एक बच्चा दुधमुंहा
किलकारियां भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पांव में ।
तो
इन दिनों हर गांव में धान फूट गया हैं , कहीं-कहीं बस फूटने-फूटने को है
। हमारे गांव में भी फूट गया है । बुद्धिनाथ मिश्र जिन का कि यह गीत है उन
के मिथिला के गांव में भी धान ज़रूर फूट गया होगा । पर बुद्धिनाथ के इस गीत की तरह तो
हमारे कथाकार मित्र शिवमूर्ति के गांव कुरंग में ही धान फूट रहा है । उन
के खेत में बासमती की बालियां झूम रही हैं और किसी दुधमुंहे बच्चे की ही
तरह शिवमूर्ति किलकारियां मारते हुए अपने धान फूटते खेत को देख और दिखा रहे
हैं। अपने खेत और अपने गांव को देख कर ऐसे खुश होते कम ही लोगों को मैं
ने देखा है। और दुधमुंहे बच्चे जैसी किलकारी मारते , अपनी जड़-ज़मीन से इतना
रश्क करते शिवमूर्ति को देखना मन को विभोर कर देता है। ऐसे जैसे सुदर्शन
की कहानी हार की जीत में अपने घोड़े को देख कर बाबा भारती की बांछें खिल
जाती हैं , ठीक वैसे ही अपने गांव , अपने घर, और अपने खेत को देख कर , अपने
परिजनों को देख कर, अपनी भैस और गाय को देख कर, उन्हें छू कर शिवमूर्ति
की बांछें खिलते देखा मैं ने । यह सुख बहुत कम लोगों को नसीब होता है आज
की तारीख में यह सुख लगभग दुर्लभ होता गया है । हो ही गया है । जैसे वह
अपने गांव के, अपने खेत के पांव में किलकारियां मारते हुए बार-बार
बुद्धिनाथ मिश्र के गीत को क्षण-क्षण साकार कर रहे हों । शिवमूर्ति का घर
क्या है पूरा फ़ार्महाऊस है । हरियाली से झमाझम ! घर के सामने दूर-दूर तक खेत ही खेत । इन का भी,
दूसरों का भी । घर के सामने शहर की तरह खूब बड़ा लान । किसिम-किसिम के पेड़ ,
किसिम-किसिम के फूल । आम, कटहल , बेल आदि के पेड़ तो हैं ही रेड ब्लेज़ पीयर भी है । कमल से ले कर कचनार और किसिम-किसिम के गेंदा गुलाब तक । पलाश , अलमेण्डस से हरसिंगार तक । और इन सब के बीच सीना तान कर खड़े पाम के पेड़ । किसी शहर के किसी लान की शोभा तो ऐसी हो सकती है , इतने किसिम के वृक्ष और फूल पौधे तो हो सकते हैं , होते ही हैं पर किसी गांव में भी यह सब संभव हो सकता है भला ? पर यहां शिवमूर्ति के गांव के घर में संभव हो गया है । किसी
शूटिंग लोकेशन जैसा दृश्य है शिवमूर्ति के घर का । यह बात जब बताई उन्हें
तो वह बोले , यहां के लोकल लोग शूटिंग करते रहते हैं जब-तब । शिवमूर्ति का
घर नया-पुराना दोनों बना हुआ है ।
खपरैल का वह पुराना घर भी जिसे उन्हों ने खुद
मेहनत-मजूरी कर के बनाया है । अपनी पत्नी और महिला मित्र शिवकुमारी के साथ
कंधा से कंधा मिला कर । उस घर का बचा ढेर सारा खपरैल अभी भी उन्हों ने सहेज
कर रखा हुआ है कि जाने कब फिर ज़रूरत पड़ जाए तो कहां से ले आएंगे ।
शिवमूर्ति दरअसल जीवन ही नहीं , संवेदना भी जीते हैं । संवेदना की सलाई से बुना और बना जीवन जीने का रंग ही कुछ और होता है । लेकिन यह सलीक़ा , यह शऊर ,
यह शिद्द्त और यह सीरत सब के नसीब में कहां होती है भला ? शिवमूर्ति के
नसीब में है यह शिफत और कि इस की कैफियत भी , उस का रंग भी और रंगोजलाल
भी । शिवमूर्ति की बड़ी बहन खाना बना कर खिलाती हैं और उन के जीजा जिन को वह
गंवइहा कह कर संबोधित करते रहते हैं , बाकी चीज़ें संभालते हैं । गंवइहा मतलब पाहुन । घर
गृहस्ती चलती रहती है । बहन के बच्चों और उन के बच्चों की पढ़ाई लिखाई,
हेन-तेन का खर्च आदि शिवमूर्ति के ज़िम्मे और शिवमूर्ति को इस घर में छांव
देने, पानी-पीढ़ा देने का जिम्मा उन का । शिवमूर्ति की कहानियों में जैसे उन
के पात्र चलते हैं , जीते और संघर्ष करते है, उन का गांव भी अपने उसी भाव
में चलता मिलता है । जैसे उन की कहानियों में सांस लेता है उन का गांव ,
गांव के लोग । सुलतानपुर के भूगोल में प्रतापगढ़ रोड पर बसा शिवमूर्ति का यह कुरंग गांव ऊसर बहुल इलाक़ा है । ऊसर काट-काट
कर यहां के लोगों ने उपजाऊ खेत बनाया है। यह ऊसर इलाक़ा जैसे सालों साल काट
कर यहां के लोगों ने उपजाऊ खेत बनाया है , वैसे ही शिवमूर्ति अपनी
कहानियों में अनगढ़ चरित्रों को तराश-तराश कर उन्हें अपना अमर पात्र बनाया
है। पहले यह बात नहीं समझ में आती थी कि शिवमूर्ति की कहानियों में यह अनगढ़ पात्र और उन की यह
जिजीविषा उन में आखिर कहां से आती है ? लेकिन उन का गांव , गांव के लोग और उन की
बसावट देख कर भेद कुछ-कुछ समझ में आने लगा है । और यह भी कि शिवमूर्ति की
कहानियों में यह मेहनत की आंच उन के ऊसर इलाक़े की ही तफ़सील है , उस का ही
सुफल है । संवेदनाओं की सलाई जो भाव उन की कहानियों में बुनती है , वह
कुरंग की विरासत है , कुछ और नहीं । कुरंग और शिवमूर्ति का संघर्ष जैसे एक
है , उस का ऊसर और उपजाऊ होने का रंग जैसे एक है। और जब इन चारों का
