Sunday 20 May 2012

पूर्वांचल की नई स्त्री को व्यक्तित्व देती कथा : ‘बांसगांव की मुनमुन’

- रामदेव शुक्ल

‘राग दरबारी’ के पाठक शिवपालगंज और ‘गंजहा’ बहादुरों के करिश्मे याद कर के अब भी मुस्कराने लगते हैं। श्रीलाल शुक्ल बताते थे कि एस.डी.एम. के रूप में जो अनुभव उन्हों ने बांसगांव में एकत्र किए, उन्हीं के आधार पर आगे चल कर शिवपालगंज की रचना संभव हुई। उसी बांसगांव को जानने समझने और भोगने वाले कथाकार दयानंद पाण्डेय इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आरंभ में प्रत्यक्ष रूप से अपने नए उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन‘ की कथाभूमि बनाते हैं। बांसगांव तहसील में से खजनी और गोला दो नई तहसीलों के बन जाने से बांसगांव का सिकुड़ना दर्ज करते हैं। यह बताना भी नहीं भूलते कि ‘बांसगांव के बाबू साहब लोगों की दबंगई और गुंडई अभी भी अपनी शान और रफ़्तार पर थी। और यह शान और रफ़्तार इतनी थी कि बांसगांव बसने की बजाय उजड़ रहा था।’ दबंगई गुंडई के अनेक दृश्य अंकित करने के बाद लेखक बताते हैं कि, ‘और ऐसे बांसगांव में मुनमुन जवान हो गई थी ......एक तो जज अफसर और बैंक मैनेजर की बहन होने का गरूर दूसरे मांता-पिता का ढ़ीला अंकुश, तीसरे जवानी का जादू।..... बांसगांव की सरहद लांघते ही राहुल के दोस्त की बाइक पर देखी जाती। कभी किसी मक्के के खेत में, कभी गन्ने या अरहर के खेत में साथ बैठी बतियाती दिख जाती। ‘अब हम कइसे चलीं डगरिया, लोगवा नजर लड़ावेला’ से आगे बढ़ कर गुनगुनाने लगी थी, ‘सैंया जी दिलवा मांगे लें अंगोछा बिछाइ के।’

बड़े भाई जज, मझले एस.डी.एम., सझले बैंक मैनेजर और चौथे थाइलैंड में एन.आर.आई. उर्फ घर-जमाई। पिता मुनक्का राय वृद्ध हो गए। वकालत लगभग खत्म हो चली। बेटी के विवाह की चिंता सब से बड़ी। शत्रुवत पट्टीदार गिरधारी राय ने अपने जाल में फंसा लिया। एक मास्टर के फ़ुल फ़ेलियर शराबी बेटे से मुनमुन की शादी पक्की कर बैठे। मुनमुन फ़ोन पर अपने भाइयों से रोती गिड़गिड़ाती रही कि वे एक बार अपने होने वाले बहनोई से मिल कर उस के चाल-चलन का पता कर लें। उच्च शिक्षित और बड़ी नौकरियों में व्यवस्थित भाइयों के पास फुर्सत नहीं थी। शादी के लिए एक दिन पहले आ कर, जल्दी-जल्दी शादी करा कर अपने-अपने ठौर चले गए। मुनक्का राय पंद्रह दिन बाद बेटी को देखने उस की ससुराल गए, तो पता चला कि अभी तक पति से उस की देखा-देखी भी नहीं हुई है। कई दिन भूखी रही। यह सब जान सुन कर रोते हुए पिता रोती हुई बेटी को ले कर घर आ गए। गनीमत इतनी थी कि शादी से पहले मुनक्का राय ने बेटी को अपने गांव में शिक्षा-मित्र की नौकरी दिलवा दी थी।

