Sunday, 17 June 2012

कोई बलात्कारी नहीं हैं नारायणदत्त तिवारी, साझी धरोहर हैं हमारी

दयानंद पांडेय 

महाभारत की बहुत सारी कथाएं हमारे समाज में आज भी कही सुनी जाती हैं। इस में एक किस्सा बहुत मशहूर है। दुर्योधन और अर्जुन का कृष्ण के पास समर्थन मांगने जाने का। जिस में अर्जुन का पैताने बैठना और दुर्योधन का सिरहाने बैठने और फिर कृष्ण द्वारा अर्जुन को पहले देखे जाने और बतियाने का किस्सा बहुत सुना सुनाया जाता है। पर इस पूरे घटनाक्रम में एक घटना और घटी थी जो ज़्यादा महत्वपूर्ण थी पर बहुत कही सुनी नहीं जाती। लोक मर्यादा कहिए या कुछ और। बहरहाल हुआ यह कि दुर्योधन जाहिर है कि पहले ही से पहुंचे हुए थे। और अर्जुन बाद में आए। कृष्ण जैसा कि कहा जाता है कि सोए हुए थे। तो दुर्योधन ने ही अर्जुन के आने पर अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा कि, 'आइए इंद्र पुत्र ! कहिए कैसे आना हुआ?' अर्जुन ने अपमानित महसूस तो किया पर मौके की नज़ाकत देख चुप रहे। बात खत्म हो गई। पर सचमुच खत्म कहां हुई थी भला? फिर हुआ यह कि जब कृष्ण ने अर्जुन से बात खत्म की और दुर्योधन की तरफ़ मुखातिब हुए तो उन्हों ने दुर्योधन को संबोधित कर पूछा, 'अब बताइए व्यास नंदन आप का क्या कहना है?' कृष्ण ने दुर्योधन को व्यास नंदन कह कर दुर्योधन को उस की ज़मीन बताई और अर्जुन के अपमान का प्रतिकार भी किया। दुर्योधन को यह एहसास भी करवा दिया कि अगर अर्जुन अपने पिता पांडु की संतान नहीं हैं तो श्रीमान दुर्योधन आप भी ऋषि व्यास के ही वंशज हैं, संतान हैं, शांतनु के नहीं। गरज यह कि दोनों ही एक तराजू में हैं। इस लिए इस मसले पर चुप ही रहिए। और दुर्योधन चुप रह गए थे। यह विवाद बहुत लंबा है और टेढा भी। शायद इसी लिए याद कीजिए कि जब बी.आर. चोपडा ने महाभारत बनाई तो उस में इस विवाद पर पानी डालने में राही मासूम रज़ा ने अदभुत चतुराई से काम लिया। उन्हों ने पाडव में किसी भी को वायु पुत्र, इंद्र पुत्र आदि नहीं संबोधित किया। उन्हों ने सब को ही कुंती पुत्र कह कर बडी खूबसूरती से काम चला दिया। और यह कोई अनूठा काम राही मासूम रज़ा ने ही नहीं किया। यह शालीनता हमारी परंपरा में भी रही है। जो शायद अब विस्मृत होने लगी है। अब हम असली मुद्दे पर आते हैं। आज की बात पर आते हैं।

नारायणदत्त तिवारी जैसा सदाशय और विनम्र राजनीतिज्ञ व्यक्ति बडी मुश्किल से मिलता है। कम से कम राजनीतिज्ञ तो हर्गिज़ नहीं। और वह भी वह राजनीतिज्ञ जो सत्ता का स्वाद बार-बार किसिम-किसिम से ले चुका हो। लेकिन वही तिवारी जी आज एक व्यर्थ के विवाद में पड गए हैं तो कोई उन के साथ खड़ा नहीं दीखता। न राजनीति में, न मीडिया में, न समाज में। अभी-अभी, बिलकुल अभी खुशवंत सिंह जैसे उदारमना और खुलेपन के हामीदार लेखक और पत्रकार ने भी अपने कालम में इस घटना को ले कर तिवारी जी पर लगभग तंज किया है। यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कुछ और नहीं। राजनीतिज्ञों में सहिष्णुता अब लगभग विलुप्त ही है। लेकिन अटल विहारी वाजपेयी और नारायणदत्त तिवारी जैसे राजनीतिज्ञों में यह सहिष्णुता कूट-कूट कर भरी हुई है। सर्वदा से। कम से कम मेरा अनुभव तो यही है। इसी का लाभ ले कर लोग उन्हें बदनाम करने की हद से भी गुज़ार ही देते हैं। नतीज़ा सामने है। तिवारी जी अब बदनामी से भी आगे आरोपों के भंवर में भी घिर गए हैं। जैसे सारे कानूनी और सामाजिक सवाल और नैतिकता, शुचिता आदि की ज़िम्मेदारी तिवारी जी पर ही डाल दी गई है। इस हद तक कि लोग अब उन का मजाक भी उडाने लग गए हैं। यह बहुत ही चिंताजनक और शर्मनाक बात है। क्या व्यक्तिगत जीवन की बातें इस तरह सडक पर ले आई जानी चाहिए? फिर तो समाज नष्ट हो जाएगा। और जो इसी तरह लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लग गए तो समाज और जीवन की तमाम व्यक्तिगत बातें कहां से कहां चली जाएंगी क्या इस बात का अंदाज़ा है किसी को?

