Sunday, 18 March 2012

वक्रता

दयानंद पांडेय 

मजदूरों के साथ सड़क के किनारे वाला खेत सिंचवाने में व्यस्त था कि एक बस रुकी। मां शहर से छुट्टी में गांव घूमने आई थीं। मैं कुछ पहले ही आ गया था। लेकिन यह क्या ? मैं तो मां को लेने दौड़ा आया था। रुक क्यों गया ? कारण, चटक चांदनी की-सी साड़ी में लिपटी-सिमटी खिड़की के पास बैठी तुम थी। तुम अपलक मुझे निहार रही थी। मैं हिला जा रहा था। मेरा खेतिहर रूप जाने तुम्हें कैसा लग रहा था। है ना ! तुम्हारे हाथ में कोई अंगरेजी पत्रिका थी, जो आंचल ढलकने के साथ ही सरक गई। मां का सामान बस से उतर चुका था। बस स्टार्ट होने को हुई तो तुम्हारे पास की सीट से किसी महिला स्वर का अभिवादन मां को मिला था। मैं पहचान गया था....तुम्हारी दीदी थीं। तब तो तुम ने मेरी मां से परिचय भी कर लिया होगा, यह सोचते ही बस स्टार्ट हो गई।

अभी आगे बढ़ कर कुछ कहना चाहता था कि, तब तक तुम कुछ कह चुकी थी। लेकिन बस के इंजिन की घड़घड़ाहट के शोर में तुम्हारे शब्द डूब गए थे कि तुम्हारे जबान से चल कर होंठों से टकरा वापस हो गए थे, नहीं जानता। मैं ने तो बस बुदबुदाते होंठ और हिलते हाथों की लहराती बेचैन उंगलियां और डबडबा आई आंखों भर को देखा था। उन्हीं आंखों को जिन में अंगड़ाई लेती पुतलियों के कोरों में झांक-झांक, गुनगुना पड़ता था, ‘तेरे तीन लोक से नयना / मुझ को प्यारे लगते हैं / कर देते हैं घायल / फिर भी प्यारे लगते हैं / निहारे लगते हैं....दुलारे लगते हैं / प्यारे लगते हैं.....तेरे तीन लोक से नयना।’ लेकिन शायद यह आज की आंखें वह आंखें न थीं। इन आंखों में कशिश की जगह अब कोशिश समाई जान पड़ रही थी। बस गई, तुम भी गई। यादें बाढ़ की तरह उफन आईं।

अंगरेजी का क्लास। प्रोफेसर दास सब से कुछ न कुछ जानना चाहते हैं। एक लड़की से पूछते हैं, ‘हवाई यू प्रेफर टू इंगलिश ?’

लंबी-चौड़ी हकलाती भूमिका में एक बोल्ड-सा जवाब मिलता है, ‘आई वांट विजिट टू फारेन टूर, स्पेशली इंगलैंड....।’ बहुतों ने बहुतेरे जवाब दिए थे। कोई अंगरेजशी का यों ही ज्ञान पा लेना चाहता था, बेमकसद। कोई अनुवादक बनना चाहता था, कोई पत्रकार, कोई अंगरेजीदां....। बहुत से बहाने थे, अंगरेजी पढ़ने को। अलग बात है हिंदुस्तानियों की बचकानी अंगरेजी दंग ही करती है। फिर भी नया-नया जोश था, अंगरेजीदां बनने का, अंगरेजी सीखने-समझने का। अंगरेजी तो मैं नहीं सीख पाया, पर कुछ और जरूर सीख गया।

जो भी हो, उस पहले ही रोज से वह लड़की छात्रों के बीच ‘विषय वस्तु’ बनती रही। आए दिन किसी न किसी के साथ अलग-अलग प्रकरणों में उस का नाम जुड़ता-गुंथता रहा। कुछ यार लोग जबरिया अपने-अपने को उस ‘विषय वस्तु’ में रजिस्टर्ड होने की कोशिश में दिल तोड़ते घूमते रहते। उसके कंधे पर कंडक्टरनुमा थैला; जिस का इस्तेमाल रफ कागज, हिंदी-अंगरेजी की फिल्मी पत्रिकाओं से ले कर बाजारू, जासूसी उपन्यासों से होते हुए स्नो क्रीम, पाऊडर, आईना, कंघा आदि न जाने क्या-क्या रखने तक वह किया करती थी।

उस के बैडमिंटन खेलने की अदाओं पर, पैरों के घटबढ़ होने के बावजूद चलतू ढंग से ही सही क्लासिकल से ट्विस्ट तक की खूबियों का ख़ूब खुलासा होता, छात्रों के बीच। वह किसी भी छात्रा से बेबाकी से बतिया कर उल्लू बना देती। अदना-सा चुहुलबाज उल्लू एक मैं भी था, कतार में।

शायद कोई डिवेट्स कांपटीशन था। बहुतेरे छात्रों ने हिस्सा लिया था। वह लड़की भी हिस्सेदारों में एक थी। उस ने फर्स्ट प्राइज मारा, मैं सेकेंड हो गया था। लाइब्रेरी से एक रोज गुजर ही रहा था कि एक कन्या स्वर ‘सुनिए प्लीज !’ ने मन बांध पैरों को थाम लिया। बिना किसी लल्लोचप्पो के वह बोली:

‘डिवेट्स अच्छा दे लेते हैं।’

‘अरे नहीं, अच्छा तो नहीं, हां, हाथ-पांव मार लेता हूं।’

‘ओह !’

‘मैं कहूं, कैसे फर्स्ट हो गई। अरे जनाब हाथ-पांव मारना छोड़, दिमाग पर जोर मारना सीखिए।’

‘आप ने ‘लाइन’ दे दी है तो, कोशिश करूंगा मादाम ! वैसे कोई कन्या लाइन इत्तफाक से अपने नसीब में नहीं।’
‘चलिए यह इत्तफाक हम दिए देते हैं।’

‘इस जर्रानवाजी के लिए शुक्रिया !’

कि लाइब्रेरियन साहेब टहलते नजर आए, हम भी टहल लिए।

हां, उस कन्या लाइन को हमने ख़ूब साधा। माया में मार्निंग शो वाली अंगरेजी मूवी देखते हुए, जब-तब ह्वी पार्क के झुरमुटों में बैठते, उठंगते, नरम मुलायम घास पर टहलते हुए। रेलवे लाइब्रेरी में उमस भरी दोपहरें और सर्द शामें बिताते, दो-चार किताबें उड़ाते हुए। राप्ती की रेत पर टहलते, दौड़ते, किनारा देख-देख बंबइया हिंदी फिल्मों में देखे हुए बंबई का समुद्र सोचते हुए। थक कर लालडिग्गी पार्क की बेंचों पर सुस्ता-सुस्ता एक-दूसरे को हूंसते, चिढ़ाते-चिकोटते हुए।

गणेश होटल के शीशे से लोगों को टटोलते और बॉबीज रेस्तोरां के अंधेरों में अपने आप को हेरते टटोलते हुए। बाहर निकल गोलघर की खुली सड़क पर सहमे-सहमे, अलीनगर और बक्शीपुर की तंग सड़कों पर नजरें झुकाए हम चलते होते। मन एक अजीब ख़ुशफहमी में भटकता भागता होता। बल्लियों उछाल मारता दिल का दलदल दौड़-दौड़ जाता। ठीक वैसे ही जैसे सिविल लाइंस की सूनी-सूनी सड़क पर तुम्हारी साइकिल हौले-हौले दौड़ती....। ऐसी जाने कितनी ही अदाओं में उभ-चूभ डूबे हुए दुनिया की और चीजशें की खोज-ख़बर भुला बैठे हम, शहर में लोगों के लिए खोज-ख़बर बन बैठे थे।

सड़क के किनारे खड़ा, तुम्हारे साथ गई बस को देर तक देखता रहा। बस चली गई, उस के पीछे उड़ती धूल देखता रहा। धूल उड़ गई, दिशा देखता रहा। कब तक देखता भला ? घुप्प अंधेरा हो गया। घर आ गया। बरबस तुम्हारी याद सताने लगी। तरह वही थी कि, ‘याद तुम्हारी आई / जैसे / कंचन कलश भरे....।’ पत्नी चौके में थी। पत्नी को ही ले कर छत पर अंधेरा टटोलते टोहते बड़ी देर तक टहलता रहा। खाना खा कर पलंग पर जाते ही, तुम्हारी गंध आने लगी। सीने में तकिया समेटा, गोया मेरी बाहों में तकिया नहीं तुम हो।

