करने लगीं । मुरीद हो गईं वह भी अनूप शुक्ल और उन के सूरज की । जाने कितने मित्र हैं अनूप जी के , जाने कितने प्रशंसक हैं उन के और उन के सूरज पुराण के कि कुछ कहना कठिन है । मैं ने उन से एक बार कहा भी कि इसे संकलित कर के किताब के रूप में तैयार कर के प्रकाशित कीजिए । पर जाने क्यों वह हूं - हां कर के इसे टाल गए । और जल्दी ही अपने सूरज माहात्म्य को भी वह बिसरा गए । जब वह कानपुर में रहते थे तब सूरज के साथ उन की चाय की चुस्की छाई हुई थी । भरी बरसात में भी बादलों के पार जा कर भी वह जैसे सूर्य महराज को अभिमंत्रित कर लेते थे । किसी ओस , किसी बच्ची के झुमकों पर भी वह सूरज महराज को झुमवा देते थे नचा देते थे किसी भी खुश मौक़े पर । रुला देते थे सूरज को भी किसी अनजाने दुःख पर भी। लेकिन जब वह तबादला पा कर जबलपुर गए तो भी सूरज महराज उन की चाय रोज पीते रहे । पता नहीं कब वह सूरज से बतियाते-बतियाते सर्वहारा पुलिया पर जाने लगे और सूरज की बतकही को बिसरा कर सर्वहारा पुलिया के जन-जीवन पर निसार हो बैठे । यह भी सब गुड लगता है । लेकिन देवेंद्र कुमार की एक कविता है कि , ' अब तो अपना सूरज भी / आंगन देख कर धूप देने लगा है !' तो शायद सर्वहारा पुलिया पर यह कविता तारी हो गई है । इस पुलिया की बिसात पर सूरज नहीं उग पाता । सर्वहारा जो ठहरी ! ज़िक्र ज़रुरी है कि अनूप शुक्ल रक्षा मंत्रालय के आर्डनेंस फैक्ट्री में एडिशनल जनरल मैनेजर भी हैं ।
मैं और अनूप शुक्ल | |
बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल | |
अनूप शुक्ल अच्छे ब्लागर ही नहीं ,अच्छे व्यंग्यकार भी हैं। गद्य और पद्य
दोनों में ही खासी महारत हासिल है ।इन का कट्टा कानपुरी तो जैसे धमाल मचाए
रहता है । और आज-कल तो चूंकि जबलपुर में हैं तो जैसे हरिशंकर परसाई से भी उन
की रिश्तेदारी भी हो ही गई है । हर किसी बात पर वह कब कैसी टिप्पणी झोंक
दें ,वह भी नहीं जानते । एक से एक गंभीर मसलों को भी वह चुटकी बजाते ही इस
सरलता और सहजता से व्यंगिया देते हैं कि आनंद आ जाता है । व्यक्तिगत
कठिनाइयों को भी इस फक्कड़ई से वह बयान कर देते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो ।
अपने ऊपर व्यंग्य करना कठिन होता है पर अनूप यह कर लेते हैं । तमाम
व्यंग्यकार पत्नी या अन्य लोगों के बहाने तीर चलाते हैं पर अनूप अपने ही ऊपर
। अपने ही बहाने । हलकी फुलकी घटनाएं भी वह दर्ज करते रहते हैं। रूटीन
मसलों को भी वह भव्य बना देते हैं । भाषा जैसे उन की गुलाम बन जाती है और
उन के मोबाइल के चित्र जैसे गवाह । उन के ब्लॉग पर व्यंग्य ही नहीं उन के पसंदीदा कवियों की कविताएं , कुछ कवियों की आडियो भी उपस्थित हैं । तमाम और लेख भी ।
बाएं से क्रमश: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी , मैं और अनूप शुक्ल |