सीवन जो उघाड़ने पर जो लोग आमादा हो ही जाएंगे तो हमारे बहुत सारे भगवान भी इन सब चीज़ों से बच नहीं पाएंगे। न ही आज के या बहुत से पुराने राजनीतिज्ञ और अधिकारी आदि भी। सवाल और जवाब इतने और इतने किसिम के हो जाएंगे कि समाज रहने लायक नहीं रह जाएगा। आज भी ऐसी और इस किसिम की बहुत सी बातें परदे में हो कर भी बाहर हैं। चर्चा होती है उन बातों की भी जब-तब लेकिन आफ़ द रिकार्ड। कफील आज़र ने लिखा ही है कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी। सब का डी.एन.ए. लिया ही जाने लगेगा तो न त्रेता युग के लोग बचेंगे, न द्वापर युग के। और यह तो खैर कलियुग है ही। आंच कौरव-पांडव पर भी आएगी और कि भगवान राम भी नहीं बचेंगे। न कोई गली बचेगी न कोई गांव या कोई नगर या कोई कालोनी, कि जहां ऐसी दास्तानें और तथ्य न मिल जाएं। बरास्ता विश्वामित्र-मेनका ही शकुंतला-दुष्यंत की कहानी हमारे सामने है। और ऐसी न जाने कितनी कहानियां हमारे इतिहास से ले कर वर्तमान तक फैली पड़ी हैं। यह और ऐसी कहानियां छुपती नहीं हैं लेकिन मुकुट की तरह सिर पर सजा कर घूमी भी नहीं जातीं। जैसे कि हमारी उज्जवला शर्मा जी और उन के सुपुत्र सर पर मुकुट सजा कर घूम रहे हैं। उज्जवला जी और उन के सुपुत्र तो अब कुछ बीते दिनों से यह कहानी लिए घूम रहे हैं पर हकीकत यह है कि यह कहानी रोहित शेखर के पैदा होते ही लोगों की जुबान पर आ गई थी। राजनीतिक हलकों से होती हुई यह कहानी प्रशासनिक हलकों और मीडिया में भी आई। पर सिर्फ़ चर्चा के स्तर पर। चुहुल के स्तर पर। ठीक वैसे ही जैसे कि अभी भी एक बहुत बडे अभिनेता का पिता अमरनाथ झा को बताया जाता रहा है, जैसे एक पूर्व प्रधानमंत्री का पिता राजा दिनेश सिंह को बताया जाता रहा है। जैसे जम्मू और कश्मीर के एक पूर्व मुख्यमंत्री का पिता जवाहरलाल नेहरु को बताया जाता रहा है। ग्वालियर में एक बंगाली परिवार के बच्चों को अटल बिहारी वाजपेयी का बताया जाता रहा है। विजया राजे सिंधिया तक का नाम लिया गया। लखनऊ में तो मंत्री रहीं एक मुस्लिम महिला जो अब स्वर्ग सिधार गई हैं अटल जी के लिए अविवाहित ही रह गईं। लोहिया के साथ भी ऐसे बहुतेरे किस्से संबंधों के हैं। नेहरु के किस्से एक नहीं अनेक हैं। लेडी डायना से लगायत तारकेश्वरी सिनहा तक के। महात्मा गांधी की भी एक लंबी सूची है। तमाम विदेशी औरतों से लगायत राजकुमारी अमृता कौर, जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती, सरोजनी नायडू, आभा तक तमाम नाम हैं। इंदिरा गांधी तक के रिश्ते नेहरु के पी.ए. रहे मथाई, धीरेंद्र ब्रह्मचारी, दिनेश सिंह, बेज्ज़नेव, फ़ीदेल कास्त्रो आदि तक से बताए जाते रहे हैं। अमरीका के एक राष्ट्रपति ने तो उन्हें एक बार गोद में उठा ही लिया था। सोनिया गांधी के भी कई रिश्ते खबरों में तैरते रहे हैं। माधव राव सिंधिया से लगायत अरुण सिंह तक कई सारे नाम हैं। राजीव गांधी के भी तमाम औरतों से नाम जुडे हुए हैं। मार्ग्रेट अल्वा, सोनलमान सिंह, शैलजा, अरुण सिंह की पत्नी आदि बहुतेरे नाम हैं। संजय गांधी की सूची तो बहुत ही लंबी है। अंबिका सोनी से लगायत रुखसाना सुल्ताना तक के। प्रियंका गांधी का भी यही हाल है। शाहरुख खान तक से उन का नाम जुडा हुआ है। राहुल गांधी का भी नाम अछूता नहीं है। देशी-विदेशी लडकियों के नाम हैं। मुलायम सिंह यादव के साथ भी यह किस्सा रहा है। अब उन के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव को ही लीजिए। साधना गुप्ता जी से से उन का विवाह कब हुआ यह कोई नहीं जानता। पर प्रतीक पैदा कब हुए, यह बात बहुत लोग जानते हैं। और स्पष्ट है कि प्रतीक के पैदा होने के बहुत बाद मुलायम सिंह यादव ने उन को अपने साथ रखा। और वह भी पहली पत्नी के निधन के बाद ही। नहीं एक समय तो यही अखिलेश यादव इस मसले पर मुलायम से बगावत पर आमादा हो गए थे। लेकिन यह सब बातें सड़क पर फिर भी नहीं आईं। और मज़ा यह कि साधना जी ने भी पूरी शालीनता बनाए रखी। साध्वी उमा भारती तक नहीं बचीं। उमा भारती और गोविंदाचार्य का रिश्ता सब को मालूम है। यह दोनों विवाह तक के लिए तैयार थे। पर आर.एस.एस. बीच में आ गया। कई उद्योगपतियों और फ़िल्मी सितारों की बात भी जग जाहिर है। अभी नीरा राडिया और टाटा के प्रेम वार्तालाप का टेप आ ही चुका है। तमाम आई.ए.एस. अफ़सरों और तमाम राजनयिक भी ऐसे किस्सों में शुमार हैं। रोमेश भंडारी का स्त्री प्रेम भी हमेशा सुर्खियों में रहा है। कुछ नामी लेखकों-लेखिकाओं की भी बात सुनने को मिलती ही रहती है। लगभग सभी भाषाओं में। हिंदी में भी। खुशवंत सिंह अब तिवारी जी को ले कर चाहे जो लिखें-पढें पर उन के किस्से भी खूब हैं। कई तो उन्हों ने खुद बयान किए हैं। वैसे भी पत्रकारों में तो ऐसे संबंधों की जैसे बरसात है। बिलकुल फ़िल्मी लोगों वाला हाल है। फ़िल्म वालों की बात इस मामले में वैसे भी बहुत मशहूर है। सैकडों नहीं हज़ारो किस्से हैं। कुछ वैसे ही जैसे इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारो हैं ! वैसे चुंबन के लिए मशहूर एक अभिनेता का पिता महेश भट्ट को बताया जाता रहा है। और तो और महेश भट्ट की यातना देखिए कि वह खुद को भी हरामी कहते हैं। उन के पिता भी मशहूर निर्देशक विजय भट्ट हैं। पर चूंकि महेश भट्ट की मां मुस्लिम थीं सो वह चाह कर भी उन से शादी नहीं कर सके। दंगे-फ़साद की नौबत आ गई थी। अपनी इन सारी स्थितियों को ले कर महेश भट्ट ने एक बहुत खूबसूरत फ़िल्म ही बनाई है जन्म ! जिस के नायक कुमार गौरव हैं। पर महेश भट्ट या उन की मां कभी विजय भट्ट की छिछालेदर करने नहीं गईं। खामोशी से स्थितियों को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि प्रेम में जो आदर और गरिमा होती है, उसे अब तक निभा भी रहे हैं। बहुत दूर जाने की ज़रुरत नहीं है। फ़िल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता ने विवाह नहीं किया है पर एक बेटी की मां हैं। नीना की इस बेटी के पिता मशहूर क्रिकेटर विवियन रिचर्ड हैं। यह सब लोग जानते हैं। नीना गुप्ता भी इस बात को स्वीकार करती हैं। पर वह कभी अपनी या विवियन रिचर्ड की छीछालेदर करने पर उतारु नहीं हुईं। न ही हको-हुकूक मांगने पर आमादा हुईं। फिर यह और ऐसी कहानियों और संबंधों की फ़ेहरिस्त अनंत है। क्या भूलूं, क्या याद करूं? वाली स्थिति है। वैसे भी अब ज़माना लिव-इन-रिलेशनशिप का आ गया है।

