अमिताभ ठाकुर
दयानंद जी एक स्थापित पत्रकार और लब्धप्रतिष्ठ उपन्यासकार हैं और इस रूप में उनके उपन्यासों में पत्रकार बिरादरी और पत्रकारिता का एक अच्छा-खासा ब्यौरा स्वाभाविक तौर पर रहता है. जाहिर है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पृष्ठभूमि से अलग नहीं हो सकता. सूरदास जी के “जैसे उड़े जहाज के पंछी, पुनि जहाज़ पे आवे” की तरह हम में से हर व्यक्ति अपने पास्ट से इस कदर जुड़ा होता है कि वह चाह कर भी उससे जुदा नहीं हो पाता.
अपने अपने युद्ध पृष्ठ सं.264 मूल्य-250 रुपए प्रकाशक जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि. 30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर दिल्ली- 110032 प्रकाशन वर्ष-2001 |
मैं कुछ लिखूंगा-पढूंगा या बातें करूँगा तो अपने जन्मस्थान सीतामढ़ी, अपने निवास स्थान बोकारो, अपने कॉलेज आईआईटी कानपुर, अपनी नौकरी आईपीएस जैसी बातों से बहुत अलग कैसे रह पाऊंगा, घूम-फिर कर इन पर आ ही जाऊँगा. इसी तरह दयानंद जी जब कुछ लिखेंगे तो अपने गोरखपुर, अपने पूर्वांचल, अपनी पत्रकारिता, जनसत्ता, स्वतंत्र भारत, लखनऊ प्रेस क्लब आदि से बहुत दूर कैसे जा सकते हैं. जिस प्रकार अपने-अपने युद्ध का हर पात्र अपनी-अपनी परिधि में, अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार अपनी लड़ाइयों में लगा रहता है, उसी प्रकार से ज्यादातर उपन्यासकार भी अपने स्वयं के जीवनवृत्त से प्रभावित होते रहते हैं.
इस उपन्यास में मुख्य पात्र संजय स्वयं ही पत्रकार हैं और लगभग हर तरह से वह एक नायक की तरह प्रस्तुत है, जो अनवरत व्यवस्था से लड़ता रहता है और हार-जीत की परवाह किये बगैर अपने उसूलों पर खड़ा रहता है. संजय जैसे पत्रकार शायद अब गिनती में हों. अपना इतना नुकसान करा कर, अपने उसूलों के लिए अपने आप को क्षति पहुंचा कर और अद्वितीय क्षमता के धनी होने के बावजूद लघु स्वार्थों को निरंतर तिरस्कृत करते हुए, अपनी मान्यताओं और अपने नैतिक मानदंडों पर स्वयं को खड़ा रख पाने की चाहत में नुकसान पाता हुआ संजय जिस प्रकार से पूरे उपन्यास में एक पारदर्शी और समरूप आचरण करता है, वह निश्चित तौर पर अनुकरणीय है. संजय के पात्र में मुझे साफ़ तौर पर दयानंद जी का स्वयं का अक्स नज़र आता है और इस रूप में उपन्यासकार के प्रति आदर के भाव जागृत होते हैं.
लेकिन इसके साथ मुझे इसमें जो तीन मजेदार किस्म के पत्रकार नज़र आये मैं उनका ही विषद विवरण पेश करना चाहूँगा. इसमें पहले हैं अलोक जोशी, जो संजय जी के साथ नयी दिल्ली में काम करते हैं. उपनाम जोशी लिखा है पर जितनी मेरी जानकारी है ये एक वास्तविक, बहुत ही जीवंत, जुझारू, होनहार पत्रकार हैं, जिनका लोहा आज भी हर कोई मानता है. मस्तमौला, झक्की और कुछ लड़ाका सा, यह व्यक्ति तान कर लिखता है, अपनी मर्जी से लिखता है, ऐसा लिखता है जिसे लोग पढ़ते और पसंद करते हैं और जिसे चाहने वालों के साथ उससे नाराज़ लोगों की भी एक अच्छी-खासी संख्या रहती है, जो उनके पीछे पड़े तो रहते हैं पर उनका कुछ खास बिगाड़ नहीं पाते, क्योंकि इस मर्जी के मालिक और प्रतिभाशाली पत्रकार में इतनी सारी खासियतें भी हैं कि बड़े से बड़ा संस्थान इनकी अनिवार्यता को स्वीकार करता है. जो मन हो सो कहा, जो मन हो लिखा, जिस तरह मन हो बर्ताव किया, फिर भी अपनी शर्तों पर इस दम से बने रहे क्योंकि प्रतिभा ऐसी है कि क्या कर लोगे. तभी तो संपादकों से सीधी कच-कच करते रहते, एक बात के बदले तीन उत्तर देते पर फिर भी अपने आप को सुरक्षित रख पाते. मैं यही सोचता हूँ कि काश इस तरह के लोग और अधिक संख्या में हो सकें. ऐसा इसीलिए कह रहा हूँ कि अब ये आम मान्यता हो गयी है कि अब पत्रकारों में भी ऐसे लोगों की भारी कमी होती जा रही है जो अपनी मर्जी के मालिक हों, जो अपने मन से चल सकें और जिनकी रीढ़ की हड्डी पूरी तरह लचीली नहीं हो गयी हो. “जंजीर” फिल्म में प्राण अमिताभ बच्चन के पात्र के लिए कहते हैं कि उनकी पूरी रक्षा होनी चाहिए, क्योंकि जंगल में शेर बहुत कम रह गए हैं, यही बात अलोक जोशी के लिए भी लागू होती है.