अनूप जी से आमने-सामने मेरी भेंट भले आज पहली बार हो रही थी पर हम लोगों का परिचय आबूधाबी में रह रहे कहानीकार मित्र और निकट पत्रिका के संपादक कृष्ण बिहारी जी ने करवाई थी । अब तक हम लोग फ़ोन पर , नेट पर , मेल पर बतियाते रहे हैं नियमित । पर आज जब रुबरु हुए तो कृष्ण बिहारी जी की भी चर्चा हुई । कानपुर के और लेखकों की भी चर्चा हुई । गोविंद उपाध्याय के इधर लगातार लिखने का ज़िक्र भी हुआ । लखनऊ की मित्र निरुपमा पांडेय का भी ज़िक्र चला। सूरज प्रसंग को संकलित कर पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने की भी बात चली । दुःख-सुख की तमाम बातें हुईं। बातें और भी बहुतेरी हुईं पर दीपावली पर लोगों का आना-जाना बैरियर बनता गया । फिर जल्दी ही लखनऊ आने की बात कह कर अनूप शुक्ल विदा हुए । वह चले भले गए हैं पर लगता है गोया अपने सूरज की ही तरह शाम के बादल में छुपे जैसे वह अभी भी बतिया रहे हैं । यकीन न हो तो लीजिए सूरज से उन की गुफ़्तगू का लुत्फ़ आप एक बार फिर लीजिए । टुकड़ों-टुकड़ों में :
आज सुबह सोचा था कि कुछ देर उदास रहेंगे। लेकिन कमरें में घुस आयी धूप ने उदासी में खलल डाल दिया। रही सही कसर सामने मैदान में खेलते बच्चों की खिलखिलाती आवाजों ने पूरी कर दी। उदास होने का प्रोग्राम कैंसल।
* * *
सबेरे उठे तो देखा पेड़-पौधे राजा बेटा बने खड़े थे। धुले-धुले। खिले-खिले। कतार में खड़े युकिलिप्ट्स ऐसे लग रहे थे मानों किसी वी आई पी को गार्ड ऑफ़ ऑनर देने के लिए गर्दन अकड़ाये खड़े हों।सामने सड़क पर इक्का दुक्का वाहन गुजर रहे हैं।
* * *
सूरज की किरणें भी बड़े खिलन्दड़े मूड में हैं आज। सड़क पर सरपट जाती महिला के कान के बालें में लटक कर झूला सरीखा झूलने लगीं। कान का बाला रोशनी से नहा सा गया। ऐसे चमकने लगा जैसे अनगिनत चकमक पत्थर रगड़ दिये हों किसी ने बाले में। रोशनी की थोड़ी चमक आंखों तक जा पहुंची बाकी सब सूरज की किरण ने दुनिया भर में बिखेर दी।
दूसरी किरण एक बच्ची की नाक की कील पर बैठकर उछल-कूद करने लगी। नाक की कील चमकने लगी। उसकी चमक किसी मध्यम वर्ग की घरैतिन को सब्सिडी वाला गैस सिलिन्डर मिलने पर होने वाली चमक को भी लजा रही है। रोशनी से बच्ची का चेहरा चमकने लगा है, आंखों और ज्यादा। आंखों की चमक होंठों तक पहुंच रही है। लग रहा है निराला जी कविता मूर्तिमान हो रही है:
नत नयनों से आलोक उतर,
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।
* * *
लेकिन छत पर गए तो देखा सूरज भाई आसमान में चमक रहे थे। कुछ ऐसा लगा जैसे किसी बाबू को आप गैरहाजिर समझो वो अचानक फाइलों डूबा काम करता दिखे।
पक्षी आपस में गुफ्तगू टाइप करते दिखे।हर पक्षी अलग अलग आवाज में अपने को अभिव्यक्त कर रहा था। एक पक्षी अचानक एक पेड़ से उड़ा और लहराता हुआ पेड़ की तरफ चल दिया। बीच में पंखों से उसने हवा नीचे दबाई। हवा ने भी उसे ऊपर को उछाल दिया।उसके उड़ने के अंदाज से लग रहा था कि अभी उड़ना सीख रहा है ।जैसे कोई बच्चा साइकिल चलाना सीखता है वैसे ही वह लहराता हुआ उड़ रहा था।लग रहा था अब टपका तब टपका।
पक्षी सामने के पेड़ पर पहुंच गया।वहां पहले से बैठे पक्षी ने "चोंच मिलाकर" उसका स्वागत किया।चोंच मिलाते हुए पक्षी एक दूसरे को चूमते हुए लगे।चूमते नहीं पुच्ची लेते हुए।बीबीसी की एक खबर याद आई जिसमें इस बात पर चरचा थी-"क्या चूमने से पहले पूछना चाहिए?" बीबीसी की खबर से बेखबर दोनों ने फिर एक दूसरे का "चोंच चुम्मा" लिया और थोड़ा सा उचककर दूसरी डाल पर बैठ गये।
सामने बच्चे झूला झूल रहे हैं।सड़क पर चहल-पहल बढ़ गयी। अचानक फिर बारिश होने लगी। सूरज भाई भीगने से बचने के लिए हमारे साथ बैठे चाय की चुस्की ले रहे हैं। हम उनको बिन मांगी सलाह दे रहे हैं-"एक ठो रेन कोट काहे नहीं ले लेते?"
