दयानंद पांडेय
उन दिनों बी ए में पढता था। पर क्लास की पढाई-लिखाई से कहीं ज़्यादा कविता लिखने की धुन सवार थी। धुन क्या जुनून ही सवार था। कवि गोष्ठियों में जाने की लत भी लग गई थी। फिर कवि सम्मेलनों में भी जाने लगा। गोरखपुर में नया-नया आकशवाणी का केंद्र भी खुला था तब। वहां भी जाने लगा। कविताएं प्रसारित होने लगीं। और तो और एक संस्था भी बना ली- जागृति। जैसे कविता ही ज़िंदगी थी, कविता ही सांस, कविता ही ओढना-बिछौना। बाकी सब व्यर्थ। तब लगता था कि हमारी कविताएं ही समाज बदलेंगी, हम को सब कुछ दे कर हमारा प्रेम भी परवान चढाएंगी और कि हम धूमिल और दुष्यंत से भी कोसों आगे जाएंगे। आदि-आदि खयाली पुलाव हम तब पकाने में लगे थे। उम्र ही ऐसी थी। लोग उम्र को ले कर टोकते भी तो हम शेखी बघारते हुए कहते कि शरत ने भी देवदास १८ साल की उम्र में ही लिखी थी। तो अब जल्दी ही लगने लगा कि अपनी कविता की एक किताब भी होनी ही होनी चाहिए। पर लोगों ने कहा कि कम से कम सौ पेज की किताब तो होनी ही चाहिए। अब उतनी कविताएं तो थीं नहीं। पर किताब की उतावली थी कि मारे जा रही थी। उन्हीं दिनों लाइब्रेरी में तार सप्तक हाथ आ गई। लगा जैसे जादू की छडी हाथ आ गई है। अब क्या था, दिल बल्लियों उछल गया। साथ के अपनी ही तरह नवोधा कवि मित्रों से चर्चा की। पता चला कि सब के सब कविता की किताब के लिए छटपटा रहे हैं। सब की छटपटाहट और ताप एक हुई और तय हुआ कि सात कवियों का एक संग्रह तैयार किया जाए। सब ने अपनी-अपनी कविताएं लिख कर इकट्ठी की और एक और सप्तक तैयार हो गया। मान लिया हम लोगों ने कि यह सप्तक भी तहलका मचा कर रहेगा। अब दूसरी चिंता थी कि इस कविता संग्रह को छपवाया कैसे जाए? तरह-तरह की योजनाएं बनीं-बिगडीं। अंतत: तय हुआ कि किसी प्रतिष्ठित और बडे लेखक से इस की भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कोई भी प्रकाशक छाप देगा। और जो नहीं छापेगा तो जैसे सात लोगों ने कविता इकट्ठी की है, चंदा भी इकट्ठा करेंगे और चाहे जैसे हो छाप तो लेंगे ही। इम्तहान सामने था पर कविता संग्रह सिर पर था। किसी बैताल की मानिंद। अंतत: बातचीत और तमाम मंथन के बाद एक नाम तय हुआ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का। भूमिका लिखने के लिए।
उन दिनों आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक तो हमारे पा्ठ्यक्रम में थे सो इस लिए भी मन मे एक रोमांच सा था कि जिस की रचना हम पाठ्यक्रम में पढते हैं, उन से मिलेंगे। हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में तब यह भी प्रचलित था कि वह बहुत ही सहृदय हैं और कि बहुत जल्दी द्रवित हो जाते हैं। इस के पीछे एक घटना भी थी। कि एक बार यूनिवर्सिटी में वाइबा लेने आए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। वाइबा में एक लड़की से उन्हों ने करुण रस के बारे में पूछ लिया। लड़की छूटते ही जवाब देने के बजाय रो पडी। बाद में जब वाइबा की मार्कशीट बनी तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उस रो पडने वाली लड़की को सर्वाधिक नंबर दिया। लोगों ने पूछा कि, 'यह क्या? इस लड़की ने तो कुछ बताया भी नहीं था। तब भी आप उसे सब से अधिक नंबर दे रहे हैं?' हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा, 'अरे सब कुछ तो उस ने बता दिया था, करुण रस के बारे में मैं ने पूछा था और उस ने सहज ही करुण उपस्थित कर दिया। और अब क्या चाहिए था?' लोग चुप हो गए थे। हालां कि इस की पराकाष्ठा हुई जल्दी ही। अगली बार वाइबा के लिए नामवर सिंह आए। कुछ 'होशियार' अध्यापकों ने लडकियों को बता दिया कि यह नामवर उन्हीं हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं। अब जो भी लड़की आए, जो भी सवाल नामवर पूछें लड़की जवाब देने की बजाय रो पडे। नामवर परेशान कि यह क्या हो रहा है? अंतत: उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह प्रसंग बता दिया गया। लेकिन नामवर नहीं पिघले। रोने वाली सभी लडकियों को वह फेल कर गए। तो भी क्या था हम कोई नामवर सिंह के पास जा भी नहीं रहे थे। हम तो कबीर को परिभाषित और व्याख्यायित करने वाले, वाणभट्ट की आत्मकथा लिखने वाले सहृदय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास जा रहे थे।
