हंस के संपादक और कभी कहानीकार रहे राजेंद्र यादव हिंदी में एक दुर्लभ प्रजाति के जीव हैं। हद से अधिक प्रतिबद्ध होना, खूब पढा-लिखा होना और हद से भी अधिक लोकतांत्रिक होने का अदभुत कंट्रास्ट अगर देखना हो तो राजेंद्र यादव को देखिए। इस मामले में हिंदी में वह इकलौते हैं। न भूतो, न भविष्यति भी आप कह सकते हैं। इस असहिष्णु होते जाते समाज में वह अपने खिलाफ़ सुनने और अपनी ही पत्रिका में अपने खिलाफ़ छापने में कभी गुरेज नहीं करते। आप उन को ले कर कुछ भी कह-लिख दीजिए उन के हंस में ससम्मान छपा मिलेगा। वह प्रतिबद्ध हैं अपनी स्थापनाओं को ले कर पर तानाशाह नहीं हैं। अपने तमाम समकालीनों की तरह फ़ासिस्ट भी नहीं हैं। उन का यह उदारवादी चेहरा मुझे बहुत भाता है। वह उम्र और बीमरियों को धता बताते हुए लगातार सक्रिय हैं। आप उन से असहमत हो सकते हैं पर उन के विरोधी नहीं। हर साल जिस तरह उन का जन्म-दिन मनाया जाता है, बिलकुल किसी उत्सव की तरह वह अदभुत है। और हिंदी क्या तमाम भाषाओं के लेखकों को भी यह नसीब नहीं है। देश भर से लोग अपने आप जुटते हैं। जैसे हंस की सालगिरह मनाई जाती है, वह भी अप्रतिम है। हंस का इतने दिनों से लगातार निकलते रहना भी आसान नहीं, बल्कि प्रतिमान ही है। राजेंद्र यादव और उन का स्त्री प्रेम भी सर्वविदित है पर स्त्रियां उन से मिलने को हमेशा लालायित रहती हैं। हिंदी में इतना पढा-लिखा लेखक और संपादक भी शायद ही कोई मिले। एक मनोहर श्याम जोशी थे और ये राजेंद्र यादव हैं। चाहे किसी भारतीय भाषा मे कुछ लिखा जा रहा हो या दुनिया की किसी और भाषा में, राजेंद्र यादव उस से परिचित मिलेंगे। हर साल वह हंस के मार्फ़त कुछ नए कहानीकारों को भी ज़रुर प्रस्तुत करते हैं। यह आज के दौर में बहुत कठिन है। वह कई बार एकला चलो को भी साबित करते हुए दीखते हैं। और उस पर लाख बाधाएं आएं, अडिग रहते हैं। अपने को खलनायक बनाए जाने की हद भी वह बार-बार पार कर जाते हैं। कुल मिला कर सारा आकाश के इस लेखक का आकाश इतना अनंत और विस्तृत है कि उस में जाने कितने लोक, जाने कितने युग समा जाते हैं पर आकाश और-और विस्तृत होता जाता है, और अनंत, और अलौकिक होता जाता है। बावजूद मन्नू जी से उन के अलगाव और इस से उपजे अवसाद, अकेलापन और फिर उन के निरंतर अकेले होते जाने की त्रासदी और आलोचकीय उपेक्षा के। दलित विमर्श और स्त्री विमर्श से उन का गहरा नाता है। राजेंद्र यादव ने बहुत दिनों से खुद कोई कहानी नहीं लिखी है और दलित विषयवस्तु वाली कहानी तो कभी नहीं लिखी है। पर वह दलित विषयवस्तु वाली कहानियों को लिखने पर, निचली शक्तियों के उभार को देखने पर खासा जोर देते रहे हैं। अब भी देते हैं। इस फेर में वह कहानी के शिल्प और कला जैसी चीजों को भी बाकायदा नकारने का आह्वान भी करते रहते हैं और बाकायदा आंदोलन के मूड में रहते हैं। १९९६ में वह कथाक्रम की एक गोष्ठी में लखनऊ आए थे। तभी दयानंद पांडेय ने राष्ट्रीय सहारा के लिए उन से बातचीत की थी। पेश है बातचीत:
- आप इधर लगातार साहित्य में ‘दलित’ की वकालत करते आ रहे हैं। एक जिद की हद तक। क्या आप को लगता है कि साहित्य ‘डिक्टेट’ कर के लिखवाया जा सकता है?
-नहीं। बिल्कुल नहीं। पर बात तो हम कह ही सकते हैं और मेरा कहना यह है कि निचली शक्तियां जो उभर कर सामने आ रही हैं, उन की अनदेखी अब साहित्य की सेहत के लिए ठीक नहीं है। तो दलित शक्तियों को साहित्य में जगह तो देनी ही पड़ेगी। कहानियों में भी।
- इधर जो सामाजिक समता और सामाजिक न्याय की बात चली है, क्या इन दलित विषयवस्तु वाली कहानियों से उस राजनीतिक आंदोलन को मदद मिली है या कि उस राजनीतिक आंदोलन से ऐसी कहानियों को?
-न तो वह शक्तियां कहानी के लिए मददगार हुई हैं, न यह कहानियां उन के लिए मददगार हैं। हमारा उन से कोई सरोकार भी नहीं है। राजनीतिकों के अपने भटकाव हैं। उस से हमें लेना-देना नहीं है। पर अब हमारे देश और समाज की मुख्यधारा निचली शक्तियां ही हैं। सब कुछ वही तय कर रही हैं। मेरे लिए महत्वपूर्ण यही है।
- सत्तर के दशक में हिंदी में पार्टी लाइन आधार पर ढेरों कहानियां लिखीं गईं। अब उन का कोई नामलेवा भी नहीं है। इन कहानियों की सारी क्रांतियां अंतत: नकली साबित हो कर रह गईं। आप को क्या लगता है कि यह दलित विषयवस्तु वाली कहानियां भी उसी राह पर नहीं चली जाएंगी?
