Friday 10 October 2014

लोक कवि जब अपनी सफलता के लिए डांसर लड़कियों के मोहताज़ हो जाते हैं


लोक कवि अब नहीं गाते


 [ शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ और सुगढ़ पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं ।  ]

शन्नो अग्रवाल

यह उपन्यास एक ऐसे भोजपुरिया लोक कवि के बारे में है जो दरिद्रता और फटेहाली का जीवन व्यतीत करते हुए  गांव से शहर की दुनिया में प्रवेश करता है l और फिर संघर्ष करते हुए धीरे-धीरे उस के जीवन की काया पलट होने लगती है या कहिए कि जैसे घूरे के दिन किसी दिन बदलते हैं वैसे ही उस की घूरे जैसी जिंदगी भी पैसा व शोहरत की मेहरबानी से चमकने लगती है l कुछ लोगों के अँधेरे जीवन में किस्मत से अचानक आशा की किरने फूटती हैं और रोशनी का समावेश होने लगता है तो ऐसा ही होता है लोक कवि के साथ भी l वरना पिछड़े वर्ग के कम पढ़े-लिखे गरीब इंसान कहां इतने ऊंचे सपने देख पाते हैं l लोक कवि को उनके सपनों, उन की अपेक्षाओं से भी कहीं अधिक छप्पर फाड़ कर ईश्वर देता है पर फिर भी उन की तृष्णाओं का आसमान बढ़ता ही रहता है l वह किसी अच्छे नक्षत्र में ही पैदा हुए होंगे जो उन पर एक दिन किसी कम्युनिस्ट नेता की कृपा-दृष्टि हो जाती है और उसी दिन से उन की तकदीर पलटने लगती है l जिसे किसी दिन एक समय का खाना भी ढंग से नसीब नहीं होता था और एक ही फटे कुर्ते पाजामे में गुज़र करनी पड़ती थी उस की दुनिया और किस्मत दोनों ही बदल जाते हैं l लोक कवि के इस तरह से पलटते दिनों पर मन अचानक सत्यनारायण की कथा के समापन की याद करने लगता है: ''जिस तरह उनके दिन बहुरे वैसे ही सबके दिन बहुरें l''

नौटंकी देख कर नकल करना, गानों की धुन पर ग्रामीण डांस करके लोगों का मनोरंजन करते हुए अपने खुद के बनाए गानों को गागर या थाली पीट कर गाने वाला इस मुकाम पर पहुंच जाता है कि शहर में आ कर तमाम सभाओं और सरकारी प्रोगामों में भी वह गाना शुरू कर देता है l जब उन की टैलेंट के चर्चे लोगों के कानों में पड़ते हैं तो उन्हें गाने के और आफर आने लगते हैं l अंधे को क्या चाहिये?....दो आंखें l उन की किस्मत और जगमगा उठती है l लेकिन दुनिया वाले भी इतनी आसानी से जीने नहीं देते l उन की किस्मत का सितारा चमकने के पहले और बाद में भी लोग उन्हें अकसर उन के गीतों को ले कर मारते-कूटते भी रहते थे l वह एक तो कम पढ़े लिखे थे दूसरे उन्हें सताए हुए लोगों से हमदर्दी रहती थी l और उन के दर्द का ज़िक्र अपने गीतों में करना उन्हें अच्छा लगता था l इस वजह से वे लोगों के हाथों अकसर पिटते रहते थे l लेकिन इतनी मार-कूट सहने के बाद भी उनका विरही मन लोगों की व्यथाओं को अपने लोकगीतों में उडेलने से बाज नहीं आता था l एक दिन एक नेता ने चुनाव के समय उन से जीप में बैठ कर गीतों में उन का प्रचार करने को कहा और फिर चुनाव में जीतने पर उस नेता के मन में वह ऐसे उतरे कि लोक कवि की किस्मत ही बदल गई l वो नेता उन्हें शहर में भी ले आया l उन के शहर में आते ही में उन्हें चपरासी की नौकरी भी मिल जाती है l पढ़े-लिखे लोगों तक को आसानी से नौकरी नहीं मिल पाती पर लोक कवि का शहर में आते ही रोजी का प्रबंध हो गया l और जब वह टेलीफ़ोन अटेंड करने की ड्यूटी भी करने लगते हैं तो जैसे अंधे के हाथ बटेर लगने वाली बात हो जाती है l टेलीफ़ोन पर बातचीत के दौरान तमाम लोगों से उन के संपर्क भी बनने लगते हैं जिस से उन्हें और फ़ायदा होता है l अब उन की फटेहाली के दिन फ़ना हुए  l


शहर में आते ही नौकरी, रहने का इंतज़ाम , शानदार कार्यक्रमों में जा कर गाने का चांस मिलता है तो फिर और क्या चाहिए ? लेकिन लोककवि को चैन नहीं l एक दिन उन की आंखें आकाशवाणी की तरफ पहुंच जाती है l तो उन के दिल में रेडियो पर भी गाने की तमन्ना मचलने लगती है l उस के लिए वो टेस्ट के बाद टेस्ट देते हैं पर बार-बार फेल होने से उन का फ्रस्टेशन बढ़ता रहता है l फिर भी हिम्मत नहीं छोड़ते l और रेडियो पर गाने की धुन उन्हें घुन की तरह हर समय खाने लगी l उन्हें अपनी आठवीं फेल पढ़ाई पर बहुत भरोसा था किंतु बार-बार गाने का टेस्ट दे कर फेल होने से वो भी टूटने लगा l पर आखिर में किसी तरह अटकलपच्चू से टेस्ट पास कर के ऑडिशन के लिए चुन लिये जाते हैं l शादी-ब्याह, मेले आदि पर तो उन के रिकार्ड बजते ही थे और अब वह रेडियो पर भी गाने लगे l सफलता उन के क़दम चूमने लगती है l अवधी के शहर में भोजपुरी का क्या काम? पर लोक कवि लोगों पर छाने लगे l पब्लिक को तो नावेल्टी चाहिए तो देखते ही देखते उन के गानों की किताबें भी छपने और बिकने लगती हैं l और दो एल पी रिकार्ड भी बन जाते हैं जो मेले और बाज़ारों में भी बजने लगते हैं l पर ‘मन मांगे मोर’ वाली बात हुई l उन की तृष्णाओं का आकाश और बढ़ने लगता है l वो और ऊंची उड़ान भरने की सोचने लगते हैं l इतने महत्वाकांक्षी हो जाते हैं कि अब रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा भी उन्हें बहुत कुछ चाहिए l कम पढ़े-लिखे हुए तो क्या हुआ उन का दिमाग अपने हित में चारों तरफ घूमता रहता है l लोक कवि आखिर ठहरे देहाती तो उन्हें शहर में आ कर भी अभी बातचीत करने की तमीज नहीं आई थी l सो बात-बात पर भड़कने वाले लोक कवि को एक अनाउंसर लखनऊआ बातचीत की तमीज और तहजीब भी सिखा देता है l उन के मैनर्स पालिश हो जाते हैं l अब वह लोगों से क़ायदे से पेश आने लगते हैं पर उन का दिमाग हमेशा चालायमान रहता है l


