- अरविंद कुमार
उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध’ से एकदम चर्चित दयानंद पांडेय इस बार एक और भी चर्चित उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ ले कर आए हैं। ‘लोक कवि...’ के दो पहलू हैं जो चर्चा की मांग कर रहे हैं। पहला है बाज़ारीकरण, दूसरा है लोक संस्कृतियां और आज का भारत। दूसरे पहलू को और भी केंद्रित करें तो वह है हिंदी का स्वरूप-खड़ी बोली बनाम आंचलिक भाषाएं। कई कठोर प्रश्न तो दयानंद पांडेय ने उठाए हैं, पर उनके और भी कठोर उत्तरों से वह कतराते हैं। वही नहीं, हिंदी की इन आंचलिक संस्कृतियों के अधिकांश चाहने वाले भी।
सब से पहले मैं बाज़ारीकरण की बात करना चाहूंगा - जो इस रोचक और मार्मिक उपन्यास का मुख्य पक्ष है। इसके लिए हमें इसके कथा पक्ष में जाना होगा। कहानी का मुख्य पात्र लोक कवि यानी मोहना एक सीधा सादा भावुक विरहा का मारा और मधुर आवाज़ में बिरहा गाने वाला सहज प्रतिभा वाला गायक है। वह मुख्य पात्र तो है लेकिन नायकों वाले ढांचे में नहीं ढला है। उसके पास कोई उच्च आदर्श नहीं है, विद्रोह के नारे नहीं हैं... वह अपने परिप्रेक्ष्य की एक ऐसी उपज है जो उसे आम आदमी जैसा ही बनाए रखती है। उसका यही गुण इस उपन्यास को एक अनोखी पैनी धार देता है।
आरंभ में उसमें महत्वाकांक्षा नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। बस एक चाहत है, जो गांव की गोरी धाना के लिए है। धाना के न मिलने से यह चाह कसक बन जाती है। धीरे-धीरे उसकी निजी कसक आसपास के समाज की कुरीतियों विसंगतियों के विरोध में प्रभावशाली गीत बन कर गूंजने लगती है। पिटता पिटाता लाचार मोहना यहां वहां गाता घूमता है कि एक कम्युनिस्ट नेता की नज़र उस पर पड़ती है। इसके बाद मोहना परिस्थितियों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। पार्टी की जन सभाओं से उसके गाने और उसका नाम आसपास के क्षेत्रों तक पहुंच जाता है। वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन चुका है और विधान सभा की चुनावी सभाओं में उसके गानों की लोकप्रियता नेता की जीत का एक कारक बनती है। नेता जी उसे लोक कवि नाम देते हैं। उनके साथ साथ मोहना गांव से उठ कर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नेता की गराज में रहने पहुंच जाता है। यहां उसमें आकांक्षाएं जागती हैं। एक-एक पायदान चढ़ता वह बाज़ार तक पहुंचना चाहता है। अपनी कला पहले रेडियो पर, बाद में कैसेटों पर दिखाना चाहता है। कब बाज़ार उसे अपनी कठपुतली बना लेता है उसे पता नहीं चलता। वह पूरी तरह बाजारू कलाकार बन गया है। चारों तरफ उस का नाम है... अब वह बाज़ार को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की तरह नचाना चाहता है। उसकी गान मंडली में लड़कियों का प्रवेश होता है, इस आधार पर कि इससे उस के मंच कार्यक्रम और अधिक लोकप्रिय हों। पहले परिस्थितियों ने उससे लाभ उठाया था, अब वह परिस्थितियों से लाभ उठाना चाहता है। लेखक के शब्दों में कहें तो-‘वह अर्जुन से कई कदम आगे थे। लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी को देखते। बल्कि कई बार तो सिर्फ़ द्रौपदी को देखते... वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी।’ उनका कहना था कि हर बिगड़ा काम बन सकता है, ‘जोगाड़ चाही’। वह यह नहीं जान पाता कि वास्तव में यह प्रक्रिया उसे बाज़ार के दलदल में और भी नीचे घसीट रही है।
उसकी आरंभिक कसक धीरे-धीरे कचोट में बदल जाती है, जिसे भारी भरकम भाषा में कुंठा कहते हैं। अब उसका जीवन चार-पांच शब्दों में समेटा जा सकता है-सुरा, सुंदरी, समाचार और सत्ता की संगति... एक ओर वह समाचार पत्रों के द्वारा प्रचार की जुगत में लग जाता है "लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते", सत्ता के गलियारों में अपने बाज़ार को और भी बढ़ाने के लिए सम्मान और पुरस्कार समेटना चाहता है, तो दूसरी ओर भीतर की कचोट उसे सुरा और सुंदरी में डुबो देती है... जो अपने जोगाड़ से बाज़ार बढ़ा रहा था, अब वह बाज़ार की कठपुतली बन गया है। इस लाचार गुलामी के अनेक उदाहरण उपन्यास में हैं। एक ही उदाहरण देना काफी होगा। उसके भतीजे को एड्स लग जाता है तो लोक कवि की सबसे बड़ी चिंता इस खबर को हर कीमत पर छिपाए रखने की है - क्योंकि लोगों को पता चल गया तो बाज़ार पर क्या असर पड़ेगा।