अलसाई नींद में गदराई देह की छुअन मिली। आंख खोली भी नहीं, उसे अपने आप में दबोचता, भरपूर चूमता, चाटता बुदबुदा पड़ा ‘नहीं पश्यंती तुम मुझ से इतर नहीं हो सकती....।’ पत्नी छिटक कर दूर हो गई, ‘आंय यह क्या ? किस को याद कर रहे हो ? शर्म नहीं आती....तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि सोए हो मेरे साथ और याद बिटिया को कर रहे हो....छि....!’ तब याद आया कि पत्नी के साथ सोया हूं....। पम्मी बेटा तो मां के पास सोई होगी।....बरबस मां के बस से उतरने की याद हो आई। पत्नी उचट कर एक ओर हो गई थी।

याद आने लगीं तुम्हारी बेवकूफियां....तुम्हारी इंगलैंड जाने की बचकानी जिद जोर पर रही। जिद की जीत होती रही। तुम ने मुझ से मिलना तक छोड़ दिया....देख कर भी नहीं देखती। देखती तो निर्विकार। गोया मैं आदमी नहीं पेड़ कि सड़क होऊं।....इस बीच तुम्हारे डैडी चल बसे। तुम पर जिम्मेदारियां भहरा पड़ीं। चाहा था कि तुम्हारे दुख को अपना लूं। साथ हो लूं। लेकिन एक किस्म की ग्रंथि तुम्हारे मन में घर कर गई थी। कुंठाएं तुम्हें चारों ओर से जकड़ती चली गईं। अपने आप को तोड़ती दफ्तर-परिवार के बीच एक धुरी बनाती, जोड़ती तुम जाने वक्त के किस चमत्कार को जोहती रहती। और चमत्कार थे कि वक्त के हाथों से खिसकते गए। तुम्हारी जिंदगी की सारी तरतीबें बेतरतीब होती चली गईं। मैं तो क्या बहुतों ने तुम्हें संभलने को कहा। लेकिन तुम भला किसी का कहा क्यों मानती ? बस एक झूठी अकड़ के सैलाब में सड़ती, वक्त की आग में तिल-तिल कर जलती बुझती, तुम को सिवाय अपने दोहरेपन के कुछ रास नहीं आता। हालां कि यह दोहरापन भी तुम्हें कितना रास आया, मुझ से या किसी से भी अधिक तुम ही जानती हो। सोचता हूं, मुझे न सही, तुम ने किसी को तो समझने की जरूरत समझी होती, तो शायद बहारों का रुख़ तुम्हारी ओर भी मुड़ा होता और उस का कोई झोंका कतई तौर पर तो नहीं, शायद बहक कर ही सही, इस अदने लल्लू की ओर भी बढ़ आता। लेकिन कहां ? तुम तो अपना आप ही कहीं खो बैठी थी, कि रूठ बैठी थी नहीं कह सकता।

बाप का बड़ा बेटा कब तक ख़ैर मना सकता था भला....? नौकरी मिली-मिलाई थी, लाख विरोध करने पर भी एक चुड़ईक दोस्त की इस पैरोडी, ‘रहिमन वे नर मर चुके, जिन बियाह को जायं....उनते पहले वे मुएं जिन....’ सुनते-सुनाते शादी की अनचाही खोटी खूंटी पर टांग दिया गया। खूंटी खाती रही, मन सोता रहा। सोते-सोते सुस्त गृहस्थी के फेर ने आ घेरा....। तुम्हारी याद आती तो उछाल दिया करता। बुरी तरह धंसता हुआ। कभी-कभार पुराने यार लोग टांट कर ही बैठते, टालू तौर पर टाल जाता। पर कहां टाल पाया ....अब भी तुम्हारी याद की सूली पर सवार हूं। जब-तब इस सूली पर चढ़ता ही रहता हूं, शायद नियति हो गई है।

घर में बिटिया पैदा हुई। जान-बूझ कर इस का नामकरण तुम्हारे नाम से किया। यह सोच कर कि तुम नहीं, न सही, बिटिया तो मेरी रहेगी।....पश्यंति बेटी के रूप में। इस तरह मेरी बिटिया बन कर तुम मेरे मन-मानस, घर-देहरी और आंगन में अपने से कहीं अधिक विस्तार पा चुकी थी। फिर भी तुम और तुम्हारी याद ! झकझोर-झकझोर जाती। मन का पोर-पोर पिरा उठता। समय की सूली, तुम्हारी याद की सूली से धारदार नहीं लगी मुझे। बीता समय भी तुम्हारी याद न धो सका। फिर भी समय तो बीतता ही गया।

कभी सुना था कि तुम्हारी भी शादी-वादी हो गई....। पर आज तुम्हारी सूनी मांग देख कर विकल हो गया। अलबत्ता उस अदा में नहीं कि, ‘कोई विकल हुआ है / किसी रूप की कृपा है / है मेरे भी ऊपर....’ हां इस अदा की चुभन जरूर थी। पत्नी को भी तुम्हें ही समझ बैठा....। ओफ्फ ! तुम्हें भुलाता बहुत रहा। बहुत तरहें अख़्तियार की इस भुलाने ख़ातिर....। शुरू में तो तुम्हारे प्रतिशोध में कुछ कन्याओं से खेला। उन्हें जी भर कर उलीचा। उलीच-उलीच तबाह करता रहा। कुछ समय बाद पाया कि वह तुम्हारी बिरादर कन्याएं तबाह हुई हों, न हुई हों, मैं जरूर तबाह हो गया। अपनी अमानवीयता से आजिज, वापस घर की राह याद आई। नहीं गया घर। इस लिए कि उस शहर में तुम्हारे होने का अंदेशा था। भुलाता रहा तुम्हें। शहर-दर-शहर भटकता, नौकरियां करता, छोड़ता-झुलसाता रहा, अपने आप को। नहीं झुलसा मैं। झुलसता गया मेरा वक्त, झुलसा मेरा कैरियर, झुलसा मेरा अहं।, झुलसे मेरे आस- पास और परिवार के लोग। पर मन मेरा नहीं झुलसा। कभी नहीं।

तुम्हें भुलाने की ख़ातिर इस ‘झुलसने’ से ‘झांकने’ की एक लंबी प्रक्रिया है। तुम नहीं समझ सकोगी। तुम्हारे पास वक्त नहीं होगा। न ही समझ सकने लायक मन। यकीन मानो, अब भी मेरा व्यक्तित्व अपने नहीं तुम्हारे परितोष के लिए उद्वेलित हो उठा है। हां, तुम्हीं ने तो मुझे परितोष बनाया था। याद है तुम्हें, कि तुम ने कहा था, ‘अनु, एक बात कहूं।’

‘कहो।’

‘यह तुम्हारा अनु नाम घर में चले तो चले, मेरे साथ नहीं चलेगा।’

‘आज नाम की बात कर रही हो कि घर में चले तो चले, मेरे साथ नहीं। क्या ख़बर कि कल मेरे व्यक्तित्व को भी यूं ही किक कर दो और फिर मेरे मन को। प्यार को भी !’

‘अरे नहीं बाबा ! देखो तुम बेवजह सेंटीमेंट की गिरफ्त में आ जाते हो....मैं भला क्यों सोचूंगी, सोचें मेरे दुश्मन ! मैं ने तो सोचा कि....’

‘कि आलू गोभी रख दें।’

‘धत् ! मैं तो तुम्हें परितोष कहूंगी। परितोष....हूं !’

