Tuesday 5 June 2012

आलोचक किसी को बड़ा या छोटा नहीं करता : नामवर सिंह

दयानंद पांडेय

 

रचना बड़ी कि आलोचना? पूछने पर नामवर सिंह जैनेंद्र जी का संदर्भ दे कर पूछते हैं कि ‘किस की अकल और किस की भैंस?’ इसी तर्ज़ पर वह कहते हैं कि ‘कौन रचना है और कौन आलोचक?’ वह मानते हैं कि ‘आलोचक किसी लेखक को बड़ा बनाता नहीं, स्वीकार करता है।’ दरअसल लगभग हर व्याख्यान में एक नई लाइन ले लेने वाले नामवर सिंह हिंदी साहित्य, खास कर आलोचना के परिदृश्य पर जिस तरह सक्रिय रहे हैं, वह अपने आप में एक अप्रतिम उदाहरण है। अपने वक्तव्यों से उत्तेजना जगाना अगर किसी को सीखना हो तो वह नामवर से सीखे। क्यों कि जाने सायास या अनायास, नामवर के हर वक्तव्य उत्तेजना जगाते हैं। हर रचना को वह नई खोज मानते हैं और कहते हैं कि हर रचना को हर तरह से नई दिखना चाहिए। इन दिनों इसी अर्थ में वह परंपरा नहीं, परंपराओं पर ज़ोर देते मिलते हैं। उन की गुरुता का जादू भी अजब है। अब देखिए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को वह अपना गुरु मानते हैं। पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार नामवर को पहले मिलता है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन के दो साल बाद। वह भी आलोचना पर नहीं, उन के एक उपन्यास पर। जब कि वह जाने आलोचना के लिए जाते हैं। यह भी गज़ब ही है कि हिंदी साहित्य में जो भी कुछ घटित होता है, उस की स्वीकृति नामवर से पाने या फिर उस बाबत जिरह की खातिर लोगों में जो ललक दीखती है वह किसी और हिंदी आलोचक को नसीब नहीं। यह सिलसिला कोई चार दशक से भी ज़्यादा समय से अनवरत जारी है। कम ही हिंदी आलोचक हैं, जिन के जीते जी उन पर कोई गंभीर किताब केंद्रित की गई हो। नामवर ऐसे ही आलोचक हैं, जिन के जीते जी उन पर कोई गंभीर किताब केंद्रित की गई है। दयानंद पांडेय ने उन से राष्ट्रीय सहारा के लिए खास बातचीत की थी। यहां पेश है उन से हुई उस बहस-तलब बात-चीत के संपादित अंश :-
सुधीश पचौरी के द्वारा संपादित ‘नामवर के विमर्श’ उन के जीवन और साहित्य के बाबत एक नहीं, कई खिड़कियां खोलती हुई किताब है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को अपना गुरु मानने वाले नामवर आज भी अपना खांटी बनारसीपन टटका रखे हुए हैं। बरसों बनारस से दूर रह कर भी आज भी बनारसीपन जीते मिलते हैं। गर्वीली गरीबी के बखान में ऊभ-चूभ, चूना लगा कर सुर्ती ठोंक कर खाने वाले नामवर हिंदी आलोचना में भी देसी बयार ही बहाते हैं, विदेशी बयार में वह नहीं बहते मिलते। ‘वाद-विवाद-संवाद’ उन की महत्वपूर्ण पुस्तक है। दरअसल ‘वाद-विवाद-संवाद’ ही उन की आलोचना का आधारबिंदु है। नामवर मानते भी हैं कि संवाद ही आलोचना की ताकत है। संवादधर्मिता ही शक्ति है। असहमति ही उन का आलोचनात्मक दर्शन है। नामवर का आलोचनाई जादू इसी से जाना जा सकता है कि जिस को वह लेखक मान लें, वह लेखक। नहीं, खारिज! फिर भी नामवर बड़ी विनम्रता से इस बात से इनकार करते हैं। हालां कि निर्मल वर्मा के अनन्य प्रशंसक रहे नामवर बाद के दिनों में उन्हें हिंदू लेखक कह कर खारिज करने में लग गए। पर निर्मल वर्मा तो खारिज नहीं हुए। बहरहाल, मौखिक ही मौलिक की स्थापना देने और उस की गंगा बहाने वाले नामवर की मौखिक के भी अब कई-कई खंड पुस्तक रुप में हमारे सामने उपस्थित हैं। हिंदी के वह विरले लेखक हैं जिन का ७५ वां वर्ष लोगों ने देश भर में घूम-घूम मनाया। प्रभाष जोशी के नेतृत्व में। अब वह पंचानबे पार कर छियानबवें वसंत में प्रवेश कर गए हैं। पर उन की सक्रियता अब भी बरकरार है। उन को सुनने के लिए लोग अब भी उत्सुक मिलते हैं। पर इधर साल दो साल से वह अपने बोलने में बिखरने लगे हैं। तो सूप तो सूप चलनी जैसे लोग भी उन के कुछ कहे को तोड़-मरोड़ कर ऐतराज पर ऐतराज ठोंकने लगे हैं। और दुर्भाग्य देखिए कि वह भी इन चीज़ों पर सफाई देने लग जा रहे हैं। तो यह उन के लिए, उन की गरिमा के लिए मुफ़ीद नहीं जान पडता। पर चूंकि हिंदी आलोचना पर उन का चार दशक से अधिक का ‘राज’ चलता आ रहा है सो वह अपने को उसी तरह ‘ट्रीट’ करते जा रहे हैं। पर उन को अब समझ लेना चाहिए कि अब आलोचना में उन की तानाशाही के दिन गुज़र चुके हैं, विदा हो चुके हैं। सो आछे दिन पाछे गए के भाव में उन्हें अब आ ही जाना चाहिए। आ तो उन्हें तब ही जाना चाहिए था जब उन्हों ने ‘इतिहास की शव-साधना’ लिखी और मुह की खा गए थे। अपनी ही कही लिखी बात को काटने पर आमादा हो गए। जो कीचड़ वह राम विलास शर्मा पर डालना चाह रहे थे, उन्हीं पर आ गिरा। अब जैसे इतिहास खुद को दुहरा रहा है। हिंदी आलोचना का ककहरा भी नहीं सीख पाने वाले लोग, कहूं कि आलोचना की बाल मंडली के लोग अब उन पर ही कीचड़ उछालने में बात-बेबात संलग्न दिखने लगे हैं। यह सब देख कर मेरे जैसे प्रशंसकों का मानना है कि नामवर सिंह को अब वाद-विवाद-संवाद से न सिर्फ़ बचना चाहिए बल्कि उन को अब अपने ‘मौखिक’ से भी छुट्टी ले ही लेना चाहिए। इस लिए भी कि अब उन के बोलने में वह धार तो जाती ही रही है, बिखरने और विस्मृत भी वह होने ही लगे हैं। बहरहाल, १९९७ में ‘कथाक्रम’ की गोष्ठी का उद्घाटन करने वह लखनऊ आए थे। इस मौके पर हुई बातचीत पेश है :