तकदीर उन का साथ देने में कोई कसर नहीं छोड़ती l उन्हें शादी-ब्याह व सरकारी कार्यक्रमों में गाने के इतने निमंत्रण मिलने लगते हैं कि वह अपनी गाने की एक पार्टी की स्थापना भी कर लेते हैं l जो 'बिरहा पार्टी' के नाम से जानी जाने लगती है l उसे बनाने के बाद अब कैसेट का गम भुलाने के लिए एक म्यूजिकल पार्टी भी बनाते हैं जो स्टेज शो करती है जिस में डांस करने वाली लड़कियां भी हैं l अब वह सिंपल लोक कवि नहीं रहे जो सत्तू-चने और एक फटे पाजामे से गुज़ारा करते थे l उन पर यश-मान और पैसे का नशा चढ़ने लगता है जिसे वह दोनों हाथों से समेटते हैं l किंतु फिर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती l उन की पापुलैरिटी इतनी बढ़ती है कि छोटे-मोटे कलाकार भी उन की नकल करने लगते हैं l जैसे अमिताभ के हमशकल उन की नकल उतारते हैं l लेकिन अब तक मार्केट से एल पी का फैशन जाने लगता है और उन की जगह कैसेट आने लगते हैं तो उन्हें भी अपने गानों की कैसट बनवाने का ख्याल सताने लगता है l किन्तु एच एम वी कंपनी से लंबा कांट्रेक्ट साइन करने की वजह से वह अपने गाने कहीं और रिकार्ड नहीं करवा सकते l फिर भी उन्हें चिंता खाए जाती है कि उन के कैसेट क्यों नहीं बजते कहीं l इस की टेंशन उन को हर समय कचोटती है l सरकारी निवास शेयर करते-करते उन के पास इतना पैसा आ जाता है कि वह अपना घर बनवा कर गांव से अपने परिवार को बुला लेते हैं l काम की तो उन्हें कोई कमी नहीं l तमाम नेताओं और मंत्रियों की तरफ से गाने के निमंत्रणों की बाढ़ सी आती रहती है l पैसा और सम्मान के उन्माद का नशा चख रहे हैं पर गानों की कैसेट ना बनाने का दुख उन्हें कुरेदता रहता है l एच एम वी कंपनी का दस साल का कांट्रेक्ट पूरा होने से पहले कोई भी कैसेट कंपनी अपने को जोखिम में डालना नहीं चाहती थी l और जब भी कोई संगी-साथी लोक कवि से इस बारे में कुछ पूछता तो वह अपना खिसियानापन छुपा कर उन सब को आश्वासन दे देते थे कि जल्द ही कैसेट भी बन जाएंगे l अधिक दुख सालता तो गैराज में बनाए  स्टूडियो में नए गाने बनाने लगते थे ये सोच कर कि एक दिन वो सब गाने कैसेट पर आ जाएंगे l


अब सिर्फ़ बिरहा पार्टी ही नहीं उन्हों ने एक म्यूजिकल पार्टी भी बना ली जिस में ढुलकिया और तबलची आदि लोगों के साथ नाचने वाली लड़कियां भी थीं जिन से शो में चार चांद लग जाते हैं l आखिरकार एक दिन किसी नई कैसेट कंपनी ने उन के गानों की कैसेट बनाने के लिए एच एम वी के कांट्रेक्ट तोड़ने का सारा खर्चा उठाने का जिम्मा ले लिया l और फिर उन के गानों की कई सारी कैसट बन गईं तो लोककवि की एक और तमन्ना पूरी हो जाती है l और अब म्यूजिकल पार्टी के गाने भी कैसेट पर आ गए  l इधर लोक कवि के लिए राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव या बिना चुनाव के गानों की मांग बढ़ने लगती हैं और उधर उन की रातें सुंदरियों की बाहों में और रंगीन होने लगती हैं l इस स्वर्गीय सुख का आनंद लूटते हुए लोक कवि की पहुंच विदेशों में भी होने लगती है l और वहां जा कर भी अपना कार्यक्रम देने लगते हैं l विदेशों में तो कोई उन का ‘सातवीं पास और आठवीं फेल’ होना नहीं देखता l यहां तक कि विदेशों में होने वाले भारत महोत्सव के जलसों में गाने के लिए भी राष्ट्रपति के संग जाने का सम्मान उन्हें मिलता है उसे वह गर्व से भोजपुरी भाषा का सम्मान समझते हैं l गानों में सामाजिक व राजनीतिक ठुमके लगाते हुए वह अपनी और भी जुगत भिड़ाते रहते हैं l अब वह इतने महत्वाकांक्षी हो जाते हैं कि उन्हें नैतिक व अनैतिक बातों की कोई परवाह नहीं रहती l जहां जैसा मौक़ा देखा उसी तरह का किसी के पक्ष या विपक्ष में गाना लिख देते हैं l गाने में तो वह निपुण हैं बाक़ी और भी इच्छाएं उन की सुरसा की तरह मुंह खोले रहती हैं l उन के अथक प्रयासों व लोकगीतों की डिमांड से उन की जिंदगी प्रोग्रेस करती रहती है l उन से कुछ जलने वाले लोग भी हैं पर फिर भी उन की अभिलाषाएं एक के बाद एक पूरी होती रहती हैं l भोजपुरी भाषा की मिठास लिए उन के बनाए गाने उन की ख्याति बढ़ाते रहते हैं l वह गानों में जो भी परोसते हैं उन से उन का हित ही होता रहता है l अगर किसी को कोई आपति है भी तो लोग अपना मुंह नहीं खोलते l भोजपुरिया गायकों में उन्हीं का नाम रोशन रहता है l लोक कवि लोगों के कमेंट साधने में भी माहिर हो जाते हैं l बात करने का शऊर और चातुर्य दोनों ही उन को खूब आ जाते हैं l उन की कटाक्ष भरी बातों का उदाहरण लेखक के शब्दों में देखिए , '' हां , कभी कभार उन का उद्घोषक उन्हें ज़ रूर टोक देता l लेकिन जैसे धरती पानी अनायास सोख लेती है वैसे ही लोक कवि उद्घोषक की जब-तब टोका-टाकी पी जाते l जब कभी ज्यादा हो जाती टोका-टाकी तो लोक कवि,  ''पंडित हैं ना आप!'' जैसा जुमला उछालते और जब उद्घोषक कहता,'' हूं , तो!'' तब लोक कवि कहते , ''तभी इतना असंतुष्ट रहते हैं आप l'' लोक कवि के बारे में कहा जा सकता है कि वो दिन फ़ना हुये जब खलील खां फाख्ता उड़ाते थे l क्योंकि अब वह एक फटे पाजामे-कुर्ते वाले लोक कवि नहीं रहे l अब तो दिन उन के सोने के और रातें उन की चांदी की हैं l ऐश और कैश दोनों में लोट रहे हैं l उन के शो में तमाम काम करने वालों में से एक दुबे जी हैं जो अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए लोक कवि के लिए उद्घोषक का काम करते हैं l लोक कवि हमेशा बहुत दूर की सोचा करते हैं l जब वह अपने भोजपुरी गानों में अवधी या हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं तो इस पर उद्घोषक जी बहुत नाखुश होते हैं l लेकिन लोक कवि का कहना है,''कौन सुनेगा खालिस भोजपुरी? अब घर में बेटा तो महतारी से भोजपुरी में बतियाता नहीं है, अंग्रेजी बूकता है तो हमारा शुद्ध भोजपुरी गाना कौन सुनेगा भाई l'' वह कहते , ''दुबे जी, हम भी जानता हूं कि हम का कर रहा हूं l बाक़ी खालिस भोजपुरी गाऊंगा तो कोई नहीं सुनेगा l आउट हो जाऊंगा मार्केट से l तब आप की अनाउंसरी भी बह, गल जाएगी और हई बीस पचास लोग जो हमारे बहाने रोज रोजगार पाए हैं, सब का रोजगार बंद हो जाएगा l'' वह पूछ्ते, ''तब का खाएंगे ई लोग, इन का परिवार कहां जाएगा ?''