हां, जो आप के साथ कहीं छल-छंद हुआ हो तो बात और है। शोषण हुआ हो, आप के साथ कोई धोखा हुआ हो, झांसा दिया गया हो, आप नाबालिग हों तो भी बात समझ में आती है। पर अगर यह सब आप की अपनी सहमति से हुआ हो तो फिर? आप शादीशुदा भी हैं, बच्चे के पिता का नाम स्कूली प्रमाण-पत्रों में आप बी.पी.शर्मा जो आप के आधिकारिक पति रहे हैं, जिन से भी आप ने प्रेम विवाह ही किया था के बावजूद आप को कुछ लोग भडका देते हैं तो आप को याद आता है कि आप के बेटे का पिता तो फला व्यक्ति है । और यह बेटा आप के गर्भ में तब आया जब आप ने कुछ रातें दिल्ली स्थित उत्तर प्रदेश निवास में उस व्यक्ति के साथ हम-बिस्तर हो कर गुज़ारीं। आप यह बताना भूल जाती हैं कि उस व्यक्ति से आप के पहले ही से रागात्मक संबंध रहे हैं। यही नहीं और भी लोगों से आप के रागात्मक संबंध रहे हैं। आप यह भी नहीं बतातीं कि उस आदमी के आवंटित सरकारी बंगले में आप और आप के पिता रहने के लिए जगह मांगते हैं। और वह आदमी शराफ़त में शरण दे देता है। संबंधों में भी आप ही की पहल होती है। नारायणदत्त तिवारी जैसा व्यक्ति बलात्कार तो कर नहीं सकता। यह तो उन के विरोधी भी मानेंगे। हकीकत यह है कि एक समय राज्य मंत्री रहे शेर सिंह तुगलक लेन के एक बंगले में रहते थे। जब नारायणदत्त तिवारी उद्योग मंत्री बने तो उन्हें शेर सिंह का यही बंगला आवंटित हो गया। शेर सिंह और उज्वला शर्मा ने तिवारी जी से उस मकान में बने रहने की इच्छा जताई। तब उज्वला का अपने पति से विवाद शुरु हो गया था। शेर सिंह ने तिवारी जी से यह भी बताया तो तिवारी जी मान गए। यह उन की सहिष्णुता थी। अब उन की इस कृपा पर आप ने उन से खुद संबंध भी बना लिए और उन की सहृदयता का इतना बेजा लाभ लिया। तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा जब तक नरसिंहा राव के हित नारायणदत्त तिवारी से नहीं टकराए। तिवारी जी ने अर्जुन सिंह के साथ मिल कर तिवारी कांग्रेस बना ली। तब। और जब नरसिंहा राव और उन की मंडली ने आप को अपने स्वार्थ में भड़काया तो आप भड़क गईं। स्वार्थ में अंधी हो गईं। तिवारी जी को ब्लैक-मेल करने पर लग गईं।

एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। अब उन का यहां नाम क्या लूं? पर जब रोहित शेखर पैदा नहीं हुए थे उस के पहले ही उन्हों ने किसी तरह आप की तिवारी जी से बात-चीत को टेप कर लिया। कहते हैं कि एक समय उन पत्रकार महोदय ने भी आप के मसले पर तिवारी जी को बहुत तंग किया। ब्लैक-मेल किया। पर तिवारी जी ने किसी तरह उस मसले को संभाला। अपनी और आप की इज़्ज़त सड़क पर नहीं आने दी। लेकिन नरसिंहा राव और उन की मंडली आप पर इतनी हावी हो गई कि तिवारी जी दिल्ली से चले लखनऊ। एयरपोर्ट तक आए। पर आप ने जहाज पर चढ़ने नहीं दिया। पता चला बाई रोड आप उन को ले कर चलीं लखनऊ के लिए। बीच में गजरौला रुक गईं। तिवारी जी खबर बन गए। खबर आई कि राव सरकार ने तिवारी जी को गायब करवा दिया। यह आप की नरसिंहा राव से दुरभि-संधि थी। दूसरे दिन खबर आ गई कि वह आप के साथ गजरौला में थे।

माफ़ कीजिए उज्वला जी, आप किसी से अपने बेटे का पितृत्व भी मांगेंगी और उस की पगडी भी उछालेंगी? यह दोनों काम एक साथ तो हो नहीं सकता। लेकिन जैसे इंतिहा यही भर नहीं थी। तिवारी जी की पत्नी सुशीला जी को भी आप ने बार-बार अपमानित किया। बांझ तक कहने से नहीं चूकीं। आप को पता ही रहा होगा कि सुशीला जी कितनी लोकप्रिय डाक्टर थीं। बतौर गाइनाकालोजिस्ट उन्हों ने कितनी ही माताओं और शिशुओं को जीवन दिया है। यह आप क्या जानें भला? रही बात उन के मातृत्व की तो यह तो प्रकृति की बात है। ठीक वैसे ही जैसे आप को आप के पति बी.पी. शर्मा मां बनने का सुख नहीं दे पाए और आप को मां बनने के लिए तिवारी जी की मदद लेनी पड़ी।

खैर, हद तो तब हो गई कि जब आप एक बार लखनऊ पधारीं। तिवारी जी की पत्नी सुशीला जी का निधन हुआ था। तेरही का कार्यक्रम चल रहा था। आप भरी सभा में हंगामा काटने लगीं। कि पूजा में तिवारी जी के बगल में उन के साथ-साथ आप भी बैठेंगी। बतौर पत्नी। और पूजा करेंगी। अब इस का क्या औचित्य था भला? सिवाय तिवारी जी को बदनाम करने, उन पर लांछन लगाने, उन को अपमानित और प्रताणित करने के अलावा और भी कोई मकसद हो सकता था क्या? क्या तो आप अपना हक चाहती थीं? ऐसे और इस तरह हक मिलता है भला? कि एक आदमी अपनी पत्नी का श्राद्ध करने में लगा हो और आप कहें कि पूजा में बतौर पत्नी हम भी साथ में बैठेंगे !

