Wednesday, 28 March 2012

दीप्ति नवल के अभिनय की दमक और उन के गुम हो जाने की त्रासदी की तड़क

अभिनय में एक खास तेवर का पर्याय हैं दीप्ति नवल। मध्यमवर्गीय युवती का अक्स हैं वह। संजीदगी, सलीका शऊर और मंद मंद फूटती हंसी सहेजे, बेचारगी लपेटे दीप्ति नवल श्याम बेनेगल निर्देशित फ़िल्म जुनून में ‘घिरि आई काली घटा मतवारी!’ गाती हुई सिनेमा की दुनिया में आई थीं। फिर “एक बार फिर” में उन्हों ने अभिनय की सहजता की जो बयार बहाई तो वह एक ताजा झोंका बन गई हिंदी सिनेमा की दुनिया में। पर भला कौन जानता था कि बहुत जल्दी ही सचमुच वह काली घटा से घिर जाएंगी। बहरहाल।


उन दिनों शबाना आजमी और स्मिता पाटिल सरीखी अभिनेत्रियां हिंदी सिनेमा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा तहलका मचाए हुए थीं। ऐसे समय में दीप्ति नवल “एक बार फिर” में आ कर एक बार तो शबाना और स्मिता को भी दौड़ा ले गईं। फिर बहुत बाद में आई “सौदागर” की संक्षिप्त भूमिका में सन्निपात और संकोच की सिलवटों का कोलाज रचने वाली, मझधार में विधवा व्यथा जीने वाली दीप्ति नवल चंडीगढ़ में पैदा हुईं और लंदन में बढ़ी-पली और अचानक ही हिंदी फ़िल्मों में लैंड कर गईं बरास्ता विनोद पांडेय।

“साथ साथ” में वह फिर फारुख शेख के साथ आईं। फ़िल्म में वह फारुख शेख के साथ प्यार की बेकली भी जीती है और दांपत्य का बिखराव भी, तो उन का अभिनय एक अंदाज़ बन जाता है । उन की आकुलता भी इतनी सहजता सहेजे रहती है कि वह सौंदर्य का सागर बन तन-मन को हिचकोले देने लगती है उन की मदमाती हंसी। यह उनकी हंसी की ही झनक है और सहजता भरे अभिनय की आंच जिसने उन्हें दर्शकों में इतना लोकप्रिय बना दिया ।

“श्रीमान और श्रीमती” में उन की जोड़ी राकेश रोशन के साथ है और दांपत्य की दारुणता ही उन के हिस्से में है। पर गोबर पाथने से ले कर होटल में डांस तक का संसार वह इस खूबी से जीती हैं कि फ़िल्म की जान बन जाती है। इस फ़िल्म में संजीव कुमार- राखी और अमोल पालेकर-सारिका की भी जोड़ी है, पर निगाहें संजीव कुमार के बाद दीप्ति नवल ही पर टिकती है। इस फ़िल्म में संजीव कुमार के साथ दीप्ति नवल की ट्यूनिंग देखते बनती है।

सई परांजपे की कथा में दीप्ति नवल नसीरुद्दीन शाह और फारुख शेख के साथ त्रिकोणात्मक प्यार रचते हुए उपस्थित है। मुंबइया चाल की सामूहिकता को दीप्ति नवल इस खूबी और सहजता से जीती है कि फ़िल्म का चुटीलापन और चटक हो जाता है।

“मोहन जोशी हाजिर हो” में वह फिर चाल में है पर प्यार की पेंगे मारती हुई नहीं चाल की त्रासदी को तार-तार करती हुई, अदालती चक्कर घिन्नियों में टूटती हुई एक सामान्य दांपत्य को जीती हुई, एक लड़ाई लड़ती हुई। दरअसल मध्यमवर्गीय युवती की भूमिका जिस जिजिविषा और संजीदगी से वह जीती हैं, उस की जटिलता को जिस सरलता से जीती हुई अभिनय की बखिया सीती चलती हैं, वह अनुभव करने लायक है। एक “श्रीमान और श्रीमती” और दूसरे “एक बार फिर” को फ़िल्म छोड़ कर बाकी सारी फ़िल्मों में दीप्ति नवल मध्यमवर्गीय त्रासदी को ही तार-तार करती मिलती हैं। उन्हों ने ज़्यादातर यथार्थवादी फिल्में ही की हैं और “एक बार फिर” भले मध्य वर्गीय न सही यथार्थवादी फिल्म तो है ही। इस तरह फ़ैंटेसी फ़िल्म के नाम पर दीप्ति नवल के नाम संभवत: “श्रीमान और श्रीमती” ही है।

