मन हिल गया है राज कपूर के निधन की खबर से। हालांकि प्यार जैसी अक्षुण्ण चीज़ किसी के रहने न रहने से शेष नहीं होती पर मैं तो यही सोच कर उदास हूं कि अब कैमरे की आंख से प्यार की सत्ता को सहेजने का एक अर्थ डूब गया है। कैमरे की आंख से प्यार की तरलता और मादकता अब एक साथ देखने को नहीं मिलेगी। खास कर ऐसे माहौल में जब मिथुन चक्रवर्ती सरीखे अभिनेता फ़रमाने लगे हैं कि ‘प्रेम नाम की कोई चीज़ नहीं है। आप इसे परिभाषित नहीं कर सकते, क्यों कि इस का अस्तित्व ही नहीं है। कुछ क्षण जो आप किसी औरत के साथ साझा करते हैं। इसे प्रचंड आकर्षण कहना चाहिए।’ इसी लिए मैं राज के निधन से दुखी होने की बात दुहराता हूं और यह दुख भुला नहीं पाता हूं। फ़र्क देखिए कि एक तरफ अपने को सुपर स्टार ‘समझने वाले’ मिथुन ‘किसी औरत के साथ कुछ क्षण साझा कर लेने’ तक ही अपने को ‘सार्थक’ समझते हैं, दूसरी ओर राजकपूर हैं कि ज़िंदगी की 64 रीलें देख भोग लेने के बाद भी अपनी 40-45 बरस पुरानी मुलाकातों वाली स्वर्गीय नरगिस को बेसाख्ता अपनी ‘हीरोइन’ बताने में फूले नहीं समाते थे। नरगिस की कसक उन के दिल को बराबर मथती रहती है। हालां कि यह भी गौरतलब है कि राज कपूर के कैमरे से जो प्यार छलक कर रुपहले परदे पर उतरता है, उसमें कितना उन का अपना है। क्या यह भी एक दुर्लभ संयोग नहीं है कि राजकपूर को लोग आज निधन के बाद ज्यादातर उनकी फ़िल्मों के गीतों से ही याद कर रहे हैं। जिन्हें आम तौर पर शैलेंद्र, शंकर जयकिशन और मुकेश की त्रिवेणी ने बहाया है। सवाल यह भी बनता है कि अगर राजकपूर के पास इस त्रिवेणी के साथ ख्वाज़ा अहमद अब्बास की धारदार कहानियां न होती तो क्या तब भी राजकपूर की यही इयत्ता, प्रभुसत्ता और प्रासंगिकता बनी रहती? हालां कि सवाल यह भी है कि अगर राजकपूर न होते तो शैलेंद्र, हसरत, शंकर जयकिशन, मुकेश और ख्वाज़ा अहमद अब्बास की दुनिया कैसी और क्या होती? हालां कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास के निधन पर राजकपूर ने आंखें भर कर बड़ी सादगी से स्वीकारा था कि ‘यह जो राजकपूर-राजकपूर बना, जिस राजकपूर को लोगों ने हाथों-हाथ उठा लिया, वह राजकपूर नहीं, अब्बास साहब ही हैं। उन्हों ने ही यह बनाया...। अब्बास साहब न होते तो राजकपूर-राजकपूर न होते।’ दादा साहब फाल्के पुरस्कार पर भी राजकपूर की यही प्रतिक्रिया रही कि यह पुरस्कार मेरा नहीं, मेरे संगी साथियों का है और फिर वह शैलेंद्र जी की याद में डूब गए थे। राजकपूर सिम्मी गेरेवाल और सिद्धार्थ काक द्वारा बनाई गई फ़िल्मों में भी शैलेंद्र और नरगिस की याद को जिस तल्खी और शिद्दत से सहेजते हैं, उसे देख सुन-कर मन भीग जाता है। अब शायद ही ऐसा कोई फ़िल्मकार हो जो राज कपूर सरीखा निकले, जो कि अपने गीतकारों, संगीतकारों का इस तरह से कर्ज़दार बनने का मन रखता हो। अब जब राजकपूर दुनियां से कूच कर गए हैं और नरगिस तो खैर कब की कूच कर गई हैं तो यह सवाल भी करने को मन हो आता है कि अगर नरगिस न होतीं तो क्या तब भी राजकपूर की दुनिया यही और वह ऐसे ही होती? ‘मेरा नाम जोकर’ में राजू की रुसी हीरोइन जब उन से विदा लेने आती है तो दस्विदानियां (फिर मिलेंगे) कह कर जाती है। पर राज कपूर तो अपने दीवानों से दस्विदानियां भी नहीं कह गए। ‘छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम’ की तर्ज़ पर छल गए।
[2 जून,1988 को राजकपूर के निधन पर स्वतंत्र भारत में 3 जून,1988 को प्रकाशित हुई श्रद्धांजलि।]
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