उज्वला जी, आप से यह पूछते हुए थोड़ी झिझक होती है। फिर भी पूछ रहा हूं कि क्या आप ने नारायणदत्त तिवारी नाम के व्यक्ति से सचमुच कभी प्रेम किया भी था? या सिर्फ़ देह जी थी, स्वार्थ ही जिया था? सच मानिए अगर आप ने एक क्षण भी प्रेम किया होता तिवारी जी से तो तिवारी जी के साथ यह सारी नौटंकी तो हर्गिज़ नहीं करतीं जो आप कर रही हैं। जो लोगों के उकसावे पर आप कर रही हैं। पहले नरसिंहा राव और उन की मंडली की शह थी आप को। अब हरीश रावत और अहमद पटेल जैसे लोगों की शह पर आप तिवारी जी की इज़्ज़त के साथ खेल रही हैं। बताइए कि आप कहती हैं और ताल ठोंक कर कहती हैं कि आप तिवारी जी से प्रेम करती थीं। और जब डाक्टरों की टीम के साथ दल-बल ले कर आप तिवारी जी के घर पहुंचती हैं तो इतना सब हो जाने के बाद भी सदाशयतावश आप और आप के बेटे को भी जलपान के लिए तिवारी जी आग्रह करते हैं। आप मां बेटे जलपान तो नहीं ही लेते, बाहर आ कर मीडिया को बयान देते हैं और पूरी बेशर्मी से देते हैं कि जलपान इस लिए नहीं लिया कि उस में जहर था। बताइए टीम के बाकी लोगों ने भी जलपान किया। उन के जलपान में जहर नहीं था, और आप दोनों के जलपान में जहर था? नहीं करना था जलपान तो नहीं करतीं पर यह बयान भी ज़रुरी था?

क्या इस को ही प्रेम कहते हैं?

लगभग इसी पृष्ठभूमि पर गौरा पंत शिवानी की एक कहानी है करिए छिमा। उस कहानी का नायक श्रीधर भी उत्तराखंड का है। और राजनीतिक है। इस कहानी में पिरभावती की बहन हीरावती का जो चरित्र बुना है शिवानी ने वह अदभुत है। अहर्निष संघर्ष, प्रेम और त्याग की ऐसी दुर्लभ प्रतिमूर्ति हिंदी कहानी में क्या दुनिया की किसी भी कहानी में दुर्लभ है। जाने क्यों आलोचकों ने इस कहानी का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था से कहीं कमतर कहानी नहीं है, यह करिए छिमा। बल्कि उस से आगे की कहानी है। कि कहीं प्रेमी की पहचान न हो जाए इस लिए वह अपने नवजात बेटे की हत्या कर बैठती है। और उस का यह करुण गायन: 'कइया नी कइया, करिया नी करिया करिए छिमा, छिमा मेरे परभू !' दिल दहला देता है। वस्तुत: कहानी का नायक कहिए या प्रतिनायक श्रीधर उस का प्रेमी भी नहीं है, बल्कि श्रीधर ने तो उसे चरित्रहीनता का आरोप लगा कर गांव से बाहर करवा देता है, पंचायत के एक फ़ैसले से। पर बाद के दिनों में यही श्रीधर एक दिन जंगल से गुज़र रहा होता है कि ज़ोर की बर्फ़बारी शुरु हो जाती है। विवशता में उसे गांव से बाहर जंगल में एक छोटा सा घर बना कर रह रही हीरावती के घर में शरण लेनी पड्ती है। बर्फ़बारी से सारे रास्ते बंद हैं। यहां तक कि हीरावती के घर का दरवाज़ा भी बर्फ़ से बंद हो जाता है। दोनों अकेले ही घर में होते हैं। और कई दिनों तक। बर्फ़ जब छंटती है तब श्रीधर गांव वापस लौटता है। लेकिन इस बीच वह हीरावती के साथ लगातार हमविस्तर हो चुका होता है। उसे पता नहीं चलता पर हीरावती गर्भवती हो जाती है। श्रीधर गांव से चला जाता है। इधर चरित्रहीनता और गर्भ दोनों का बोझ लिए हीरावती मारी-मारी फिरती रहती है। लगभग विक्षिप्त। लेकिन वह किस का गर्भ ले कर घूम रही है, किसी को नहीं बताती। बाद के दिनों में जब उसे बेटा होता है तो वह उसे पैदा होते ही बर्फ़ की नदी में डुबो कर मार डालती है। इस ज़ुर्म में वह जेल भी जाती है। वर्षों बाद जब जेल की कैद से छूट कर आती है, तब तक श्रीधर बड़ा राजनीतिज्ञ हो कर सत्ता के शीर्ष पर आ चुका होता है। हीरावती उस से मिलने जाती है। बडी मुश्किल से वह उस से मिल पाती है। श्रीधर उस से बड़ी नफ़रत से देखता है। और पूछता है कि, 'तुम ने अपने ही बेटे की हत्या कर दी?' तो हीरावती कहती है, 'तो क्या करती भला? आंख, नाक, शकल सब कुछ तो तेरा ही था। सब जान जाते तब? कि तेरा ही है तब?' श्रीधर ठगा सा रह जाता है, हीरावती की यह बात सुन कर। लेकिन हीरावती यह कर चल देती है। अपने लिए कुछ मांगती या कहती भी नहीं है।

तो एक वह शिवानी की हीरावती है और अब कभी नरसिंहा राव और अब हरीश रावत, अहमद पटेल आदि द्वारा भड़काई गई उज्वला शर्मा हैं। उज्वला प्यार करना बताती हैं और हीरावती तो खैर कुछ जताना या पाना ही नहीं चाहती। न प्यार न अधिकार।

और यह उज्वला जी?