खैर, तय हुआ कि इम्तहान खत्म होते ही बनारस कूच किया जाए मय पांडुलिपि के। और आचार्य से मिल कर भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कौन रोक सकता है अब प्यार करने से! की तर्ज पर मान लिया गया कि कौन रोक सकता है अब किताब छपने से ! इम्तहान खत्म हुआ। गरमियों की छुट्टियां आ गईं। स्टूडेंट कनसेशन के कागज बनवाए गए। और काशी कूच कर गए दो लोग। एक मैं और एक रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्धे। सहस्रबुद्धे के साथ सहूलियत यह थी कि एक तो उस के पिता रेलवे में थे, दूसरे उस का घर भी था बनारस में। सो उस को तो टिकट भी नहीं लेना था। और रहने-भोजन की व्यवस्था की चिंता भी नहीं थी। मेरे पास सहूलियत यह थी कि बुद्धिनाथ मिश्र एक कवि सम्मेलन में मिल गए थे, उन से जान-पहचान हो गई थी। उन्हों ने अपने घर काली मंदिर का पता भी दिया था। वह आज अखबार में भी थे। सो मान लिया गया कि वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलवा देंगे।
बनारस पहुंचे तो नहा खा कर आज अखबार पहुंचे। पता चला कि बुद्धिनाथ जी तो शाम को आएंगे। उन के घर काली मंदिर पहुंचे। वह वहां भी नहीं मिले। कहीं निकल गए थे। शाम को फिर पहुंचे आज। बुद्धिनाथ जी मिले। उन से अपनी मंशा और योजना बताई। वह हमारी नादानी पर मंद-मंद मुसकुराए। और समझाया कि, 'इतनी जल्दबाज़ी क्या है किताब के लिए?' मैं ने उन की इस सलाह पर पानी डाला और कहा कि, 'यह सब छोडिए और आप तो बस हमें मिलवा दीजिए।' वह बोले कि, 'अभी तो आज मैं एक कवि सम्मेलन में बाहर जा रहा हूं। कल लौटूंगा। और कल ही अभिमन्यू लाइब्रेरी में शाम को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के तैल चित्र का अनावरण है। आचार्य जी ही करेंगे। वहीं आ जाना, मिलवा दूंगा। पर वह भूमिका इस आसानी से लिख देंगे, मुझे नहीं लगता।' मैं ने छाती फुलाई और कहा कि, 'वह जब कविताएं देखेंगे तो अपने को रोक नहीं पाएंगे।' बुद्धिनाथ जी फिर मंद-मंद मुसकुराए। और बोले, 'ठीक है तब।' और तभी श्यामनारायन पांडेय आ गए उन्हें लेने। वह चले गए।
उस बार बनारस में और भी तमाम लोगों से मिला। लोलार्क कुंड पर काशीनाथ सिंह से लगायत सोनिया पर शंभूनाथ सिंह तक से। लेकिन जैसी मुलाकात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से हुई, जिस नाटकीय अंदाज़ में हुई, वह कभी भूल नहीं सकता। वह तो न भूतो न भविष्यति। लगता है १९७६ की गरमियों की वह घटना आज भी आंखों में वैसी की वैसी टंगी पडी है, मन में बसी पडी है। बहरहाल दूसरे दिन शाम को पहुंच गए अभिमन्यू लाइब्रेरी।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आए। छोटे-बड़े सभी लोग बारी-बारी उन के पांव छूने लगे। उन की भद्रता और विद्वता के बारे में ज्ञान होते हुए भी जाने क्यों, मुझे बड़ा बुरा लगा। पांव छूना तो दूर, नमस्कार भी नहीं किया उन को, बल्कि कनखियों से खिल्ली भी उड़ाने लगा। पांव छूने वालों की और छुलाने वाले की भी। हालां कि खिल्ली उड़ाने वाला अकेला मैं ही था, तिस पर बैठा भी था एकदम आगे, बल्कि द्विवेदी जी के ठीक पास में। फलत: बहुत बचाव करने पर भी मैं बार-बार उन की नजरों से टकरा ही जाता था। फिर भी बड़े विरक्त भाव से उन को देखने लगता। जाने क्या हो गया था अचानक मुझे। इसी ऊहापोह में तैलचित्र का अनावरण भी हो गया और गोष्ठी भी खत्म हो गई। इधर-उधर की बातें होने लगीं। अचानक किसी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी से किसी पत्रिका में उन के खिलाफ़ कुछ छपे और उस के संपादक का ज़िक्र किया तो वह नाराज होने के बजाय मंद-मंद मुसकुराए और विनोद में बोले, 'अरे, सम-पादक हैं!' लोग ठठा कर हंसने लगे। थोडी देर बाद लोग उठ कर जाने लगे। मैं यंत्रवत बैठा रहा। वे भी उठ कर फिर बैठ
गए। मैं ने समझा कि शायद वे मेरी हरकत से रुष्ट हैं और कुछ...असंमजस में ही लगभग उन को नकारते हुए उठ कर चलने लगा कि उन्हों ने बड़े सरल सहज भाव से कहा, ‘सुनो भई।’
मैं अचकचा कर रुक गया। बोला, ‘जी।’
‘क्या करते हो?’