लेकिन उद्घोषक जी भी हेकड़ीबाज़ हैं उन्हें इस की चिंता नहीं , ''जो भी हो अपने तईं यह पाप मैं नहीं करुंगा l'' उन की रोज-रोज की चिक-चिक से परेशान हो कर दुनियादारी में कुशल लोक कवि चालाकी से उन को अपने प्रोग्राम से आउट करना शुरू कर देते हैं l यानि अपने प्रोग्राम करते हैं पर दुबे जी से बहाने कर देते हैं l ये बात दुबे जी को अखरती है l हर किसी में कुछ न कुछ खामियां होती हैं और दुबे जी जैसे अच्छे अनाउंसर मिलना मुश्किल होता है पर कुछ दिन के लिए लोककवि खुद ही उद्घोषक बन जाते हैं l आखिर में लोककवि को अनाउंसरी के लिए एक लड़की मिल जाती है l और वह अनाउंसर होने के साथ-साथ कुछ डांस-वांस भी उन के प्रोग्रामों में करने लगती है l तो ये एक पंथ दो काज वाली बात हो जाती है l लोक कवि इतने भी मूर्ख नहीं हैं कि आगे की ना सोचे l प्रोग्राम में गानों को सुनने तो लोग आते थे किंतु गांवों में होने वाले प्रोग्राम में अंग्रेजी बोलने वाली लड़की को देखने गांव वालों की भीड़ लग जाती थी l जिस से उन के प्रोग्राम और पापुलर होने लगे l उस उद्घोषक के अंग्रेजी बोलने पर लोक कवि को कोई आपत्ति नहीं थी क्यों कि एक तो वह लड़की दूसरे अंग्रेजी में भी बोलना जानती थी l कोई इस के विरुद्ध कुछ कहे भी तो लोक कवि पर कोई असर नहीं पड़ता l वह अपने इरादे के पक्के इंसान हैं l उस लड़की से उनके प्रोग्राम के रेट भी ऊंचे हो जाते हैं l भले ही लोक कवि अंग्रेजी ना समझ पाते हों पर उन का कहना था कि , ''पइसा समझता हूं  l'' दुनिया अंग्रेजी के चक्कर में है इस बात को लोक कवि जानते हैं पर भोजपुरी को ज़िंदा रखना लोककवि के जीवन का उद्देश्य है l वह उस भाषा को मरने नहीं देना चाहते l और आगे के लिये भोजपुरी में गाने वाले चेले चपाटे भी तैयार करते रहते हैं l वह अपनी भाषा के लिए  अपना जीवन अर्पित करते रहते हैं l रात में शराब और शबाब में टुन्न हो कर सब चिंताओं को भूल जाते हैं l सफलता, पैसा और यश उन के क़दमों में हैं जिन्हें हासिल करने में उन का निशाना ठीक रहता है l वह एक जिद्दी और अपनी बात पर अडिग रहने वाले इंसानों में से हैं l पर वफादारी में भी वह एक मिसाल हैं l जिस का नमक खाते हैं उस के गुण भी गाते हैं और समय पर बिना पैसे की परवाह किए उस के काम भी आते हैं l जैसे कि चेयरमैन के केस में उन से अपमानित होने पर भी उन के लिए प्रोग्राम करने का हठ l जिसने भी इन्हें कभी सहारा दिया तो उस के लिए भावुक और ईमानदार रहने में इन्हें संतोष मिलता है l लेकिन लोक कवि ने कच्ची गोलियां  नहीं खेलीं l हमेशा सावधान भी रहते हैं l जो भी क़दम उठाते हैं उसे अपना भला-बुरा सोचते हुए ही,''एह नाते कि जो ऊ 'क्लाइंट' आया था ऊ पुलिस में डी.एस.पी. है. दूसरे इस की लड़की की शादी l शादी के बाद विदाई में रोआ रोहट मची रहेगी l कवन मांगेगा पैसा ऐसे में l दूसरे पुलिस वाला है l तीसरे ठाकुर है l जो कहीं गरमा गया और बंदूक़ चल गई तो? लोक कवि बोले,''एही नाते सोच रहे थे कि जवन मिलता है यहीं मिल जाए l कलाकारों भर का नहीं तो आने-जाने भर का सही l समय के साथ उन का म्यूजिकल प्रोफेशन उन्हें स्मार्ट बना देता है l लोक कवि एक तरफ तो बच्चों की तरह किसी चीज को प्राप्त करने की जिद रखते हैं l और दूसरी तरफ समय के साथ-साथ उन में उदारता और व्यवहार कुशलता भी बढ़ती जाती है l वह बहती हवा के साथ बहने वाले लोगों में से हैं l जैसी परिस्थिति देखी उसी के अनुसार एक्ट करने लगते हैं l उन की पैसा और यश दोनों की हवस कम नहीं होती l धीरे-धीरे अपने गानों को इंप्रूव करने के चक्कर में अपनी इमेज बिगाड़ बैठते हैं l