ठीक भी था, पश्यंति और परितोष। दोनों देखने में अलंकारिक। एक-दूसरे के समानांतर। अब सोचता हूं तो पाता हूं कि नियति भी इसी समानांतर के साथ गुंथी रही, कुछेक छिटपुट क्षणों को छोड़, हम दोनों हमेशा समानांतर ही रहे। हमेशा के लिए होते गए। कोई वक्रता नहीं, न ही कोई तिर्यक, जो एक-दूसरे को काटते हुए मिला सके और कि अनर्थ का अर्थ काट कर अर्थवान अर्थ दे सके।

सुबह देर से उठा था। आदत है सुबह देर तक सोने की। रात-भर जागता जो हूं। अख़बार पढ़ नहीं, पलट रहा था। फोन की घंटी बजी। मैं ने ही उठाया, ‘यस प्लीज....’ और ‘पम्मी, तुम्हारा फोन’ कह कर अख़बार फिर से पलटने लग गया। लेकिन अचानक फोन पर बतियाती पम्मी के मुंह से परितोष नाम सुन कर विचलित हो गया। पम्मी की बात-चीत सुनता रहा ‘....हां, परितोष....! हां-हां....पापा घर पे ही हैं। उन्हों ने ही तो फोन रिसीव किया था ! आ रहे हो ना। ऊं हूं ? यहीं आ जाओ न प्लीज ! ममी नहीं आना चाहतीं ? देखो उन्हें किसी तरह कनविंस तो करो। तुम समझते क्यों नहीं ? अच्छा चलो भई, तुम्हारी ही सही, मैं ही आई। ओ॰ के॰।’

इस परितोष नाम से पम्मी की बात अकसर होती रहती। अकसर वह उस से मिलने भी जाती रही। चाहता था, पूछूं उस से कि यह परितोष कौन-सी बला है? लेकिन पूछने भर का साहस कभी बटोर न पाया। पूछने की सोचता तो अतीत का बीहड़ भयावह लगने लगता। अतीत झुलसा-झुलसा जाता। जब्त कर जाता अपने आप को। फिर जब से पम्मी की ममी नहीं रहीं थी, पम्मी की आजादियों में बचकानी गृहस्थी का लटका लटक गया था। बची-खुची उस की आजादी में खलल नहीं डालना चाहता था, न ही उस की नीयत पर किसी किस्म का अंदेशा। शक-सुबहे जैसी कोई दीवार हम बाप-बेटी के बीच कभी रही ही नहीं। एक अंडरस्टैंडिंग थी, जिसे हम दोनों बाख़ुशी पा लेते। लेकिन इस बार इन सारी चीजों से परे हो कर सोचने लग गया था। जब कि न तो ऐसी मेरी आदत थी, न ही इस किस्म का संस्कार। फिर भी....। बहुत दिन हुए उन का यह चक्कर चलते हुए। मैं कुछ न भुला कर भी नार्मल-सा हो गया था।

सर्दियों की ही कोई सुबह थी। फोन की घंटी गुनगुनाई....मैं उठूं-उठूं कि पम्मी दौड़ कर फोन पर झूल गई। जाने क्या गुप-चुप खुसफुस स्टाइल में बतियाती रही। कान लाख लगाए रहा, कुछ सुन नहीं पाया। सिवाय, ‘ओ॰ के॰ बाबा’ जो वह बहुत ही जोर से बोली थी।

रिसीवर रख कर, उछलती-बहकती, किचेन में चली गई। थोड़ी देर बाद सहमती, सकुचाती आई। बोली, ‘पापा !’ मैं ने कहा, ‘हां, कहो ।’ बोली, ‘एक ब्वायफ्रेंड आ रहा है....।’

‘अच्छी बात है। आने दो।’

‘वो तो है। बट यू बिहैव नार्मली। प्लीज !’

‘कोई ख़ास बात है क्या ?’

‘नहीं बस यूं ही।’ कहती हुई वह अपने कमरे में चली गई। मैं कॉफी पीता रहा। थोड़ी देर बाद किंचित शर्मीला-सा एक लड़का आया। सधे-सधाए ढंग से ‘मार्निंग’ कर के बैठ गया। बात ही बात में उस ने बताया कि वह कोई डिप्लोमा कोर्स कर रहा है। पिता आर्मी में कैप्टेन थे। वार में शहीद हो गए और अब वह अपनी ममी के साथ रहता है। दोस्तों में पम्मी उस की अच्छी दोस्त है। बात ही बात में यह मालूम होते देर न लगी कि उस की ‘ममी’ कौन थी। मेरा दिल पहली बार तुम्हारी याद में धड़कने के बजाय बैठने सा लग गया। बड़ा नर्वस सा हो गया। पम्मी को बुलाया और यह कह कर कि ‘अभी आता हूं’ पार्क की ओर चला गया।

नरम मुलायम धूप की आंच में तुम्हारी यादों का मोम पिघलने लगा। पार्क की बेंच पर बैठे हुए तुम्हारे सामानांतर नाम का उद्घोष मन में धौकनी की मानिंद धौंक रहा था। क्या पम्मी उसे वक्र बना सकी होगी ? या कि....? इसी उधेड़बुन में था कि एक थुलथुल-सी गोलमटोल महिला पैरों को तौलती हुई सी आती नजर आई। बतर्ज दुष्यंत, ‘तू किसी रेल-सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा थरथराता हूं’ का सा एहसास मन पर छा गया। सहसा वह रेल मेरी छाती पर आ कर रुक गई थी।

औरत फुसफुसाई, ‘परितोष !’

गजब ! कितने परितोष हो गए साले, समझ नहीं आया। इधर-उधर देखा। मेरे और उस के सिवा आसपास कोई भी नहीं था।

‘क्षमा करेंगी, मैडम, शायद आप को गतलफहमी हुई है। मैं अवनींद्र हूं, अवनींद्र नाथ।’ भावुक होता हुआ बोला था मैं।

‘हां, सच हमें गलतफहमी हो गई थी, अनु ! माफ नहीं करोगे....प्लीज ! सेंटीमेंटल मत होवो। बी रिलैक्स।’

‘डोंट बी सिली यार ! मैं तुम्हारा परितोष ही हूं। हां....। ‘कहते हुए उस घोर सर्दी में भी मैं पसीना-पसीना हो गया था। मेरा वह पुल थरथरा कर खंड-खंड हो चुका था।

‘देखो, मानती हूं कि तुम ने अपनी बिटिया को मुझ जैसा ही बनाना चाहा है, पर तुम उसे बना नहीं पाए, मुझ जैसा। मैं कांपलेक्सिव थी, वह नहीं है। सहज है वह तुम्हारी ही तरह। हालां कि तुम ने उसे मेरे रूप में ही पाला-पोसा है, बड़ा किया है, मुझ से कहीं अधिक प्यार दिया है। मैं अभागी थी। जानते हो, तुम्हारे प्रति मेरा प्यार और बढ़ गया है। किशोर वय का उछाल मारता प्यार, आज पुख्ता हुआ जान पड़ता है। पर तुम शायद नहीं जानते हो, तुम्हारे लिए कितनी तो बेचैन रही हूं। तुम्हारी एक झलक पा लेने भर को तरसती रही हूं। लेकिन अभिशप्त थी इस हसरत को दफनाने की ख़ातिर। तुम पुरुष हो, कुछ ऐसा-वैसा सोच कर या उस को अंजाम दे कर भी सहज रह सकते हो। औरतों के साथ स्थिति दोमुंही है। अगर वह कुछ ठीक भी सोचती हैं, या कर गुजरने की तमन्ना रखती हैं तो वह हवा के ख़िलाफ हो गई मानी जाती हैं। तुम पुरुष हो। हवा के ख़िलाफ हो कर टूटने के बावजूद एक किस्म का रोमांच महसूस लेते हो। लेकिन औरतें लाख अपने को उन्मुक्त समझती हों, इस स्थिति में असहाय साबित होती हैं। ऐसे टूटती हैं, गोया बदन के भीतर कांच टूटे। और ये कांच मन छील-छील इतना विदीर्ण कर जाता है कि मत पूछो। मेरा मन विदीर्ण तो नहीं हुआ है, छलनी जरूर हो गया है। तुम्हें नहीं मालूम, हवा के ख़िलाफ न चल कर भी मैं चली। भीतर ही भीतर मैं तपती रही। डैडी के गुजरने के बाद घर की सारी छतों की दीवार बाख़ुशी बन गई। बनी रही। लेकिन अपने लिए कितनी दीवारें, अभेद्य दीवारें खड़ी कर लीं, बहुत बाद में जान पाई। तब जब सारी छतें, मुझे नंगा कर गईं। मैं ठूंठ दीवार बन कर भहराती गई। कोई नहीं आया मुझे संभालने। तुम भी जाने किस दुनिया में भटक रहे थे। वैसे तुम से मैं ने कोई उम्मीद भी न की थी।