संयोग अपने पूरे पसीने के साथ उपस्थित मिलता है तो शिवमूर्ति का कथाकार खड़ा
होता है, जिस में फणीश्वरनाथ रेणु की बसावट और विरासत दर्ज होती हुई कई
सारे पाठ तैयार करती है। कसाईबाड़ा, भरतनाट्यम , तिरीयाचरित्तर, केशर
कस्तूरी , त्रिशूल , तर्पण , आख़िरी छलांग, ख्वाजा ओ मेरे पीर पर्वत बन कर मन में
गूंजने लगती है । सिरी उपमा जोग जैसी कोमल ताने-बाने में रची संवेदना हूक
बन कर मन में उमगने लगती है । मन को मथने लगती है ।
शिवमूर्ति का पुराना घर
शिवमूर्ति के साथ उन के खेत में
लखनऊ
में शिवमूर्ति के एक परिचित हैं , उन के पिता का निधन हो गया है ।
प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं । तेरही है । हम और शिवमूर्ति वहां जा रहे हैं । रास्ते
में वह ख्वाजा ओ मेरे पीर की मामी का रास्ता दिखा रहे हैं जहां बीच में
कोई बस्ती नहीं है, सिर्फ ऊसर ही ऊसर हुआ करता था जो अब हरियाली में बदलने
लगा है धीरे-धीरे। लेकिन मामी का रास्ता वैसा ही है अभी भी । मामा खेत नहीं
छोड़ते और मामी मामा को नहीं छोड़तीं । संतान सुख की आस में वह रोज शाम कोसो
चल कर अपने गांव से मामा के पास पहुंचती हैं और हर सुबह लौट आती हैं गांव में अपने घर। अजब यातना और गज़ब सुख है मामी का यह भी । शिवमूर्ति ख्वाजा ओ
मेरे पीर में इस को बड़े विस्तार से बांच चुके हैं लेकिन अभी वह फिर-फिर बांच
रहे हैं मामी की उस पीड़ा , यातना और चाहत को । ऐसे जैसे मामी मिलने जा रही
हैं मामा से और उस मामी की उंगली थामे शिवमूर्ति भी चलते जा रहे हों उस रात
को चीरते हुए । मामी के साथ उन की यह यात्रा जाने कितनी बार हुई होगी ,
आज मेरे साथ हो रही है । जाने कितनी रातें मामी की इस राह से गुज़री होंगी
और जाने कितनी रातों का हिसाब शिवमूर्ति ने उन के साथ रो-रो कर पिरोया होगा
तब जा कर कहीं ख्वाजा ओ मेरे पीर का पर्वत हमारे सामने उपस्थित हो पाया है
। यह देखिए कि एक तालाब आ गया है और शिवमूर्ति की यादों में कुछ हिरन
कुलांचें मारने लगे हैं । तालाब की वह तलब तो खत्म हो ही चुकी है , हिरन भी
विस्मृत हो कर इस इलाक़े से विलुप्त हो चुके हैं, लोगों ने मर डाले वह
हिरन। एक-एक कर के । मार-मार कर खा गए लोग । लेकिन शिवमूर्ति की याद में
वह हिरन कुलांचें मारते जा रहे हैं ।
प्रतापगढ़ का सुजानपुर इलाक़ा जहां हमें
तेरही में पहुंचना है , शिवमूर्ति की जानकारी में पैतीस किलोमीटर का है पर
वह चलते-चलते पचासी किलोमीटर में बदल गया है । हम बनारस रोड पर हैं ।
सुलतानपुर , प्रतापगढ़ और जौनपुर की इस मिली-जुली सरहद पर बदलापुर के पास आते ही चंचल सरकार की याद आती है । चंचल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के एक समय अध्यक्ष रहे हैं , पुराने समाजवादी हैं , नामी चित्रकार हैं । जो फेसबुक पर चंचल बी एच यू नाम से सक्रिय हैं । यहीं कहीं उन का गांव है । जहां वह समता घर चलाते हैं । मन करता है कि उन के गांव भी हो लिया जाए । पर मेरे पास उन का पता ठिकाना नहीं है । मालूम नहीं था कि इधर से गुज़रना होगा। नहीं , लखनऊ से चंचल जी का पता ठिकाना ले कर चला होता । लेकिन उन से मिलने की एक हुड़क सी उठती है । फेसबुक पर हमारी नोक-झोंक होती रहती है । कई बार वह बउरा भी गए हैं मुझ पर । लेकिन उन के पास देशज चिंताएं हैं तमाम पूर्वाग्रहों और हठ के बावजूद यादों का एक खजाना भी है उन के पास जिसे वह जब-तब फेसबुक पर परोसते रहते हैं । इस लिए बड़ी शिद्द्त से उन से मिलने का मन होता है , उन का समता घर देखने का मन होता है । अकुला कर शिवमूर्ति से पूछता हूं कि यहीं कहीं चंचल का गांव है । जानते हैं ? शिवमूर्ति लेकिन चंचल को ही नहीं जानते । मुसकुरा कर अपनी झिझक मिटाते हैं वह । मन मसोस कर रह जाता हूं । खैर बदलापुर से बनारस रोड छोड़ कर मुड़ते हैं तो सारी सड़क खुदी मिलती है । रास्ता दुर्गम हो गया है
। उन को अब कार में पेट्रोल और हवा की फ़िकर हो चली है। शिवमूर्ति बुदबुदा रहे हैं कि रास्ता इतना लंबा कैसे हो गया ? बताया तो पैतीस
ही किलोमीटर था । सुजानपुर से वह गांव भी बहुत अंदर है । खैर पहुंच जाते
हैं। माहौल देख कर लगता ही नहीं कि गमी है । शादी व्याह ही नहीं , अब तेरही
में भी दिखावा आदि चलन में आ चुका है हर जगह । जिन के पिता का निधन हुआ है
वह बहुत फख्र से बता भी रहे हैं कि इतने लोग खा चुके हैं, अभी और इतने लोग
बाक़ी हैं । मजमा लगा हुआ है । लोग आ रहे हैं , जा रहे हैं । शोक भी
त्यौहार बन गया है। गांवों में भी बफे सिस्टम अब पूरी बहार पर है । पर एक
विभाजक रेखा है यहां भी । संपन्न और विपन्न की। विपन्न को तो ज़मीन पर ही
बैठ कर खाना है । ख़ास कर विपन्न बच्चों को तो बफे सिस्टम के परिसर से
हांक-हांक कर भगाया जा रहा है जैसे कोई गाय-बकरी-कुत्ता आदि आ गए हों ।