बताइए कि तिवारी जी अपनी पत्नी के श्राद्ध में हैं और उज्वला जी उन के बगल में बैठ कर बतौर पत्नी सारी पूजा करवाने के हठ में पड़ जाती हैं, हंगामा मचा देती हैं। अब कहा जा सकता है कि कहानी और हकीकत में दूरी होती है। हम भी मानते हैं। पर यह भी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। और फिर शिवानी की इस कहानी का ज़िक्र यहां इस लिए भी किया कि जब यह कहानी छपी थी तो कहानी के नायक श्रीधर में उत्तराखंड के कुछ राजनीतिज्ञों की छवि इस कहानी के दर्पण में भी देखी गई थी। उस में नारायणदत्त तिवारी का भी एक नाम था।

ब्लड टेस्ट के मार्फ़त डी.एन.ए. रिपोर्ट का नतीज़ा अभी आना बाकी है। जाने क्या रिपोर्ट आएगी। लेकिन जो सामाजिक दर्पण की रिपोर्ट है, उस में तिवारी जी को रोहित शेखर का पिता मान लिया गया है। बहुत पहले से। इस बारे में मुकदमा दायर होने के पहले से। बावजूद इस सब के तिवारी जी की जो फ़ज़ीहत उज्वला शर्मा और उन के बेटे ने की है, और अपनी फ़ज़ीहत की चिंता किए बिना की है, वह एक शकुनि चाल के सिवा कुछ नहीं है। यह एक तरह का लाक्षागृह ही है तिवारी जी के लिए। और मुझे जाने क्यों सब कुछ के बावजूद बार-बार लगता है कि नारायणदत्त तिवारी इस लाक्षागृह से सही सलामत निकल आएंगे। निकल आएंगे ही। इसे आप उन के प्रति मेरा आदर भाव मान लें या कुछ और। यह आप पर मुन:सर है।

इस लिए भी कि तिवारी जी ने जाने-अनजाने असंख्य लोगों का उपकार किया है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि मेरा भी कई बार उन्हों ने उपकार किया है। बिना किसी आग्रह या निवेदन के। मुझे याद है कि वर्ष १९९८ में मुलायम सिंह यादव के चुनाव कवरेज में संभल जाते समय एक एक्सीडेंट में मैं गंभीर रुप से घायल हो गया था। हमारे साथी जयप्रकाश शाही इसी दुर्घटना में हम सब से बिछड़ गए थे। तिवारी जी तब नैनीताल से चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव के बाद वह मुझ से मिलने लखनऊ के मेडिकल कालेज में आए थे, जहां मैं इलाज के लिए भर्ती था। वह बड़ी देर तक मेरा हाथ अपने हाथ में लिए बैठे रहे थे। मेरी तकलीफ देख कर वह बीच-बीच में रोते रहे थे। जब वह चले गए तो वहां उपस्थित कुछ लोगों ने तंज़ किया कि वह मेरे लिए नहीं, अपनी हार के लिए रो रहे थे। मुझे चुनाव परिणाम की भी जानकारी नहीं थी। तो भी मैं ने उन लोगों से सिर्फ़ इतना भर कहा कि आप लोग चुप रहिए। आप लोग तिवारी जी को अभी नहीं जानते। बताइए भला कि अमूमन लोग जब चुनाव हार जाते हैं तब कुछ दिनों ही के लिए सही सार्वजनिक जीवन से छुट्टी ले लेते हैं। लेकिन तिवारी जी नैनीताल से चल कर मुझे देखने आए थे। बहुत सारे राजनीतिज्ञ तब मुझे देखने आए थे, अटल विहारी वाजपेयी, कल्याण सिंह से लगायत मुलायम सिंह यादव और जगदंबिका पाल तक अनेक राजनीतिज्ञ, अफ़सर, पत्रकार, मित्र, परिवारीजन आदि। पर तिवारी जी की वह आत्मीयता और भाऊकता मेरी धरोहर है। ऐसी अनेक घटनाएं हैं तिवारी जी को ले कर। फ़रवरी, १९८५ में मैं लखनऊ आया था स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर। दो महीने बाद ही अप्रैल, १९८५ में मुझे पीलिया हो गया। मेरे पास छुट्टियां भी नहीं थीं। एक महीने की छुट्टी लेनी ही थी। ली भी। कहीं गया नहीं। तिवारी जी तब मुख्यमंत्री थे। उन्हें मेरी बीमारी का शायद जयप्रकाश शाही से पता चला। उन्हों ने बिना कुछ कहे-सुने मुझे विवेकाधीन कोष से ढाई हज़ार रुपए का चेक भिजवाया। तब मेरा वेतन ११०० रुपए था। एक महीने लीव विदाऊट पे हो गया था। कहीं से पैसे का कोई जुगाड़ नहीं था। तिवारी जी ने यह दिक्कत बिना कहे समझी। और चेक भिजवा दिया। जब यह चेक ले कर एक प्रशासनिक अधिकारी मुझ से मिले तो मैं ने उन से पूछा कि यह कैसा चेक है? तो उन्हों ने बताया कि माननीय मुख्यमंत्री जी के आदेश पर विवेकाधीन कोष का चेक है आप के इलाज के लिए। तब तक मैं विवेकाधीन कोष के बारे में नहीं जानता था। बाद में तो यह विवेकाधीन कोष बहुत बदनाम हुआ पत्रकारों के बीच। मुलायम राज में लोगों ने दस-दस लाख रुपए फ़र्जी स्कूलों के नाम पर बार-बार लिए। खैर बाद में मिलने पर मैं ने तिवारी जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की तो वह लजा गए। बोले कुछ नहीं। बस मुसकुरा कर रह गए।

ऐसे जैसे कुछ उन्हों ने किया ही न हो। यह उन की सहृदयता थी, सहिष्णुता थी। ऐसे अनेक अवसर, अनेक घटनाएं हैं, जो उन की सदाशयता और सहिष्णुता की कहानी से रंगे पड़े हैं। मेरे ही नहीं अनेक के। बहुतेरे पत्रकार लापरवाही में मकान का किराया नहीं जमा कर पाते तो लंबा बकाया हो जाता या फिर बिजली के बिल का लंबा बकाया हो जाता तो तिवारी जी बडी शालीनता से यह व्यवस्था करवा देते। तब पत्रकारों का वेतन बहुत कम होता था और कि आज के दिनों जैसी दलाली भी अधिकतर पत्रकार नहीं करते थे। उन दिनों वह मुख्यमंत्री थे। सड़क पर कभी-कभार हम या हमारे जैसे लोग पैदल या स्कूटर पर भी दिख जाते तो वह काफिला रोक कर मिलते। और हाल-चाल पूछ कर ही गुज़रते। और ऐसा वह बार-बार करते। बाद के दिनों में जब वह उद्योग मंत्री हुए तो बजाज स्कूटर की तब बुकिंग चलती थी। लखनऊ के जिस भी पत्रकार ने उन को चिट्ठी लिखी उस को स्कूटर का आवंटन पत्र आ गया। कई लोगों ने इस का दुरुपयोग भी किया। बार-बार आवंटन मंगाया और स्कूटर ब्लैक किया। धंधा सा बना लिया। लेकिन तिवारी जी की सदाशयता नहीं चूकी।