दिखने में बात बचकानी है और बहस पुरानी कि आलोचना बड़ी की रचना?
- इन चीज़ों में क्या दिलचस्पी हो सकती है।

इस लिए कि सुगबुगाहट के ही तौर पर सही यह सवाल फिर से टटोला जाने लगा है।
- हां, टटोला तो जा रहा है। पर यह इस पर निर्भर है कि कौन रचना है और कौन आलोचना।

पर यह सवाल नामवर सिंह के अर्थ में ज़्यादा गूंजता है? कहूं कि आप के समय से?
- गलत बात है यह। यदि रामचंद्र शुक्ल जैसा आलोचक हो तो रचना भी उस दौर की उतनी बड़ी थी। बल्कि इस के बारे में एक लतीफा सुनाएं। जैनेंद्र जी से किसी ने पूछा था कि ‘अकल बड़ी कि भैंस? ’ तो जैनेंद्र जी ने कहा था कि ‘किस की अकल और किस की भैंस?’ तो जब रचनाएं अच्छी होती हैं तो आलोचनाएं भी अच्छी होती हैं।

यह तो ठीक बात है, लेकिन अगर इस सवाल को थोड़ा और साफ कर के नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव प्रसंग से जोड़ कर बात करें तो?
- मैं कहता हूं इस लिए ही निर्मल वर्मा बड़े लेखक नहीं है। दुनिया के लेखकों में उन का नाम है। सिर्फ़ हिंदी नहीं, बाकी भाषाओं में भी वह खूब छपे और सराहे गए हैं। इस नाते एक बात मान और जान लीजिए कि आलोचना किसी लेखक को बड़ा बनाती नहीं है। हां, उस के बड़प्पन को स्वीकार करवाता है।

तो राजेंद्र यादव आप पर इस तरह की तोहमत लगातार क्यों लगाते रहे हैं? खास कर निर्मल वर्मा प्रसंग पर?
- यह सवाल तो राजेंद्र यादव से पूछिए। रही बात निर्मल की तो निर्मल, राजेंद्र से बड़े लेखक हैं। यह दुनिया मानती है। दुनिया की कई भाषाओं में वह छपे हैं और जो पुरस्कार भी बड़े लेखक होने का पैमाना है तो निर्मल को ज़्यादा पुरस्कार भी मिले है।