क्या तो इन लोगों को खाने का शऊर नहीं है, खाना बहुत खराब करते हैं । भगाए
जा रहे बच्चों में एक ललक सी है , एक तड़प सी है। अन्य सब की तरह हाथ में प्लेट ले कर
खाने की है। लेकिन उन के नसीब में कारपेट बिछे जगमग पंडाल में भोजन नहीं
है, ज़मीन पर बैठ कर खाना ही बदा है अपेक्षाकृत अंधेरे में । बशीर बद्र
का शेर याद आ जाता है :
पाम के पेड़ों के बीच
बात क्या है कि घर पर बड़े लोगों के
मौत का शोग होता है त्यौहार सा ।
शिवमूर्ति के साथ उन के घर खाना खाते हुए
बात
हम लोगों के भी खाना खाने की होती है तो मैं हाथ जोड़ मना कर देता हूं।
शिवमूर्ति की दीदी ने दिन में लकड़ी के चूल्हे पर हथपोई रोटी सेंक कर जिस स्नेह से , जिस शबरी भाव से खिलाई
थी , उस का स्वाद जीभ पर और मन में बसा हुआ है , उसी स्वाद को फिर से
दुहराने का मन है । यह हथपोई रोटी का सुख अब मुझे अपने ननिहाल में ही मिल
पाता है क्यों कि यह लकड़ी का चूल्हा अब वहीं शेष रह गया है । नियमित इस्तेमाल
वहां भी नहीं है अब लेकिन मामा के घर के लोग मेरे इस सुख और स्वाद से
परिचित हैं सो यह उपक्रम मेरे लिए विशेष रूप से खुशी-खुशी करते हैं । हथपोई
रोटी और कहतरी वाली सजाव दही । लाल-लाल साढ़ी वाली । शिवमूर्ति के गांव
में दही तो है पर वह दही तो नहीं। हां , पर हथपोई रोटी शेष है । खैर वहां तेरही में वह भी नहीं खाते । हम लोग
धीरे से लौट पड़ते हैं । रात अंधियारी है पर जगह-जगह रात जैसे जाग-जाग पड़ती
है । रौनक है दुर्गा पूजा के पंडालों की । गाना-बजाना और धूमधाम में तर
हैं जगह-जगह लोग । शहर तो शहर और कस्बों की रौनक़ भी इन दिनों बढ़ ही जाती
है । सड़क खुदी हुई है तो क्या लोग और उन की आवाजाही बदस्तूर जारी है
जगह-जगह। औरतें-बच्चे एक अजीब उत्तेजना में आते-जाते समाए दीखते हैं । लेकिन शिवमूर्ति खराब रास्ता तय करते-करते कुढ़ते जाते हैं , पछताते जाते हैं कि जो जाने होते इतना खराब रास्ता है , इतना लंबा रास्ता है तो न आए होते । कोई रिश्तेदारी तो थी नहीं , परिचय भर ही तो था ।
उन की खीझ समझ में आती है। मैं समझाता हूँ कि आप उन के साथ अपनी संवेदना शेयर करने आए थे, इस में तो आप को खुशी मिली ना ! वह धीरे से बोलते हैं , हां ! तो बस इसी में खुश हो जाइए । वह खुश भी हो जाते हैं । हम लोग बदलापुर आ गए हैं । बनारस रोड मिल गई है । अब रास्ता भी ठीक है । सुबह जब लखनऊ से शिवमूर्ति के गांव कुरंग के लिए चले थे तो बूंदा-बादी वाली बारिश थी । गांव पहुंचते-पहुंचते धूप खिल गई थी । अब मौसम सुहाना हो गया था । बोलते-बतियाते घर आ गए हैं । लकड़ी के चूल्हे पर सिंकी हथपोई रोटी का स्वाद अब फिर हमारी जीभ पर है । देसी घी के साथ । खाना खा कर सोने की तैयारी और बतकही चल ही रही थी की बिजली रानी चली गईं । जल्दी ही इनवर्टर भी टे-टे बोलने लग गया । बिना बिजली के सो गए लेकिन गरमी ने सताया बिलकुल नहीं । सुहानी हवा चलती रही हम सोते रहे । खुली खिड़की, हरी-भरी हरियाली और सायेदार वृक्षों का यह कमाल था ।
सुबह अमूमन मेरी देर से
होती है । यहां कुछ जल्दी ही हो गई है । उठ कर नीचे गया तो शिवमूर्ति के
बचपन के साथी, सहपाठी हाई स्कूल फेल रामसुख सिंह जो थोड़ा नहीं पूरा ऊंचा सुनते हैं , शिवमूर्ति के
साथ गप्प मारते मिले । इन से लखनऊ में भी दो बार मिलवा चुके हैं शिवमूर्ति ।
ऊंचा सुनते ज़रूर हैं रामसुख सिंह पर शिवमूर्ति को समझते बहुत हैं । बल्कि दोनों एक
दूसरे को समझते हैं । कई बार बिन बोले भी । बिलकुल उस शेर की तरह :
कभी-कभी तो वो इतना रसाई देता है / मैं सोचता हूं और उस को सुनाई देता है । वास्तव में शिवमूर्ति के जीवन में जो संघर्ष और मेहनत है सो तो है ही लेकिन उन के जीवन में जो पारदर्शिता है वह बहुत दुर्लभ है । घर-दुआर , बाल-बच्चे , संगी-साथी सब ही के साथ उन की यह पारदर्शिता उन्हें आत्मीय बना लेती है । कोई छल-छंद नहीं , कोई बैर नहीं , कोई दिखावा नहीं , कोई अभिनय नहीं । पानी की तरह , कबीर की तरह मिलना उन का उन्हें औरों से अलग कर देता है ।
तो लोग
शिवमूर्ति के इस निर्मल दांव से चित्त हो जाते हैं और शिवमूर्ति मुसकुराते हुए आगे
बढ़ जाते हैं । शिवमूर्ति का यह अंदाज़ उन्हें ' शिवत्व ' ही नहीं निर्विवाद
भी बना देता है । आप उन से जलते-भुनते और कुढ़ते रहिए , वह बेपरवाह आगे
निकल जाते हैं । ख़ैर , हम उन के गांव में घूम रहे हैं । लोग मिलते जा रहे
हैं , पैलगी-बंदगी होती जा रही है और हमारा परिचय भी । एक जनाब
बतियाते-बतियाते कहते हैं कि गांव में हैं तो और भी कई अफ़सर पर गांव तो आप
ही आते जाते हैं , मिलते-जुलते हैं । बाक़ी तो भूल गए हैं । शिवमूर्ति की
पहचान उन के गांव में एक अफ़सर और एक लेखक की ही है पर शिवमूर्ति यारबास की