एक समय वह प्रतिपक्ष में थे। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री। भाजपा के समर्थन से। आडवाणी जी की रथयात्रा और फिर गिरफ़्तारी के बाद भाजपा ने केंद्र की वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया साथ ही उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार से भी। राजीव गांधी से समर्थन के लिए मुलायम मिले। राजीव ने उन का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए उन से कहा कि लखनऊ में वह तिवारी जी से भी औपचारिक रुप से ज़रुर मिल लें। तिवारी जी समर्थन के मूड में नहीं थे, यह बात मुलायम जानते थे। सो वह राजीव से सीधे मिले। लेकिन राजीव के कहने पर मुलायम को लखनऊ में तिवारी जी के घर औपचारिक रुप से जाना पड़ा। लेकिन वह खड़े-खड़े गए और खड़े-खड़े ही लौट आए। घर में बैठे भी नहीं। तिवारी जी बहुत अनुनय-विनय करते रहे। अंतत: तिवारी जी ने मुलायम की पहलवानी छवि के मद्देनज़र कहा दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी भी थी। मुलायम समझ गए तिवारी जी के इस तंज़ को। बोले, 'अब दूध विधानसभा में ही पिलाना।' और चले गए।

सचमुच मुलायम को विधानसभा में तब का दूध पिलाना कांग्रेस आज तक भुगत रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तब जो साफ हुई फिर खड़ी हो नहीं पाई। तिवारी जी असल में दूरदर्शी राजनीतिज्ञ हैं। योजनाकार भी विरल हैं। तमाम-तमाम योजनाएं और परियोजनाएं उन्हों ने न सिर्फ़ बनाई हैं, उन्हें साकार भी किया है। मुझे याद है उत्तर प्रदेश में वर्ड बैंक की मदद से रोड कांग्रेस उन्हों ने ही शुरु किया था। नोएडा जैसी तमाम योजनाएं उन्हीं की बनाई योजनाएं है। ऐसी तमाम योजनाओं को उन्हों ने फलीभूत किया है। उत्तर प्रदेश में भी और उत्तराखंड में भी। पर लोग अब उन के इन सारे गुणों को, इन पक्षों को भूल गए हैं। उन की छवि एक औरतबाज़ राजनीतिज्ञ की बना दी गई है। इस से तकलीफ़ होती है। अरे, आप ही लोग बताएं कि ऐसा कौन सा पुरुष है जिसे औरतों से गुरेज हो भला? और ऐसा कौन सा राजनीतिज्ञ है जिस की सूची में दस-पांच औरतों का नाम न जुडा हो? कल्याण सिंह तो कुसुम राय के चक्कर में बरबाद हो गए। तो क्या कल्याण सिंह के पास सिर्फ़ कुसुम राय भर ही हैं या थीं? और कि कुसुम राय के नाम पर कल्याण सिंह और भाजपा दोनों को ही किनारे लगवाने वाले राजनाथ सिंह के नाम के साथ क्या औरतों की सूची नत्थी नहीं है? बात तो बस फिसल गए तो हर गंगे की ही है।

अब बात उठती है नैतिक-अनैतिक की। लोहिया कहते थे कि अगर ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो, शोषण न हो, आपसी सहमति हो तो कोई संबंध अनैतिक नहीं होता। और लोहिया सही कहते थे। तिवारी जी ने उज्वला शर्मा के साथ न कोई ज़बरदस्ती की, न शोषण किया। सारी बात आपसी सहमति की थी। उज्वला जी नादान नहीं थीं। गरीब मजलूम नहीं थीं। एक मंत्री की बेटी थीं, विवाहित थीं। उन को कोई हक नहीं कि इस तरह की बात करें। हां जो शेखर के पैदा होते ही जो उन्हों ने यह आवाज़ उठाई होतीं तो उन की बात में दम होता। अच्छा कितने लोग यह बात जानते हैं कि तलाक के बाद अब भी वह अपने पति बी.पी. शर्मा के साथ ही नई दिल्ली की डिफ़ेंस कालोनी में रहती हैं। फ़र्क बस इतना है कि दोनों के फ़्लैट दिखावे के लिए ऊपर-नीचे के हैं। और फिर इस पूरी कवायद में बी.पी. शर्मा का पक्ष नदारद है।

तो क्या उज्वला शर्मा या रोहित शर्मा ने यह सारी जंग नारायणदत्त तिवारी की संपत्ति प्राप्त करने के लिए की है? यह एक अनुत्तरित सवाल है।

इस लिए भी कि नारायणदत्त तिवारी कोई ज़मीदार नहीं रहे हैं। खांटी समाजवादी स्वभाव के हैं और रहे हैं। एक औरतों वाले दाग को छोड दीजिए तो तिवारी जी पर कोई ऐसा-वैसा दाग नहीं है। तब जब कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के वह एक नहीं चार बार मुख्यमंत्री रहे हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे हैं। आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे हैं। केंद्र सरकार में उद्योग मंत्री, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री आदि कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। नैनीताल की जनता ने १९९१ में जो उन्हें विजयी बनाया होता तो तय मानिए वह देश के प्रधान मंत्री भी हुए ही हुए होते। और शायद देश की दशा और दिशा कुछ और ही होती। खैर अभी तक भूल कर भी उन पर भ्रष्टाचार या कदाचार के आरोप नहीं लगे हैं। न ही सचमुच उन्हों ने दाएं बाएं से पैसा कमाया है। अभी भी वह सरकारी मकान में रहते हैं। जो बतौर पूर्व मुख्य मंत्री उन्हें औपचारिक रुप से मिला हुआ है। उन के छोटे भाई अभी भी लखनऊ में स्कूटर पर चलते दिख जाते हैं। तो तिवारी जी के पास अकूत संपत्ति तो छोड़िए मामूली संपत्ति भी नहीं है। नारायणदत्त तिवारी कोई मुलायम सिंह यादव या मायावती परंपरा के मुख्यमंत्री भी नहीं रहे। न ही ए. राजा आदि की परंपरा के केंद्रीय मंत्री। तो उन के पास पैतृक संपत्ति के सिवाय कोई अतिरिक्त संपत्ति मेरी जानकारी में तो नहीं है। किसी के पास हो इस की जानकारी तो ज़रुर बताए। तिवारी जो तो अब की चुनाव में अपने भतीजे मनीष तिवारी तक को जितवा नहीं पाए। अभी सोचिए कि यही उज्वला शर्मा का पाला अगर प्रमोद महाजन, मुलायम या अमरमणि त्रिपाठी टाइप किसी राजनीतिज्ञ से पडा होता तब परिदृष्य क्या होता भला?

