दयानंद पांडेय
एक रंग था जो डूब गया। हां, तुम्हारी इन आंखों में अब वह रंग नहीं रहा। वह कंवारा रंग जो कभी देखा था। और रीझ गया था। बहुत पहले की बात है यह। अब न वह बात है न वो रंग। बावजूद इस के तुम से एक रिश्ता जोड़ना चाहा है कि शायद जुड़ते-जुड़ते शेष हो चला है ? जो भी हो, यह मेरा मुगालता है, या कि था। एक रोज तुम ने ही यह बताया था।
बहरहाल, बोलो, कहां से शुरू करूं इस अनकहे संबंध की कथा ? या कि इसे भी अनकहा ही रहने दूं ? बोलो ना ? नहीं बोल सकतीं न ? मत बोलो।
वैसे भी तुम हो बड़ी बेईमान ! यह ख़ूब जानता हूं, मैं। तुम्हारी यह बेईमानियां, ख़ूबसूरत बेईमानियां, मेरे लिए अब एक मीठी-सी यादगार बन चली हैं, जिन का सिलसिला अगर बहुत बड़ा नहीं तो छोटा भी नहीं है। लेकिन ठहरो ! अगर तुम बेईमान हो तो मैं क्या हूं ? पहले यह तय करना होगा, फिर कोई और बात। और, यह तुम तय करोगी।
देखो, तुम फिर चुप रह गईं। यह चुप्पी अच्छी नहीं है। यह जानो कि कभी-कभी बहुत-बहुत सालती है यह। खलती है बुरी तरह। वैसे तुम्हारी इस चुप्पी में भी एक अर्थ है। बहुत साफ झलकता है, वह अर्थ। आख़िर इस ‘चुप्पी’ की ही यातना तो झेल रहा हूं। वैसे वह चुप्पी नहीं थी, यार ! एक किस्म का संकोच था वह। संस्कारों का संकोच। कह सकती हो तुम कुछ भी कह सकती हो जैसे कि मैं कहता जा रहा हूं। देखो, तुम ने फिर कुछ नहीं कहा। तुम्हारी यह चुप्पी काट रही है। बेतरह काट रही है।
हां, जानता हूं तुम कुछ नहीं कहोगी। अव्वल तो तुम मुंह ही नहीं खोलोगी। खोलोगी भी तो सफाई देने के लिए, कुछ कहने के लिए नहीं। और मुझे सफाई नहीं चाहिए। बड़ी घिन लगती है, तुम्हारी लचर और बचकानी सफाइयों से। हुंह ! बड़ी अजीब हो तुम भी। ख़ुद तो कुछ बोलती नहीं। सिर्फ सुनना चाहती हो, झुनझुने की तरह। अगर सचमुच तुम झुनझुना ही सुनना चाहती हो तो वो देखो, तुम्हारा बेटा झुनझुना ही खेल रहा है। है न ! तुम हां, या ना भी नहीं कह सकती। आख़िर तुम बोलती क्यों नहीं ?’