तरह मुझे दीखते हैं । शिवमूर्ति के गांव में आई ए एस अफ़सर भी हैं और
ज्यूडिशियली में भी हैं लोग । लेकिन शिवमूर्ति अपने को एक गंवई मनई की तरह
ही ट्रीट करते मिलते हैं , उन्हें कोई और चाहे जैसे बरते और जाने ।
कमोबेस हर गांव की एक खासियत होती है कि होंगे आप तोप कहीं, पर गांव के लोग आप को कुछ नहीं समझते । घर की मुर्गी दाल बराबर की बात अपने यहां कही ही जाती है । आप गांव के तमाम लोगों का हज़ार काम करवा दिए होंगे तो अपनी बला से , उन के लिए कई कल्याणकारी काम भी किए-कराए होंगे तो अपनी खुशी से लेकिन उन के लिए तो आप रहेंगे ठेंगे पर ही । मौक़ा मिलते ही वह आप को डस लेंगे , अपमानित भी कर देंगे । यह उन की फ़ितरत है, कोई क्या खुदा भी इसे नहीं बदल सकता। आप से फिर-फिर मदद मांगेंगे शहर आ कर लेकिन गांव पहुंचते ही वह आप को दो कौड़ी का मान ही नहीं लेंगे बल्कि साबित करने में भी पूरा ज़ोर भी लगा ही देंगे । आप को देखते ही आप से मुंह मोड़ लेंगे । भले वह अपने काम के लिए आप के पांव पड़ गए होंगे पर गांव में तो आप को देखते ही सीना चौड़ा कर आप को यह एहसास करवाएंगे कि आप उन के सामने मच्छर से अधिक कुछ नहीं हैं । आप की सफलता उन्हें तोड़ देती है और वह आप पर घात लगा कर आक्रमण कर ही देंगे । आप को दबा ही लेंगे । गंवई अंदाज़ में कहूं तो चांप लेंगे । नाद, खूंटा गाड़ते हुए आप की ज़मीन भी दबोच लेंगे । वह फुरसतिया हैं इन सब कामों के लिए और आप के पास समय नहीं है इन मूर्खताओं के लिए । इस लिए वह बीस भी पड़ते ही हैं , सो आप को दबना लाजिमी हो जाता है । यही उन की विजय है और यही आप की हार । कैलाश गौतम की कविता गांव गया था,गांव से भागा वैसे ही तो नहीं इतनी लोकप्रिय हो गई है। लेकिन शिवमूर्ति के साथ भी यह सब आंख के सामने तो नहीं ही गुज़रता और कि वह कैलाश गौतम की उस कविता के अर्थ में गांव जा कर गांव से भागते भी तो नहीं ही दीखते । बार-बार गांव जाने और सब को अपना गांव दिखाने और घुमाने की उन की ललक उन के अपने गांव से मोह को न सिर्फ़ दर्शाती है बल्कि उन की जिजीविषा को भी बांचती है । बाक़ी सब रगड़े-झगड़े तो हैं उन के भी गांव में , उन के भी साथ और बार-बार । यह सब वह खुद कई बार लिख और बता भी चुके हैं ।
गांव पार कर हम लोग अब खेतों में हैं । शिवमूर्ति के खेतों में भले धान फूट रहे हैं पर इधर तो सब के खेतों में गोभी के फूल फूट रहे हैं । कहीं मिर्च है तो परवल , नेनुवा, मिर्चा और अन्य सब्जियां । सब्जियों की खेती यहां कुरंग में व्यावसायिक रूप से करते हैं लोग । इधर के खेत की मालियत भी ज़्यादा है । गन्ना भी एक खेत में दीखता है । इस गांव की गोभी दूर-दूर के बाज़ार में बिकने जाती है । सो यहां धान से ज़्यादा गोभी की खेती पर ज़ोर है । गोभी जैसे इस गांव की कैफ़ियत में शुमार है । गोभी कुरंग के रंग की पहचान हो जैसे ।
और एक खेत में मोर भी और कुत्ता भी । साथ-साथ । हम लोगों को देखते ही दोनों अचानक गायब हो जाते हैं । बारिश कम होने के चलते खेतों में नमी की भी बात चलती है जिस के कारण गोभी की खेती कमज़ोर हो गई है की चली है । गेहूं के लिए भी दिक्क़त की बात उठती है । हम लोग अब दूसरे रस्ते से लौट रहे हैं । कुरंग गांव की एक बड़ी ख़ासियत यह भी है की कुरंग के लोगों ने अपने गांव को हरा भरा रहने दिया है । कई बार तो गुमान होता है कि कहीं हम किसी जंगल इलाक़े से तो नहीं गुज़र रहे ! यही वह जगह है जहां से बचपन में उन का अपहरण भी हो चुका है हत्या के इरादे से । यह कहानी भी शिवमूर्ति बांच चुके है कई बार । लेकिन इस रास्ते में एक से एक पुराने पेड़ अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित मिलते हैं । गोरखपुर के हमारे गांव में तो लोगों ने बाग़ के बाग़ पेड़ काट-काट कर साफ कर दिए हैं। पर यह बहुत सैल्यूटिंग है कि शिवमूर्ति के गांव कुरंग ने अपनी प्रकृति, अपनी वनस्पति और अपनी हरियाली पूरी ताक़त से बचा रखी है । तो क्या शिवमूर्ति भी अपने भीतर की हरियाली और यह प्रकृति इसी तरह बचाए हुए हैं ? और इस का सदुपयोग , इस का दोहन अपनी रचनाओं में करते रहते हैं निरंतर । वह अपनी प्रकृति , अपनी जमीन नहीं छोड़ते इस लिए ? कन्हैयालाल नंदन की एक कविता है :
चौंको मत मेरे दोस्त
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊंगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुए देख कर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिता जी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिता जी की आंखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाए बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जाएंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पाएगा ।