‘जाने भी दो, बीते दिनों का लेखा-जोखा कुछ छीनेगा ही, देने वाला नहीं। बस इतना जानो कि जिंदगी जीने का संबल मैं तुम से ही पाती रही। मेरे अनजाने में तुम ने, जो मेरे लिए किया, मैं नहीं जानती ठीक-ठाक। मैं तो बस तुम से जीने का अर्थ पाती रही। न पा कर भी, अपने आप में तुम्हें संजोती रही। एक बार तो इतना बेचैन हुई कि तुम्हें एक लंबी चिट्ठी लिख मारी, जिस में तुम्हारे साथ रहने की बात भी तय की थी। लेकिन तुम्हारा कोई अता-पता न था, मेरे पास। एक बार तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा पता मिला भी तो बेकार साबित हुआ। तुम जरमनी गए हुए थे। सोचा, चिट्ठी उसी पते से पोस्ट करा दूं। पर जाने किस मनोविज्ञान ने इरादा बदल दिया। जाने कितनी बार इरादे बनते-बदलते रहे। मैं भी बदलती गई। लेकिन बदलाव के हर अंतिम मोड़ पर आ कर यही लगा कि कहीं कुछ बुनियादी तौर पर गलत हो गया है। और तुम्हें याद है तुम ने एक बार कहा था, ‘सब कुछ गलत हो, हो ले। बुनियाद से दुरुस्त होने की संभावनाएं बनी रहती हैं। कम से कम जिंदगी के मामले में तो यह होना ही चाहिए। हालां कि यह बहुत ही मुश्किल काम है। कहां हो पाता है, यह बात मुझ पर इस तरह चस्पा हो जाएगी, तब सोच भी नहीं सकी थी।’

‘अब तो सोच लिया न, समझ भी लिया होगा। अच्छी बात है। जिस बुनियाद की तुम बात कर रही हो, इस बुनियादी शुरुआत की इब्तिदा उम्र के किसी पड़ाव से हो सकती है। और इस हिसाब में कोई भी हवा ख़िलाफ भले ही पड़ती हो, कुछ बहुत असर नहीं डाल पाती। और फिर जो तुम्हारे भीतर की बात जशेरदार हो तो यह असर बड़ी आसानी से चाटा जा सकता है, उड़ाया जा सकता है। क्यों कि यह, देखने में भारी-भरकम जरूर जान पड़ता है, और कि कहीं जानलेवा और बोझिल भी। पर बेसिकली यह होता कमजशेर ही है। बस जरा दम और हौसले की जरूरत होती है।’

‘हमारी उमर अब चढ़ाव-उतार के अजीब मझदार में हैं, तिस पर भी हौसलों को अपने ऊपर न्यौछावर करना समझ नहीं आता। बल्कि सच यह है कि औरत होने के नाते अपने को बहुत कमजोर पाती हूं। बाहर से भले ही बहुत पुष्ट और दृढ़ बातें कर लूं; पर भीतर से, सुलूक के स्तर पर नितांत खोखली हुई पाती हूं, अपने आप को। यह कसूर हमारे कद्दई किस्म के संस्कारों का है, जो औरतों के लिए एक कंटीली लक्ष्मण रेखा खींच, बीहड़ों-बियाबानों में उतार कर अभिशप्तता का लबादा उढ़ा गया है। तुम कहोगे कि लबादा उतार फेंको। मैं पूछती हूं, तुम कितनी औरतों से यह कह सकते हो, और कि तुम्हारे जैसे कितने लोग हैं यह कहने वाले कि ‘यह लबादा उतार फेंको।’ बल्कि यह भी कि कितनी औरतें हैं जो यह लबादा उतारने को तैयार होंगी। जहां तक मैं समझ पाई हूं, अपने बीच की औरतों को, वह तो यह बात भी सुनने को राजी न हों। भले ही वह घुट-घुट कर जीती हों, वह कहीं से अभिशप्त बना दी गई हैं, यह मानने को भी तैयार न होंगी। उस के खिलाफ हो पाने के बारे में कुछ सोच पाना भी बेमकसद जान पड़ता है उन्हें। क्यों कि वह उस में ही खुश रहना सीख गई हैं। वह अभिशप्तता, उन की धरोहर है, कहीं कम, कहीं ज्यादा। फर्क बस इतना ही है। वह सब कुछ समझते हुए भी नहीं समझना चाहतीं। इस लिए कि वह कभी किसी किस्म का रिस्क लेना नहीं सीख पाई हैं। और जिस दिन वह यह रिस्क लेना जान लेंगी, तुम्हारे जैसे मर्दों को इस या उस तरह का कुछ कहने की जरूरत ही नहीं होगी। और जिस दिन यह होगा, होगा जरूर, उस दिन एक नए किस्म की अराजकता भी पनप सकती है, जो सुखद भी हो सकती है और तकलीफदेह भी।’

‘पर होगी मानवीय !’

‘हां, तुम कहते हो तो मान लेती हूं। वैसे तुम्हारा कहना कहीं ठीक भी जान पड़ता है। लेकिन छोड़ो यह सब। ऐसा कुछ बतियाने नहीं आई यहां....वैसे भी इस टकराव में जाने मंजिल मिले कि खो जाए, एक रिस्क ही होता है। बात असल यह है कि तुम्हारी बिटिया और मेरे बेटे की दोस्ती एक लंबे अर्से से चली आ रही है। उन की दोस्ती, अब दोस्ती से कुछ अलग की भी मांग करने लगी है। तुम नहीं जानते मैं ने अपने बेटे को, तुम जैसा ही लल्लू डीलडौल दिया है, तुम्हारे अनुरूप ही संजोया है, तुम्हारा ही मन बोया है। अब हमारे साथ जो हुआ सो हुआ, अब इन के साथ तो ऐसा वैसा कुछ न होने दो प्लीज....!’

‘देखो, पश्यंति, इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए तुम्हें। इस लिए बस भी करो पश्यंति ! अब आख़िर चाहती क्या हो, मेरी बिटिया की जिंदगी भी मेरी जैसी हो जाए। जहर घुल जाए !’

‘शायद तुम भूल रहे हो कि मैं परितोष की मां हूं।’

‘नहीं, भला यह कैसे भूल सकता हूं। बिलकुल फिल्मी किस्म का यह मोड़ मुझे कुछ सोचने नहीं दे रहा। कोई फैसला नहीं लेने दे रहा। एक अजीब-सी आशंका मन को डुबाए ले जा रही है।’

‘तुम्हारा विवेक और सुलझा हुआ दिमाग कहीं बिखर तो नहीं गया ? चीजों के प्रति सोचने-समझने का वह स्वस्थ नजरिया किस गोते में गंवा आए हो। समझ नहीं पा रही। मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज !’

‘एक और बिखराव ख़ातिर ?’

‘नहीं, बिखरे हुए को सहेजने ख़ातिर मन अपना साफ करो।’

‘कहा न, कोई फैसला नहीं ले पा रहा।’

‘देखो बिफरो नहीं। बात हमारे या तुम्हारे फैसले की है भी नहीं। फैसला तो उन्हें ही लेना है। हम सिर्फ कोशिश कर सकते हैं। अलग बात है इस में हमारा एक गहरा स्वार्थ होगा....जो तुम्हें कहीं पवित्र लगेगा। अपने बीच के इस उमस-भरे समानांतर की घुटन को, इस समानांतर रेखा की नियति को इन के माध्यम से कोई तिर्यक देना, कोई वक्र खींचना....शायद यह स्वार्थ पूरा होना ही नियति हो।’

‘लेकिन यह अचानक तुम्हारा हृदय-परिवर्तन ? समझ नहीं आया।’

‘तुम कहा करते थे न, आदमी को करीब से करीबतर होने के लिए संबंधों में कहीं वक्र होना जरूरी होता है, चाहे वह किसी भी बिंदु पर हो....पर हो।’ मुझे यही बिंदु मिल पाया है, उसे छोड़ना नहीं चाहती, अपनी भरसक नहीं छोड़ूंगी। आज पहली बार तुम्हारे किसी टांट पर मैं नाराज नहीं हुई हूं। सो जानो कि यह हृदय- परिवर्तन है जरूर, पर अचानक नहीं, इस की एक लंबी और दुरूह प्रक्रिया है। वैसे इस परिवर्तन की इब्तिदा में तुम्हारी मां हैं।’

‘अच्छा ! लेकिन मां को गुजरे जमाना हुआ....तुम्हारी भेंट कब हुई ?’

