Thursday, 31 May 2012

सेक्स, प्यार और मोरालिटी

अमिताभ ठाकुर 

 मैं इधर दयानंद पाण्डेय जी का चर्चित उपन्यास “अपने-अपने युद्ध पढ़ रहा था. मैंने देखा कि इसका नायक संजय, जो एक पत्रकार है और कई दृष्टियों से अपनी नैतिकता के प्रतिमानों को लेकर काफी सजग और चौकन्ना है. विभिन्न प्रकार की लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने में भी उतना ही महारथी है. पूरे उपन्यास में उसके संबंधों के बनने और फिर अलग-अलग कारणों से बिखर जाने का कार्यक्रम चलता ही रहता है.

अपने अपने युद्ध
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001
यह भी सही है कि दयानंद जी संभवतः उन कतिपय हिंदी उपन्यासकारों में होंगे जो सेक्स सम्बंधित घटनाक्रम या दृश्यावलियों का इतना विषद और खुला वर्णन करते हों. कारण यह कि हमारे देश में सेक्स एक टैबू की तरह माना जाता है, जिसमे बहुधा यह अवधारणा होती है कि जिसे जो करना हो सो करे, इस विषय पर बहुत ज्यादा चर्चा की जरूरत नहीं है. यानी कि एक लुका-छिपा शास्त्र.

आप और हम यह देखते हैं कि अंग्रेजी के तमाम उपन्यासों में सेक्स एक अनिवार्य आवश्यकता होती है. यानी कि हर कुछ पन्नों के बाद कुछ ऐसे दृश्य शुरू हो जायेंगे जिनमे उपन्यास के पात्र शारीरिक रतिक्रिया में संलग्न हो जायेंगे. यानी कि उस पूरी प्रक्रिया का विधिवत विवरण होगा, काफी विस्तार से होगा और खास कर पाठक की सेक्स-जन्य जुगुप्सा तथा उत्तेजना के दृष्टिगत होगा. कई बार तो ऐसा साफ़ दिख जाएगा कि इस सेक्स सीन की और कोई जरूरत नहीं थी, सिवाय पाठक को बहलाने, फुसलाने और उसकी काम-इच्छाओं को टारगेट करने के, कुछ वैसे ही जैसे हमारी पुरानी फिल्मों में जानी वाकर या महमूद का किसी भी प्रकार से अधिरोपण मात्र इसीलिए किया जाता था ताकि दर्शकों को किसी भी तरीके से हंसा दिया जाए. यानी कि कहानी की मांग हो, ना हो इस बात से फर्क नहीं पड़ता. बस हँसाना है तो हँसाना है या फिर सेक्स सीन दिखाने हैं तो दिखाने हैं.

पर हिंदी के उपन्यासों में यह लगभग ना के बराबर रहा है और संभवतः आज भी यही स्थिति होगी. मैं इस रूप में दयानंद जी के इस कार्य की सराहना करता हूँ कि जो बात आम तौर पर परदे में छिपी रही थी उसे उन्होंने उत्साह और निर्भीकता के साथ सामने लाने का कार्य किया. सेक्स की मानव जीवन में महत्ता के विषय में मुझे या किसी और को लेक्चरर बनने की कोई जरूरत नहीं है. हम लोगों के परमप्रिय विद्वान मनोविज्ञानी फ्रायड ने इस पर अद्भुत कृतियाँ लिख कर इसे हमेशा के लिए सामने ला कर रख दिया है. बाद में फ्रायड के सिद्धांतों पर बड़ी बहसें हुईं, आलोचनाएं हुईं, वाद-प्रतिवाद हुए पर फ्रायड इतने सशक्त निकले कि लोग उनकी आलोचना तो करते रहे पर उन्हें खारिज नहीं कर सके.

भारत में फ्रायड के वैज्ञानिक सिद्धांतों की स्वीकार्यता भले हुई हो पर साहित्य में उनके असर के कारण सेक्स को सीधे-सीधे प्रकट किये जाने की परंपरा बहुत नहीं बन सकी है, कम से कम हिंदी साहित्य में तो नहीं. इसे और अधिक सीमित करते हुए यदि कहूँ तो कम से कम मेरी जानकारी और विस्तार के अनुसार. मैं यह नहीं कह रहा कि दयानंद जी ने जिस प्रकार से सेक्स को अपने उपन्यास में स्थान दिया है वह बिलकुल जेम्स बोंड का भारतीय प्रतिरूप बन गया हो, जहां मौके के सम्बन्ध का मतलब मात्र उसी क्षण के शारीरक सम्बन्ध से हो- ना आगा ना पीछा. यानी कि बैंकॉक गए, टोक्यो गए, लिस्बन गए या वाशिंगटन, बस कोई कन्या जेम्स भाईसाहब के संपर्क में आई, सम्बन्ध बना और फिर अगले ही क्षण दोनों अपने-अपने रास्ते.