कमला में वह शबाना के साथ हैं। एक आदिवासी युवती की भूमिका में। जिसे एक पत्रकार खरीद कर उसे दिल्ली लाता है, यह दिखाने के लिए कि आदिवासी लडकियों की खरीद-फरोख्त कैसे तो जारी है। और सरकार चुप है। अब अलग बात है कि रैकेट चलाने वाले लोग फ़िल्म में भारी पड जाते हैं। यह फ़िल्म में एक अलग बहस का विषय है। पर दीप्ति नवल ने यहां अभिनय की जो झीनी चादर बुनी है, वह अविस्मरणीय है। खास कर उस के लिए जो प्रेस कानफ़्रेंस आयोजित की गई है और उस में वह बिन बोले अपनी यातना घोल जाती हैं, वह दृश्य भूलता नहीं। बिन बोले अपनी यातना अभिनय में बांचना जो किसी को सीखना हो तो वह इस फ़िल्म में दीप्ति नवल से सीखे।

“अंधी गली” में उन के साथ कुलभूषण खरबंदा हैं। एक नए फ्लैट की चाह में दोनों इस तरह तिल-तिल कर मरते हैं कि वह चाह एक त्रासदी बन जाती है। मायके का सारा कुछ बेच कर फ्लैट की बात बनती भी है तो दीप्ति को लगता है कि पति ने उसे इस्तेमाल कर लिया है। वह छली गई है। और अंतत: पति ही जब उस से बलात्कार करता है तो वह फ्लैट से नीचे कूद कर जान दे देती है। इस चरित्र की जटिलता को बड़ी ही बारीकी से दीप्ति नवल ने बुना और जिया है। तांगे से गांव जाने और आने वाले दृश्य इतने मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं कि मन भींग जाता है, आंखें नम हो जाती हैं।

अमोल पालेकर निर्देशित “अनकही” दीप्ति नवल की अविस्मरणीय फ़िल्म है। “अनकही” में अभिनय की दमक देखने लायक है। वह गांव की एक अबोध युवती है जो हिस्टिरिया की रोगी है। शहर आ कर कैसे कैसे मौकों से वह दो-चार होती है यह देखना एक अनुभव है। टेलीफ़ोन की घंटी बजती है तो वह भूत समझ कर डर जाती है। अमोल पालेकर के छल में फंस कर भी खुश हो जाती है। इस जटिल चरित्र को जीना हर किसी के वश की बात नहीं थी। पर दीप्ति नवल ने इस चरित्र को न सिर्फ़ जिया, अपितु अविस्मरणीय बना दिया। मराठी उपन्यास “कालाय तस्मै नम:” पर आधारित “अनकही” में सूर कबीर के पदों को भी इस अबोधता से दीप्ति ने पर्दे पर गाया है कि मन तरल हो जाता है।

इत्तेफाक है कि अस्सी के दशक की ढेर सारी अविस्मरणीय और चर्चित फ़िल्में अधिकतर दीप्ति नवल के ही नाम है। केतन मेहता की “मिर्च मसाला” उन्हीं फ़िल्मों से एक है।“मिर्च मसाला” में भी वह शोषित पत्नी हैं। और उन की जोड़ी सुरेश ओबेराय के साथ है। इस फ़िल्म में उन की भूमिका छोटी है पर है यादगार। खास कर दो दृश्य। एक जिस में वह अपने जमींदार सरपंच पति से विद्रोह कर अपनी बेटी को पढ़ने स्कूल भेजती है और दूसरा गांव की एक औरत को बड़े जमींदार के हवाले करने के विरोध में गांव भर की महिलाओं को इकट्ठा कर के थाली पीटने वाला दृश्य। वह दृश्य अंगार उगलता है।

प्रकाश झा की “हिप हिप हुर्रे” में उन की जोड़ी राजकिरण के साथ है। रांची जैसे कस्बाई मानसिकता वाले महानगर में कॉलेज अध्यापिका के चरित्र की जटिल बुनावट को बिना किसी अतिरेक के वह जीती हैं। “हिप हिप हुर्रे” में शफी इनामदार के साथ का प्रसंग और कॉलेज स्टूडेंट का छेड़छाड़ और फिर प्यार वाला प्रसंग भी अच्छा बन पड़ा है।

प्रकाश झा की ही “दामुल” में दीप्ति नवल विधवा पुजारिन की भूमिका में हैं, जो जमींदार बने मोहन सिंह की रखैल भी है।और जब-जब गर्भ ठहर जाता है तो वह पुजारिन काशी कूच कर जाती है गर्भ गिराने। बाद में वही पुजारिन जमींदार के शोषण के खिलाफ गांव की सर्वाधिक मुखर आवाज़ बनती है तो यहां दीप्ति नवल का अभिनय अंगार बन जाता है।