‘पहले तो तुम तिनके जैसी बातों और घटनाओं का भी पूरा-पूरा ब्यौरा रखते थे, कहूं कि मन में बांध रखते थे, यह कैसे भूल गए भला ? याद नहीं ? बहुत बरस पहले, बस से तुम्हारे गांव से हो कर गुजरी थी तब यह परितोष छोटा ही था। तुम्हारी मां और तुम्हारी पम्मी उस बस से उतरी थीं, तुम दौड़े-दौड़े धोती खुंटियाते आए थे। उसी बस से दीदी के साथ मैं इलाहाबाद जा रही थी। तुम ने हमें देखा भी था। मैं ने तुम्हें देख हाथ उठाया था। कुछ कहा भी था। तुम सुने ही नहीं भला !’

‘पर तब मां ने मुझ से कुछ नहीं बताया था !’

‘मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, इन दोनों की जोड़ी ख़ूब फबेगी। मेरी मानो तो अपनी कमी इन दोनों से पूरी कर लेना। तुम लोगों का मलाल धुल जाएगा।’ मैं फफक पड़ी थी।’

‘फफक तो तुम अब भी रही हो।’

‘तब में, अब में बड़ा फर्क है....तुम नहीं महसूसते ?’

‘महसूसने से फायदा भी क्या है, सिवाय झुलसने के और क्या हासिल है ?’

‘देखो यह अपनी देवदासाना अदा अब बटोरो, और सोचो कि अब तुम कुछ और हो कि हर वक्त बच्चे ही बने रहोगे ? देखो बच्चे उधर से इधर ही आ रहे हैं।’