हर नई यात्रा में अपने को दुहराएगा ।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझ से और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
उन की खीझ समझ में आती है। मैं समझाता हूँ कि आप उन के साथ अपनी संवेदना शेयर करने आए थे, इस में तो आप को खुशी मिली ना ! वह धीरे से बोलते हैं , हां ! तो बस इसी में खुश हो जाइए । वह खुश भी हो जाते हैं । हम लोग बदलापुर आ गए हैं । बनारस रोड मिल गई है । अब रास्ता भी ठीक है । सुबह जब लखनऊ से शिवमूर्ति के गांव कुरंग के लिए चले थे तो बूंदा-बादी वाली बारिश थी । गांव पहुंचते-पहुंचते धूप खिल गई थी । अब मौसम सुहाना हो गया था । बोलते-बतियाते घर आ गए हैं । लकड़ी के चूल्हे पर सिंकी हथपोई रोटी का स्वाद अब फिर हमारी जीभ पर है । देसी घी के साथ । खाना खा कर सोने की तैयारी और बतकही चल ही रही थी की बिजली रानी चली गईं । जल्दी ही इनवर्टर भी टे-टे बोलने लग गया । बिना बिजली के सो गए लेकिन गरमी ने सताया बिलकुल नहीं । सुहानी हवा चलती रही हम सोते रहे । खुली खिड़की, हरी-भरी हरियाली और सायेदार वृक्षों का यह कमाल था ।
शिवमूर्ति के साथ उन के नए घर के सामने
रेड ब्लेज़ पीयर के सामने
कॉफ़ी पी कर हम लोग गांव घूमने निकल पड़े हैं । सड़क उस पार बसा गांव । गांव
में घुसते ही एक जनाब जांघिया पहने साइकिल चलाते मिल जाते हैं । गहराने का नाम मुन्नू सिंह है । शिवमूर्ति
को देखते ही साइकिल रोक देते हैं , उतरते नहीं । जल्दी में हैं । हाथ में
चाभी है, ट्यूबवेल बंद करना है , कह कर चाभी दिखाते निकल जाते हैं । हैं
साईकिल पर , जांघिया पहने पर अंदाज़ घोड़े पर सवार किसी शासक जैसा है ।
पुराने बाबू साहब हैं। लेकिन उन का ठेंठ गंवई अंदाज़ मन मोह लेता है। मुन्नू सिंह के जाते ही एक और बाबू साहब आ जाते हैं साइकिल लिए । वह उतर जाते हैं साइकिल से । बड़ी-बड़ी मूछों में मुसकुराते हुए। शिवमूर्ति उन से परिचय करवाते हैं यह राम सिंह जी हैं । पहले खूब फगुवा गाते थे । अब छिहत्तर के वह हो गए हैं । यह बताते हुए उन की मूछों की मुसकान और फैल गई है । शिवमूर्ति का गांव है भी ठाकुर बहुल गांव । ठाकुरों के गांव में रहना शेर
के जबड़े में रहना होता है बाक़ी लोगों का । शिवमूर्ति भी शायद ऐसे ही रहते
हैं । लेकिन उन की मीठी बोली, उन की डिप्लोमेसी शेर के इस जबड़े को मुलायम
ही नहीं , बे-जबड़ा भी बनाए रखती है । शिवमूर्ति का यह मीठी बोली और
डिप्लोमेसी भरा कमाल आप उन के गांव में ही नहीं , बाक़ी हलकों में भी बराबर
देख सकते हैं । और जो अब तक नहीं देख सके हों तो फिर से गौर कीजिए । दिख
जाएगा । यह अनायास नहीं है कि साहित्यिक हलके में भी शिवमूर्ति का
धुर-विरोधी कोई नहीं मिलता । कुछ लोग हैं ऐसे ज़रूर जो उन से खार भी बहुत
खाते हैं लेकिन एक तो शिवमूर्ति की रचनाओं का ताप दूसरे उन की मीठी बोली और
डिप्लोमेसी के आगे वह बेबस और लाचार हो जाते हैं । वसीम बरेलवी का वो एक
शेर है न कि :
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
और अब वापस लौट कर लखनऊ के हमारे घर में शिवमूर्ति और हम
कमोबेस हर गांव की एक खासियत होती है कि होंगे आप तोप कहीं, पर गांव के लोग आप को कुछ नहीं समझते । घर की मुर्गी दाल बराबर की बात अपने यहां कही ही जाती है । आप गांव के तमाम लोगों का हज़ार काम करवा दिए होंगे तो अपनी बला से , उन के लिए कई कल्याणकारी काम भी किए-कराए होंगे तो अपनी खुशी से लेकिन उन के लिए तो आप रहेंगे ठेंगे पर ही । मौक़ा मिलते ही वह आप को डस लेंगे , अपमानित भी कर देंगे । यह उन की फ़ितरत है, कोई क्या खुदा भी इसे नहीं बदल सकता। आप से फिर-फिर मदद मांगेंगे शहर आ कर लेकिन गांव पहुंचते ही वह आप को दो कौड़ी का मान ही नहीं लेंगे बल्कि साबित करने में भी पूरा ज़ोर भी लगा ही देंगे । आप को देखते ही आप से मुंह मोड़ लेंगे । भले वह अपने काम के लिए आप के पांव पड़ गए होंगे पर गांव में तो आप को देखते ही सीना चौड़ा कर आप को यह एहसास करवाएंगे कि आप उन के सामने मच्छर से अधिक कुछ नहीं हैं । आप की सफलता उन्हें तोड़ देती है और वह आप पर घात लगा कर आक्रमण कर ही देंगे । आप को दबा ही लेंगे । गंवई अंदाज़ में कहूं तो चांप लेंगे । नाद, खूंटा गाड़ते हुए आप की ज़मीन भी दबोच लेंगे । वह फुरसतिया हैं इन सब कामों के लिए और आप के पास समय नहीं है इन मूर्खताओं के लिए । इस लिए वह बीस भी पड़ते ही हैं , सो आप को दबना लाजिमी हो जाता है । यही उन की विजय है और यही आप की हार । कैलाश गौतम की कविता गांव गया था,गांव से भागा वैसे ही तो नहीं इतनी लोकप्रिय हो गई है। लेकिन शिवमूर्ति के साथ भी यह सब आंख के सामने तो नहीं ही गुज़रता और कि वह कैलाश गौतम की उस कविता के अर्थ में गांव जा कर गांव से भागते भी तो नहीं ही दीखते । बार-बार गांव जाने और सब को अपना गांव दिखाने और घुमाने की उन की ललक उन के अपने गांव से मोह को न सिर्फ़ दर्शाती है बल्कि उन की जिजीविषा को भी बांचती है । बाक़ी सब रगड़े-झगड़े तो हैं उन के भी गांव में , उन के भी साथ और बार-बार । यह सब वह खुद कई बार लिख और बता भी चुके हैं ।