टेली फ़िल्म “दीदी” में कथा बंगाल की है। दीदी से तीसरे दर्जे की वेश्या बन जाने वाले चरित्र को दीप्ति चाबुक मारती हुई जिस आह के साथ जीती हैं कि वह छलकती भी है और कसकती भी है।
पर तकलीफ़ होती है कि इतनी समर्थ अभिनेत्री जीते जी हम से बिला गई है। यह दांपत्य की गांठ दो सफल निर्देशकों की दो सफल अभिनेत्री पत्नियों को इस तरह डस लेगी, भला कौन जानता था? गुलज़ार की पत्नी राखी की ज़िंदगी में तो आंधी फ़िल्म आंधी बन कर आ गई और उन का दांपत्य उजाड गई। राखी खुद आंधी की नायिका की भूमिका करना चाहती थीं। पर गुलज़ार नहीं माने और यह भूमिका सुचित्रा सेन को दे बैठे। और उन का दांपत्य साल भर में ही उजड गया। तो भी राखी ने लंबा फ़िल्मी कैरियर जिया। और अपना बेस्ट भी दिया। तमाम सारे बिखराव के बावजूद। और फिर गुलज़ार और राखी के बीच एक सेतु उन की बेटी बोस्की भी हैं। पर दीप्ति नवल और प्रकाश झा के बीच ऐसा क्या घट गया कि उन का दांपत्य भी बहुत जल्दी ही बिखर गया, यह शायद वही दोनों ही जानते हैं। गुलज़ार और राखी के बीच तो बोस्की है। पर दीप्ति नवल और प्रकाश झा के बीच तो कोई संतान भी नहीं है। और फिर प्रकाश झा के पास लगातार फ़िल्में हैं। लेकिन दीप्ति नवल के पास तो ऐसा भी कुछ नहीं है। कैसे और कैसा जीवन हमारी यह समर्थ और प्रिय अभिनेत्री गुज़ारती हैं, यह वह ही बेहतर जानती होंगी। एक वाकया यहां नहीं भूलता। जब दीप्ति नवल की नई-नई शादी हुई थी तो तब प्रकाश झा का इतना डंका नहीं बजता था, न ही वह बहुत सफल निर्देशक तब हो पाए थे। तब रेखा ने दीप्ति नवल से एक जगह तंज में पूछ लिया कि, ‘तुम ने ऐसा क्या देख लिया प्रकाश झा में जो शादी कर ली?’ दीप्ति नवल ने उसी गुरुर से रेखा का तंज तोड कर रख दिया था तब यह कह कर कि, ‘वह कुंवारे हैं !’ रेखा चुप लगा गई थीं। उन दिनों तमाम अभिनेत्रियों में चलन सा था, अब भी है, शादी-शुदा मर्दों से शादी करना। खैर, दीप्ति नवल का वह दर्प इतनी जल्दी टूट जाएगा, यह भी भला कौन जानता था। अब जो भी हो पर अफ़सोस होता है कि एक समर्थ अभिनेत्री हम से ऐसे बिला गई है।उन के इस तरह अभिनय की दुनिया से गुम हो जाने की त्रासदी की तड़क कहीं गहरे मन को छील देती है। ऐसे लगता है जैसे दीप्ति नवल अपनी ही अभिनीत फ़िल्म अंधी गली की त्रासदी को अपने जीवन में भी जीती हुई अभिनय के फ़्लैट से छलांग लगा गई हैं।यह बहुत तकलीफ़देह है मेरे जैसे उन के प्रशंसकों के लिए। ऐसे ही में देखिए न गुरुदत्त और गीता दत्त की भी याद आ गई है। और कि उन की त्रासदी भी। ऐसा क्यों होता है सफल और सुलझे हुए जीनियस निर्देशकों और उन की समर्थ-सुंदर और सफल अभिनेत्री पत्नियों के साथ? समझना कुछ नहीं बहुत कठिन है।

4 comments:

  1. Deepti Naval ko 2011 mein Hema Malini kii film Tell Me O Khuda ke alaawa Bhindi Bazaa Inc., Zindagi Na Milegi Dobara aur Rivaaz mein dekha gaya tha. Unkii haaliya release film Listen...Amaya 1 Feb ko release hui thii. is film mein inke co-star Farooq Shaikh the.

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  2. dipti naval meri bhi priy abhinetri hain.... badhai ek sundar lekh padhne ko mila

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  3. दीप्ति जी के बारे में बहुत अच्छा लिखा है l फिल्मों के दौर की तरह इंसान की जिंदगी में भी नये-नये दौर आते हैं l शायद गुम हो जाना भी एक दौर है जिसमे दीप्ति जी फिल्मी दुनिया के अभिनय व पब्लिक की निगाह से ऊब कर कहीं मानसिक शांति की खोज में होंगीं l

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  4. राजेश खन्ना और डिम्पल भी इसी कड़ी के किरदार हैं।अहं (इगो) इसकी एक वजह है।

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