‘वक्रता’ का मराठी अनुवाद 

वक्रता


मजूरांसोबत,रस्त्या लगतच्या शेतात पाणी देत होतो, तेव्हढ्यात एक बस थांबली.आई सुट्टी घालवायला आमच्या खेडे गावाला आली. मी काही दिवस आधीच आलो होतो. पण हे काय? मी आईला घ्यायला धावतच आलो. मधे थांबलो कसा ? कारण चटक चांदणी साडी ल्यालेली तू खिडकी जवळ बसली होती. तू अनिमीष नजरेने माझ्याकडे पहात होतीस.अंतरबाह्य माझे मन ढवळून निघाले. माझे हे शेतकर्याचे रूप तुला कसे वाटत होते कोण जाणे हो न! तुझ्या हातात इंग्लिश मासिक होते,पदर सरकला तसे मासिक ही सरकले.आई चे सामान एव्हाना बस मधून उतरवले. बस चालू होणार तेव्हा तुझ्या बाजु च्या सीटवरुन महिला स्वरात अभिवादन माझ्या आई साठी आले. मी ओळखले ..तुझी ताई होती.मग तर तू माझ्या आईशी परिचय करुन घेतला असणार, बस चालू झाली.
पुढे येवून काही बोलणार तर तूच काही तरी बोलली होतीस, पण बसच्या इंजिनच्या खडखडाटात तुझे शब्द विरले की तुझ्या वाचेने तू ,ऊच्चारले ते ओठावर आदळून परत गेले, नाही माहिती. मी फक्त पुटपुटणारे ओठ आणि हलणार्या हाताचे बेचैन थरथरणारे बोट आणि डबडबलेले डोळे एवढेच पाहीले. त्याच डोळ्यांत नाचणार्या बाहूल्यांच्या कोरांवर कटाक्ष टाकत मी गुणगुणायचो,
तुझे त्त्र्यलौक्य सुंदर लोचने,
मला मोहवणारे
करतात मला जखमी
तरी तू मला प्रिय नेहमी
कदाचित ते डोळे हे नाहीत. ह्या डोळयात आता शल्य नव्हते ,आता प्रयत्न होता.बस गेली ,तू पण गेली. स्मृतींना मात्र आता ऊधाण आले.
इंग्लिश चा तास.प्राध्यापक दास प्रत्येकाला काही न काही विचारत होते .एका मुलीला विचारले ,’तू इंग्लिश विषय का निवडला?’
अडखळत तरी ही धिटाईने उत्तर आले ‘मला परदेशात सहलीला जायचे आहे, खास करुन इंग्लंड.’
खूप वेगवेगळे उत्तर आले. कोणी इंग्लिशचे ज्ञान घेऊ पहात होते.कोणाला अनुवादक तर कोणाला पत्रकार व्हायचे होते.खूप बहाणे होते इंग्लिश शिकण्यासाठी. हिंदुस्तानींची बालिश इंग्लिश भाषा दंग करत होती.तरी पण नवीनच उत्साह इंग्लिश शिकण्याचा, समजण्याचा. इंग्लीश तर मी शिकलो नाही. वेगळे च काही मात्र शिकून घेतले.
काही असो ,ती मुलगी मात्र विषय वस्तु बनली. दर रोज कोणा कोणा सोबत कुठल्या तरी प्रकरणात
तिचे नाव गुन्तत होते.काही मित्र जबरदस्तीने ह्या विषय वस्तु रजिस्टर मधे स्वतःचे नाव नोंदवण्याचा प्रयत्नात प्रेमभंगाने विदीर्ण होत होते.तिच्या खांदयावर कंडक्टर सारखी पर्स असायची.त्यात ती रफ कागद,हिंदी इंग्रजी पत्रिका, हेरगिरीचे बाजारू पुस्तक,स्नो ,पावडर,आरसा,कंगवा आणखी काय काय ठेवत होती.
तिच्या बॅडमिंटन खेळाचे कौशल्य, दोन पायात असणारा फरक असताना सुद्धा क्लासिकल पासून ट्विस्ट पर्यन्त तिच्या सगळ्या खुब्यांवर चर्चा होत होती मित्रांमधे.कोणाही विद्यार्थ्याशी ती बेधडक बोलत त्याला उल्लू बनवत होती.त्या रांगेत एक तुच्छ ,विदूषक उल्लू मी सुद्धा होतो.
एका वादविवाद स्पर्धेत खूप जणांनी भाग घेतला होता . तिने पहिला क्रमांक पटकावला ,माझा दूसरा क्रमांक होता. वाचनालयातून बाहेर पडलो आणि एक कन्या स्वर आला, ‘कृपया ऐका’पाय खिळून थांबलो. कुठले काही इकडचे तिकडचे न बोलता थेट विषयाला हात घालून ती म्हणाली,
‘वाद विवाद चांगला करता तुम्ही .’
‘अरे नाही, चांगले नाही ,थोडे फार हात पाय मारतो.’
‘ओह!’
‘मी तोच विचार करत होते ,मी कशी पहिली आले. आता हात पाय मारणे सोड, बुद्धी वर जोर लाव.’
‘तुम्ही लाइन दिली तर आता प्रयत्न करतो,मॅडम. कन्या लाइन योग तर नशिबात नाही.’
‘चला हा योग मी देते.’
‘ह्या स्तुति करता आभार !’
वाचनालयाचे व्यवस्थापक बाहेर फिरत राहिले.आम्ही निघालोच मग.
ही कन्या लाइन मी खूप साधली होती. माया टाॅकीज मधे आम्ही सकाळचा इंग्रजी सिनेमाचा शो ला जायचो,कधी पण बागेत हिरवळीवर फिरायचो.कधी रेल्वेच्या वचनालयात भीषण गरमीची दुपार, कधी दमट संध्याकाळ दोन चार पुस्तकांचा फडशा घालवायचो. नदी किनारी रेतीत फिरायचो, धावायचो,
किनारा पाहाता पाहता, मुंबईच्या हिंदी सिनेमा हृदयात, डोक्यात असायचा.थकून भागून लालडिग्गी बगिच्यात बाकावर एकमेकांसोबत पहुडायचो, चिडवायचो, चिमटे काढायचो.
गणेश होटेलच्या आरशांमधे इतर लोकांना न्याहाळत ,बॉबी रेस्टोरंटच्या अंधार्या गल्लीत स्वतःला पारखत,सांभाळत बाहेर येऊन गोलघरच्या खुल्या सडकेवर घाबरत घाबरत ,अलीनगर आणि बक्शीपूर च्या चिंचोळ्या रस्त्यांवर नजरा खाली करुन फिरायचो. मन एका वेगळ्या सुख स्वप्नात भटकत असते.बॅट वर आलेल्या चेंडू सारखे हृदय उसळून धाव धाव धावते.अगदी तसेच जसे सिविल लाइंसच्या निर्मनुष्य सडकेवर तुझी साइकल हळूहळू धावायची.असे किती तरी प्रसंग,आशा निराशेचा खेळ आणि सगळे काही विसरून,आम्ही वेगळ्याच धुंदीत,आम्ही आता जगासाठी एक बातमी झालो होतो.
सडकेच्या काठावर,तुझ्या सह गेलेल्या बसकडे पहात उभा राहिलो. बस गेली,तिच्या मागची धूळ पहात आहे.धूळ उडाली,ती दिशा पहात राहीलो.किती वेळ पहाणार? अंधार गडद झाला.घरी आलो.
तुझी खूप आठवण येत होती.त्या जुन्याच गीताच्या ओळी पुन्हा ओठावर होत्या, ‘याद तुम्हारी आये,
जैसे , कंचन कलश भरे.’ पत्नी स्वयंपाक खोलीत होते.पत्नीलाच घेवून गच्चीवर अंधार पारखत, नीरखत खूप वेळ फिरत राहीलो. जेवण करुन पलंगावर बसलो .तुझा गंध येत राहीला. उशी घट्ट दाबून धरली जशी काही तूच मीठीत होती आळसावल्या झोपेत देहाला सुखस्पर्श .बंद डोळे, स्पर्श सुखात मी बेधुंधीने म्हणालो,नाही,पश्यंती , तू .मला सोडून जाऊन नाही शकत.’पत्नी रागाने दूर झाली. हे काय,कोणाची आठवण करता? तुम्हाला लाज नाही वाटत….तुम्हाला काही वाटत नाही , झोपले इथे आणि आठवण मुलीची ..छी छी…! तेव्हा आठवले की ,पत्नी सोबत आहे. पम्मी बेटा तर आई सोबत झोपली. आई आज बस मधून उतरली, आता आठवले.पत्नी दूर ,कडेला झोपली .
आठवत राहीलो ,तुझा बेवकुफपणा...तुझा इंग्लंडला जायचा बालिश हट्ट. तुझ्या हट्टाचा जय झाला नेहेमी. तू मला भेटणे बंद केले,पाहून न पाहीले असे दाखवत होती.पाहीलेस तर निर्विकार होतीस.जसे काही मी झाड होतो सडकेवरचा.त्या दिवसांत तुझे वडील गेले.तुझ्यावर जबाबदार्यांचा डोंगर होता. वाटत होते की तुझे दुःख वाटून घ्यावे.तुझ्या सोबत असावे.पण एक प्रकारची गाठ तू मनात ठेवलीस.तुझा निराशा जनक भाव वाढत होता.स्वतःला सोडून तू घर आणि कार्यालय ह्या चरखात तू पिचून जात होतीस, ह्यातून बाहेर पडण्यासाठी कुठल्या तरी चमत्काराची वाट पहात होती. चमत्कार मात्र काळाच्या
हातातून निसटत राहीले.तुझ्या आयुष्याचे व्यवस्थापन अगदी विस्कळीत झाले होते.मीच काय, सगळ्यांनी तुला सांभाळून रहायला सांगितले.पण तू कधी कोणाचे का ऐकशील?बस, एका खोटया प्रौढीच्या पूरात सडून, काळाच्या वणव्यात तीळ तीळ जळत, भाजत असणारी तू, तुला तुझ्या दुटप्पी पण सोडवत नव्हते. खरे तर हे दुटप्पीपण निभावणे किती कठीण होते हे माझ्यापेक्षा तुलाच जास्त चांगले समजत होते. विचार करतो,माझा नाही पण कोणा दुसर्याचा तर विचार करायचा होतास,तर तुझ्या आयुष्यात वसंत फुलला असता ,त्याची एक लहर माझ्या सारख्या क्षुल्लक माणसाच्या वाटेला आली असती. पण असे कुठे होते? पण तू स्वत्व विसरली होती ,रूसली होतीस!