गांव पार कर हम लोग अब खेतों में हैं । शिवमूर्ति के खेतों में भले धान फूट रहे हैं पर इधर तो सब के खेतों में गोभी के फूल फूट रहे हैं । कहीं मिर्च है तो परवल , नेनुवा, मिर्चा और अन्य सब्जियां । सब्जियों की खेती यहां कुरंग में व्यावसायिक रूप से करते हैं लोग । इधर के खेत की मालियत भी ज़्यादा है । गन्ना भी एक खेत में दीखता है । इस गांव की गोभी दूर-दूर के बाज़ार में बिकने जाती है । सो यहां धान से ज़्यादा गोभी की खेती पर ज़ोर है । गोभी जैसे इस गांव की कैफ़ियत में शुमार है । गोभी कुरंग के रंग की पहचान हो जैसे ।
और एक खेत में मोर भी और कुत्ता भी । साथ-साथ । हम लोगों को देखते ही दोनों अचानक गायब हो जाते हैं । बारिश कम होने के चलते खेतों में नमी की भी बात चलती है जिस के कारण गोभी की खेती कमज़ोर हो गई है की चली है । गेहूं के लिए भी दिक्क़त की बात उठती है । हम लोग अब दूसरे रस्ते से लौट रहे हैं । कुरंग गांव की एक बड़ी ख़ासियत यह भी है की कुरंग के लोगों ने अपने गांव को हरा भरा रहने दिया है । कई बार तो गुमान होता है कि कहीं हम किसी जंगल इलाक़े से तो नहीं गुज़र रहे ! यही वह जगह है जहां से बचपन में उन का अपहरण भी हो चुका है हत्या के इरादे से । यह कहानी भी शिवमूर्ति बांच चुके है कई बार । लेकिन इस रास्ते में एक से एक पुराने पेड़ अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित मिलते हैं । गोरखपुर के हमारे गांव में तो लोगों ने बाग़ के बाग़ पेड़ काट-काट कर साफ कर दिए हैं। पर यह बहुत सैल्यूटिंग है कि शिवमूर्ति के गांव कुरंग ने अपनी प्रकृति, अपनी वनस्पति और अपनी हरियाली पूरी ताक़त से बचा रखी है । तो क्या शिवमूर्ति भी अपने भीतर की हरियाली और यह प्रकृति इसी तरह बचाए हुए हैं ? और इस का सदुपयोग , इस का दोहन अपनी रचनाओं में करते रहते हैं निरंतर । वह अपनी प्रकृति , अपनी जमीन नहीं छोड़ते इस लिए ? कन्हैयालाल नंदन की एक कविता है :
चौंको मत मेरे दोस्त
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊंगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुए देख कर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिता जी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिता जी की आंखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी ज़मीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाए बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जाएंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पाएगा ।
हर नई यात्रा में अपने को दुहराएगा ।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझ से और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
यह ज़मीन नहीं छोड़ने की इबारत पढ़ना तो आसान है लेकिन इसे निबाहना बहुत मुश्किल है। क्यों कि इस लंबी कविता में नंदन जी लिखते हैं :
और इस बार चमक मेरी आंखों में थी
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से ले कर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हज़ारों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थाम कर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नई ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उस ने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूं कि
विरसे में मैंने यात्राएं ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी ज़मीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बांह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गईं वे सारी यात्राएं ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहां से लौटा हूं ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूं !
बात यहीं नहीं रुकती । नंदन जी इस लंबी कविता में लिखते हैं कि :
सुन कर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद ब खुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गई है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गई है!
टिकाऊ रह गई है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गई हैं
केवल यात्राएं …
यात्राएं …
और यात्राएं …!
तो क्या शिवमूर्ति की यह कथा-यात्रा उन के ज़मीन से जुड़े रहने की ही कहीं कोई टीस तो नहीं है ?
क्या पता !