उन का नाम लड़कियों के साथ लिंक होता देख कर कर लोग उन्हें ऐयाश व बदमाश भी कहते रहते हैं पर इस का लोक कवि की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता l पैसा, यश उन की मुट्ठी में और सुंदरियां उन की बगल में l बस इसी का संतोष रखते हुए वह पूरी मेहनत और लगन से अपनी म्यूजिकल पार्टी के संग नए गाने बनाने और नए प्रोग्राम करने में बिजी रहते हैं l दुनियादारी देखे हुए लोक कवि ये भी जानते हैं कि कभी-कभी खुद को प्रमोट करने के लिये कुछ खास लोगों के लिए मुफ्त के प्रोग्राम करना भी ज़रूरी होता है ताकि भविष्य में वो इंसान उन के किसी काम आ सके l हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है इस बात को समझते हुए जब भोजपुरी प्रोग्राम में अंग्रेजी बोलने वाले पर कोई टोकता तो उस से बहस करते हुए अपने को डिफेंड करने की निपुणता भी लोक कवि में है l सेल्फ कांफिडेंस तो उन में कूट-कूट कर भरा है l कोई और इंसान अगर आठवीं फेल होता तो उस से इतना जज्बा या हिम्मत नहीं होती जितना लोक कवि में है l बातों में अड़ियल टाइप लोक कवि लोगों से संबंध बनाने में या जब उन से मन ऊब जाएं तो उन्हें टरकाने में भी निपुण हैं l लेकिन ऐसा करते भी हैं वो तो बड़े अदब से l कभी-कभार की अरुचिकर बातें पचाना भी लोक कवि को आती हैं l स्त्रियों से अभद्रता से पेश आने में चेयरमैन  साहब का भी कोई जबाब नहीं l पर अति होने पर लोक कवि उन की बातों को अनदेखा करते रहते हैं l क्यों कि किसी समय उन्हों ने उन का नमक खाया है l और नमकहरामी करना उन के स्वभाव में नहीं l लेकिन अपने प्रोग्राम की शान और सफलता के लिए वह सुंदर और जवान लड़कियों का ही चयन करते हैं l और उन की रातें भी इन्ही सुंदरियों के साथ नशे में व्यतीत होती हैं l लोक कवि के बारे में मन अचानक कह उठता है:

भोजपुरी में गाने वाला घूम रहा था गलियों में
अब हाथों में जाम लिये खोया रहता सुंदरियों में 
 
इक सीधे से इंसा का जीवन कितना बदल गया
रातें उस की बीत रहीं नई कलियों की गलियों में l

इस उपन्यास के नायक लोक कवि अब इतने लायक़ हो गए हैं और ऐसे लोगों का उदाहरण हैं जिन्हें जिंदगी में कोई अच्छा चांस मिलता है तो उसे इस्तेमाल कर के आगे की जिंदगी का भी जुगाड़ अच्छी तरह करने लगते हैं l दिमाग उन का फुल स्पीड चलता है l ऐसे लोग अपना मतलब सिद्ध करने के लिए चारों तरफ की दुनिया देख कर कभी-कभी अपमान के घूंट भी पी जाते हैं l समय आने पर लोगों की खुशामद करने में भी उन्हें झेंप नहीं लगती l जो इरादा कर लेते हैं उस पर कुछ न कुछ तिकड़मबाज़ी कर के अपना काम बनाना और आगे बढ़ने में ही उन्हें संतोष मिलता है l ऐसे लोग आसमान की ऊंचाइयों को छूने की कोशिश में पूरा आसमान ही हासिल कर लेना चाहते हैं l जितना भी उन्हें मिलता है उस में उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती l इस विशेषता को महत्वाकांक्षी कहना ही उचित होगा l फिर भी कई बार सारी जिंदगी अपनी उपलब्धियों से असंतुष्ट रहते हैं l लोक कवि जैसे लोग किसी न किसी स्कीम में लगे रहते हैं l और लोगों की निगाहों में रहना व हर वो विधि अपनाना जिस से पैसा भी मिलता रहे l लोक कवि ऐसे ही उदाहरण हैं जिन के लिए ''ना बाप बडो ना भइया, जग में सब से बड़ो रुपैया l'' और जो भी मिलता है उस से ज्यादा पाने की सनक उन्हें सताती रहती है l एक बार इंसान पब्लिक की निगाहों में आ जाए तो उसे बाज़ार से होड़ लेने की आदत पड़ जाती है l


एक तरफ तो उन की तमन्नाओं और हिम्मत की दाद देनी पड़ती है l तो दूसरी तरफ ये सोच कर उन पर तरस भी आता है कि बाज़ार में कंपटीशन और अपनी म्यूजिकल टीम की प्रोग्रेस के चक्कर में गानों और प्रोग्राम में तब्दीलियां और अंग्रेजी का पुट दे कर वे औरों की नापसंद होते जा रहे हैं l किंतु दृढ़ निश्चय के होते हुए उन्हें किसी की परवाह नहीं l उन के प्रोग्राम फिर भी भोजपुरी प्रोग्राम के नाम से जाने जाते है l तमाम लोक कवि पूरे देश में बिखरे हुए हैं पर बाज़ार में भोजपुरिया कवि के नाम से यही लोककवि जाने जाते हैं l अन्य लोककवियों के नाम तक लोग ठीक से नहीं जानते l हर जगह इन्ही लोक कवि का नाम लोगों की जुबान पर रहता है l भोजपुरिया गानों में सारी ख्याति और पैसा लोक कवि ही बटोरते रहते हैं l अंग्रेजी ना जानते हुए भी अंग्रेजी को सपोर्ट करने में लगे रहते हैं l उस से उन के प्रोग्रामों की शान बढ़ती है l उन्हों ने भोजपुरी गानों में अवधी और हिंदी तो मिलाई पर उस का प्रभाव पानी और तेल मिलाने के समान साबित हुआ जो आपस में घुलते नहीं l लोग अंगरेजी पर आपत्ति भी करते हैं तो लोक कवि कभी झेंप कर तो कभी उन्हें तो टूक उत्तर दे कर चुप कर देते हैं l उन का सोचना है कि सारी जिंदगी एक ही लीक पर थोड़ी ही चलना है l किसी की परवाह किए बिना अपना भला-बुरा वो खुद सोचना चाहते हैं l उन्हें अपनी पसंद या निश्चय पर किसी का टांग अड़ाना पसंद नहीं ,  ''ई अंग्रेजी अनाउंसर ने हमारा रेट हाई कर दिया है तो ई अंग्रेजी हम नहीं समझूंगा तो कवन समझेगा l'' वह बोले,''का चाहते हैं जिनगी भर बुरबक बना रहूं l पिछडा ही बना रहूं  l अइसे ही भोजपुरी भी भदेस बनी रहे l'' लेकिन इस का मतलब ये नहीं है कि वह अपनी भाषा को मरने देंगे l वे उस का भी कुछ इंतज़ाम किए बैठे हैं. लोग उन्हें गलत समझते हैं इस का उन्हें दुख है l भोजपुरी तो उन की हर सांस में है l'' अभी तो जब तक हम जिंदा हूं अपनी मातृ भाषा की सेवा करूंगा, मरने नहीं दूंगा l कुछ चेला चापट भी तैयार कर दिया हूं वो भी भोजपुरी गा बजा कर खा कमा रहे हैंl पर अगली पीढ़ी भोजपुरी का का गत बनाएगी यही सोच कर हम परेशान रहता हूं  l'' वह बोले , ''अभी तो मंच पर पॉप गाना बजवा कर डांस करवाता हूं  l ये भी लोगों को चुभता है l भोजपुरी में खड़ी बोली मिलाता हूं तो लोग गरियाते हैं और अब अंग्रेजी अनाउंसिंग का सवाल घोंपा जा रहा है l'' वह बोले,''बताइए हम का करूं ? बाज़ारू टोटका ना अपनाऊं तो बाज़ार से गायब हो जाऊं l''