यह तो आप की ही महिमा से हुआ बताते हैं वह?
- मैं फिर कह रहा हूं कि आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। अब निराला को ही लीजिए। निराला को उस दौर के आलोचकों ने नहीं माना था। पर आलोचक गलत साबित हुए और निराला बड़े हो गए।

आलोचकों की बात आज की तारीख में चल रही है?
- अगर रचना बड़ी होगी तो देर सबेर अपने को स्वीकार करवा लेगी।

नहीं, जैसे प्रेमचंद को लें। उनके ज़माने में आलोचकों की उतनी स्वीकार्यता नहीं थी और लेखक आलोचकों का मुंह नहीं जोहते थे। पर आज आलोचकों की स्वीकार्यता कहीं ज़्यादा है और लेखक आलोचकों को बड़े ‘मोह’ से देखते हैं और उन का कहा जोहते हैं।
- प्रेमचंद के ज़माने में भी रामचंद्र शुक्ल थे और शुक्ल ने उन को स्वीकार किया था। पर तब एक आलोचक थे अवध उपाध्याय। अवध उपाध्याय को लोग भूल गए हैं। पर इन्हीं अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को टॉलस्टाय के एक उपन्यास का अनुवाद तथा ‘रंगभूमि’ को मैकरे का अनुवाद कहा था। पर देखिए कि प्रेमचंद को आज लोग जानते हैं, लेकिन अवध उपाध्याय को कोई नहीं जानता।

पर यह तो आप फिर भी मानेंगे कि कई बार आलोचक कुछ को बेवज़ह ‘स्थापित’ कर देते हैं तो कुछ को बेवज़ह ‘खारिज’।
- यह मत भूलिए कि रचनाकार भी आलोचक होते हैं। वह भी किसी को स्वीकार करते हैं और किसी को खारिज। पर साहित्यिक दुनिया किस को स्वीकार करती है, मुन:सर इस पर होता है। किसी एक-दो आलोचक का सवाल नहीं होता।

इधर तो हिंदूवादी-दलितवादी का दौर चल रहा है?
- बहुत दिनों तक दलितों को दबाया गया है। अब उन का उभार हो रहा है। युग की इस नई प्रवृत्ति को पहचानना और स्वीकारना होगा। अभी तक दलितों में जो साहित्यकार हुए उन्हें मान्यता नहीं दी गई। एक समय कबीर को लोग नहीं मानते थे। रैदास को नहीं मानते थे। अब मानते हैं। दलित भी अब संगठित हो कर लिख रहे हैं।

पर क्या इस लिए कि इन दिनों भारतीय राजनीति में दलित तत्व उभार पर है, इस लिए साहित्य में भी दलित-दलित होने लगा है? बल्कि इसी पर दलित लेखन के लिए डिक्टेट किया जाने लगा है। ठीक है?
- डिक्टेशन राइटिंग ठीक नहीं है।

पर राजेंद्र यादव जैसे लोग इस बात के पक्षधर दिखते हैं।
- राजेंद्र या कोई भी प्रोत्साहन दे सकता है। किसी के डिक्टेशन पर साहित्य न तो लिखा जाता है और न ही पढ़ा जाता है।

इन दिनों किताबों के न छप पाने का बड़ा रोना है। प्रकाशक कागज आदि की महंगाई ले कर बैठ जाते हैं। खास कर हिंदी साहित्य छापने के बाबत।
- बावजूद इस के किताबें भी छप रही हैं।

आप तो राजनीति में थे। अब फिर राजनीति में आने का मन नहीं करता?

- नहीं। और राजनीति के बारे में कोई बात नहीं करूंगा।

पर आप तो दो-तीन बार चुनाव लड़ चुके हैं।
- अब चुनाव नहीं लड़ सकता। पैसा नहीं है कि चुनाव लड़ूं।

तो जब चुनाव लड़े थे तो पैसा था?
- तब भी नहीं था। पर 1959 में जब चुनाव लड़ा था तब बिना पैसे के चुनाव लड़ा था। तब बिना पैसे के चुनाव लड़ा जा सकता था, अब नहीं।

आप धोती-कुर्ता पहनते हैं और जहाजों में बैठते हैं। क्या आप को लोग नेता समझ कर जलते-भुनते नहीं, या फिर सिफ़ारिशों वगैरह के चक्कर में पड़ जाते हों तो क्या करते हैं?
- यह मेरी पहले की पोशाक है। आज की नहीं, फिर किसी ने मुझे नेता समझने का भ्रम आज तक नहीं पाला।

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