एक समय सब से ज़्यादा कमाने वाले वकील मुनक्का राय की बेटी और चार कमाऊ भाइयों की बहन मुनमुन को माता-पिता की जर्जर गृहस्थी का सारा बोझ अपने कंधे पर उठाना पड़ा। शिक्षा-मित्र का वेतन पाने पर पहले वह सोचती, ‘कैसे खर्च करे यह पैसा ? अब के दिनों में वह सोचती कि कैसे खर्च चलाए वह इन पैसों से ?’ चिंता अभाव और कठोर श्रम के कारण मुनमुन टी.बी. की मरीज बन बैठी। तब भी लगातार जूझती रही। अगला अध्याय शुरू किया उस के धूर्त ससुर ने। वह मुनमुन की शिक्षा-मित्र वाली नौकरी छुड़वा कर उसे अपने घर ले जाने के लिए तरह तरह के तमाशे करने लगा। जिन भाइयों ने अपनी तथाकथित व्यस्तता में से कुछ घंटे निकाल कर होने वाले बहनोई को देखना भी ज़रूरी नहीं समझा था, वे ही बहन और पिता पर हर तरह का दबाव बनाने लगे कि मुनमुन को ससुराल जाना ही चाहिए। बहन को राक्षसों के घर भेजने की चारो भाइयों की हड़बड़ी का विरोध उन के फुफेरे भाई दीपक ने किया। उस की कोशिश का भी कोई नतीज़ा नहीं निकला। हद कर दी, बड़े भाई जज साहेब ने। उन्हों ने कहा, ‘झोंटा पकड़ कर, खींच कर कर जबरिया घसीट कर विदा कर दूंगा।’ मुनमुन तब भी नहीं गई। अब उस के लुक्कड़ पियक्कड़ पति ने सारी हदें पार कर दी। वह बारबार ससुराल आ कर मुनमुन और उस की मां को मारने पीटने लगा। जीवन-संघर्ष का आखिरी हिस्सा मुनमुन ने खुद संभाला। लुक्कड़ पियक्कड़ पति की जम कर पिटाई की। उस से तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू की और क्षेत्र की पति-पीड़ित लड़कियों की मार्ग-दर्शक बन गई।

कथाकार ने मुनमुन के जुझारू व्यक्तित्व के विकास को आत्मीयता के साथ गढ़ा है। पति के हाथों अपनी मां की बुरी तरह पिटाई से क्षुब्ध मुनमुन ने दीपक से कहा, ‘मन तो करता है जाऊं अभी उस को गोली मार दूं।’ दीपक पूछते हैं, ‘गोली कैसे मारोगी।’ मुनमुन कहती है, ‘अरे भइया, बांसगांव में रहती हूं। कट्टा खुले-आम मिलता है, जिसे आप लोग इंगलिश में कंट्रीगन कहते हैं।’ मुनमुन उसे गोली तो नहीं मारती, लेकिन तलाक का मुकदमा लड़ती है और ससुराल पीड़ित युवतियों की रहनुमा बन जाती है। अपने खिलाफ झूठी शिकायत पर बी.एस.ए. के बुलावे पर उन के कार्यालय में जा कर अपनी तर्क-बुद्धि और निर्भीकता से उन को वास्तविकता से परिचित कराती है। उन्हें मानना पड़ता है कि मुनमुन का पक्ष ही सही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री-मुक्ति में कितनी महत्वपूर्ण है, इसे कथाकार ने कुशलतापूर्वक कथा में रचा है। आंगनबाड़ी कार्यकर्त्ती सुनीता का शराबी पति उस पर नौकरी छोड़ने का दबाव बनाता है। सुनीता मुनमुन से पूछती है, ‘पति छोड़ूं कि आंगनबाड़ी?’ मुनमुन पूछती है, ‘खाना कौन देता है, पति या आंगनबाड़ी?’ जवाब है, ‘आंगनबाड़ी।’ मुनमुन का निर्णय है, ‘तो पति को छोड़ दो।’ पूरी व्यवस्था से संघर्ष करती हुई मुनमुन मेघालय और थाइलैंड की मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था का उल्लेख करती है। ‘मुनमुन राय अब न सिर्फ़ बांसगांव बल्कि बांसगांव के आस-पास की परित्यक्ताओं, सताई और ज़ुल्म की मारी औरतों का सहारा बनती जा रही थी।’ कथाकार मुनमुन के संघर्षशील व्यक्तित्व की स्वीकृति लोक-चेतना के स्तर पर ले जाता है। पान वाला गाने लगता है - ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो बांसगांव की रानी है।’ बांसगांव बस-स्टैंड पर चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी गाने लगते हैं, ‘मेरा चना बना है चुनमुन। खाती बांसगांव की मुनमुन। सहती एक न अत्याचार। चनाजोर गरम।’