लोक कवि ने कुछ अंग्रेजी सीख ली है या कहिए कि लोगों की संगत में सीखते रहते हैं l उन से शब्दों के अर्थ पूछते रहते हैं l स्टेज पर नाचने गाने वाली लड़कियों की तारीफ़ में झूठ बोल देते हैं ताकि दर्शक वाहवाही करें कि इन के प्रोग्राम में पढ़ी-लिखी लड़कियां भी काम करती हैं l लोक कवि खाने-पीने में भी नए प्रयोग शुरू कर देते हैंl खाने में सूप को हेल्दी मान कर उस का चस्का भी उन्हें लग गया l हेल्दीलाइफ़ स्टाइल उन को भाने लगा है l और पीने में अब सादे पानी की जगह उन्हें मिनरल वाटर पीने का क्रेज हो गया l पानी की बोतलें खरीदने को हर दिन ही पानी की तरह पैसा खर्च करने लगे l लोगों के साथ उठने बैठने का प्रभाव तो पड़ना ही है l और लोक कवि की जिंदगी में ऐसे लोग आते रहते हैं जो उन को ऊंचे ओहदे के लोगों से मिलवाने में पुल का काम करते जाते हैं l चेयरमैन साहब के जरिए एक पत्रकार से मिलना जुलना होता है तो उस की मदद से एक नए  मुख्य मंत्री जो पिछड़ी  जाति के हैं उन तक भी पहुंच हो जाती है l लोक कवि हैं ही पिछड़ी  जाति के और लोग अब उन को भी यादव कहने लगते हैं l इनका रूतबा भी लोगों में और बढ़ जाता है l लोग मुख्यमंत्री से काम बनवाने के लिए लोक कवि का सहारा लेने लगते हैं l लोक कवि से सिफ़ारिश करवाने आने लगते हैं l ''यादव समाज में लोक कवि के लिये एक भावुक भारी स्वीकृति उमड़ने लगी l यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले तो आ कर बड़ी श्रद्धा से लोक कवि के पांव छू कर छाती फुला लेते और कहते , ''आपने हमारी बिरादरी का नाम रोशन कर दिया l'' प्रत्युत्तर में लोक कवि विनम्र भाव से बस मुसकुरा देते l यादव समाज के कई अफसर भी लोक कवि को उन्हीं भावुक आंखों से देखते और हर संभव उन की मदद करते, उन के काम करते l कुछ ही समय में लोक कवि का रूतबा इतना बढ़ गया कि तमाम किस्म के लोगों को मुख्यमंत्री से मिलवाने के लिए वह पुल बन गए  l छुटभैया नेता, अफसर, ठेकेदार, और यहां तक कि यादव समाज के लोग भी मुख्यमंत्री से मिलने के लिए , मुख्यमंत्री से काम करवाने के लिए लोक कवि को संपर्क साधन बना बैठे l अफसरों को पोस्टिंग, ठेकेदारों को ठेका तो वह दिलवा ही देते, कुछ नेताओं को चुनाव में पार्टी का टिकट दिलवाने का आश्वासन भी वह देने लगे l और जाहिर है कि यह सब कुछ लोक कवि की बुद्धि और सामर्थ्य से परे था l परदे के बाहर यह सब करते लोक कवि ज़रूर थे पर परदे के पीछे तो लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वह पत्रकार ही था जिसे चेयरमैन साहब ने लोक कवि से मिलवाया था. और यह सब कर के लोक कवि मुख्यमंत्री के करीब  सचमुच उतने नहीं हो पाए थे जितना कि उन के बारे में प्रचारित हो गया था l सचमुच में यह सब कर के मुख्यमंत्री के ज्यादा करीब वह पत्रकार ही हुआ था l'' लोक कवि केवल एक तरह से कठपुतली की तरह हैं जिस के पीछे दिमाग है पत्रकार का l लोक कवि के स्वभाव में एक ऐसा ऐब है जो उन्हें अकसर बेचैन कर देता है और वह ऐब है कि जिस चीज़  की भी उन्हें ख्वाहिश होती है वो उन के सर चढ़ कर बोलने लगती है l मुख्मंत्री ने जब कुछ लोगों को लखटकिया सम्मान से पुरस्कृत किया तो लोक कवि की भी उम्मीद जगी l पर उन के हाथ निराशा ही आई जो उन से बर्दाश्त ना हो सकी l और उस की व्यथा जिस-तिस के आगे रो-रो कर उन्हों ने उंडेली l पर किसी तरह दोस्त पत्रकार के आश्वासन से उन की उम्मीद पूरी होती दिखने लगती है l पर लोक कवि की खासियत है कि वह एक बेसब्र इंसान हैं जिन से समय की प्रतीक्षा सही नहीं जाती l इस लिए उन की बेचैनी बढ़ती जाती है l उन्हें लगता है कि ये सम्मान ना मिलना उन के साथ-साथ भोजपुरिया समाज का भी अपमान है l वह पत्रकार एक लड़की निशा को ले कर लखटकिया सम्मान के लिये लोककवि को ब्लैकमेल करता रहता है l जब पत्रकार की ख्वाहिश लोककवि पूरी नहीं कर पाते तो पत्रकार उन से बोलना छोड़ देता है और उस से सहायता का रास्ता बंद हो जाता है l पर फिर भी बाद में कुछ तिकड़मबाजी से लोककवि को 5 लाख का लखटकिया सम्मान मिल जाता है l जब अखबारों में ख़बरें छपती हैं तो उतना प्रसार नहीं हो पाता जितना उस पत्रकार के सहायता करने पर हो सकता था l इस बात का लोककवि को बहुत मलाल है और उस से बोलचाल छूट जाने का भी l


चेयरमैन और अपनी टीम के लोगों के साथ जब वह अपने गांव  कारों के काफिले में जाते हैं तो सभी गांव  वालों के लिए  चर्चा व गर्व का विषय बन जाते हैं l उन के पुरस्कार की खुशी में पूरा गांव ही उमड़ आता है l और जहां उन की जाति बिरादरी वाले लोककवि का खूब स्वागत करते हैं वहीं कुछ लोगों को जलन व ईर्ष्या भी होती है जैसे कि एक पंडित जो लोककवि को नचनिया, पदनिया कहते हुए  नीचा दिखाता है l पिछड़ी जाति के इंसान चाहें आगे निकल जाएं औरों से पर ये समाज मौक़ा मिलते ही उन का अपमान करने में पीछे नहीं रहता l पिछड़ी  जाति के होने से लोक कवि को भी इस अपमान के घूंट पीने पड़ते हैं l वह पंडित एक तरफ तो लोक कवि को अपमान भरे शब्द कहता है और दूसरी तरफ उन से गांव के लिए  तमाम चीज़ों  की अपेक्षाएं भी रखता है l लेकिन पिछड़ी  जाति के होने पर भी लोक कवि ने लखटकिया सम्मान प्राप्त कर के अपने गांव  का नाम रोशन किया है इस लिए  सब की खुशी का ठिकाना नहीं l और वहां उस स्वागत के दौरान तिलक करने वाली औरतों के बीच लोक कवि को अपनी बचपन की सखी धाना भी सकुचाती हुई दिख जाती है तो जैसे उन की यादों का सैलाब उमड़ पड़ता हैl जिस में  वो डूबते-उतराते अपनी जवानी के दिन याद करने लगते हैं l लोक कवि का असली नाम तो मोहना था l और धाना थी उन का पहला प्यार, उन के बचपन की स्वीटहार्ट l दोनों में साथ-साथ खेलते-बढ़ते प्यार हो गया l जवान होने पर भी दोनों एक दूसरे से सब से छुप कर मिलते रहे l पर उन की आपस में शादी नहीं हो सकी क्यों कि धाना का परिवार कुछ ऊंची जाति का और खाता-पीता था l जब कि मोहना के परिवार को दो जून की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती थी l पर इन दोनों का मिलना चलता ही रहा l धाना की जवानी संभले नहीं संभलती थी l वह जैसे एक उफनती हुई नदी थी जो सारे किनारे तोड़ कर अपने सागर मोहना में समा जाना चाहती थी l और मोहना उसे पी जाना चाहता था l पर दोनों को लोगों का भय था l और इस तरह एक दिन धाना की शादी भी हो जाती है l पर दोनों फिर भी एक दूसरे को चाहते रहते हैं l मायके में रहती अपने गौने का लंबा इंतज़ार करती धाना अकसर मोहना से टकराती रहती है l