‘पढ़ता हूं बी. ए. में।’
‘किस कॉलेज में?’
‘जी यहां नहीं...गोरखपुर में पढ़ता हूं।’
‘हूं, यहां कैसे आए?’
‘जी, घूमने आया था।’ हालां कि कहना चाहता था कि आप ही से मिलने आया हूं। पर मुंह से निकला घूमना। खैर।
‘क्या-क्या देखा?’
‘जी, अभी तो लोगों से मिल रहा हूं।’
‘चलो, लोगों से मिल रहे हो तो देख भी लोगे’ कहते हुए हंस कर वे उठ पड़े।
मेरा अक्खड़पन धीरे-धीरे टूटने सा लगा था। उन के सौम्य, सहज स्वभाव के आगे किसी आवाज में इतना ज़बरदस्त वाइब्रेशन और उस में भी स्नेह और स्निग्धता की छुअन इतने करीब से मैं ने इस से पहले कभी नहीं महसूस की थी। बात करते-करते हम सड़क पर आ गए थे। इसी बीच बुद्धिनाथ जी समझ गए कि मैं अपनी अकड में अपनी बात कहने में संकोच बरत रहा हूं। सो उन्हों ने बडी सहजता से आचार्य जी को बताया कि, 'वास्तव में यह आप ही से मिलने बनारस आए हैं।'
'अरे !' वह बोले, 'पर यह तो घूमने आने की बात बता रहा था।'
अब मैं और हडबडा गया। कविता संग्रह की पांडुलिपि हाथ में ही थी। फ़ौरन मैं ने उन के आगे रख दी।
'यह क्या है?' उत्सुक हो कर पूछा उन्हों ने।
'पांडुलिपि !' मैं ने संकोचवश जोडा, 'कविता संग्रह की पांडुलिपि।'
'अच्छा-अच्छा !'
'आप से भूमिका लिखवाना चाहता हूं।'
'अरे ! अभी?' अब वह अचकचाए।
'जी हां।'
'यहीं खडे-खडे भूमिका लिखी जाएगी? बुद्धिनाथ जी ने टोका।
'फिर?' मैं अचकचाया।
'अरे, कल घर चले जाना।'
फिर यह तय हो गया कि कल शाम को मैं रवींद्रपुरी स्थित उन के आवास पर मिलूंगा। द्विवेदी जी अपनी छड़ी घुमाते हुए एक रिक्शे पर बैठ गए। कुछ बाकी बचे लोगों ने फिर उन के पांव छुए। मैं ने भी चाहते न चाहते नमस्कार कर विदा ली। अगली दोपहर को मैं हाजिर था...आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के रवींद्रपुरी स्थित आवास पर। बाहर उन का माली कुछ काम कर रहा था। मैंने कहा कि जा कर द्विवेदी जी से कह दो कि गोरखपुर का दयानंद मिलने आया है। यहां यह बता दूं कि मेरी पूर्व अक्खड़ता मेरे दिल-दिमाग पर फिर जाने कहां से आ कर मंडराने लगी थी। खैर, माली भीतर गया और मैं खड़ा उन के उद्यान में लगे अमोले (आम) के टिकोरे निहारने लगा। तभी, फिर वही आवाज, जिस का कोई जादू मेरे अंतर्मन पर अभी भी छाया हुआ था, सुनाई दी। मैं अभी ‘नमस्कार’ करने की सोच ही रहा था कि ‘कहो भई नमस्कार! तुम आ ही गए। आओ, भीतर आओ।’ द्विवेदी जी के दोनों हाथ अब भी बंधे हुए थे।
मैं हकबक, पूरे बदन में सनसनी-सी दौड़ गई। यह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे, पानी-पानी हो गया था मैं। झट दौड़ कर मैं ने झुक कर उन के पांव छुए कि उन्हों ने मुझ उच्छृंखल लड़के को उठा कर सीने से लगा लिया। यह कहते हुए, ‘अरे, नहीं-नहीं। इस की क्या ज़रूरत थी।’ मैं ने फिर पांव छुए उन के। एक अजीब-सा सुख महसूस हो रहा था उन के पांव छू कर मुझे। फिर कमरे में बैठाया उन्हों ने। बडी देर तक जाने क्या-क्या बतियाता रहा था, उस दिन मारे खुशी के। अब वह ठीक-ठीक याद भी नहीं है।