तो तिवारी जी की भलमनसाहत और उन की सहिष्णुता का, उन के सहृदय होने का इतना लाभ तो मत लीजिए उज्वला जी और रोहित शेखर जी। उन के शिष्ट और सभ्य होने का इम्तहान-दर-इम्तहान लेना ठीक नहीं है। कि लोग उन का मजाक उड़ाने लग जाएं। जानिए कि नारायणदत्त तिवारी जैसे राजनीतिज्ञ बड़े सौभाग्य से किसी समाज और देश को मिलते हैं। वह हमारी साझी धरोहर हैं। उन्हें सम्मान और उन की गरिमा देना अब से ही सही सीखिए उज्वला जी और रोहित जी ! यह आप के हित में भी है और समाज के भी हित में। हो सके तो यह मामला मिल बैठ कर सुलटा लीजिए। तिवारी जी की टोपी उछाल कर नहीं। फ़िल्म की ही जो चर्चा एक बार फिर करें तो एक फ़िल्म है 'एकलव्य'। राजस्थानी पृष्ठभूमि पर आधारित इस फ़िल्म में एक रजवाड़े की कहानी में अमिताभ बच्चन एक राज परिवार में नौकर हैं। पर राजकुमार के पिता भी हो जाते हैं। फ़िल्म की कहानी तमाम उठा-पटक और ह्त्या दर हत्या में घूमती है। पर आखिर में राजकुमार बने सैफ़ अली खान उन्हें पूरे सम्मान से सार्वजनिक रुप से पिता कुबूल करते हैं, आप की तरह अपमान दर अपमान की कई इबारतें लिख कर नहीं। किसी को पिता कुबूल करना ही है तो उसे पिता जैसा सम्मान दे कर कुबूल कीजिए। पर आप लोग तो अपमानित करने पर तुले हैं। खैर।

सोचिए उज्वला जी कि अगर तिवारी जी भी आप की तरह आप की ईटें उखाडने लग जाएंगे तो आप क्या कर लेंगी? अभी तो वह शालीनतावश अपने खून का सैंपल देने से बचते रहे हैं, जो अब दे भी दिया है। लेकिन कहीं वह भी ईंट का जवाब पत्थर से देने पर आ जाते या आ ही जाएं तो आप का क्या होगा? अदालती धूर्तई तो यह कहती है कि तिवारी जी भी सवाल खड़े कर दें कि क्या आप शेर सिंह की बेटी हैं भी कि नहीं? आप के पति बी.पी. शर्मा भी अपने पिता के हैं कि नहीं। आदि-आदि। और जब ईंट खुदने ही लगेगी हर किसी की तो कहीं न कही बहुत नहीं तो कुछ लोग तो ज़रुर ही व्यास नंदन की राह पर आ जाएंगे। फिर क्या होगा इस समाज और इस समाज की शालीनता का? तब तो और जब आप का शोषण न हुआ हो, आप के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती-बलात्कार न हुआ हो।

मेरा मानना है कि इस पूरे मामले को इस दर्पण में भी देखा जाना चाहिए। एकतरफ़ा तिवारी जी को दोषी बता देना ठीक नहीं है। वह चाहे समाज दोषी ठहराए या कोई अदालत। यह व्यक्तिगत मामला है, इसे व्यक्तिगत ही रहने देना चाहिए। इस लिए भी कि नारायणदत्त तिवारी कोई बलात्कारी नहीं हैं। एक सभ्य और शिष्ट व्यक्ति हैं। उन को उन का सम्मान दिया जाना चाहिए। जिस के कि वह हकदार हैं। ध्यान रखिए कि तिवारी जी हमारी साझी धरोहर हैं। राष्ट्रपति चुनाव के शोर में तिवारी जी का यह पक्ष भी बहुत ज़रुरी है। इस लिए भी कि, 'पूछा कली से कुछ कुंवारपन की सुनाओ, हज़ार संभली खुशबू बिखर जाती है।' आमीन !

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17 comments:

  1. धन्यवाद पांडेयजी !!!
    इस आलेख के लिए जितना भी आभार व्यक्त करें कम ही है. मै उन हजारों लोगो में से हूँ जो एक तरफा ही सोचते है. यह आलेख अपने पूरे मानक के साथ १०० में १०० नम्बर पाने का हकदार है -- अपने दलील के स्तर पर, लेखन के स्तर पर और एक पत्रकार तथा साहित्यकार के स्तर पर ही नहीं, एक जिम्मेदार नागरिक के स्तर पर भी. इस प्रकरण का दूसरा पहलू तो बिलकुल अँधेरे में ही है. राजनीती की विषकन्याएं तो हमेशा ही रही है.
    आपसे आग्रह है कि इस आलेख को न सिर्फ सार्वजनिक प्रकाशन कराइए बल्कि देवी उज्जवला ( जो एक बुजुर्ग के प्रति ज्वाला बन चुकी है ) तक भी हो सके तो पहुचाईये. असहिष्णु होते समाज में एन ड़ी तिवारी जी जैसी सहजता एकदम ख़त्म हो चुकी है. बेशक वे कुछ गुनाहगार हो सकते है पर उनमे हज़ार अछाइया भी है जिनका सम्मान किया जाना चाहिए.
    और उज्ज्वला देवी को भी उनके किये की सज़ा तो मिलेगी ही. इतना तो तय ही है. पूरे प्रकरण में उनका धतकर्म भी सामने आ गया.
    पुन: साधुवाद!!!

    अरुण सिंह
    सम्पादक, इंडिया इनसाइड

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  2. लम्पट और व्यभिचारी होकर भी तिवारी जी "सभ्य और शिष्ट "? इतना बड़ा तिवारी पुराण लिखा था तो ह्य्दाराबाद के राजभवन को भी याद कर लेते . खैर यह तो लेखक आ अपना चुनाव है कि "क्या भूलूँ क्या याद करू?"