और इन का प्यार किशोर कुमार का गाया एक गाना याद दिला देता है:

''प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है
हर खुशी से, हर गम से, बेगाना होता है l'' 

इसी बीच लोक कवि भी विवाह हो जाता है l पर फिर भी वह दोनों एक दूसरे को भुला नहीं पाते l दोनों की आंखें एक दूसरे को ढूंढती रहती हैं l और एक दिन सावन के मौसम में बाग में झूला झूलते हुए बरसात आने पर भीगती हुई धाना बरसाती नदी की तरह उफना कर, दुनिया का डर  भूलकर, शर्म-हया के बांध तोड़ कर आपा खो बैठती है l और पास ही इंतज़ार करते हुए अपने सागर मोहना में समा जाती है l लेकिन इस का नतीज़ा  जो होने वाला है उस के डर से मोहना भाग कर शहर में आ जाता है l और गली-गली गाते हुए अपना जीवन बसर कर के संघर्ष की जिंदगी बिताने लगता है l और तभी एक कम्युनिस्ट नेता से मोहना की जान पहचान होती है l और भाग्य मोहना और धाना को यहीं फिर से मिलवाता है जब धाना अपने छोटे बच्चों को डाक्टर को दिखाने ले जाती है l मोहना के अब तक अपने बच्चे भी हो जाते हैं l पर दोनों के आपसी संबंध होने से धाना के बच्चे भी मोहना से ही होते हैं l जिस का पता धाना के पति को नहीं लग पाता l लगता है कि गांवों में ये सब अकसर होता रहता है l आज वही मोहना लोक कवि के नाम से जाना जाता है l जो समय के साथ बदल चुका है और पैसा और शोहरत में नहा रहा है l पर फिर भी अपनी भाषा भोजपुरी भाषा को सुरक्षित रखना चाहता है l गांव  में स्वागत के बाद शहर में वापस अपने घर आ कर भी लोक कवि का खूब धूम-धड़ाके से स्वागत-सम्मान होता है l लेकिन लोक कवि को इस सम्मान की पब्लिसिटी करवाने की पड़ जाती है l और फिर उस पत्रकार से बोलचाल होने पर जब वह लोक कवि का इंटरव्यू लेता है तो उस में वह बड़ी होशियारी से जबाब देते हैं l कवि सम्मेलन में काव्यपाठ की बात पर सवाल उठा तो कहते हैं उन्हें कवि सम्मेलन में गाना पसंद नहीं क्यों कि उन्हें संदेह है कि उन में उतनी योग्यता है  और कवि सम्मेलनों में उतना पैसा भी नहीं l स्टेज पर किसी सुंदर या अच्छी गायिका के संग गाने पर भी उन को डर है ,  ''वहां अपने से अच्छी गायिका के संग गाऊंगा तो हम को कौन सुनेगा भला? फिर तो उस गायिका की मार्केट बन जाएगी, हम तो फ्लाप हो जाऊंगा l हमको फिर कौन पूछेगा?'' लोक कवि हर सवाल का जवाब बड़ी चुस्ती से देते हैं l पर लोक कवि की सफलता ने उन के मन में लोगों के लिए कुछ अहसास मार दिए हैं l वह अब अपनी टीम में जल्दी-जल्दी कटनी-छंटनी करते रहते हैं l भले ही कम पढ़े हों पर दिमाग के चालू लोक कवि जिन कलाकारों को टीम से निकालते हैं उन्हें अपने गाने गाने की छूट दे देते हैं ताकि उन का नाम मार्केट में चलता रहे l लेकिन जब भी उन्हें पंडित के शब्द 'नचनिया-पदनिया' याद आते हैं तो उन के मन को बड़ी ठेस पहुंचती है l और उन के मन की व्यथा जानते हुए भी जब चेयरमैन साहब उन्हें पंडित की नातिन की शादी वास्ते पैसा कुछ पैसा देने को कहते हैं तो लोककवि की उदारता सानी नहीं रखती l