-जा भी सकती हैं और नहीं भी। और ज़रूरी नहीं है कि जो एक बार कोई चीज़ हो गई वह अपने को बार-बार दुहराए ही। अब तो यह एक आंदोलन है। दलित विषयवस्तु वाली कहानियां लिखनी ही पड़ेंगी।
- इस आंदोलन को कोई नाम देना चाहेंगे?
-अभी कोई संगठन तो है नहीं। पर तमाम संवाद के दौरान जुड़ते हुए इसे आंदोलन की शक्ल तो देंगे ही। ताकि दबाव डाल सकें। इस समय लगभग सभी भाषाओं की कहानियों में यह एक ही समस्या है-निचली शक्तियों का उभार। और कभी भी किसी एक भाषा के माध्यम से सभी लोग इस आंदोलन से जुड़ जाएंगे।
- तो अब आप राजनीतिक चोला पहनने की तैयारी में हैं?
-साहित्य में निचली शक्तियों की बात करना राजनीतिक नहीं है। कृपया साहित्य और राजनीति को एक साथ नहीं मिलाएं। फिर अखबार क्या करेंगे?
- आप को लोग बतौर कहानीकार जानते हैं। पर आप कहानियां लिखना छोड़ कर फतवेबाज़ी में लग गए हैं। आप क्या कहेंगे?
-हां, कहानियां इधर नहीं लिखी है। हंस का संपादन कर रहा हूं। फतवेबाज़ी नहीं।
- आप बार-बार लोगों से दलित विषयवस्तु वाली कहानियां लिखने को कहते हैं और खुद कभी कोई दलित विषयवस्तु वाली कहानी आप ने लिखी नहीं। यह दोहरा चरित्र क्यों?
-ज़रूरी नहीं कि दलित कहानियों की बात चलाने के लिए दलित विषयवस्तु वाली कहानी भी मैं लिखूं ही। और फिर मैं ही हूं जिसने अपने सारे लिखे को नकार दिया है। कोई और हो तो बताइए?
- हां, हैं, कई हैं?
-नाम बताइए?
- जैसे रजनीश। जैसे हुसैन। रजनीश ने अपने कहे को नकारा और हुसेन ने अपने बनाए को जलाया।
-कहानीकार का नाम बताइए?
- आप राज्यसभा सदस्य कब हो रहे हैं?
-राज्यसभा की सदस्यता कौन देगा?
- आखिर अब आप ‘राजनीतिक’ हो रहे हैं?
-ऐसा कुछ नहीं है। न मैं राजनीतिक हो रहा हूं। न मैं राज्यसभा में जा रहा हूं। नोबुल प्राइज के चक्कर में ज़रूर हूं। (कहते हुए हंसते हैं)
- बीते दिनों कांशीराम ने पत्रकारों की पिटाई की। क्या इस को भी दलित चेतना और निचली शक्तियों के उभार से ही जोड़ कर देखते हैं?
-इन से हमें कोई मतलब नहीं है। पर सवाल यह है कि क्या आप कांशीराम को उत्तर भारत की राजनीति से वापस भेज सकते हैं? भारतीय राजनीति से खारिज कर सकते हैं उन को? सच्चाई यह है कि कांशीराम की लोग चाहें जितनी निंदा कर लें पर अब कांशीराम को उत्तर भारत की राजनीति से खारिज नहीं किया जा सकता है।
- आप द्वारा लिए गए बिहार सरकार के लखटकिया पुरस्कार की काफी निंदा की गई। आप क्या कहेंगे?
-मैं ने अपनी बात हंस के संपादकीय में कह दी है।
- कहा गया कि छोटा पुरस्कार होने के नाते आपने जातिवाद का मुलम्मा चढ़ा कर उत्तर प्रदेश का पुरस्कार अस्वीकार कर ‘शोहरत’ बटोरी। पर चूंकि बिहार का पुरस्कार लखटकिया था, नरसंहार में बिहार सरकार के हाथ सने होने के बावजूद ले लिया।
-हंस के लिए लिया।
- कहा जाता है कि उस मुहल्ले के लोगों ने सार्वजनिक बयान देकर कहा था कि अगर हंस को चलाने की ऐसी मजबूरी है तो वह लोग चंदा दे कर आप को पुरस्कार जितना पैसा दे देंगे। पर आप ने उन की भी नहीं सुनीं?
-यह सब सिर्फ़ कहने की बाते हैं। मुझे ऐसा प्रस्ताव किसी ने नहीं दिया।
- ठीक है। पर हंस अगर आप मूल्यों की हिफ़ाज़त के लिए निकाल रहे हैं तो बिहार सरकार से यह पुरस्कार इस तरह लेना और वह पैसा हंस में लगाना भी मूल्यों का अवमूल्यन नहीं है?
-नहीं, मैं नहीं मानता। मुझे ऐसा नहीं लगता।
- क्या आप अब भी उत्तर प्रदेश के लोगों को मूढ़ मानते हैं?
-हां।
- ऐसा कहना क्या उत्तर प्रदेश के लोगों को अपमानित करना नहीं है?
-नहीं।
No comments:
Post a Comment