जानती हो, तुम बेईमान जरूर हो, पर तुम्हारे कहे पर मुझे कहीं इत्मीनान भी है। इस लिए कुछ तो कहो। याद है, तुम ने एक बार कहा था, ‘मैं भी पत्थर की नहीं हूं सब कुछ समझती हूं।’ अब भी मानता हूं कि तुम पत्थर दिल नहीं हो लेकिन तुम्हारी जबान काठ क्यों हो गई है ? समझ नहीं पा रहा। हो सकता है क्या, दोष मेरा ही है।
अब सोचता हूं कि इतने बरस बाद अब तुम से नहीं मिलना चाहिए था। जाने कैसे तो मिला था। तुम्हें शायद याद न हो। मुझे तो पूरा याद है। चलो तुम्हें भी याद दिलाता हूं। कहीं कुछ गलत कहूं या फिर तुम्हें भी कुछ याद आए तो बोल देना। हां, सफाई नहीं देना। कहा न बड़ी घिन आती है तुम्हारी बचकानी और लचर सफाइयों से। तुम दे कैसे लेती हो, समझ नहीं पाता।
हां, तो उस दिन, दिन नहीं शाम के धुंधलके में पहुंचा था तुम्हारे वहां। तुम शायद पहचान नहीं पाई थीं....या कि न पहचान पाने का ढोंग कर रही थीं, नहीं जानता। हां, तुम ने लपक कर बड़े जबरदस्त संबोधन से नवाजा था, ‘अरे धनंजय भाई साहब !’ फिर पलट कर बोली थीं, ‘ममी, धनंजय भइया आए हैं।’ पहुँचते-पहुंचते ही तुम्हारे स्वागत के इस ढंग से मैं पूरा का पूरा ध्वस्त हो गया था। फिर जल्दी ही वापस हो गया था। जितने भी देर रहा, बड़ा उखड़ा-उखड़ा-सा। हालां कि तुम बड़ी आत्मीयता से बोलती-बतियाती रही। बावजूद इस के मैं और रुक न पाया। किसी काम का बहाना बनाया, ‘फिर आऊंगा’ कह कर फूट लिया। बाद में तुम्हारे यहां मेरा आना-जाना काफी हो गया। बल्कि जरूरत से ज्यादा हो गया। क्या बताऊं, तुम्हें देखने की लालसा इतनी तीव्र हो जाती कि बस क्या बताऊं ख़ैर, छोड़ो भी। हां, तो मैं बता रहा था कि बाद में तुम्हारे यहां मेरा आना-जाना काफी हो गया। एक तरह से बड़ी बेहयाई के साथ हिलमिल गया था। बात ही बात में एक रोज उस धुंधली शाम की समीक्षा तुम ने अपने ढंग से की थी, ‘सच ! उस दिन तो तुम बड़े अक्खड़ से लगे थे।’ अब भला तुम्हें यह कैसे बताता कि उस दिन अक्खड़ क्यों लगा था। और तुम्हें बड़े अनमने ढंग से एक संक्षिप्त जवाब ‘हूं’ कह कर टाल गया था। जवाब में तुम तो कुछ नहीं बोलीं लेकिन तुम्हारी आंखों में एक अजीब-सा सवाल उभरा था। और मैं उस का सामना करने से कन्नी काट गया था। ख़ैर, उस शाम जल्दी ही वापस लौट गया था। रास्ते में निश्चय किया कि अब कभी तुम से नहीं मिलूंगा। हालां कि यह निश्चय तीन दिन में ही टूट गया। चौथे दिन तुम्हारे यहां फिर हाजिर था। उस दिन भी रास्ते में दुबारा निश्चय किया कि अब फिर कभी तुम से नहीं मिलूंगा। फिर तो यह निश्चय जाने कितनी बार किया। मैं परेशान-सा हो उठता। जाना कहीं और होता, पहुंच तुम्हारे यहां जाता, कोई न कोई बहाना बना कर। बुरी तरह विवश हो जाता था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। अजीब चक्कर चला। इस आने-जाने का भी। एक शाम की बात है। तुम्हारी नाक की लौंग देख कर मैं ने पूछा था कि, ‘इसे कब से पहन रही हो ?’ जवाब में तुम ने आंखें तरेरी थीं। फिर मैं ने पूछा। तुम उठ कर रसोई में चली गईं। थोड़ी देर बाद जब तुम वापस आईं, मेरी जबान पर फिर वही सवाल था। तुम ने चिढ़ते हुए कहा था, ‘याद नहीं।’ तुम्हारे इस जवाब में झूठ साफ झलकता था। लेकिन मैं था कि जिद किए बैठा था। आख़िरकार तुम तंग आ गईं और बोलीं, ‘क्या करोगे इसे जान कर ?’ मैं ने कहा था, ‘अरे बताओ तो सही।’ फिर भी तुम ने वही सवाल दुहराया कि, ‘क्या करोगे जान कर।’ मैं ने बिना किसी लप्पो-चप्पो के कह दिया था, ‘यही कि तुम्हें कब से जानता हूं। मतलब कि....’ और तुम तुनक गई थीं। थोड़ी देर बाद फिर जब मैं ने कुरेदा तो तुम ने बड़े ठंडेपन से कहा था, ‘देखो, ऐसे बेतुके सवाल-जवाब न किया करो।’ उस ठंडेपन को तुम ने भले ही न महसूसा हो, लेकिन मैं बुरी तरह कांप गया था। फिर लाख चाहने पर भी दुबारा ऐसे सवाल तो दूर इस संदर्भ में भी कभी कुछ तुम से नहीं कह पाया।
हां उस दिन जाने कैसे....? जाने कैसे क्या तुम ने ही मजबूर किया था। हुआ यह कि तुम्हारी विदाई होने वाली थी। हालां कि साथ सिनेमा देखने की योजना पर तुम ने किसी तरह पानी फेर दिया था। बावजूद इस के मैं ने तुम्हें अपने कमरे पर बुलाया था। यह कह कर कि तुम से बहुत सारी बातें करनी हैं। आख़िर चली जाओगी। फिर जाने कब भेंट हो ? बड़े नखरों के बाद किसी तरह तुम अपने बेटे और छोटी बहन शिखा के साथ आईं। बेटा तुम्हारा ऊधम मचाता रहा। छोटी बहन रसोई में चली गई, शायद कॉफी बनाने। और मैं था कि तुम से कन्नी काटता जा रहा था। लेकिन तुम्हारा घेरा इतना जश्बरदस्त था....कि बस मत पूछो। बहरहाल, तुम रह-रह कर कुरेदती रही, ‘क्या बात करनी थी, करते क्यों नहीं ?’ लेकिन मैं बस मैं ही था। तुम क्या जानो कि उस समय मेरे ऊपर क्या गुजर रही थी ?
बहरहाल, मैं फिर भी कतराता रहा। यह कह-कह कर कि, ‘अरे नहीं, कुछ नहीं। बस, वैसे ही तुम्हें यहां बुलाने का एक बहाना भर था।’ लेकिन तुम शायद ताड़ गई थी कि मैं झूठ बोल रहा हूं, कहीं कुछ छिपा रहा हूं। और रट लगाए रही कि ‘नहीं, बात तो कुछ जरूर है। देखो, मैं भी समझती हूं।’ मैं ने पूछा था, ‘क्या समझती हो ?’ तुम ने कहा था, ‘बहुत कुछ।’
‘तो फिर समझती रहो।’
लेकिन फिर भी तुम नहीं मानी....बराबर बोलती रही, ‘बताओ न क्या बात है ? बताते क्यों नहीं ?’
सच बताऊं, उस दिन जितना मुखर तुम्हें न कभी पहले देखा था, न आज तक देख पाया हूं। सच बताओ, तुम्हारी वह मुखरता अब कहां खो गई है? या कि तुम खो गई हो ? बोलो न। अरे कुछ तो बोलो। सुनते-सुनते उकता तो नहीं र्गईं?
बहरहाल, मुझे कहना है, मैं कह रहा हूं। आज नहीं कह पाया तो कभी नहीं कह पाऊंगा। और जो कह नहीं पाऊंगा तो सच जानो, वह भीतर-भीतर घुमड़ता रहेगा, परेशान करता रहेगा। जैसा कि अब तक करता रहा है। लगातार। ख़ास कर इन दिनों में। तुम यकीन नहीं करोगी कि यह सब सोच-सोच कर दिमाग कितना ख़ब्त हो जाता है। लगता है सारी नसें यक-ब-यक फट कर बिखर जाएंगी। कभी लगता है, पागल हो जाऊंगा। तो कभी सोचता हूं कि किसी चीज से टकरा कर क्यों न जान ही दे बैठूं। लेकिन, यह सिर्फ सोचता हूं। तुम सोच रही होगी, कि यह शख़्स कहानी अच्छी गढ़ लेता है। लेकिन इतना जानो शिप्रा, यह सब कुछ मैं कहीं से भी गढ़ नहीं रहा हूं। जो महसूसा है, वही कह रहा हूं। यह अलग बात है कि सारा कुछ कह भी नहीं पा रहा हूं। एक विवशता है, संकोच है। न कह पाने का।
फिर भी मुझे सुनाना है और तुम सुन रही हो, इस से भली बात भला और क्या हो सकती है ?