वडिलांचा मोठा मुलगा किती दिवस असा एकटा राहिला असतो. नोकरी मिळाली. लाख विरोध केला पण लग्नाच्या खूंटाला बांधून टाकला. एक द्वाड मित्र तर एक गाणे गायचा, ‘रहीमन वे नर मर चुके,जीन बियाह को जाय…’ लग्नाच्या नको असलेल्या खुंटीला टांगला गेलो.मन आता निद्रिस्त होते आणि आता संसाराच्या फेर्यात अडकलो होतो. तुझी आठवण यायची ती उडवून लावायचो,तरी ही त्यातच आत धसत जात होतो. कधी कधी जुने दोस्त ओढायचे, पुनः तेच. टाळून द्यायचो. पण खरे तर कुठे टाळता येत होते....अजून ही तुझ्या स्मृतींच्या सुळावर तर स्वार आहे.जेव्हा तेव्हा ह्या सुळावर स्वार रहातो.
हीच नियती आहे.
घरात कन्या जन्मली.जाणीवपूर्वक तिला तुझेच नाव दिले.हा विचार केला ,तू नाहीस तर नाही, माझी मुलगी तर माझीच राहील….. पश्यंति बेटीच्या रूपात. अशी माझी कन्या बनून तू माझ्या मनी मानसी,
घर, उम्बर्यात, अंगणात स्वतः पेक्षा अधिकच विस्तारीत झाली. तरीही तू, तुझी आठवण बेचैन करत होती.मनाचा कोपरा न कोपरा व्यथित होत होता .काळाचा शुल , तुझ्या आठवणीच्या शुलापेक्षा धारदार नाही वाटत मला.गेलेला काळ सुद्धा तुझी आठवण धुवून टाकू शकला नाही.पण तरी ही काळ लोटला होता.
कधी तरी ऐकले ,तुझे ही लग्न झाले.पण आज तुझे उजाडलेले कपाळ पाहून व्यथित झालो . तुझी दयनीय अवस्था पाहून खूष नाही झालो .एक मात्र होते, तुझ्या अहं ची बोचरी टोचणी होती
पत्नी ला ही तूच समजत राहीलो…ओह, तुला विसरत राहीलो. खूप जबरदस्त प्रयत्न करत होतो , तुला विसरण्यासाठी. सुरुवातीला तर खूप कन्यांशी खेळ केला , तुझ्या प्रतिशोधासाठी. त्यांच्या वर चिखलफेक केली. काही काळा नंतर लक्ष्यात आले, तुझ्या जमातींतल्या मुलींना बदनाम करुन त्यांना बरबाद करता करता,त्या झाल्या की नाही ठावूक नाही पण मी मात्र पुरता उध्वस्त झालो. स्वतः च्या अमानवीयतेने लाचार होऊन ,गावाकडच्या घराची आठवण आली.नाही गेलो घरी. ह्या साठीच की तू दिसण्याचा धोका होता. तुला विसरत राहीलो.गावोगावी भटकत राहीलो.नोकरी बदलत राहिलो. जळत भाजत राहीलो.मी नाही, माझा वेळ,माझे करियर,माझा अहं पोळून निघाले.पोळून निघाले, माझ्या आजुबाजुचे लोक आणि माझा परिवार .पण माझे मन कधीच नाही पोळले. कधीच नाही.
तुला विसरताना ह्या भाजून निघण्यापासून ते परत डोकावणे ही एक लांब लचक प्रक्रिया होती. तू नाही समजू शकत.तुझ्याजवळ तेव्हढा वेळ ही नसेल समाजण्या जोगे मन सुद्धा नसेल.विश्वास ठेव , अजूनही माझे मन ,माझ्यासाठी नाही तर तुझ्या परितोषसाठी माझे मन ओसंडत आहे. तूच तर मला परितोष बनवले होते. आठवते का तुला, तू म्हणाली होतीस,
‘अनु,एक सांगू .’
‘सांग.’
‘हे तुझे अनु नाव घरी चालेल पण माझ्या सोबत नाही चलणार.’
‘आज माझे नाव चालणार नाही , कोणी सांगावे की उद्या माझे व्यक्टिमत्वाला किक मारशील आणि नंतर माझ्या मनाला सुद्धा.’
‘अरे नाही बाबा,बघ तू विनाकारण सेंटीमेंटस् मधे वाहून जातोस...मी कश्याला असा विचार करू? तुझे वैरी करतील असा विचार .मी तर असे म्हणते की …’
‘की आलू गोबी नाव ठेवते.’
‘चल, मी तुला परितोष म्हणते. परितोष….हम्म!’
ठीक होते, पश्यंती , परितोष. दोन्ही नावे अलंकारीक. परस्परांना समांतर. आता विचार करतो, नियती सुद्धा अशीच समांतर गुंफली होती.काही थोडे फार क्षण सोडले तर आम्ही दोघं नेहेमी समांतर होतो.कुठेच वक्रता नाही, न काही छेदक, जे एकमेकाला छेदून मिळतेआणि अनर्थाचा अर्थ खोडून अर्थवान अर्थ देईल.
सकाळी ऊशिरा ऊठलो. सवय आहे ऊशिरा ऊठायची. रात्री ऊशिरा झोपतो.वर्तमानपत्र चाळत होत
फोनची घंटी वाजली. मीच उचलला,`येस प्लीज़….’ आणि ‘पम्मी ,तुझा फोन’,म्हणून परत वर्तमानपत्र पहात राहीलो. पण अचानक फोनवर बोलताना पम्मीच्या तोंडून ‘परितोष’ हे नाव ऐकून विचलित झालो.
पम्मीचे बोलणे ऐकत राहीलो. ‘ …. हं, परितोष ….! हो ,पपा घरीच आहेत.त्यांनीच तर फोन घेतला.
येतोस न तू?ऊं हूं? इकडेच ये न प्लीज! मम्मी नाही का येणार ? त्यांना कसे ही करुन कनविन्स कर ? तुला समजत कसे नाही? अच्छा, चल तू म्हणतो तसे करू. मी येते. ओके!’
ह्या परितोष नावाच्या मुलाशी पम्मी नेहेमी बोलायची. नेहेमीच त्याला भेटायला जायची .वाटले की तिला विचारावे की हा कोण आहे. पण विचारायचे साहस नव्हते. विचारावे वाटले की स्वतः चा भूतकाळ आठवतो. त्यातच होरपळ .पम्मी ची आई पण नाही आता . पम्मीच्या स्वातंत्र्यात उगाच अडथळा नको. कोणता संशय ही मला आवडत नाही. आम्हा बापलेकीत निखळ सामंजस्य होते. ज्याचा दोघांनीही आनंद होता.आता मात्र ह्या पलीकडे विचार करणे भाग होते.पण मला ती सवय नाही ,न असे संस्कार. पण तरीही …. खूप दिवस ही प्रकरण सुरु राहीले. मी पण काही ही न विसरता सामान्य वागत राहिलो.
थंडीचे दिवस होते सकाळीच फोनची घंटी वाजली … मी उठेपर्यन्त पम्मी पळत आली.हळूहळू कुजबूज करत काय चालू होते माहीत नाही.कान लावून होतो .पण काही समजले नाही.फक्त ‘ओके बाबा’, जे जोरात बोलली ते समजले.
रिसीव्हर ठेवून ती आनंदाने उसळत किचन मधे गेली. थोडया वेळाने लाजत मुरडत आली .
म्हणाली ‘पापा’ ,मी म्हणालो,’बोल’.
‘माझा मित्र येणार आहे .’
‘येऊ दे’
‘पण तुम्ही नॉर्मल रहा.प्लीज.’
‘काही विशेष?’
‘नाही सहजच.’
‘ठीक आहे , येऊ दे .’
ती तिच्या खोलीत गेली. मी कॉफी घेत राहीलो.थोडया वेळात एक लाजाळू मुलगा आला.’गुड माॅर्निंग’,
म्हणत बसला. बोलता बोलता तो म्हणाला की तो डिप्लोमा करत आहे, वडील आर्मीत कॅप्टन होते.
युद्धात त्यांना वीरमरण आले.तो आता आई सोबत राहातो. पम्मी त्याची खूप जवळची मैत्रीण आहे.
बोलता बोलता लक्ष्यात यायला वेळ नाही लागला की त्याची आई कोण आहे. माझ्या हृदयाची धडधड आता मंदावत चालली .नर्वस झालो.पम्मीला आवाज दिला .‘बाहेर जाऊन येतो,’ तिला सांगून मी पार्ककडे गेलो.
नरम मुलायम ऊन्हात तुझ्या स्मृतिची मेणबत्ती पार वितळून गेली.पार्कच्या बेंचवर तुझे समांतर नाव मनात उद्घोष करत होते. पम्मी त्याला वक्र बनवू शकली?ह्या विचारात बुडून गेलो तेवढ्यात एक थुलथुलीत देहाची गोलमटोल महिला पायांवर वजन साम्भाळत तिथे येताना दिसली.दुष्यंतकुमारच्या ग़ज़ले सारखे वाटले ,
‘तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ.’
ती रेल अगदी माझ्या छातीवर आली .कानात कुजबुजली, ‘परितोष’.
वा, किती परितोष आहेत एकूण, समजत नाही. इकडे तिकडे मी पहात राहीलो.माझ्या शिवाय तर कोणी नाही इथे.
‘माफ करा , मी अवनींद्र , अवनींद्र नाथ ! ,’भावूक होत बोललो .
‘हो, माझा गैरसमज झाला,अनु! माफ नाही करणार? प्लीज ! सेंटिमेंटल नको होउस! रिलैक्स!’
‘ड़ोंट बी सिली यार !मी तुझा परितोष आहे.’ कडाक्याची थंडीत मी घामाझोकळ झालो.माझ्या पूलाचे तर आता तुकडे तुकडे झाले .
बघ ,मानते मी ,तू तुझ्या मुलीला माझ्यासारखे बनवायचे ठरवले,पण तू तसे काही करू शकला नाही.मी काॅम्प्लेक्सिव आहे , ती सरळ साधी आहे. खरे तर तू तिला माझ्या रूपात वाढवले, माझ्यापेक्षा तिच्या वर खूप प्रेम केले ,माया दिली. मी कमनशीबी .तुझ्या वरचे माझे प्रेम आता खूप वाढले.किशोर वयात उसळत असणारे प्रेम आज अगदी परिपक्व झाले.पण तुला कदाचित कल्पना नाही तुझ्या साठी मी किती बेचैन होते.तुझी एक झलक पहायला मी तरसत होते पण शापित होते,माझ्या स्वप्नांना गाडून टाकावे लागले.तू पुरुष आहेस, काही ही विचार केलास,कृतीत आणलेस तरीही सहज राहू शकला असता . बायकांचे असे नाही. जर ती योग्य विचार करत असेल,त्याप्रमाणे वागली तर ते प्रवाहाविरुद्ध मानले जाते. तू पुरुष आहेस. प्रवाहाविरुद्ध गेलास तरीही ते रोमहर्षक ठरते .पण स्त्री किती ही मुक्त असली तरी ही, अश्या परिस्थितित असहाय होते.अशी तुटते की जशी काच तुटली. हे काचेचे मन विदीर्ण होते माझ्या मनाची तर आता अगदी चाळणी झाली,प्रवाहाविरुद्ध न जाताही मी चालत होते,आतल्या आत जळत होते. डैडी गेल्यावर घराच्या भिंती मजबूत होत्या. आरामदायक होत्या. पण माझ्या सभोवताली मात्र अभेद्य भिंती उभ्या राहील्या,हे किती तरी उशीरा समजले.जेव्हा सारे छत मला उघडे, उजाड करुन गेले.मी ही एक उजाड़ भिंत झाले होते. तू पण कुठल्या दुनियेत होतास? तुझ्याकडून काही अपेक्षा ही नव्हती.