इतना ज़रूर याद है कि मैं कभी उन की धोती-बंडी में समाई गोरी छलकती देह और निश्छल चेहरा देखता, तो कभी उन के उस बड़े से कमरे में चारों ओर सजी अनगिनत किताबों को। इतनी समृद्ध व्यक्तिगत लाइब्रेरी भी मैं ने नहीं देखी थी, तब तक। इस घटना के बाद भी एक बार और अपने छुटपन का एहसास करते हुए मैं उन से मिला, लेकिन उन्हों ने कभी मेरे छुटपन का एहसास, कम से कम अपनी ओर से, मुझे नहीं होने दिया। बहरहाल थोडी देर बाद मै ने उन के सामने फिर से वह पांडुलिपि रख दी।
थोडी देर वह उसे उलट-पलट कर देखते रहे। फिर एक गहरी सांस ली। और बोले, 'हूं !' और मेरी ओर ऐसे देखा गोया तुरंत-तुरंत मिले हों। वह जैसे मेरे चेहरे पर कुछ खोजते से रहे। पर बोले कुछ नहीं। मैं ही बोला, ' इस की भूमिका लिख दीजिए।'
'पर इसे छापेगा कौन?' पूछा उन्हों ने ज़रा बेचैन हो कर।
'अरे जब आप भूमिका लिख देंगे तो कौन नहीं छापेगा? मैं अतिरिक्त उत्साह में बोल गया।
'तो हम को बेंचोगे?' वह ज़रा रुष्ट हुए पर तनिक मुसकुरा कर बोले।
मैं चुप रहा। उन के इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं मिल रहा था मुझे तब। वह फिर कविताओं को उलट-पुलट कर देखने लगे। थोडी देर बाद बोले, 'अभी इसे रख दो। पढाई लिखाई पूरी कर लो। फिर इस बारे में सोचना।'
'लेकिन हमें तो बस इसे छापना ही छापना है। हर कीमत पर।' मैं ने अपनी आवाज़ में पूरी दृढता और जोश भरा।
'मान लो मेरे भूमिका लिखने के बाद भी अगर कोई प्रकाशक न छापे तब?'
'तब हम लोग खुद छापेंगे।'
'पैसा कहां से लाओगे?'उन्हों ने जैसे जोडा, ' पिता का पैसा नष्ट करोगे?'
'नहीं, हम सभी कवि मिल कर चंदा बटोरेंगे।'
'चंदा ! किताब छापने के लिए चंदा?'
'हम लोग गोष्ठी के लिए आपस में चंदा करते रहते हैं। किताब छापने के लिए भी कर लेंगे।'
'तुम्हारी आयु कितनी है?'
'यही कोई १७ - १८ वर्ष।'
'तो अभी पढाई-लिखाई पर ध्यान दो। यह किताब छापना भूल जाओ।'
'तो कविता नहीं लिखूं?' मैं जैसे फूट पडा।
'नहीं कविता लिखो। पर पढाई पहले।'
'और यह किताब?' अब मैं अधीर हो चला था।
'पूरा जीवन पडा है इस सब के लिए।'
'आप प्लीज़ भूमिका लिख दीजिए। बहुत विश्वास के साथ आप के पास आए हैं।' मुझे लगा कि अब जैसे मैं रो दूंगा।
'विश्वास बुरी बात नहीं है। पर अभी बहुत जल्दी है।थोडा रुक जाओ।'
'आप जैसे भी हो भूमिका लिख दें।'
'अच्छा लिख दूं भूमिका और कोई नहीं छापे तब?'
'मैं ने आप को पहले ही बताया कि चंदा कर लेंगे।'
'चलो छाप भी लोगे तो बेचेगा कौन?'
'हम लोग ही।'
'और जो न बेच पाए तब?'
'बेच लेंगे। बस अब आप लिख दीजिए।'
'ठीक है लिख दूंगा।'
यह सुन कर मेरी जाती हुई जान में जैसे जान आ गई। लेकिन तभी वह बोले, 'जब एक दो फ़र्मा छप जाए तो भेज देना। मैं तुरंत भूमिका लिख दूंगा।'
'यह भी ठीक है।' मैं ने थोडी बच्चों जैसी होशियारी दिखाई। और बोला, 'यह बात भी आप लिख कर दे देंगे?'