लोक कवि पंडित-पंडिताइन से बुरा-भला सुन कर, मन पर चोट खा कर भी सब पचा जाते हैं और अपना प्रण पूरा करने में सफल होते हैं l काफी ना-नुकुर के बाद पंडिताइन पैसा ले लेती हैं l लेकिन इस दुनिया में इंसानों के संग राक्षस भी रहते हैं जो लोगों को चैन से जीने नहीं देते l लोक कवि के गांव में भी गणेश तिवारी नाम का एक राक्षस है जो लोगों को चैन से नहीं जीने देता l लोगों को आपस में लड़वा देना और बनते हुए  ब्याहों को तारीफ के शब्द कहते-कहते अचानक कोई झूठी अप्रिय बात कह कर मिनटों में तुड़वा देना उस के बाएं हाथ का खेल है l उस के बाद वह खुद तो चलता बनता है और लोग शंका में अपना सर धुनते रह जाते हैं,  ''ऐसी बात जहां न भी पहुंची  हो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा कर पहुंचाने में पूरी प्रवीणता हासिल रखते थे l न सिर्फ़ बात पहुंचाने की प्रवीणता हासिल रखते थे बल्कि बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार वह किसी का भी सर कलम कर सकते थे,उस को समूल नष्ट कर सकते थे, करते ही थे  l और ऐसे कि काटने वाला तड़प भी ना सके, मिटने वाला उफ़ भी ना कर सके l वह कहते,  'वकील लोग वैसे ही थोड़े किसी को फांसी लगवाते हैं l'' वह वकीलों के गले में बंधे फीते को इंगित करते हुए  कहते,''अरे, पहले गटई में खुद फंसरी बांधते हैं l फिर फांसी लगवाते हैं l फिर गणेश तिवारी बियाह काटने में तो इतने पारंगत थे जितना किसी के प्राण लेने में यमराज l वह किसी भी वर को मिर्गी, दमा, टी बी, जुआरी , शराबी वगैरह-वगैरह गुणों से विभूषित कर सकते थे l ऐसे ही वह किसी कन्या का भले ही उसे मासिक धर्म ना शुरू हुआ हो तो क्या दो, चार गर्भपात करवा सकते थे l'' वह नारद मुनि की तरह बात कह कर चलते बनते हैं और लोग उन की बातों को शंकित हो कर रिश्ते तोड़ बैठते हैं l आग में घी डालना गणेश का काम है l लोग उन से डरते रहते हैं l विलेज बैरिस्टर और खुद भी गाने का शौक रखते हुए गणेश तिवारी लोककवि को अपना चेला समझते हैं l और पंडित की नातिन की शादी पर पैसा देने वाली बात से उन को बड़ी जलन होती है l किसी का काम बनवाने पर अगर उन्हें मुंहमांगी रिश्वत ना मिली तो वह किसी भी नीचता पर उतर आते हैं जैसे कि फ़ौजी तिवारी को खेत खरीदवाने पर l क़ानूनी दांव-पेंच इस्तेमाल कर के उस फ़ौजी को बर्बाद कर दिया और खेत किसी और के नाम हो गए .किंतु  कहते हैं कि सयाना 'कौवा एक दिन गुह खाता है' वही बात हुई गणेश तिवारी के बारे में l जिस के नाम खेत किए थे उसी की नातिन फ़ौजी के बेटे के हाथों मारी जाती है खेत में और फ़ौजी का पूरा परिवार डर से भाग जाता है l बाद में पोलादन से पैसा ना मिलने की वजह से गणेश जैसा चालाक आदमी पोलादन को दोष देता हुआ फ़ौजी के परिवार से मिल कर रहना चाहता है पर उन का विश्वास गणेश पर से उठने से गणेश ना इस तरफ ना ही उस तरफ के रहते हैं l पुलिस को सचाई का पता चल जाता है और गणेश को दबोच लेते हैं l अब गणेश के पास माई-बाप कहने के अलावा कोई चारा नहीं l उसे अपने किए का भुगतना पड़ता है l


पंडित की नातिन के बारे में अफवाह कर दी कि उसे भी अपने बाप की तरह एड्स की बीमारी है तो इसे जान कर लोककवि आगबबूला हो जाते हैं l पर गणेश जैसे लोगों का मुंह कुटम्मस करवाने की बजाय पैसे से ही बंद करवाने में लोककवि बेहतर समझते हैं l  क्रूरता और निर्दयता में गणेश दयानंद जी के एक और उपन्यास 'अपने-अपने युद्ध' के पात्र सरोज जी से बहुत समानता रखता है l सरोज जी भी गणेश की ही तरह निर्दयी और स्वार्थी इंसान हैं जो खुद की इच्छा पूर्ति के लिये कोई भी झूठ बोल सकते हैं l उस में चाहे दूसरों का कितना भी नुकसान होता हो l और फिर अपनी राह चलते बनते हैं l ऐसे लोग दूसरों का गला काट कर सिर्फ़ अपना भला चाहते हैं l जब कोई कमाता है तो वह उस पैसे को जी भर कर अपने पर खर्च भी करना चाहता है l लोककवि भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं l शहर में आने पर अब तबियत के शौकीन लोककवि का मन जिस चीज़  पर आ जाए  तो उस वस्तु को हासिल करने में वह कोई कसर नहीं रखते l उन का मन बिलकुल एक बच्चे की तरह है जिसे अगर कोई चीज पसंद आ जाए तो उसे भुला नहीं पाता l जब उन का मन बाथटब के लिए  मचलता है तो बाथरूम छोटा होने से बाथटब को छत पर ही लगवा लेते हैं l लोगों की देखा-देखी वह छतरी वाली आउटडोर टेबिल भी खरीद लेते हैं l मोबाइल का जमाना आया तो उसे लेने के लिए भी आतुर हो जाते हैं l लोग उन्हें उस के खर्च के बारे में आगाह करते हैं तो लोक कवि नादानी की बातें करने लगते हैं कि वह उसे बिना इस्तेमाल करे अपने पास रखना चाहते हैं l लेकिन मोबाइल हासिल करने के पीछे का असली राज आखिर में खुल ही जाता है, ''सिर्फ एह मारे कि लोग जानें कि हमारे पास भी मोबाइल है l हमारा भी स्टेटस बना रहेगा l बस l'' वह जिस किसी वस्तु का नाम सुन लें या देख लें तो उसे उपलब्ध करने का तुरंत सपना देखने लगते हैं l और एक बार जिस चीज़  को हासिल करने की उन्होंने ठान ली तो उस के बाद वह किसी की भी नहीं सुनना चाहते l  हमेशा दूसरों से अपनी तुलना कर के अपना स्तर ऊंचा उठाने के चक्कर में रहते हैं l वरना दुख का अहसास उन्हें घेर लेता है l


'लोक कवि अब गाते नहीं' के नायक लोक कवि ऐसे दीन हीन लोगों का उदाहरण हैं जिन का बचपन तो फटेहाली में बीतता है पर उन के भाग्य में सूर्योदय लिखा होता है l कई बार ऐसे लोग जीवन में मुसीबतों और संघर्षों के दौरान किसी बड़े प्रभाव शाली व्यक्ति से टकरा जाते हैं जो उन के जीवन को नया मोड़ दे देते हैं l फटीचर हालत में रहने वाले लोककवि की भी जब कम्युनिस्ट नेता से मुलाकात  होती है तो वहीं से उन के जीवन के  नए रास्ते की शुरुआत हो जाती है l पैसा और शोहरत मिलते ही इंसान और ऊंचे ख्वाब देखने लगता है l दिल में कई तरह की तमन्नाएं मचलने लगती  हैं l पर कई बार इस पैसा और शोहरत को हासिल करने के लिए इंसान को कुछ ऐसे फ़ैसले भी लेने पड़ते हैं जिस का नतीज़ा बाद में भुगतना पड़ता है l और तब उस की आंखें खुलती हैं और अहसास होता है कि कुछ पाने की चाह में उसे क्या खोना पड़ा l अपनी हसरतें पूरी करने के चक्कर में इंसान नई-नई बातें सोचता रहता है और आखिर में ये नई बातें उस पहली चीज़ पर हावी हो कर उस का अस्तित्व मिटाने लगती हैं l लोक कवि की भोजपुरी भी हिंदी और अंग्रेजी की मिलावट में और सुंदर लड़कियों के डांस के बीच खोने लगती है l और एक दिन वह एक हारे हुए खिलाड़ी की तरह हो जाते हैं l जिस टैलेंट को ले कर वह गांव  से निकले थे वह लोक कवि के भ्रम से खोने लगती है l और उम्र के एक मुकाम पर आ कर ऐसा इंसान एक हारे हुए जुआरी की तरह शांति पाने के लिए एक कोना खोजना चाहता है l उम्र के साथ उस में उमंग नहीं रह जाती l उसे अपनी की हुई गलतियों का भान होने लगता है l गांव से शहर में आ कर इंसान कुछ पाता है तो कुछ खोता भी है l यही होता है लोक कवि के साथ. वह उम्मीदों का दामन पकड़े शहर में आ कर एक नई दुनिया का सामना करते हैं l अपनी मेहनत व लगन से अपनी पहचान बनाते हैं l पर वहां की चमक-दमक में उन की सादगी और भोलापन खो जाता है l साथ में शराब, शबाब और कई हसरतों के बीच भोजपुरिया संगीत की लौ धीमी होने लगती है l स्टेज पर उन के शो में नाचने वाली सुंदर डांसर में लोगों की रूचि बढ़ती जाती है l और भोजपुरी संगीत, उस की चकाचौंध में फीका पड़ने लगता है l 