‘जाऊ दे, भूतकाळाच्या मागोवा घेवून काही निष्पती नाही,उलट त्रासच होतो.बस एवढे समजून घे, जीवन जगण्याचे बळ मला तुझ्याकडून मिळाले. माझ्या नकळत तू माझ्या साठी जे केलेस, मला माहीती नाही. मी तुझ्याकडून जगण्याचा अर्थ शिकले.न मिळवून सुद्धा मी तुला माझ्यातच शोधत होते .एकदा तर इतकी बेचैन झाले की खूप लांबलचक पत्र लिहीले मी तुला,त्यात तुझ्या सोबतच जगायचे ठरवून
टाकले .पण तुझा काही पत्ता नव्हता.तुझ्या मित्राकडून एक पत्ता मिळाला पण तो चुकीचा होता.तू जर्मनी ला गेला होता. विचार केला की ते पत्र जर्मनीच्या तुझ्या पत्त्यावर पाठवावे.पण कसे कोण जाणे, कुठल्या मनोविज्ञानाने विचार बदलला.न जाणो कितीदा विचार केले आणि कितीदा माघार घेतली.
मी पण बदलून गेले.पण बदल किती ही झाले तरी प्रत्येकदा हेच वाटले की सुरूवाती पासूनच चुकले काही तरी आणि तुला आठवते का,एकदा तू म्हणाला होतास, ‘सारे काही चुकीचे असु दे ,सुरूवाती पासून ही दुरुस्त करण्याची शक्यता राहाते. कमीतकमी जीवनाबाबत तरी असे असावे. खरे तर खूप कठीण आहे.खरेच कुठे होते असे,पण ही गोष्ट मला चिकटून राहिली.’
‘आता तर विचार केला न,समजून ही घेतले .चांगले झाले. ह्या मुळ सुरूवाती बाबत तू बोलत आहेस ,
ह्याची सुरुवात वयाच्या कुठल्याही टप्प्यावर होऊ शकते .ह्या हिशोबाने विरोधाची किती ही हवा असली तरी काही परिणाम होणार नाही. जर तुझ्या मनातली गोष्ट असरदार असेल तर परिणाम ही उडवून लावता येतो.कारण दिसायला जरी छान असले तरी जीवघेणे आहे.खरे तर किती कमजोर आहे सारे काही .बस थोडा दम, हिम्मत आणि उत्साह पाहिजे.’
‘आपले वय आता चढाव उताराच्या गर्तेत आहे ,ह्या वर आता धैर्य अर्पण करावे का समजत नाही.
किंबहुना हेच खरे आहे की स्त्री म्हणून मी किती कमकुवत आहे. बाहेर मी किती ही मजबूत आणि दृढ
दिसत असले तरी ही वर्तनात स्वतःमात्र पोकळ,रिक्त अनुभवते. हा दोष आमच्या कठोर संस्कारांचा ,ज्या मुळे स्त्री समोर एक काटेरी लक्ष्मणरेषा ओढली ,खडकाळ माळरानावर अभिशापाचा बुरखा पांघरून उभे करून दिले . तू म्हणशील की तो बुरखा फेकून दे .मला सांग, तू किती जणींना असे सांगु शकतो
आणि तुझ्या सारखे किती पुरुष आहेत जे म्हणतील ,हा बुरखा फेकून दे.किंबहूना किती स्त्रिया आहेत ज्या हा संस्कारांचा बुरखा उतरवतील. जेवढे मी पाहीले,कितीश्या अश्या बायका आहेत,आपल्यातील
बायका तर ऐकणार देखिल नाही.भले ही त्या रडत कुथत जगतील, शापित राहतील, पण काही ही ऐकून
घेणार नाही. त्या विरुद्ध काही बोलणे निरुद्देशक वाटेल त्यांना, कारण त्यातच त्या आनंद मानतात.तो संस्कारांचा पगडा हाच त्यांचा वारसा आहे,कुठे कमी तर कुठे जास्त ,फरक काय तो एवढाच .
सगळे काही समजून उपजून ही त्या नाही समजून घेत. म्हणून त्या कुठल्या प्रकार ची रिस्क घेणे नाही शिकल्या.ज्या दिवशी त्या रिस्क घेणे शिकतील ,तुझ्या सारख्या पुरूषांना असे किंवा तसे काही बोलण्याची गरज रहाणार नाही .ज्या दिवशी हे होईल, होईल निश्चितच, त्या दिवशी एक नवीन प्रकार ची अराजकता माजेल, जी सुखद असेल आणि त्रासदायक सुद्धा.’
‘पण असेल मानवीय!’
‘हो, तू म्हणतोस तर मानते मी. तसे तर तुझे म्हणणे ठीकच आहे. सोड हे सारे काही .असे काही सांगायला नाही आले मी इथे ...तसे पण संघर्ष असला तर ध्येय मिळेल की नाही ,एक रिस्क असते.
असे आहे की तुझी मुलगी आणि माझा मुलगा ह्यांची मैत्री खूप जुनी आहे.त्यांची मैत्री आता अजून
वेगळी काही अपेक्षा करत आहे. तुला नाही माहीती मी माझ्या मुलाला तुझ्या सारखे लल्लू रंग रूप दिले तुझ्यानुरूप , तुझे मन ही त्याच्यात रूजवले आहे.आता आपल्यात जे झाले ते झाले पण आपल्या मुलांना नको ते भोगायला लावू प्लीज…..!’
‘ हे बघ,पश्यंति,त्याचे वाईट वाटून नको घेवूस. आता ते पूरे कर पश्यंती! आता काय पाहिजे तुला? माझ्या मुलीचे आयुष्य माझ्यासारखे झाले पाहिजे का? मी विष कालवायचे का ?’
‘ तू विसरतो आहेस की मी परितोष ची आई आहे.’
‘नाही , हे कसे विसरणार? बिलकुल फिल्मी स्टाइल चे हे वळण मला काही सुचू देत नाही.काही निर्णय घेता येत नाही.एक अजबशी शंका मनात येते, मन खट्टू होते.’
‘तुझा विवेक आणि सरळ साधे मन कुठे हरवले ?समजून उमजून घेणारे तुझे मन कुठे हरवून आलास?
समजतच नाही मला काही .मला समजून घेण्याचा प्रयत्न कर प्लीज.’
‘पुन्हा एकदा सारे काही विस्कळीत करायचे ?’
‘नाही,जे विस्कळीत झाले होते ते आता सावरायचे आहे,त्या साठी मन साफ कर!’
‘सांगतोय ना मी , काही निर्णय घेवू शकत नाही!’
‘हे बघ, नाराज होऊ नकोस , तुझ्या ,माझ्या निर्णयाची गोष्ट नाही.निर्णय त्यांना घ्यायचा आहे .आपण फक्त प्रयत्न करणार. हे जरी आहे की ह्यात आपला ही स्वार्थ आहे… जो तुला ही पवित्र वाटेल. आपल्यातील तडफड, तगमग , समांतर गुदमरलेपण ह्याला एका समांतर रेषेच्या नियतीला, मुलांच्या माध्यमातून एक आडवा जोड देणे ,तिर्यक देणे, थोडी वक्रता देणे …. कदाचित हा स्वार्थ पूर्ण होणे ही नियती असेल.’
‘ पण अचानक तुझे हृदय परिवर्तन ? समजले नाही.’
तू म्हणत होतास ना,माणसाला जवळात जवळ यायला नात्यात थोडे वक्र होणे गरजेचे आहे. कुठल्या ही
बिंदु वर असो… पण असावे. मला हा बिंदु मिळाला,तो सोडणार नाही, अत्यंत सक्षमतेने पकड़ून ठेवेन.आज पहिल्यांदा तुझ्या टोमण्यावर मी नाराज नाही. हं, हृदय परिवर्तन आहे जरूर पण अचानक नाही. ह्याची एक लांब लचक प्रक्रिया आहे.ह्याची सुरुवात तुझ्या आई पासून झाली.’
‘ अच्छा! पण आई जाऊन तर जमाना झाला….. तू तिला कधी भेटली ?’
‘पहिले तर तू क्षुल्लक गोष्टी क्रमवार लक्ष्यात ठेवायचा, अगदी मनात खुणगाठ बांधायचा,हे कसे विसरला? आठवत नाही? खूप वर्षांपुर्वी, बसने तुझ्या गावातून प्रवास करत होते, तेव्हा हा परितोष छोटा होता. तुझी आई आणि तुझी पम्मी त्या बस मधून उतरल्या.तू धोतर सावरत पळत आला .
त्याच बसमधून मी इलाहाबादला दीदी कडे जात होते. तू आम्हाला पाहीले ही होते.मी तुला पाहून हात वर केला.काही तरी बोलले देखील.तू ऐकलेच नाही.’
‘पण तेव्हा तर आई काही बोलली नाही.’
‘आईने मला संगितले होते ,’बेटी, ह्या दोघांची जोडी खूप छान जमेल.माझे ऐकशील तर तुमची कसर ह्याद्वारे पूर्ण करा. तुमच्या मनातले किल्मीष नष्ट होईल.मला तर रडू कोसळले.’
‘रडत तर तू आता ही आहेस ना!’
‘तेव्हा आणि आता खूप फरक आहे…..तुला नाही जाणवत?’
‘त्याने आता काय फरक पडणार आहे? झुरत राहण्याशिवाय काय मिळणार?’
हे बघ ,आता तुझी देवदासची भूमिका सोड,विचार कर की तू आता कोणी दूसराच आहे ,नेहमी मुलांसारखे वागणार आहेस का? बघ मुलं पण इकडे येत आहेत.’

हिंदी से मराठी अनुवाद : प्रिया जलतारे 

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