इसके विपरीत दयानंद जी के संजय सम्बन्ध तो बनाते ही रहे, कभी रीना तो कभी साधना तो कभी मनीषा या चेतना से. पर फिर भी ये सम्बन्ध, सिवाय मनीषा वाले मामले को ले कर, कभी भी भावनात्मक अनुरागों और राग-विराग से अलग नहीं हो पाते. इसमें भी एक काबिलेगौर बात यह है कि इन समस्त सम्बंधों में भी स्त्री और पुरुष की मानसिकता में अंतर बहुत ही साफ़ तरीके से दिखता है. अखबार की टेलीफोन ऑपरेटर नीला को देखें या मंत्री की बेटी रीना को या फिर दूरदर्शन की कैजुवल एनाउंसर को या फिर लखनऊ की दिल पर चोट खायी लड़की को, इनमे से हर लड़की संजय से सेक्स सम्बन्ध बनाने के साथ ही उससे नियमित और वैधानिक सम्बन्ध (अर्थात विवाह बंधन) के पीछे भी पड़ जाती है. बल्कि उनमे से कई तो संजय को इस प्रकार से सम्बन्ध बना लेने और उसे एक स्थायी नाम और रूप नहीं देने के लिए उसे आरोपित भी करती हैं. मतलब यह हुआ कि आज भी, तमाम आधुनिकताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों में बाद भी भारतीय स्त्री के मन की कई सारी वर्जनाएं यथावत हैं, जो बिना स्थायी और सामाजिक रूप से मान्य रिश्तों के, शरीर का सम्बन्ध बना तो लेती हैं पर कहीं ना कहीं उसकी मानसिक पीड़ा और बोझ से ग्रसित जरूर रहती हैं.

दूसरी बात जो देखने लायक है वह यह कि संजय एक विवाहित पुरुष है और उसकी पत्नी उपन्यास में हैमलेट के पिता के भूत की तरह अचानक आती-जाती रहती है. कुछ ऐसा लगता है कि संजय की पत्नी एक ऐसी व्यक्तित्व हो जिसका कोई वजूद ही नहीं हो, जिसकी कोई सोच या बुद्धि ही नहीं हो और जो मात्र एक चलती-फिरती जीव हो जिसका ना तो संजय से कोई विशेष लगाव हो, ना ही कोई हक हो और ना ही कोई इंसानी भावनाएं. तभी तो संजय महाराज जो चाहते हैं कर के आते हैं, जहां चाहते हैं सोते-जागते हैं और अपने पारिवारिक और विवाहित जीवन को ले कर पूरी तरह निश्चिन्त रहते हैं. इसके विपरीत यदि यह बात सोची जाए कि संजय की पत्नी भी एक भरा-पूरा और आज़ाद व्यक्तित्व होती और आचार्य रजनीश के देह, काम और सम्भोग विषयक सिद्धांतों का उसी हद तक, उसी तरीके से पालन कर रही होती जैसे संजय कर ले पा रहे थे, तब ही संजय के वास्तविक मन-मस्तिष्क और उसकी विचारधर्मिता की सच्ची परीक्षा हो पाती और इन सिद्धांतों का उचित निरूपण हो सकता.

कहने का अर्थ यह है कि सेक्स और काम-विषयक तमाम सिद्धांत एक पूरे सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए, ना सिर्फ केवल एक ऐसे पुरुष की मानसिकता से जिसे दोनों तरह के सुख मिल रहे हों- घर में एक स्थायी पत्नी की सुरक्षा और बाहर इच्छानुसार बदल-बदल कर मनभावन कन्या. साथ ही इस पूरी प्रक्रिया का नैतिकता के प्रश्न से जुड़ाव भी अपने आप में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है. जैसा कि रीना संजय से प्रश्न भी करती है कि एक तरफ आप किसी की चमचागिरी या चरणचुम्बन को अनैतिक मानते हैं, किसी को अन्य प्रकार से धोखा देना अनैतिक मानते हैं, ससुर के बल पर आगे बढ़ने को अनैतिक मानते हैं पर क्या एक पत्नी के रहते हुए अन्येतर सम्बन्ध कायम करने को धोखागिरी या अनैतिक कर्म नहीं मानते. संजय इस प्रश्न का उत्तर देते हैं जिसमे वे देह के विज्ञान और शरीर की जरूरतों को विशेष बल देते हुए उसे मन के लगाव से अलग बताते हैं और कहते हैं कि उनका रीना (और इसी तरह शायद अन्य तमाम लड़कियों) से सम्बन्ध बनाना इसीलिए अनैतिक नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह दोनों की रजामंदी से हुई थी, जिसमे संजय ने कोई छलावा नहीं किया था और ना ही किसी प्रकार के कोई सब्ज-बाग दिखाए थे. यह सही हो सकता है पर फिर भी रीना यह कह ही देती है कि ना चाहते हुए भी इस तरह के सम्बन्ध के पूर्व उसके मन में स्थायी रिश्ता बना लेने की चाह अवश्य थी.

मैं इससे बढ़ कर मात्र यह प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि यदि संजय या कोई भी व्यक्ति आचार्य रजनीश या किसी भी विचारक के सोच या स्वयं के विचारों के परिप्रेक्ष्य में फ्री सेक्स या परस्पर सहमति से शारीरिक संबंधों को बनाना इतना जायज़ और सहज मानता है तो फिर वह अपनी पत्नी के सामने यह भेद खुल जाने के डर से यकबयक क्यों घबराने लगता है? क्यों वह ऐसे कार्य उन तमाम लड़कियों के परिवारों से छिप-छिपा कर करना चाहता? इसके अलावा वह क्यों अपने और अपनी पत्नी के इस आयाम के प्रति समरूपी दृष्टिकोण नहीं अपना पाता है?

मैं इन प्रश्नों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि दयानंद जी द्वारा संजय के जरिये उठाये गए प्रश्न इतने सरल नहीं हैं जो मैं चंद शब्दों में उसका निश्चित और अंतिम उत्तर दे दूँ. मैंने भी यही उचित समझा है कि मैं इसी दिशा में कतिपय अन्य प्रश्न प्रस्तुत करूँ, जो इस डिबेट को आगे बढाने में सहायक हो सके.

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