हां, तो तुम बड़ी उतावली में थी। तुम्हारी जिद पर मैं ने तुम से कहा था, ‘तो आओ, बीते दिनों की ओर चलते हैं।’ और तुम मुसकुराई भर थी।
और हम उन बोलते-बतियाते दिनों के बीच थे कि शिखा रसोई से कुछ लिए आई। तुम ने झट अपने होंठों पर उंगली रख मुझे चुप रहने का इशारा किया था तुम्हारा इशारा समझने के बाद भी मैं ने जान-बूझ कर बल्कि कहो, शरारतन कुछ कहना चाहा था कि तुम्हारी आंखों ने ऐसे घूरा कि मैं एकदम अवाक् रह गया। तुरंत ही कोई दूसरा प्रसंग छेड़ बैठा। लेकिन अब मैं उतावला हो रहा था। ख़ैर, किसी तरह शिखा को फिर वापस रसोई में भेजा। और अभी मैं कुछ कहने की सोच रहा था कि तुम फिर फूट पड़ी, ‘कहो न, जो कहना है जल्दी कह डालो, नहीं शिखा फिर आ जाएगी और सारी बात धरी की धरी रह जाएगी और फिर कभी न कहना कि मैं ने सुना नहीं....।’
‘तुम से मैं जितना आहत हूं, उतना ही....हां, तुम ठीक कहती हो। सच बड़ा सुख मिला है तुम्हारे इस कहने में कि ‘फिर कभी न कहना....’ सचमुच मैं बड़ा ख़ुशकिस्मत हूं कि कुछ और न सही, कम-से-कम इतनी सदाशयता तो तुम दिखा ही रही हो। अब कैसे मैं तुम से कहूं कुछ, समझ नहीं पा रहा। जाने कितनी बातें सोच जाता था कि तुम से मिलूंगा तो यह कहूंगा, वह कहूंगा।’
‘तो फिर कहते क्यों नहीं ? इत्ती लंबी-चौड़ी भूमिका क्यों बना रहे हो ? या कि जो कहना था वह सब कुछ याद नहीं आ रहा ?’
‘देखो शिप्रा, मेरी याददाश्त इत्ती कमजोर नहीं, कम-से-कम इस वक्त तो बिलकुल नहीं। बल्कि एक-एक बात, एक-एक क्षण, सब कुछ एकदम स्पष्ट मेरी आंखों में तैर रहा है। बस मुश्किल है तो बस यही कि तुम से कैसे कहूं, बल्कि क्यों कहूं ?’
‘देखो, धनंजय, तुम बिला वजह सारा वक्त जाया कर रहे हो, शिखा आती होगी। तुम ने कॉफी फिर से गरम करने को भेजी है न, गरम हो गई होगी।’
‘छोड़ो भी, कॉफी गरम भी हो गई होगी, तो अब की उसे फिर दूसरी कॉफी बनाने तुम भेज देना।’
‘मुझे कॉफी-वॉफी नहीं पीनी। मुझे बहुत अच्छी भी नहीं लगती। हां, तुम्हें जो कहना है, कहते क्यों नहीं ?’
‘सोच रहा हूं।’
‘क्या ?’
‘कि तुम कहीं कुछ अन्यथा न ले बैठो।’
‘मैं क्यों अन्यथा ले बैठूंगी भला ?’
‘बात ही कुछ ऐसी है।’
‘चलो, तो भी सही। मैं ने कहा न, तुम बगैर किसी चिंता के कह डालो। मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगी। हां, नहीं कहोगे तो जरूर बुरा मान जाऊंगी।’
तुम फिर मुस्कुराई थी।
‘मैं ने कहा न तो भी तुम बुरा मानोगी।’
‘ओफ्फो यह क्या रट लगा रखी है देखो मैं अभी चली जाऊंगी !’