सूरज भाई मुस्करा रहे हैं। सबेरा हो गया है।
* * *
ये सूरज भाई ऐसे पेड़ों के कोन में आइसक्रीम सरीखे घुसने की कोशिश में लग रहे हैं। ऐसे भी लग रहा है जैसे सूरज पेड़ों की निहाई पर ( Anvil) पर धरा हो और आसमान उस पर हथौड़े से प्रहार कर रहा हो जिससे उसकी रोशनी फूट-फूट कर इधर -उधर छितरा रही है | मानों पेड़ ने अपनी मुट्टी में सूरज को धर लिया हो। दिशाएं हंस रहीं हैं सूरज और पेड़ की इस हरकत पर। लग तो यह भी रहा है कि डूबने के पहले सूरज पेड़ों के कन्धों पर लटका हुआ 'प्रकाश के प्रयोग' कर रहा है। मन तो किया कि टोंक दें लेकिन फिर सोचा किसी की निजी जिन्दगी में क्या दखल देना।
एक सीन तो यह भी बन रहा है कि गरम सूरज को आसमान पेड़ों की संडासी में फंसाए पश्चिम दिशा को ले जा रहा है वहां जाकर देगा एक किनारे| दिन भर का थका हारा सूरज अब मार्गदर्शक बनने लायक ही रह गया दीखता है |
शाम को गयी थी उस दिन। अब तो सूरज भाई नये तेवर के साथ आकाश पर दैदीपिय्मान हैं।
* * *
कई दिनों के रिमझिम और पटापट बरसात के बीच आज अचानक सूरज भाई दिख गये। कुछ ऐसे ही जैसे 365 अंग्रेजी दिवस के बीच अचानक हिन्दी दिवस मुंडी उठाकर खड़ा हो जाये। बीच आसमान में खड़े होकर तमाम किरणों को सिनेमा के डायरेक्टर की तरह रोल समझाते हुये ड्यूटी पर तैनात कर रहे थे।
पानी से भीगे पेडों की पत्तियों, फ़ूलों और कलियों को सूरज भाई ऐसे सुखाने में लगे हुये हैं जैसे कोई सद्यस्नाता अपनी गीले बाल सुखा रही हो! सुखाते-सुखाते बाल झटकने वाले अन्दाज में सूरज भाई फ़ूल-पौधों पर हवा का फ़ुहारा के लिये सूरज भाई ने पवन देवता को ड्यूटी पर लगा रखा है। इस चक्कर में कुछ-कुछ बुजुर्ग फ़ूल नीचे भी टपक जा रहे हैं। पेड़ पर के फ़ूल गिरे फ़ूलों को ’मार्गदर्शक फ़ूल’ कहते हुये सम्मान पूर्वक निहार रहे हैं। नीचे गिरे हुये फ़ूल निरीह भाव से पेड़ पर खिलते चहकते हुये फ़ूलों को ताक रहे हैं।
पानी से भीगी सड़क को किरणें अपनी गर्मी से सुखा रही हैं। सड़क को इतना भाव मिलने से वह लाज से दोहरी होना चाहती है लेकिन कई दिनों की ठिठुरन के बाद मिली ऊष्मा के चलते वह अलसाई सी निठल्ली पसरी हुई है। आलस्य ने लाज को स्थगित रहने को कह दिया है।
बगीचे की घास भी इठलाते हुये चहक रही है। घास के बीच की नमीं किरणों की गर्मी को देखते ही उठकर चलने का उपक्रम कर रही है। किरणें और रोशनी तो नमी का खरामा-खरामा जाना देखती रहीं लेकिन उजाले ने जब देखा कि नमी के कम होने की गति नौकरशाही के काम काज की की तरह धीमी है तो उसने होमगार्ड के सिपाही की घास के बीच गर्मी का डंडा फ़टकारते हुये उसको फ़ौरन दफ़ा हो जाने का हुक्म उछाल दिया। नमी थोडी देर में ऐसे हड़बड़ाकर फ़ूट ली जैसे कांजी हाउस का की दीवार टूटने पर मवेशी निकल भागते हैं। नमी को भागते देखकर घास की पत्तियां चहकते हुये खिलखिलाने लगीं।
सूरज भाई इतनी मुस्तैदी से अपना काम अंजाम दे रहे थे कि उनको चाय के लिये बुलाने में भी संकोच हो रहा था। हमने उनको ' हैप्पी हिन्दी दिवस ’ कहा तो वो हमको देखकर मुस्कराने लगे। ’हैप्पी हिन्दी दिवस’ हमने इसलिये कहा था कि सूरज भाई टोकेंगे और कहेंगे कि आज तो कम से कम ठीक से हिन्दी बोलना चाहिये। जैसे ही वे टोकते तो हम कह देते - "सूरज भाई देखिये ’हैप्पी हिन्दी दिवस’ में ’ह’ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास की छटा कैसी दर्शनीय बन पड़ी है। अभिनव प्रयोग है! "