'क्या?' वह जैसे कुपित हुए।
'जी इस लिए कि मेरे दोस्तों को यकीन हो जाए। नहीं मेरी बडी बेइज़्ज़ती हो जाएगी।'
'तो सब को बता कर आए हो?'
'जी !' कह कर मैं हाथ जोड कर खडा हो गया।
'बैठ जाओ।' वह बोले,' मेरी बात सुनो। ध्यान से सुनो।' वह बोलते जा रहे थे, 'अपने मा-बाप की कमाई किताब छापने में मत बर्बाद करो।'
'बर्बाद नहीं करेंगे।'मैं ने कहा, 'बेच कर पैसा वापस ले लेंगे। खर्चा तो निकाल ही लेंगे हम सब मिल कर।'
'चलो मानता हूं कि किताब तुम छाप भी लोगे और बेच भी लोगे। उत्साह और जोश से भरे हुए हो। कर लोगे। पर इस में भी दो खतरे हैं।' वह बोले, 'किताब अगर छाप कर बेच लोगे तो कविता भूल जाओगे। व्यवसाई बन जाओगे। पैसा कमाने में लग जाओगे।' वह ज़रा रुके और बोले, 'और अगर किताब नहीं बेच पाओगे तब भी कविता भूल जाओगे। यह सोच कर कि इतना नुकसान हो गया। इस से अच्छा है कि किताब छापना भूल जाओ। कविता लिखना तुम्हारे लिए ज़रुरी है, किताब छापना नहीं। यह तुम्हारा काम नहीं।'
बहुत देर तक मैं उन से अनुनय-विनय करता रहा। पर वह नहीं माने। समझाते रहे कि खुद किताब मत छापो। और कि छापने की ज़िद ही है तो फ़र्मे छाप कर ले आओ फिर भूमिका लिख दूंगा। अंतत: मैं चलने को हुआ तो उन के पैर छुए। उन्हों ने भरपेट आशीर्वाद दिया। गले लगाया। और फिर समझाया कि किताब खुद मत छापना। नहीं कविता लिखना भूल जाओगे।
मैं चला आया। उदास और हताश। दोस्तों ने खूब मजाक उडाया।
खैर बात आई गई हो गई। अंतत: वह कविता की किताब नहीं छपी। चंदा ही इकट्ठा नहीं हो पाया। एक ज्वार आया था, उतर गया था।
बाद के दिनों में मेरी कविताएं छिटपुट पत्रिकाओं-अखबारों में छपने लगीं। जिस तार सप्तक से अभिभूत मैं ने वह कविता संग्रह छपवाने की अनथक और असफल कोशिश की थी उस के संपादक अज्ञेय जी ने भी नया प्रतीक में मेरी कविताएं छापीं। तो भी धीरे-धीरे मैं कविता लिखना सचमुच भूल गया। खास कर अखबारी नौकरी ने कविता को जैसे चूस लिया। यह भी लगने लगा कि कविता, अच्छी कविता नहीं लिख पा रहा हूं। लगने लगा कि वह कविता ही क्या जो झट से जुबान पर न चढे। तो छोड दिया कविता लिखना। हां, कविता पढना और सुनना आज भी मेरा प्रिय काम है। खैर, बहुत बाद में कहानी, उपन्यास आदि लिखने लगा। बाकी दोस्त तो कुछ भी लिखना भूल गए। लेकिन मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ घटी यह घटना कभी नहीं भूला। कुछ दोस्तों को जब कोई किताब या पत्रिका छापने का जुनून सवार होता है तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की वह बात बताना भी नहीं भूलता कि खुद मत छापना नहीं लिखना भूल जाओगे। कुछ दोस्त मान जाते हैं, ज़्यादातर नहीं मानते। बाद में पछताते हैं और सचमुच वह धीरे-धीरे लिखने-पढने की दुनिया से दूर होते जाते हैं। इक्का-दुक्का आधी-अधूरी सफलता पा भी जाते हैं।
बहरहाल इस घटना के कुछ समय बाद ही हजारी प्रसाद द्विवेदी एक व्याख्यान देने गोरखपुर आए। मिला उन से। उन्हों ने तुरंत पहचान लिया। और उसी तरह स्नेह छलकाते मिले। मैं ने लपक कर उन के पांव छुए तो उन्हों ने भी तपाक से गले लगा लिया।
'कविता लिख रहे हो न?'उन्हों ने तब भी पूछा था। और मैं ने सहमति में सिर्फ़ सिर हिला दिया था। वह मुसकुरा कर रह गए थे।
फिर उन से मुलाकात नहीं हुई। पर एक दिन दोपहर जब आकाशवाणी से समाचार में सुना कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निधन हो गया है। तो जाने क्यों बरबस रुलाई आ गई। उन का स्नेह बरबस याद आ गया। मैं फूट-फूट कर रो पडा। बहुतेरे साहित्यकारों, पत्रकारों से मैं वाबस्ता रहा हूं और कि हूं। पर दो ही साहित्यकारों के निधन पर मैं फूट-फूट कर रोया हूं अभी तक। एक हजारी प्रसाद द्विवेदी और दूसरे, अमृतलाल नागर के निधन पर। नागर जी से तो मैं खैर गहरे और लंबे समय तक जुडा रहा हूं पर हजारी प्रसाद द्विवेदी से तो कुल दो ही भेंट थी फिर भी।