अब की मैं मुसकुराया था....लेकिन भीतर-भीतर कहीं हिल भी गया था कि तुम कहीं सचमुच ही न चली जाओ....लेकिन तुम्हें न तो जाना था न तुम गईं। बस रट लगाए रही।
‘दरअसल शिप्रा, जो बातें तुम से कहनी हैं, वे तुम्हारे ही बारे में हैं।’
तुम अचकचाई तो नहीं, लेकिन अतिरिक्त नाटकीयता के साथ भौंचक हो गई थी और बोली थी, ‘मेरे बारे में ?’
‘हां, तुम्हारे बीते दिनों के बारे में। तुम्हारे अपने बारे में।’
‘यह क्या कह रहे हो तुम ?’
‘हां, ठीक कह रहा हूं।’
‘तुम मुझे पहले भी जानते थे ?’
‘हां।’
‘लेकिन, मैं तो तुम्हें नहीं जानती थी।’
‘एकदम नहीं ?’
‘ऊं हूं !’
‘फिर ?’
‘जानती तो थी, लेकिन बस जानती थी, ठीक से नहीं जान पाई।’
‘तुम ने जानने की कभी कोशिश भी की ?’
‘कैसी कोशिश ?’
‘यही मुझे जानने की।’
मैं मुसकराया था।
तुम बोझिल-सी हो गई थीं और बोली थी, ‘ऐसी कोशिश, इस तरह की कोशिश ! इस में पहल तो तुम्हारा पुरुष वर्ग ही करता है।’
‘देखो, अब बात मोड़ो नहीं।’
‘बात नहीं मोड़ रही। सच कह रही हूं। तुम से तो झूठ नहीं ही बोल सकती। ख़ास कर इस समय।’
‘तो तुम मुझे नहीं ही जानती थी ?’
‘हां, नहीं ही जानती थी, उस जानने को भी भला जानना कहते हैं ?’
‘लेकिन शिप्रा, मैं तुम्हें जानता था, कहीं बहुत गहरे जानता था। तुम से कुछ ही मुलाकषतों, जिन्हें तुम अपनी तरह में मुलाकषत नहीं कह सकती उन्हीं चंद मुलाकषतों के बाद से ही तुम्हारे लिए बेचैन रहने लगा था....फिर भी तुम से इस मसले पर कभी जरा भी होंठ खोले हों, याद नहीं आता। तुम अलबत्ता इधर-उधर की बातें बतिया लेती थीं। बोलो, कुछ याद आ रहा है ?’
‘ऊं हूं।’
‘देखो, अभी तुम कह रही थी कि ‘झूठ नहीं बोल सकती।’ और, अभी झूठ बोल गई।’
‘कहां, क्या मैं ने कहा ?’
‘अभी ‘ऊं हूं’ किस बात पर की है ? यह झूठ नहीं है ?’
‘ओफ्फ धनंजय, इत्ती-सी बात....।’
‘अब तुम्हारे लिए इत्ती-सी बात हो सकती है ख़ैर, यह जानो कि मैं तुम्हें ....लेकिन छोड़ो भी, क्या जरूरत है यह सब कहने की....।’
‘हां, जरूरत नहीं है।’
‘क्या ?’
‘कहा न, जरूरत नहीं है यह सब कहने की।’
‘देखो, तुम बुरा मान गई न। मैं कह रहा था।’
‘नहीं, मैं बिलकुल बुरा नही मानी हूं।’
‘देखो, तुम लाख यह कहती रहो कि मैं बुरा नहीं मानी हूं लेकिन तुम्हारा तेवर ही कह रहा है कि कहीं न कहीं मेरी कोई बात तुम्हें बुरी लग गई है।’
‘नहीं, ऐसा नहीं है, धनंजय। तुम मुझे समझ नहीं पा रहे....तुम जो कह रहे थे कहो मैं अब पूरा सुनूंगी। हालां कि बगैर पूरा सुने भी तुम्हारी बात मैं समझ गई हूं।’
‘क्या ?’