इन्हीं परिस्थितियों में पिता को सूचित कर के मुनमुन पी.सी.एस. की परीक्षा में बैठने का निर्णय करती है। स्कूल से छुट्टी लेती है। रात-दिन अथक परिश्रम कर के पी.सी.एस. अफसर बन जाती है। एक ज़िले में एस.डी.एम. के पद पर तैनात होती है। पाठक को क्लाइमेक्स का सुख देने के लिए कथाकार पुराने वाले बी.एस.ए. को एस.डी.एम. मुनमुन को सलाम करते दिखाता है। अशिक्षा, कुशिक्षा और अनेक तरह की रूढ़ियों, कर्मकांडों में फंसी यह जड़ता बांसगांव की ही नहीं, पूरे हिंदी प्रदेश की है। मुनक्का राय मुनमुन से कहते हैं, ‘महिलाओं के लिए बांसगांव की आबोहवा ठीक नहीं है।’ मुनमुन कहती है, ‘महिलाओं के लिए तो सारे समाज की हवा ठीक नहीं है। बांसगांव तो उस का एक हिस्सा है।’ अन्य मुद्दों के संदर्भ में भी यही सच है। पुत्र-मोह पुत्र की महिमा को यहां तक ले जाता है कि पुत्र मनुष्य को पुं नामक नरक से तारता है। इस उपन्यास में एन.आर.आई. बेटा तपे हुए वकील जर्जर वृद्ध पिता से कहता है, ‘ऐसे मां-बाप को तो चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए।’ मां-बाप का कसूर यह है कि दिन-रात शराब पी कर पत्नी को पीटने वाले पति के घर बेटी को झोंटा पकड़ कर क्यों नहीं ठेल देते। जज साहेब इसी कसूर के लिए फ़ोन पर अपनी मां से बहन को रंडी कह कर गाली देते हैं। मां शालीनता से कहती हैं, ‘जज हो, जज बने रहो। जानवर मत बनो।’ दौलत शोहरत सब कुछ कमाने वाले चार भाई बूढ़े लाचार मां-बाप को रोटी दवा तक के पैसे नहीं भेजते। अपने पैरों पर खड़ी होते ही बेटी पहली पोस्टिंग में ही मां-बाप को साथ ले कर जाती है। यथार्थ यह है कि ऐसे पुत्र मां-बाप का जीवन नरक करते हैं, बेटियां नरक से उन का उद्धार करती हैं।

दयानंद की कथा-भाषा निखरती जा रही है। पुराने मुहावरों को नए तेवर दे कर व्यंजकता बढ़ाने में वे समर्थ हो रहे हैं। मुनक्का राय के बेटे राहुल का व्याह थाईलैंड के धनी परिवार में पक्का हो गया। राहुल को एन.आर.आई. बन कर उसी परिवार में रहना होगा। कथाकार लिखते हैं, ‘ अंततः लड़की वाले थाईलैंड से आए और राहुल को व्याह ले गए।’ एन.आर.आई. अर्थात नए किस्म के घर-जमाई की पूरी विडंबना एक वाक्य में मूर्त हो उठी है। अंग्रेजी शब्दों की खपत गांव कस्बे की बोली-बानी में जिस तेज़ी से बढ़ती जा रही है, उस के नमूने इस कथा में मिलते हैं। ‘मुनमुन जो पहले ब्यूटीफुल थी, अब बोल्ड भी हो रही थी। विवेक कहने लगा था ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल।’ पड़ोसी से झगड़ा होने पर मुनमुन ने एस.डी.एम. को फ़ोन मिलाया और रमेश तथा धीरज भइया का रिफरेंस दे कर पड़ोस के झगड़े का डिटेल दिया।. . . . कहा, ‘काइंडली हमें सुरक्षा दीजिए और हमें सेव कीजिए. . . . आखिर आप के भी मांता-पिता आप के होम टाउन या विलेज में होंगे. . . .’ मुनमुन की बातों से एस.डी.एम. कनविंस हुआ और कहा कि, ‘ घबराओ नहीं, अभी थाने से कहता हूं। फोर्स पहुंच जाएगी।’ शुद्धता-वादियों को मान लेना चाहिए कि ये शब्द और प्रयोग आम-फ़हम हो चले हैं।

मुनमुन के विकास की रफ़्तार और ऊंचाई किसी को समस्या के दिवाःस्वप्न वाले समाधान की तरह लग सकती है। जैसे निराला के आरंभिक उपन्यासों ‘अप्सरा’ और ‘अलका’ में प्रख्यात आलोचक डॉ रामविलास शर्मा को लगी थी। ‘काले कारनामें तक आते आते निराला ने सब का समाधान कर दिया था। हिंदी प्रदेश और खास तौर पर पूर्वांचल की रूढ़िग्रस्त आत्महंता जड़ता में से युवक-युवतियों को उबारने के लिए ऐसे ही ब्रांड की ज़रूरत है -मुनमुन ब्रांड की। दयानंद पांडेय इस उपलब्धि के लिए बधाई के पात्र हैं।

समीक्ष्य पुस्तक :

बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

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