अभी बीते साल बनारस गया था। गौतम चटर्जी ने बी एच यू के पत्रकारिता के छात्रों की कापियां जांचने को बुलाया था। एक शाम अस्सी घाट पर बैठे-बैठे मैं ने अपनी पहली बनारस यात्रा का ज़िक्र किया और हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलने का विस्तार से वर्णन किया। तो गौतम उछल गया। और मुझ से पूछा कि, ' अभी तक सब कुछ याद है?'मैं ने बताया कि, ' हां, मुझे तो उन का मकान नंबर ए-15 रवींद्रपुरी तक याद है।'
'अच्छा?' उस ने पूछा,'उन का मकान आज भी पहचान सकते हो?'
'हां, बिलकुल !'
'अच्छा !' कह कर वह उठ कर खडा हो गया। बोला, 'आओ तुम्हें एक अच्छी जगह ले चलते हैं।' फिर वह घाट-घाट की सीढियां चढते-उतरते अचानक ऊपर की तरफ आ गया। बात करते-करते, गली-गली घूमते-घुमाते अचानक एक सडक पार कर के एक जगह खडे हो कर बिलकुल किसी फ़िलम निर्देशक के शाट लेने की तरह इधर-उधर हाथ से ही एंगिल लेते हुए बोला, 'यह एक,दो,तीन,चार!' और मेरी तरफ़ देख कर बोला, ' बताओ इस में से हजारी प्रसाद द्विवेदी का मकान कौन सा है?'
यह सुनते ही मैं अचकचा गया। मैं ने कहा कि,'उन के घर के सामने एक बडा सा पार्क था।'
'तो यह है न वह पार्क। यह पीछे।' उस ने पीछे मुड कर दिखाया। सचमुच हम उस पार्क के सामने ही खडे थे। जो हडबडाहट में मैं देख नहीं पाया। लेकिन मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह 1976 में देखा गया घर पहचान नहीं पाया। तब उन के घर में बाहर बडा सा लान था। आम के पेड थे। ऐसा कुछ भी किसी भी मकान में नहीं था। तो भी मैं ने अनुमान के आधार पर एक मकान को चिन्हित कर दिया और कहा कि, 'यह मकान है।'
'बिलकुल नहीं।' गौतम किसी विजेता की तरह एक मकान दिखाते हुए बोला,'यह नहीं बल्कि यह मकान है।'
'पर इस में तो लान भी नहीं है, आम का पेड भी नहीं है और कि मकान भी छोटा है।' मैं भकुआ कर बोला।
'मकान वही है। छोटा इस लिए हो गया है कि मकान का बंटवारा हो गया है, उन के बेटों में। और उन्हों ने आगे लान के हिस्से में भी निर्माण करवा लिया है सो न पेड है आम का, न लान है।' कहते हुए उस ने जैसे पैक-अप कर दिया। बोला, 'अभी भी कुछ विवाद चल रहा है सो बंद है मकान।' और हाथ से इशारा किया कि अब चला जाए। हम लोग चलने लगे। मैं उदास हो गया था। एक तनाव सा मन में भर गया। ऐसे जैसे कोई तनाव टंग गया मन में। लगा कि जैसे चलते-चलते गिर पडूंगा। सोचने लगा कि कहां तो हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस घर को, इस घर की याद को साझी धरोहर मान कर संजोना चाहिए था, और कहां उस का मूल स्वरुप ही नष्ट नहीं था, विवाद के भी भंवर में लिपट गया था। दिल बैठने सा लगा। पर इस सब से बेखबर गौतम अचानक रुका और पीछे मुडते हुए बोला, 'ऐसी ही बल्कि इसी कालोनी में मैं भी एक छोटा सा मकान बनाना चाहता हूं। ताकि जहां शांति से रह और पढ-लिख सकूं।' गौतम के इस कहे ने मुझे जैसे संभाल सा लिया। मैं थोडा सहज हुआ। हम लोग अब वापस बी एच यू की ओर पैदल ही बतियाते हुए लौट रहे थे।
बीती जुलाई में फिर बनारस जाना हुआ। बी एच यू में साहित्य अकादमी की तरफ से दो दिवसीय बहुभाषी रचना-पाठ आयोजित था। मुझे भी कहानी पाठ करना था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की नातिन मुक्ता जी भी कहानी पाठ में थीं। बी एच यू से ज्ञानेंद्रपति के साथ पैदल ही अस्सी घाट चले गए। वहां से फिर पैदल ही होटल के लिए चलने लगे। ज्ञानेंद्रपति जी ने कहा कि चलिए आप को छोडते हुए उधर से ही घर चले जाएंगे। दो-तीन लोग और साथ हो लिए। बात-बात में मुक्ता जी की बात चली फिर बात आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मकान की आ गई। पता चला कि कई लोगों की नज़र बिल्डर से लगायत और तमाम लोगों की आचार्य के मकान पर गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। और तरह-तरह की बातें। हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद यह एक और धक्का था मेरे लिए।आखिर जिस ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा उसी का इतिहास और आवास हम नहीं बचा सकते?