‘यही कि तुम क्या कहना चाहते हो। और, अभी क्या कहोगे।’
‘बताओ तो सही, क्या कहूंगा ?’
‘इत्ती तो बेवकूफ नहीं हूं। सब समझती हूं....तुम्हारी बार-बार की उखड़ी बातों से कुछ-कुछ शक तो मुझे भी होने लगा था। लेकिन यह शक ही था। सिर्फ शक। हकीकत नहीं। लेकिन तुम्हीं कहो। तुम्हारी जबान से ही सुनना चाहती हूं। लेकिन जल्दी कहो। शिखा आती होगी।’
‘तुम जान ही गई, तो मैं क्या कहूं अब छोड़ो भी।’
‘देखो, मैं सुनना चाहती हूं और तुम हो कि....फिर कभी न कहना कि....और फिर मैं आने वाली भी नहीं।’
‘इस तरह धमकी क्यों दे रही हो ?’
‘ओफ्फ ! तुम बात क्यों नहीं समझते, शिखा आ रही होगी....और यह धमकी नहीं।’
‘अच्छा तो सुनो, तुम मुझे न के बराबर जानती थी। मैं भी तुम्हें कुछ इसी तरह से जानता था। लेकिन न जानते हुए भी कहीं गहरे जानता था तुम्हें। तुम इसे कोई भी नाम दे सकती हो अंगरेजी में इसे ‘लव एट फर्स्ट साइट’ कहते हैं और हिंदी में ‘प्रथम दृश्य का प्यार’। और ऐसा कमोवेश सब के ही साथ होता है तुम्हारे भी साथ हुआ होगा। न सही मेरे साथ किसी और पर रीझी होगी। लेकिन रीझी जरूर होगी। और यही जानो कि मैं भी तुम पर रीझ गया था। अलग बात है, इसे कभी जाहिर नहीं कर पाया। चाहता था कि जाहिर कर दूं। लेकिन एक तो मैं जल्दबाजी नहीं करना चाहता था। दूसरे मैं बड़ा संकोची था तब। फिर सोचा कि अपनी औकात नहीं यह सब कहने की। करने की। उमर भी तब क्या थी। यही कोई 15-16 साल का रहा होऊंगा। सोचा कि वक्त आने पर कह दूंगा। तुम से भी और सब से भी। तब, जब किसी लायक हो जाऊंगा। और इस क्रम को जुड़ने में काफी समय तो नहीं लगा। लेकिन समय तो लगना ही था। लगा। तब तक सुना तुम्हारी शादी हो गई। मैं कसमसा कर रह गया था। और चारा भी क्या था ?
‘बोलो, ऐसे में मैं क्या कर सकती थी भला ? तुम ने कभी कुछ कहा भी नहीं। मैं क्या सपना देखती थी कि....। लेकिन मैं कभी रीझी-वीझी नहीं तुम पर। हां, तुम से मेरी शादी की बात जरूर सोची जा रही थी, घर में। बल्कि कह सकते हो कि मेरी शादी के लिए बनाई गई लड़कों की लिस्ट में एक नाम तुम्हारा भी था, बल्कि पापा गए भी थे, तुम्हारे घर। लेकिन शायद उमर में तुम से मैं बड़ी पाई गई। जन्मकुंडली भी नहीं मेल खा पाई थी शायद। और बात वहीं की वहीं रह गई। फिर मेरी शादी हो गई।’ यह कहते-कहते तुम बड़ी भावुक-सी हो गई थी। और मुझ से पूछा था, ‘लेकिन तुम ने अब तक शादी क्यों नहीं की ?’
‘क्यों ?’
‘हां, क्यों ?’
‘ख़ुद से पूछो।’
‘क्या पूछूं ?’
‘यही, जो मुझ से पूछ रही हो।’
‘यह तो कोई बात नहीं हुई....।’
‘क्यों, कैसे नहीं हुई ?’
‘इस का मतलब है कि तुम मेरी वजह से इस तरह....’
