Friday, 1 June 2012

ये हार कर भी जीते हुए लोग हैं

अमिताभ ठाकुर

दयानंद जी कहते हैं- “वे जो हारे हुए” पर मुझे ऐसा लगता है कि जिन लोगों को वे बाह्य स्तर पर हारा हुआ बताते हैं, उनके बारे में वे पक्के तौर पर जानते हैं कि यही वे लोग हैं जो किसी कीमत पर हारने वाले नहीं हैं. आनंद नाम का यह जीव ऊपरी निगाह से चिंतित, परेशान, तनहा, अकेला और अत्यंत संत्रास और बेचैनी में घिरा दिख रहा है पर मुझे न जाने क्यों वह आदमी अंदर से बहुत मजबूत, शांत, आश्वस्त और आत्म-विश्वास से लबरेज दिखता है.








वे जो हारे हुए
पृष्ठ सं.264
मूल्य-400 रुपए

प्रकाशक:
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2011










यदि ऐसा नहीं होता तो क्या एक अकेला आदमी, एक साधारण सा शख्स, एक कंपनी का नौकर हर स्थिति में, हर मुश्किल में, हर मौके पर पूरी दुनिया से अकेले मुकाबला करने को हर समय तैयार होता? दयानंद जी उपन्यास के आखिरी में अपनी चिंता व्यक्त करते हैं कि समाज में सिस्टम बर्बाद होता जा रहा है और कुछ करने की जगह रोबोट बने लोग कह देते हैं आई डोंट केयर. उन्हें यह भी डर सता रहा है कि इस खत्म हो रही व्यवस्था में आदमी रोबोट बनता जा रहा है और पूंजीपतियों का सम्पूर्ण आधिपत्य स्थापित होता जा रहा है. लेकिन साथ ही वे पूरे उपन्यास भर आनंद के रूप में एक ऐसा चरित्र हम लोगों के सामने रखे रहते हैं जो उनकी खुद की चिंताओं के बिलकुल उलट है. यह आदमी समाज के हर पोर को, समाज के हर कोण को और व्यवस्था के हर तार को देख-समझ रहा है और उससे मुक़ाबिल होने को कृत-संकल्प है.

यही आनंद इस उपन्यास की भी ताकत है, उपन्यासकार की भी ताकत है और आज की हमारी व्यवस्था की भी शक्ति है. यह सही है कि हम विपरीत स्थितियों से गुजर रहे हैं. यह भी सही है कि राजीनीति में, व्यवसाय में, सामाजिक रिश्तों-नातों में, शैक्षणिक संस्थाओं में, स्वयंसेवी संगठनों में, मीडिया में, धार्मिक स्थानों पर और विभिन्न प्रशासनिक खण्डों में विद्रूपताएं दिख जा रही है. पर इसके साथ यह भी उतना ही सच है कि इनमे से हर जगह पर एक या एक से अधिक आनंद मौजूद हैं जो चिंतित तो हैं पर हतोत्साहित नहीं, जो भीड़ का अंग भी हैं और भीड़ से अलग भी और जो अपने आप को भी पाल रहे हैं और व्यवस्था को सुधारने में भी लगे हैं.

मैं अपने तजुर्बे से जानता हूँ कि आज जब कई तरफ से निराशा के बादल छाये जा रहे हैं तो उतनी ही तेजी के साथ एक नयी आस, एक नयी प्यास और एक नया उत्साह लिए सैकड़ों आनंद जीवन के हर क्षेत्र में उतनी ही तेजी और सक्रियता के साथ उठ खड़े हुए हैं. दयानंद जी इस बात से खूब परिचित हैं, यह बात इसी से पता चल जाती है कि वे निराशा की इतनी सारी बातें इतना खुल कर करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इन बातों के सामने आ जाने से ये लोग घबरा कर अपने अंदर नहीं सिमट जायेंगे पर अपने आनंदत्व को और अधिक परिमार्जित कर इन अँधेरे सोपानों को नेस्तनाबूद करने के अपने लक्ष्य में दूने उत्साह से लग जायेंगे.