अब लोग उन के संगीत में नहीं बल्कि लड़कियों की अदाओं को देखने उन के शो में आने लगते हैं l लोक कवि मन में कसमसाते हैं, छटपटाते हैं पर फिर भी जहां तक होता है भरपूर उत्साह और लगन के साथ मार्केट में बने रहने की चेष्टा करते हैं l लेकिन अब लोग उन के शो को नहीं बल्कि उस में नाचने वाली लड़कियों की बात करते हैं, उन में रूचि रखते हैं l और इस लिए अब ना ही लोक कवि की पूछ रहती है और ना ही उन के संगीत की l लोककवि ने म्यूजिक मार्केट में अपने नाम को ऊंचा उठाने और स्टेटस की चाह में अपने लिए तरह-तरह के ऐक्स्पेरिमेंट किए जिस का नतीज़ा  उन्हें बाद में भुगतना पड़ता है l उस समय उन्हें अकल नहीं आई पर जब बाद में सोचा तब तक 'चिड़िया चुग गईं खेत'! वह अपने ही बिछाए जाल में फंस जाते हैं उन की हालत अब एक लुटे-पिटे जुआरी की तरह है जो सब खो कर पछता रहा है l फिर भी जीने को मजबूर है l लोक कवि समय के ज्वार-भाटा में अपनी भोजपुरी गायकी को डूबते देखते रहते हैं l ये बड़ी मजबूरी की स्थिति है l उन का नाम मार्केट में तो है पर वह अब  अपने प्रोग्राम में गाना नहीं गाते l

उन के कार्यक्रम की सफलता स्टेज पर नाचने वाली कमसिन लड़कियों की मादक अदाओं से होती है l उन के अंतस में जो पीड़ा है उसे वह हर दिन झेल रहे हैं , ''वह सोच रहे हैं कि लड़कियों का डांस कितना भारी पड़ रहा है उन को? पहले तो परोगरामों में लड़कियों का डांस दो वजहों से रखते थे l एक तो खुद को सुस्ताने के लिए  , दूसरे परोगराम को थोड़ा ग्लैमर देने के लिए  l पर अब ? अब तो लड़कियां  जब सुस्ताती हैं तो लोक कवि को गा लेने का मौक़ा मिलता है l पहले लड़कियां  फिलर थीं, अब वह खुद फिलर हो गए  हैं.''उन्हें कितनी दयनीय स्थिति से गुज़रना पड़ता है l अपने प्रोग्राम को सफल बनाते-बनाते वह उस की सफलता के लिए अब डांसर लड़कियों के मोहताज़ हो जाते हैं l उन के गानों की पूछ नहीं  रही, भोजपुरी की पूछ नहीं रही और उन्हें निराशा के समंदर में पटक दिया है बाज़ार ने l उन्होंने सालों से जो इमारत  बनाई थी वह इमारत अब दरक रही  है l

उन की हालत इतनी त्रासदी में डूब गई है कि जब कोई किसी लड़की के बारे में पूछता है कि वह कहां  है तो वह अपने से पूछने लगते हैं कि अब भोजपुरी कहां  है? जिस सपने को ले कर गायकी शुरू की थी वह भोजपुरी अब खोती जा रही है l मुहम्मद खलील की तरह वह भी भोजपुरी को ठेस पहुंचते नहीं देख सकते l किंतु जहां मोहम्मद खलील ने फ़िल्मों में गाने के लिए समझौता कर के भोजपुरी को बर्बाद नहीं करना चाहा वहीं लोक कवि ने समय के साथ मार्केट में अपने को बनाए रखने के लिए कई समझौते किए l जिस का अंजाम उन को भुगतना पड़ा l इन की अपनी मजबूरी रही कि जो भी प्रोग्राम होते थे वह इन के अपने थे अपनी टीम के साथ l तो मरता क्या नहीं करता वाली बात हुई l और अब उम्र के इस ढलान पर आ कर वह कितने लाचार हैं l लोक कवि ने जो किया वो अपने प्रोग्रामों की सफलता को सोच कर ही किया l पर बाद में उन पर उलटी चपत पड़ गई l जिसे अब उन्हें ही सहना और भुगतना ही है l उन्हों ने बेशुमार पैसा बनाया, शोहरत पाई, कितनों की जिंदगी अपने पैसों से बना दी पर अब ये बिगड़ी हुई बात वह कैसे बनाएं ? ये तो उन के लिए अब संभव नहीं दिखता l

कितनी हसरत से बनते हैं सपनों के घर 
जो अपने ही हाथों बन जाते हैं खंडहर l 

हारे हुए इंसान की तरह पस्त हो चुके लोककवि की स्थिति इतनी दयनीय हो जाती है कि वह अब अपने गाने की लाइनों को ही याद किया करते हैं,'' जे केहू से नाई हारल, ते हारि गइल अपने से l'' सच में इंसान अपने से ही हार जाता है l और हार कर लोककवि की जिंदगी एक फटे सितार की तरह बजती रहती है l

कभी हास्य तो कभी रुदन 
ये जीवन कैसा खेल हुआ 
दे-दे कर इंसा रोज इम्तहां 
पास हुआ कभी फेल हुआ l

दयानंद जी ने भोजपुरी भाषा को ले कर लोक कवि के माध्यम से जीवन के ज्वार-भाटा को जिस तरह कलमबद्ध किया है उस की तारीफ़ किए  बिना कोई भी पाठक नहीं रह सकता l उपन्यास में ठुमकती हुई आप की मजेदार भाषा शैली और लोक कवि के भोजपुरी में संवाद पढ़ कर मन मुग्ध हो जाता है l लोक कवि के डायलाग मन को गुदगुदाते रहते हैं l पढ़ते हुए  मन में भाषा की मिठास घुलती रहती है l भोजपुरी भाषा में एक भोलापन सा है जिस में मन बिंध जाता है l इस की सरलता और मिठास से जो एक बार परिचित हो गया तो भाषा को अच्छी तरह सीखने व बोलने की चाह उठने लगती है l मेरी हार्दिक कामना है कि आप की सशक्त लेखनी इसी तरह निरंतर चलती रहे और पाठकों को विभोर करती रहे l    



 समीक्ष्य पुस्तक :

लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003 

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  1. टिप्पणी पसंद करने के लिये आपका धन्यबाद l

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