क्यों कि ऐसे कई सवाल कई बार अनबूझ रह जाते हैं।
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से ले कर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हज़ारों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थाम कर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नई ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उस ने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूं कि
विरसे में मैंने यात्राएं ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी ज़मीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बांह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गईं वे सारी यात्राएं ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहां से लौटा हूं ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूं !
बात यहीं नहीं रुकती । नंदन जी इस लंबी कविता में लिखते हैं कि :
सुन कर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद ब खुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गई है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गई है!
टिकाऊ रह गई है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गई हैं
केवल यात्राएं …
यात्राएं …
और यात्राएं …!
तो क्या शिवमूर्ति की यह कथा-यात्रा उन के ज़मीन से जुड़े रहने की ही कहीं कोई टीस तो नहीं है ?
क्या पता !
क्यों कि ऐसे कई सवाल कई बार अनबूझ रह जाते हैं।
हम
चलते-चलते एक घर के सामने आ खड़े हुए हैं यह। पूर्व प्रधान का घर है । यह
भी बाबू साहब हैं । नाम है भीष्म प्रताप सिंह। शिवमूर्ति उन की किसानी और किसानी के अर्थशास्त्र का
बखान करते हुए बताते हैं कि राजेंद्र राव ने एक बार इन का इंटरव्यू किया था
और लिखा था , जिस का कोई अर्थशास्त्री जवाब नहीं दे पाया अभी तक।बाबू साहब
का पूरा घर व्रत पर है सो वह तिल -गुड़ की मिठाई रख देते हैं स्वागत में । शिवमूर्ति का बचपन में कभी अपहरण कर उन की हत्या का कुचक्र रचने वाले एक बाबू साहब जब शिवमूर्ति नौकरी में थे तब अपने पोते की नौकरी ख़ातिर शिवमूर्ति के चक्कर लगाते फिरे । आदमी के दिन भी भला कैसे-कैसे बदलते रहते हैं । और यह समय भी क्या-क्या नहीं दिखा देता ! देख दिनन के फेर वैसे ही तो कहा नहीं गया । हम लोग घर लौट आए हैं और फिर वही हथपोई रोटी के स्वाद में मगन हैं । कुछ फुटकर काम भी निपटाने में लगे हैं शिवमूर्ति । उन के बेटे की शादी है दिसंबर में। तिलक की रस्म गांव से ही होनी है । शादी कानपुर और रिसेप्शन लखनऊ में । पूरा शेड्यूल और तारीखें तय हो गई हैं उस की भी तैयारी चल रही है । घर के छोटे-मोटे काम की भी फेहरिस्त चल रही है । एक आदमी पूछ रहा है कि शहर छोड़ कर गांव से तिलक ? शिवमूर्ति कह रहे हैं कि , ' हां , बहुत खाए हईं एह गांव के तो सोचे कि इहां भी तूहें सब के खवा देईं !' विदा की बेला आ गई है । पिता की समाधि को प्रणाम किया है । परिजनों से नमस्ते हो रही है । लखनऊ से बोरी भर कर खाद लाए थे पौधों के लिए , इधर से बोरी भर कर अनाज ले चल रहे हैं । सरसों का तेल भी । उधर से पयागीपुर होते हुए आए थे , इधर से सुलतानपुर शहर से होते हुए लौट रहे हैं । डी एम मिश्रा शिवमूर्ति के मित्र हैं और कवि भी । उन के घर का पड़ाव है । टेंट सर्विस है । उस की जांच-पड़ताल है । फाइनल बच्चे करेंगे पर तस्दीक-दरियाफ्त है । भीड़ बहुत है त्यौहार के चलते सुलतानपुर की सड़कों पर । गांधी जयंती की बंदी अपनी जगह । हम लोग लौट रहे हैं लखनऊ । बतियाते हुए । दुनिया भर की बातें हैं । इधर-उधर की । उन की यादों में एक श्यामा भी हैं । शिवमूर्ति और शयामा के पिता गुजरात में एक साथ रहते थे । काम के सिलसिले में । श्यामा के पिता ब्राह्मण थे । पर गुजरात के रिश्ते के चलते यहां गांव में भी दोनों परिवारों के बीच आना-जाना बन गया । शिवमूर्ति और श्यामा राखीबंद भाई बहन बन गए । बहुत दिनों तक यह सब चला । श्यामा शिवमूर्ति के गांव आती और शिवमूर्ति श्यामा के गांव जाते । फिर श्यामा की शादी हो गई , शिवमूर्ति भी नौकरी चाकरी में इधर-उधर हो गए । बरसों बाद श्यामा शिवमूर्ति के गांव आईं अपने अठारह साल के बेटे के साथ । वह तो गांव का नाम भी भूल गई थीं पर रास्ता कुछ-कुछ याद था । बेटे के साथ सुलतानपुर आईं तो बेटे से कहा कि अपनी मोटरसाइकिल ज़रा इस रास्ते पर ले चलो । अंदाज़ से उन्हों ने गांव खोज लिया । शिवमूर्ति का नाम तो याद था ही सो नाम पूछते-पूछते वह उन के घर पहुंच गईं । घर पर शिवमूर्ति की पत्नी मिलीं तो उन्हों ने श्यामा नाम सुनते ही घर में बुला लिया यह कहते हुए कि हम लोग कभी मिले नहीं तो क्या हुआ , हम जानती तो हैं ही तुम को। श्यामा का वही बेटा जिस के साथ वह बरसों बाद शिवमूर्ति के घर आई थीं अब नहीं रहा , यह बताते-बताते शिवमूर्ति दुःख से भर जाते हैं । वह बता रहे हैं कि पत्नी कैसे सब को, घर को किस यत्न से संभालती हैं । शहर और गांव दोनों । यह फूल-पत्ते, पौधे, खेती-बारी सब । वह बता रहे हैं कि कल दशहरा है तो वह आएंगी गांव यहां का मेला देखने । वह तीन बहने हैं , तीनों मिल कर मेला देखती-घूमती हैं हर साल । बतियाते -बतियाते अचानक वह पछताने लगते हैं कि आप को अपनी शिवकुमारी के घर तो ले जाना ही भूल गया । वह और भी कई लोगों से न मिलवा पाने का क्षोभ जताते हैं । पर शिवकुमारी से न मिलवा पाने का उन्हें अफ़सोस ज़्यादा है । मुझे भी लगता है कि उन की इस बहादुर महिला मित्र से तो मिलना ही चाहिए था । जिस ने उन के जीवन संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर साथ दिया था , उस के घर तो जाना ही था । पर यह शिवकुमारी के घर न जा पाना भी अफ़सोस का एक पड़ाव है । पड़ाव और भी कई हैं । जीवन के , अनभव के , बतकही के । रास्ते में भी पड़ाव हैं । चाय-पानी के । एक जगह सिंघाड़ा बिकता दिख रहा है । रुक कर मैं जाता हूं । बिना लिए लौटता हूं । शिवमूर्ति पूछते हैं क्या हुआ ? बताता हूं कि लूट रहा है । एक सौ अस्सी रुपए किलो बता रहा है ! वह हंसते हैं तो क्या हुआ ? सौ ग्राम ले लीजिए। किलो भर लेना जरूरी है ? तजुर्बा ऐसे ही बोलता है , संघर्ष ऐसे ही रास्ता खोलता है । संघर्ष हमारे पास भी है । पर शिवमूर्ति के संघर्ष के आगे वह गौड़ है , बेमानी है । शिवमूर्ति के घर लखनऊ पहुंच गए हैं हम लोग । भाभी जी पूछती हैं , 'कैसा लगा हमारा गांव ?'