‘नहीं, अपनी वजह से।’
‘देखो, धनंजय ! तुम मुझ पर बड़ा भारी इल्जाम लगा रहे हो। यह ठीक नहीं है।’
‘मैं इल्जाम कहां लगा रहा हूं। तुम ख़ुद-ब-ख़ुद इल्जाम में कैद हो रही हो तो मैं भला क्या कर सकता हूं। बोलो भला ?’
‘एक बात कहूं, करोगे ?’
‘कहो।’
‘पहले हां करो।’
‘करने लायकष होगा तो जरूर करूंगा।’
‘नहीं, पहले हां करो।’
‘देखो, तुम्हारे इस तेवर से मुझे डर लग रहा है साफ-साफ कहो कहना क्या चाहती हो।’
‘कहा न, पहले हां करो !’
‘क्या हां करूं ?’
‘यही कि जो मैं कहूंगी, करोगे।’
‘चलो करूंगा, अगर करने लायक हुआ तो।’
‘अगर-वगर नहीं....सीधे-सीधे हां कहो।’
‘चलो भई, हां किया।’
‘तो शादी कर डालो।’
‘क्या ?’
‘हां, इस तरह से काम नहीं चलेगा।’
‘क्यों ?’
‘जिंदगी तबाह करने से कोई फायदा है ?’
‘तो मैं तुम्हें तबाह नजर आ रहा हूं ?’
‘नहीं तो क्या ?’
‘यह तुम कह रही हो ?’
‘देखो, इस तरह खफा न होओ। यह मैं बहुत सोच-समझ कर कह रही हूं। बल्कि कहो कि यही कहने यहां आई भी हूं।’
‘यह तो तुम जाने कितनी बार पहले भी कह चुकी हो।’
‘देखो, अपनी इस दीवानगी पर इतराओ नहीं।’
‘तो तबाही में लोग इतराते भी हैं ?’
‘फिर तुम मेरी बातों को दूसरे अर्थों में ले रहे हो। मैं ने कहा न।....’
‘कि शादी कर डालो।’
‘हां !’
‘देखो, शिप्रा, बहुत हो चुका अब। जले पर अब और नमक न छिड़को प्लीज!’
‘क्या कहूं धनंजय ! कुछ कहा भी नहीं जाता अब तुम से !’
‘जरूरत भी क्या है ?’
‘जरूरत है। तुम मुझे समझने की कोशिश क्यों नहीं करते, धनंजय !’
और तुम रुआंसी हो आई थीं, हम दोनों ख़ामोश हो गए थे। ख़ामोश ही थे कि शिखा आ गई। आते ही पूछा था, ‘चुप क्यों बेठे हैं आप लोग ?’
‘बतियाते-बतियाते थक गई हैं तुम्हारी दीदी।’
तुम चौंकी थी। फिर होंठों पर उंगली फिराने लगी थीं। संकेत यह था कि मैं कुछ कहूं नहीं, चुप रहूं। मैं भी चुप ही रहा। बल्कि औंधा लेट गया, ख़ुद को धिक्कारता हुआ कि यह क्या किया मैं ने। ऐसा नहीं करना चाहिए था।
तुम जा चुकी हो। मुझ से अपने यहां आने का आग्रह बड़ी बेकली से कर गई हो।
एक मौसम बीत कर दूसरा मौसम आ गया है। तब से तुम्हारे यहां जा नहीं सका हूं, लाख चाहने पर भी । एक जिद है कि नहीं जाऊंगा। कभी नहीं जाऊंगा। यह अलग बात है, तुम से वायदा भी किए बैठा हूं कि आऊंगा।
जानती हो, तुम्हारी दी हुई, वह रूमाल अभी तक कोरी है, जिसे तुम ने शिखा की आंख से बचा कर देते हुए छलकती आंखों से उसे तुरंत कहीं छिपाने का इशारा किया था। धीरे से बोली भी थीं, ‘अगले जनम में।’ और, मैं ने उसे धीरे से बक्से में डाल दिया था। वह रूमाल अभी तक उसी बक्से में है। न तब उसे ठीक से देख पाया था, न अब तक देख पाया हूं। देखना भी नहीं चाहता, तुम्हारी वह कोरी रूमाल !
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