लेकिन सूरज भाई हमारी उछल-कूद से बेखबर अपना काम करने में लगे रहे। शायद वे यह बताना और जताना चाहते हैं कि दिखावा करते रहने की बजाय काम करना ज्यादा जरूरी है।
सुबह क्या अब तो दोपहर होने वाली है। सूरज भाई का जलवा बरकरार है।
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और दिलचस्प यह कि कल कानपुर-लखनऊ के रास्ते आते ही वह फिर से सूरज महाराज से बतियाने लगे । पहले ही के अंदाज़ में । यक़ीन न हो तो लीजिए उन की कल की यह पोस्ट बांच लीजिए :
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सबेरे-सबेरे नींद खुली तो देखा सूरज भाई खिड़की के बाहर ट्रेन के साथ-साथ चल रहे थे। गोल बिंदी जैसे सजे थे आसमान के माथे पर। देखते-देखते उनके आसपास का आकाश भी उनके ही रंग में रंगता गया। फिर सबका रंग बदलता गया।
यमुना नदी पड़ी रास्ते में। सूरज का प्रतिबिम्ब ऐसे पड़ रहा था नदी में मानो वो दिया जला रहा हो नदी के किनारे। शाम को और लोग जलाएंगे दिया। भगायेंगे अँधेरा। लेकिन सूरज का तो यह रोज का काम है अँधेरे का। उनकी तो रोजै दीवाली मनती है। कोई दीवाली के मोहताज थोड़े हैं सूरज भाई।
ट्रेन की चेन जगह-जगह खिंचती है। लोग उतरते हैं। ट्रेन एक घंटा लेट है। एक यात्री रेलवे विभाग को मदिरियाते हुए गरियाता कि अब वे ट्रेन के समय सुधार का तो कोई प्रयास करेंगे नहीं। 500/600 किमी यात्रा 12 घंटा में हो रही है। देश बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है।
ट्रेन की पटरी के दोनों तरफ कूड़े का साम्राज्य सा पसरा है। कानपुर में ट्रेन का 'पालीथिन कारपेट' स्वागत हो रहा है। लगता है 'स्वच्छ भारत अभियान' कानपुर को गच्चा देकर निकल गया।
एक बुतरू कुत्ता ट्रेन की पटरी के बीच बैठा आराम से धूप सेंक रहा है। सूरज भाई उसको फुल विटामिन डी सप्लाई कर रहे हैं।
ऑटो वाला हमको ऑटो में बिठाकर अपनी कमीज बदल रहा है। खाकी वर्दी पहन रहा है। बताते हुए की चौराहे पर खाकी वर्दी वाले परेशान करते हैं।
कानपुर की सड़क पर चिर परिचित चहल-पहल है। सूरज भाई अब एकदम फुल फ़ार्म में हैं। दीवाली की मुबारकबाद देते हुए कह रहे हैं- झाड़े रहो कलट्टरगंज।
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याद आता है नंदन जी किसी बात पर जब बहुत खुश हो जाते थे तब शाबासी देते हुए जब-तब कहते ही रहते थे और बरबस ही , ' झाड़े रहो कलट्टरगंज !'और जब बहुत हो गया तो एक दिन नंदन जी से पूछ ही लिया कि यह झाड़े रहो कलट्टरगंज ! है क्या ? तो वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बताने लगे कि कानपुर में कलट्टरगंज एक मुहल्ला है । और जैसे जीत का एक प्रतीक । तो कानपुर में कलट्टरगंज विजयी होने का जैसे एक प्रतीक है । तो हमारे अनूप शुक्ल भी लखनऊ आ कर लखनऊ में भी कलट्टरगंज झाड़ गए । अपना झंडा गाड़ गए ! मन करता है नंदन जी की तरह अनूप शुक्ल से मैं भी बार-बार कहूं , ' झाड़े रहो कलट्टरगंज !'