    वीरन्द्र यादव

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  3. Priyver Dayanand,
    Tumhare vichitra lekhan ka mai hamesha aalochak raha hoon, lekin is sachitra aur khojpurn lekh ka main MUREED ho gaya. kayi yaadeyn aur bhi hain jo is maamle ko lekr humen bhi chintit karti rahi hai ki kaise is zanjeer ko toda jaye ! khair, chalo ... Tumhari MUHIM rang laye, yehi shubhkamna hai...AAMEEN.

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  4. नारायण दत्त तिवारी वास्तव में एक सुयोग्यतम राजनीतिज्ञ और योजनाकार रहे हैं । अत्यंत शालीन , उदारमना , सुसभ्य मुख्यमंत्री रहे हैं । जहां तक उनके व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है , यौन-शुचिता के मामले में वह समानान्तर रूप से कच्चे रहे हैं । इस कमजोरी के बावजूद उनकी उपलब्धियों और विकास-पुरुष स्वरूप को नज़रअंदाज़ कर पाना कठिन है । यह विडम्म्बना ही है की उम्र के इस पड़ाव में उन्हें सार्वजनिक अपमान एवं निंदा के दौर से गुज़रना पड़ रहा है । ज़माना बहुत खुदगर्ज़ है । दयानन्द भाई , आप विरले इंसान हैं जो तिवारी जी की सार्वजनिक फिसलन के समय लगभग अकेले साहस के साथ उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों की दुहाई दे रहे हैं । आपका लेख इस बात की एक बेहतरीन मिसाल है कि बुद्धिजीवी का चिंतन कभी एकतरफ़ा और नितांत वैयक्तिक नहीं होना चाहिए । एक विचारोत्तेजक और तथ्यपरक अच्छे लेख के लिए आपको बधाई । सुधाकर अदीब ।

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  5. सच्चाई से ओत-प्रोत आलेख!
    --
    मान्यवर आपके इस आलेख को आपके नाम से उच्चारण (तिवारी नहीं बलात्कारी) पर भी लगाया गया है!
    साभार!

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  6. Mahesh Bhatt's film was called Zakhm not Janam and it starred Ajay Devgan not Kumar Gaurav... Over all the tone of the article is masculinist and hagiographic. While the author may hold a brief for ND Tiwari being a great administrator and far sighted politican, wonderwhy the whole piece chooses to be quiet over why he was unceremoniously asked to go as AP governor?

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  7. ये लेख अत्यंत खोजपूर्ण है और सच्चाई बयां करता है. भले ही तिवारीजी इस प्रकरण में दोषी पाए जाएँ पर उन श्रीमती का क्या जिन्होंने खुद कितनी मर्यादाएं लांघी और फिर भी अपने को दूध की धुलि कहती हैं. धिक्कार की हक़दार वे जितनी हैं उतने तिवारीजी शायद नहीं. पाण्डेय जी को नमन जिन्होंने इतनी साफगोई से सब कुछ लिखा और ऐसा लिखा जैसे एक चित्रपट पर फिल्म चलती है... अवश्य पढने योग्य...

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  8. Karma Tare Nahi Tari- Burai kabhi Chipati nahi, ak burai saw achhaion ko daba deti.
    Pratibandhit karyon se samman kaise ho sakata hai?

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  9. सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को बेदाग़ जीवन जीना चाहिए था तिवारी जी ने जो किया उसका फल भुगत रहे है|
    पर इस मामले में उज्जवला शर्मा भी कम दोषी नहीं, भारतीय समाज में इस तरह के चरित्र वाली औरत को चरित्रहीन समझा जाता है फिर भी इस मामले में जो बहस चल रही है वह सिर्फ तिवारी के चरित्र पर ही केंद्रित है जो गलत है एक तरफा है|
    लोगों को बेशक आपके लेख में लगे कि आपने तिवारी जी का पक्ष लिया और उनके कुकृत्य को जायज ठहराने की कोशिश की है और ये काफी हद तक सही भी है पर उज्जवला शर्मा के बारे में आपने जो लिखा है उससे अक्षरत: मैं सहमत हूँ|
    इस औरत ने वाकई बेशर्मी की हद ही पार कर दी, पहले कुकृत्य और बाद में हक की मांग !
    वाह ! क्या उदाहरण पेश किया है इसने समाज के सामने !!

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  10. बहुत परिश्रमं और धैर्य से लिखा गया एक दस्तावेज है यह

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  11. जोरदार ढंग से उस पक्ष को सामने लाने का प्रयास जो अब तक कहीं नहीं पढ़ा।

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  12. तिवारीजी सार्वजानिक जीवन जी रहे है...और उज्जवला शर्मा को कोई भी समर्थन नहीं कर रहा है...लेकिन इससे तिवारीजी नहीं बच पाएंगे..आँध्रप्रदेश में २-३ महिलाओं के साथ नंगे बिस्तर में परे हुए क्या कर रहे थे.
    ये व्यभिचारी है...और इसकी सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए...

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  14. Apne lekh mein dono paksho ko lekar chalna seekhenge tabhi achche patrakar bole jayege aap. Aap doosro per jo aarop laga rahe hain wah karya aap swayam kar rahe hain. aapke lekh mein kuch baate sahi hain lekin ek vishay per itne bade do-do lekh aur woh bhi sirf Tiwari ji- Tiwari ji..Yeh sirf chatukarita bhari patrakarita ki taraf ingit karta hai. aap jaise varishtha aur samajhdar patrakaro ko inn baato ka dhyan rakhna chahiye. Meri yeh tippni aur isske poorva mein ki gayi tippani ko anyatha na le.

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  15. किसी और को नीच बता लेने से खुद की नीचता कम नहीं होती तब तो और जब आप हमारे अगुवा हो आपको तब ज्‍यादा जिम्‍मेदार होना चाहिए माना गलती दोनो पक्ष की थी पर इससे आपकी गलती कम नहीं हो जाती लेख पढ कर दुख हुआ मेरी कमीज उसके कमीज से गंदी कैसे मानसिकता से ओत प्रोत लेख रहा

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  16. jis khar na jao--vahi ghar achcha. but what ujjawala singh and shekhar is doing for cheep popularity and against tiwariji is totally wrong. u can win bettle of family with love not by in this way

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  17. MANY IMPORTANT #METOO OF INDIA'S WHO IS WHO?
    भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण #METOO

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