हमारे समाज को क्या हो गया है? हम किस समय में जी रहे हैं? कि अपने लेखकों की रचना, उन का निवास भी नहीं सहेज सकते? । आखिर हमारे समय के अतुलनीय लेखक हैं यह दोनों आचार्य। सच्चे अर्थों में आचार्य। जिन से आचार्य शब्द की गरिमा बढती है। इस गरिमा को बचाना भी क्या ज़रुरी नहीं रह गया है अब हमारे लिए? इन दोनों आचार्यों को छोड कर हम हिंदी साहित्य और आलोचना की कल्पना भी कर सकते हैं क्या?
आपका यह आलेख पढ़ना एक सुखद अनुभव था |यह उदास अंत पढ़कर आश्चर्य नहीं हुआ | क्योंकि आजकल यही सहज परिणति है हर साहित्यकार की | यदि उसके परिजन ही सहेज सकें तो ठीक वरना यह हश्र होता है |
ReplyDeleteइला
प्रिय भाई,
Deleteसरोकारनामा में श्रद्धेय द्विवेदी जी पर आपका मार्मिक संस्मरण पढ़कर थोड़ी देर के लिए उसी युग में चला गया|बिलकुल भुला-बिसरा प्रकरण था यह|अपने को आपकी नज़रों से देखना और परखना काफी रोमांचक था मेरे लिए| सच कहूँ तो मेरे मन में आज भी द्विवेदी जी के घर का वही लान वाला चित्र बसा हुआ है| उनके निधन के बाद कभी उधर गया ही नहीं| और आपके अनुभव पढ़कर सोचता हूँ कि न जाना अच्छा ही रहा| कम से कम वह समग्र परिवेश तो मेरे मन में बचा हुआ है|
बहुत अच्छा लगा| इसी तरह बीच-बीच में सांकल खटखटाते रहिये|
अग्रज,
बुद्धिनाथ मिश्र
नमस्कार !
ReplyDelete"रचनाकार की रचना ही सबसे बड़ा स्मारक है. किसी अन्य स्मारक की आवश्यकता नहीं है."
संस्मरण मार्मिक तथा बोधपरक है.
जय प्रकाश पाठक
देवरिया.
पढ़ते हुए लगा की सामने घटित हो रहा है ,आपका बचपना और श्रद्धेय द्विवेदी जी का स्नेह और गंभीरता .बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरण ..
ReplyDeletebahut achha lekh hai aapka . aapka lekh padh kar mujhe apne B.H.U.ki yaad aa gai aur saath me us virasat ki bhi jise HAZARI PRASAD DWIVEDI kahate hai.
ReplyDeleteआज इसे फ़िर से पढा। फ़िर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteदुर्लभ संस्मरण..आभार पढ़ाने के लिए।
ReplyDeletedvivediji ki mahanata
ReplyDeleteजितने मन से आपने लिखा है, उतना ही मन लगा पढने में...
ReplyDeleteAacharya Diwedi Ji ' s house as well as Aacharya Ramshukl's house form part of my childhood memory as I grew up in the close neighborhood of Gurudham Colony. It's unfortunate that the two houses today remind us more about our clinical disregard for the need to preserve our heritage.
ReplyDeleteIn Hinduism, we burn the dead body, wait for it turn into ashes and later immerse it into the holy Ganges. May be, this belief in the divine purpose behind both the act of creation & the act of destruction makes us careless about our heritage. This also explains why the Hindus do not believe in building new monuments.