आज मैं पाता हूँ कि साहित्य, मीडिया, समाजसेवा, फिल्म, कला, अकादमिक कार्यों से ले कर नौकरी और राजनीति तक में बड़ी भारी संख्या में ऐसे लोग हैं जो आदर्शों से लबरेज हैं, अपनी ओर से कुछ करना चाहते हैं, अपना एक रचनात्मक और वाजिब सहयोग देना चाहते हैं. दयानंद जी ने पत्रकारिता की चर्चा करते समय यदि कतिपय निराशाजनक बातें बतायीं तो भड़ास की भी चर्चा की. यदि राजनीति पर चर्चा हुई तो राकेश प्रताप सिंह भी कहीं ना कहीं दिख जाते हैं. यदि समाज पर बहस हुई तो उस मुस्लिम लड़के का भी जिक्र होता है जो अपने लोगों को एक नयी रौशनी दिखाने के काम में लगा हुआ है. यह अलग बात है कि इनमे से कोई सफल होता है तो कोई असफल.

इस उपन्यास में हम तमाम पात्र देखते हैं, कुछ तो नाम सहित दिए गए हैं और कुछ परदे के पीछे चित्रित किये गए हैं ताकि वे आराम से समझ में भी आ जाएँ पर विभिन्न कारणों से यह बात सार्वजनिक भी नहीं हो सके. जिस तरह से इस उपन्यास में कई बड़े नामों को सामने लाया गया है और उन पर खुल कर टीका-टिप्पणी की गयी है, मेरी निगाह में भारतीय उपन्यासों में इसकी मिसाल कोई बहुत ज्यादा नहीं मिलने वाली. हमारे देश में साहित्यकार ना जाने क्यों व्यक्ति विशेष को इंगित करने और उन पर खुल कर वाद-विवाद करने से बचते से नज़र आते हैं. मैं कह नहीं सकता कि इसके पीछे कौन सी मनोवृति काम करती है. खास कर हिंदी साहित्य में यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही देखने को मिल जाती है. लेकिन मैंने दयानंद जी को इससे भागते हुए कभी नहीं देखा है. मेरी निगाह में यह दयानंद जी की सबसे बड़ी भेंट है हिंदी साहित्य को कि वे इसे मात्र कथा साहित्य तक नहीं रहने देते और ना ही मात्र समस्याओं के आम निरूपण तक अपने आप को सीमित रखते हैं बल्कि वे इसके लिए जिम्मेदार एक-एक व्यक्ति को नाम से बुला कर पाठकों के सामने खड़ा करते हैं, उनके सुकृत्यों और दुष्कृत्यों से पाठकों को रूबरू कराते हैं और फिर इस पर विषद चर्चा करते हुए अपना कुछ निश्चित निष्कर्ष भी निकालते हैं. मैं जोर दे कर कहना चाहूँगा कि सभी हिंदी उपन्यासकारों और साहित्यकारों को इस पद्धति को और अधिक खुल कर अपनाना चाहिए क्योंकि नीतियों और विचारों को व्यक्ति-विशेष से अलग नहीं किया जा सकता. एक साहित्यकार के लिए, जो समाज का सबसे कुशल चितेरा होता है, यह आवश्यक है कि वह हमारे देश और समाज के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को भी अपने साहित्य में स्थान दे तथा उनका सम्यक आकलन करता रहे.

अंत में मैं यही कहूँगा कि कुछ लोग “वो जो हारे हुए” को हमारे समाज की एक हताश दास्तान के रूप में देख सकते हैं, पर मेरा यह दृढ मत है कि यह उन तमाम आनंदों के लिए एक सलामी भरी पेशकश है जो लगातार अपनी पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने दायित्वों को निभा रहे हैं- कभी सफल हो कर तो कभी असफल हो कर. पर जब तक ऐसे आनंद हमारे समाज में हैं तब तक हताशा जैसी बात तो मुझे दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती.

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