'सुविधा यहां है , सुख वहां !' मैं बताता हूं तो वह हंस पड़ती हैं । कहती हैं , 'बात तो सही है !'
शिवमूर्ति की गर्लफ्रेंड उन की स्टडी में बंद है मेरे आने के चलते। मुझे डर लगता है और वह लगातार दस्तक दे रही है । भाभी जी कहती हैं , जाइए पहले उस से मिल लीजिए । शिवमूर्ति उठ कर उस के पास चले जाते हैं । जल्दी ही उसे समझा कर लौट आते हैं । मुझे मेरे घर छोड़ने की चिंता है उन्हें । सांझ घिर आई है । अब हम शिवमूर्ति के साथ अपने घर में हैं । वह अपने साथ सरसों का तेल ले कर आए हैं । मेरी पत्नी को देते हुए कहते हैं यह हमारे गांव की गिफ्ट है । हमारे यहां बेटी को विदाई में सरसों का तेल भी दिया जाता है । यह सोच कर मुझे सनसनी सी होती है और मैं भावुक हो जाता हूं । शिवमूर्ति के गांव कुरंग से लौटे हुए आज पूरा एक हफ्ता बीत गया है । इस बीच रावण भी मार दिया गया है एक बार फिर से । मैं अपने घर गोरखपुर भी जा कर लौट आया हूं । पर कुरंग का रंग , उस की याद मन में लौट-लौट आती है । माहेश्वर तिवारी का एक प्रेम गीत है जिस में एक बिंब यह है कि :
लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह कर उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आंगन में उतरे।
'सुविधा यहां है , सुख वहां !' मैं बताता हूं तो वह हंस पड़ती हैं । कहती हैं , 'बात तो सही है !'
शिवमूर्ति की गर्लफ्रेंड उन की स्टडी में बंद है मेरे आने के चलते। मुझे डर लगता है और वह लगातार दस्तक दे रही है । भाभी जी कहती हैं , जाइए पहले उस से मिल लीजिए । शिवमूर्ति उठ कर उस के पास चले जाते हैं । जल्दी ही उसे समझा कर लौट आते हैं । मुझे मेरे घर छोड़ने की चिंता है उन्हें । सांझ घिर आई है । अब हम शिवमूर्ति के साथ अपने घर में हैं । वह अपने साथ सरसों का तेल ले कर आए हैं । मेरी पत्नी को देते हुए कहते हैं यह हमारे गांव की गिफ्ट है । हमारे यहां बेटी को विदाई में सरसों का तेल भी दिया जाता है । यह सोच कर मुझे सनसनी सी होती है और मैं भावुक हो जाता हूं । शिवमूर्ति के गांव कुरंग से लौटे हुए आज पूरा एक हफ्ता बीत गया है । इस बीच रावण भी मार दिया गया है एक बार फिर से । मैं अपने घर गोरखपुर भी जा कर लौट आया हूं । पर कुरंग का रंग , उस की याद मन में लौट-लौट आती है । माहेश्वर तिवारी का एक प्रेम गीत है जिस में एक बिंब यह है कि :
लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह कर उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आंगन में उतरे।
कुरंग की यादों की धूल मेरे माथे को ऐसे ही छू-छू जाती है आज भी । मन के दर्पण में कुरंग के मेड़, वह दीदी के स्नेह भरी हथपोई रोटी और जांघिया पहने साइकिल चलाते बाबू साहब की वह घोड़े पर सवार किसी शासक जैसी तमाम छवियां मन में हिलोर मारती हैं जैसे ख्वाजा ओ पीर की मामी की वह कोसों लंबी राह कोई रहस्य बुन रही हो! जैसे खेत में ही नहीं मन में भी धान फूट रहा हो । किलकारियां मारता हुआ मैं किसी दुधमुंहे बच्चे सा लिपटा उन यादों को भीतर ही भीतर समो रहा होऊं !
शिवमूर्ति के पिता की समाधि
bahut hi accha hai....
ReplyDeletebahut hi accha hai ......
ReplyDeleteआपके संस्मरण भी इतने सुंदर होते हैं कि पूछो ना! सारे तो अभी नहीं पढ़ पाई हूँ l पर जो भी पढ़ा उसे एक बार पढ़ना शुरू करो तो बीच में छोड़ने को मन नहीं करता l और ये नया संस्मरण इतना रोचक और स्वाद से भरपूर...''धान फूटते गोभी वाले गाँव में''
ReplyDeleteपढ़कर भरपूर स्वाद लिया इसका l