दूसरे पात्र हैं दिल्ली में संजय के कार्यकाल में उसी अखबार के एक दूसरे पत्रकार, सुरेन्द्र मोहन तल्ख़, उर्दू में सिद्धहस्त पर हिंदी में काफी दिक्कत महसूस करने वाले ये महोदय कोई कम खिलाड़ी नहीं हैं, पर अपनी एक अलग विधा के. मैं उनके चरित्र के दो पहलुओं को खास तौर पर चित्रित करना चाहूँगा. एक तो उनके ऐंठे रहने की अदा और दूसरे उनके रसिक मिजाज होने का मामला. मैंने स्वयं अपने जीवन में छोटे-बड़े हर जगह पर कुछ ऐसे वरिष्ठ पत्रकार देखे हैं जो बने-ठने रहते हैं, अपने बनाव-श्रृंगार को ले कर काफी चिंतित रहते है और साथ ही घमंड में फूले भी रहते हैं. ऐसे पात्र बहुधा अपने वर्क-प्लेस पर तथा पत्रकार बिरादरी में अन्य साथी पत्रकारों से कोई खास सम्बन्ध नहीं बना पाते और इस तरह दूसरे पत्रकार इन्हें परेशान करने, चिढ़ाने का कोई ना कोई बहाना खोजते ही रहते हैं. जैसा तल्ख़ साहब के साथ हुआ, जब उन्होंने रस-सिद्धि और मौजमस्ती के लिए अपने दफ्तर की टेलीफोन ऑपरेटर को एक शो के टिकट दिए, जो एक हाथ से दूसरे हाथ चल के एक दूसरे पत्रकार सुजानपुरिया के हाथों में चला गया और इस तरह जब तल्ख़ अपने बगल में बैठे सुजानपुरिया को वह टेलीफोन ऑपरेटर समझते हुए उनका हाथ मसलने की कोशिश करते हैं और उनकी भयानक भद्द होती है. फिर उनका अकड़ा हुआ स्वभाव भी उनकी इस कहानी को तुरंत पूरे दफ्तर में फैलाने और दूसरे पत्रकारों को मज़ा ले कर किस्सागोई करने का काम करता है, लेकिन मजेदार बात यह दिखती है कि इतना सब के होने के बाद भी तल्ख़ महोदय की पेशानी पर बल नहीं आता और वे अपनी मगरूरी में उतने ही मगन रहते हैं, जितना पहले रहा करते थे. “कुत्ते की पूंछ” मुहावरा ऐसे ही थोड़े बनाया गया है.
अब मैं तीसरे पात्र को प्रस्तुत करता हूँ. ये वही हैं जो अंत में संजय को चित-पट करने में सफल होते हैं. संयोग से मैंने ऐसे भी कुछ पत्रकारगण अपने वास्तविक जीवन में देखे है जो श्याम सिंह सरोज की तरह ही हैं- पूरी तरह. गज़ब के चिपकू, पूरी तरह घाघ, ऊपर से बाहरी तौर पर बहुत ही मासूम, देखने के सीधे-सादे, चौबीस घंटे अपने स्वार्थ-हित में लगे हुए, अंदर से बहुत ही क्रूर और भयानक पर बाहर से बहुत साधारण तथा सरल. हद दर्जे के महत्वाकांक्षी पर निरंतर बहुत चतुराई से अपने मन की उछालों को छिपा कर रख सकने में निपुण. सरोज जी, जैसा कि उन्हें सब कहते हैं और स्वयं संजय भी नहीं चाहते हुए उनके लिए इसी नाम का प्रयोग करते हैं, ऐसी शख्सियत हैं जिनके बगैर कोई भी अखबारी (या शायद कोई भी) दफ्तर पूरा नहीं हो सकता. अंदर से भयानक सांप-जहरीले और खतरनाक और ऊपर से बेहद निरीह, इन श्याम सिंह सरोजों की यह खासियत होती है कि वे ना कुछ करते हैं और ना कुछ नहीं करने देते हैं- बस बैठे बैठे अपनी गोटियां खेलते रहते हैं. और चूँकि वे कभी मैदान छोड़ते नहीं, इसीलिए आगे-पीछे कुछ ना कुछ हासिल भी कर लेते हैं- किसी भी शर्त पर.
अंत में इन तीनों के अलावा मैं संजय जी के लखनऊ प्रवास के दौरान उनके पहले संपादक नरेन्द्र जी का जिक्र करूँगा, जिन्होंने अपने संपादक काल में मुख्यमंत्री तक के रात्रिभोज के प्रस्ताव को अपने और अपने अखबार की गैरत के लिए, अपनी प्रतिष्ठा के लिए एक सिरे से ठुकरा दिया. मैं ऐसे सभी नरेन्द्र जी को सलाम करता हूँ और दयानंद जी से निवेदन करूँगा कि इस महान व्यक्तित्व का वास्तविक नाम हम लोगों को भी बताने की कृपा करें.
No comments:
Post a Comment