बढियां है सूरजनामा! इन दिनों अँधेरे के पीछे हाथ धोकर पड़े है बिचारा जयंत सा भाग रहा है ब्रह्माण्ड में! :-)
ReplyDeleteहम भी यही कहते हैं ' झाड़े रहो कलट्टरगंज !' ;)
ReplyDeleteमतलब छा गए ...। बड़ी प्यारी पोस्ट बन पड़ी है, हमारे जैसे अनूप फैन्स के लिये। धन्यवाद।
ReplyDeleteअनूप शुक्ल पर एक बेहतरीन पोस्ट !
ReplyDeleteवे "कॉमन मैन" का रोल बेहतरीन निभाते हैं, मेरे अनुभव में वे शानदार व्यंग्यकार हैं , उनकी मार झेलनी आसान नहीं ! इस व्यंग्य पुरुष पर पोस्ट लिखने के लिए आभार एवं मंगलकामनाएं आपको !
वे व्यंग्यकार भी हैं से आपत्ति है। वे मूलतः व्यंग्यकार हैं और अपने समय के बेहतरीन।
ReplyDeleteअनूप जी के बारे में लिखना खतरे से खाली नहीं है, वे इतने खतरनाक हैं।
झाड़े रहने में आपका भी कोई मुकाबला नहीं है पांडे जी।
ReplyDeleteबहुत कुछ सुनने-जानने को मिला आपसे हुई इस मुलाकात में।
अनूप जी के खैर क्या कहने...! बढ़िया पोस्ट।
सर्व प्रथम दया नन्द पांडे जी को नमन एवं साधुवाद । । आपने अनूप जैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व और उनके लेखन को जिन भावपूर्ण मोतियों की लड़ियों में पिरोया है, काबिलेतारीफ है । अनूप सदृश्य सरल व्यक्तित्व वाला इन्सान आज के इस जटिलतम युग में होना मुश्किल जरूर है । आपका लेखन , व्यंग्य ,सूरज पुलिया सामाजिक एवं सम सामयिक मुद्दों पर लिखे गए लेखन को पढ़कर "क्या बात है, क्या बात है, क्या बात है" कहते रह गये । अनूप जी ने सूरज, पुलिया को जो मूर्ति मान रूप देकर शब्दों में ढाला है , उसको बयां नहीं किया जा सकता ।वे इसी तरह का साहित्य देश और समाज को देते रहें ,यही हमारा आशीर्वाद है
ReplyDeleteकल आपसे मिलकर आनंदित हुये। घंटे कैसे गुजर गये पता ही न चला।
ReplyDeleteतारीफ कुछ ज्यादा ही हो गयी लगती है अपन की। जब से पोस्ट पढ़ी तब से लग रहा है ई कौन अनूप शुक्ल हैं जिनके बारे में लिखा गया है यहाँ। :)
बाकी मुलाक़ात का फायदा यह हुआ की 'सूरज भाई' से सम्बन्धित 38 पोस्ट और फेसबुक से खोजकर अपने ब्लाग पर डाल दीं। कुल 87 पोस्ट हो गयीं अब 'सूरज भाई' वाली।इस लिहाज से यह पोस्ट फायदेमंद रही।इसके लिए आभार। :)
'झाडे रहो कलट्टरगंज' का किस्सा इस पोस्ट में बांचिये।
http://fursatiya.blogspot.in/2007/07/blog-post_20.html?m=1
ऐसी मुलाकातें यादगार हो जाती हैं, और जब उन्हें लिख दिया जाता है तो दस्तावेज़ भी :) शुक्ल जी मेरे ब्लॉग गुरु हैं. उनका लेखन अद्भुत है, लेकिन खुद उनकी दशा हनुमान जी जैसी है, जिन्हें अपनी ही ताकत का भान नहीं था. हनुमान जी तो याद दिलाने पर खुद को ताकतवर मान लेते थे, शुक्ल जी की सरलता ये है कि लाख याद दिलाने पर भी वे खुद को लेखक मानने को तैयार नहीं होते :) अब उन्हें कौन समझाये कि इस स्तर का लेखन स्वान्त: सुखाय नहीं होता, बल्कि बहुजन हिताय होता है और ऐसा करने के लिये किताब का जल्द ही प्रकाशन कितना जरूरी है. बहुत शानदार पोस्ट है आपकी.
ReplyDeletejo pyar aur sneh 'social media' me bhaiji ke prati dikhi............bahut sukhad.......mithas bhara hai.......
ReplyDeleteaahllad au khushi jabt karna par raha hai............
aapka abhar.........dhanywad........ke aapne .... apne/apnape ki tarah unpar likha...........
Unko...Apko....aur Unke sabhi chahnewalon ko PRANAM.