गत्यात्मक सौन्दर्य शायद इसे ही कहते हैं कि जितना नज़दीक जाओ उसका सौंदर्य और बढ़ताहि जाता है वरना दूर से तो ढोल भी सुहाबने लगते हैं। द्विवेदी जी को कहीं से पढ़ो किसी का पढ़ो उनकी महानता के रंग और भी चटक होते जाते हैं। आपके संस्मरण से भी वही पाया...धन्यवाद इस सुन्दर संस्मरण के लिए।
ReplyDeleteश्रद्धेय द्विवेदी जी को स्कूल में पढ़ते थे आज आपके बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी संस्मरण पढ़कर स्कूल के दिनों में खो जाना अच्छा लगा ..बहुत सी भूली-बिसरि यादें ताज़ी हो गयी ..
ReplyDeleteप्रस्तुति हेतु आभार आपका
बहुत ही सुंदर संस्मरण है। द्विवेदी जी के बारे में इस तरह से जानकर और अच्छा लगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteमेरी आयु बहुत छोटी है, आचार्य के सानिध्य का जैसा सुख आपको मिला वैसे किसी व्यक्ति का आशीर्वाद और आलिंगन भी संभव नहीं जान पड़ता पर इस आलेख को पढने के बाद ये अनुभूति हुई की आचार्य एक अदृश्य हवा की तरह छू कर गुजरें हो अभी अभी! जीवन में आपसे कभी मिलना हो सका तो खुद को भाग्यशाली समझूंगा!
ReplyDeletejaise koi chitrpat chal raha ho..
ReplyDeleteबहुत हृदयस्पर्शी ....
ReplyDeleteआपने जो लिखा की " आखिर जिस ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा उसी का इतिहास और आवास हम नहीं बचा सकते? " सच में नहीं बचा सकते क्योंकि वो साहित्य से अलग हैं जो इन धरोहरों पे नजरे गड़ाए बैठे हैं,वो क्या जानने गए धरोहर क्या है और क्या नहीं, उन्हें तो पैसे की फ़िक्र है । और शायद ये गलती हमारी ही है कि हमने साहित्य को संग्रहालय में डालकर उसे एक सीसे के अंदर बन्द कर दिया है जैसे अब वो सिर्फ देखने की चीज़ है न की पढ़ने और पढ़ने की । हम अपने साहित्य, संस्कृति और समाज को बहुत ही पीछे छोर चुके हैं शायद , तभी तो हम न तो उन धरोहरों को संभाल पा रहे हैं न तो बचा पा रहे हैं । साहित्य के बिना मनुष्य पूंछ विहीन जानवर के समान होता है और हम जानवर होते चले जा रहे हैं । और जानवर कभी किसी भी चीज़ को परखता नहीं है । तो आखिर हम कैसे परख ले की ये धरोहर हमें बचा के ही रखना है । ख़ैर किसने क्या किया , क्यों किया , कितना किया और कितना नहीं किया अब इसपे बहस से क्या करना , करना है तो अब क्या कर सकते हैं हम यही सोचा जाये सिर्फ इन धरोहरों के बारे में ।
ReplyDeleteअतुलनीय प्रसंग। साधुवाद आपको।
ReplyDeleteबहुत हृदयस्पर्शी संस्मरण
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ReplyDeleteसादर प्रणाम ।
आपने श्रीमान् हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को नमस्कार न करने, ....आदि का जो ज़िक्र किया तथा उसे अपनी अक्खड़ता का नाम दिया है, इसे अशिष्टता की संज्ञा क्यों न दी जाय ?
शेष सब ठीक है।अच्छा संस्मरण है।
सुंदर और मार्मिक
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआरडी शुक्ला बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख लिखा है आपने ।मै तो इतनी तल्लीन हो गई पढने मे कि आस-पास का भी ध्यान नही रहा ।वाकई, आज साहित्यकार को ही साहित्यिक धरोहरों को बचाने मे रूचि नही रही
ReplyDeleteआप ने जो स्व हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की वार्ता का विवरण दिया और उनके सम्पादकीय लेखन के विवरण की बात की है उसके लेखन शैली के लिये आपको बहुत बहुत बधाई व शुभकामनायेंआपकी लेखन शैली अद्वितीय है
ReplyDeleteअद्भुत संस्मरण
ReplyDeleteऐसी कुछ गलतियां हम जाने अनजाने कर ही जाते हैं और बाद में सोचते रह जातू हैं कि ऐसा क्यों हुआ, नहीं होना चाहिए था। आप तो फिर भी आचार्य जो से आशीर्वाद लें पाए परन्तु मैं ऐसे सुनहरे अवसर गंवा चुकी हूं जिनके लिए हमेशा पछतावा बना रहता है पर मौका चूक गया तो चुकी गया।
ReplyDeleteआशा शैली
बेहतरीन संस्मरण
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