Wednesday, 20 April 2016

मनाता हूं ख़ुदा से बराबर तुम्हारे नगर में अपने कारवां से छूट जाऊं

फ़ोटो : बासव चटर्जी


ग़ज़ल 

मुहब्बत की फकीरी सब को नसीब नहीं होती कि तुम से छूट जाऊं 
मनाता हूं ख़ुदा से बराबर तुम्हारे नगर में अपने कारवां से छूट जाऊं

पत्ता नहीं हूं जो तुम्हारी याद की आंधी में झटक कर टूट जाऊं 
आशिक हूं डाकू नहीं जो तुम्हारे हुस्न का जादू आ कर लूट जाऊं 

तुम्हें देखते ही हो जाता हूं इक नन्हा सा बच्चा तुलतुलाने लगता हूं 
लगती हो तुम दूध भात का कटोरा हक़ तो बनता है कि रूठ जाऊं 

तुम्हें पाने की ललक तो बेतरह है लेकिन कोई ज़िद्दी बच्चा नहीं हूं
दिल आख़िर दिल है कोई मिट्टी का खिलौना नहीं  कि फूट जाऊं 

मन करता है तुम्हारी गोद में बैठूं शिशु की तरह तुम्हारे बाल खींचूं
तुम्हारे गाल पर लेट कर सुनूं गीत और बच्चों की तरह रूठ जाऊं 

गर ज़िंदगी की रेखा है तो होती होगी प्रेम की भाग्य रेखा भी ज़रूर 
जितने दिन भी मयस्सर हो सौभाग्य मेरा कैदी नहीं हूं कि छूट जाऊं 

तुम मेरी पीड़ा में भी प्रेम बन कर उपस्थित हो यह मेरे लिए बहुत है 
प्रेम का आकाश हूं बादल नहीं कि बरखा की बूंद बन कर टूट जाऊं  

[ 20 अप्रैल , 2016 ]

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