सधी किस्सागोई का सबूत दयानंद पांडेय ‘अपने अपने युद्ध’ में ही दे चुके थे। यहां वह उस कला को और पैनी तरह से सामने लाने में सफल हुए हैं। बड़ी कुशलता से उपन्यास के चतुर्थांश तक पहुंच कर जब मोहना का नाम अपने चरम पर है दयानंद पांडेय बड़े सहज ढंग से कथा का रूख गांव की ओर मोड़ देते हैं। बड़े जोड़-तोड़ के बाद मोहना को पांच लाख का पुरस्कार-सम्मान मिला है। यह सम्मान दिया जाएगा उसके अपने जनपद में। सम्मान पा कर वह अपने पैतृक गांव जाता है। यहां से उसके व्यक्तित्व के कई मार्मिक प्रसंगों की पुराकथा शुरू होती है। गांव की भाभियां महिलाएं उसका परीछन कर रहीं हैं। लोक संस्कृति के सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं। दूर खड़ी सकुचाई सी एक बुढ़िया सी स्त्री को भी एक चतुर महिला परीछन में भाग लेने के लिए पुकारती है। यह बुढ़िया सी है मोहना की सखी धाना। फिर धाना के साथ मोहना के यौवन के रूमानी क्षण। कुछ दृश्य तो संस्कृत की रूमानी काव्य परंपरा के निकट पहुंच जाते हैं।
मोहना की सबसे बड़ी खूबी है अपने निजी संबंधों में पूरी निष्ठा और निभाव। इसके चलते अनेक पात्र आते हैं। वे सब अपनी शक्तियों कमज़ोरियों और रोचक कथाओं और पुराकथाओं के साथ आते हैं और मुख्य कथा को बल देते हैं। चेयरमैन साहब। ठाकुर पत्रकार। गायिका मीनू, उसका पति उमेश। स्वतंत्रता सेनानी त्रिपाठी जो कभी निष्ठावान थे, जिन्होंने देश की आज़ादी में अपने योगदान को भुनाना नहीं चाहा और अब सत्ता के गलियारों में लाइसैंसों के दलाल बन गए। गांव के विलेज बैरिस्टर गायक गणेश तिवारी जो हर किसी के काम में रोड़ा अटका सकते हैं और ज़मीन जायदाद खरीदवा भी सकते हैं और फिर बिना कीमत बेचने वाले को वापस दिलवा भी सकते हैं। हर होने वाले रिश्ते को तुड़वा सकते हैं। शहर के वकील वर्मा जो पैसा कमाने के लिए विधवा ठकुराइन को डरा बहका कर उस का धन-तन लूटते खसोटते रहते हैं... गांव के भुल्लन पंडित... उन का बेटा गोपाल जो बैंकाक से एड्स की सौगात ला कर गांव को सौंप जाता है। भुल्लन पंडित को छोड़ कर ये सब किसी न किसी तरह बाज़ार के शिकार हैं। पांडेय में कहीं कुछ ऐसा छिपा है जो कभी भविष्य में उनसे आधुनिक समाज का वृहत् कथा सरित्सागर लिखवा सकता है...।
पर अब मैं उन कठोर सवालों की ओर आता हूं जो दयानंद ने उठाए हैं, पर जिनका साफ जवाब देने से वह कतरा गए हैं। इन जवाबों के लिए एक बार पूरे समाज को आज़ादी की और हिंदी की लड़ाई के इतिहास में जाना पड़ेगा। या शायद संस्कृत भाषा और प्राकृतों के परस्पर संबंधों में भी।
अंत तक आते-आते लोक कवि निराश हो चुके हैं। अब वे तब गाते हैं जब महफिल उखाड़नी होती है। अंतिम दृश्य में वह खुद से सवाल करते हैं-
‘भोजपुरी बिरहा में यह लड़कियों की फसल मैंने ही बोई है तो काटेगा कौन?’
लेकिन इस से भी पहले...
ठाकुर पत्रकार और लोक कवि अपने को भोजपुरी का प्रेमी मानते हैं। एक दिन वे भोजपुरी की दुर्दशा पर बात कर रहे थे। तब लोक कवि कहते हैं- ‘क्या कीजिएगा भोजपुरी गरीब गंवार की भाषा है... जइसे गरीब की लुगाई है, भोजपुरी सबकी भौजाई है... लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए। पाकिस्तान को हरा दिए, देश को जिता दिए, लेकिन भोजपुरी को जिताने की फिकिर नहीं की। चंद्रशेखर जी अपने बलिया वाले... कुछ हज़ार लोगों की बोली डोगरी को, नेपाली को संविधान में बुला लिए। लेकिन भोजपुरी को भुला गए।’
इस चर्चा में बाबू राजेंदर प्रसाद भी नवाजे जाते हैं। और ज़िक्र वीएस नायपाल का भी होता है जो भोजपुरी मूल के होते हुए भी और आधुनिक हिंदी या खड़ी बोली से अपरिचित होते हुए भी, अपने पुरखों की भाषा के लिए कुछ नहीं करते। जब पत्रकार उन्हें बताता है कि नायपाल अंगरेज़ी के दिग्गज हैं, तो लोक कवि फ़रमाते हैं, ‘ऐसे ही लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी का विनाश कर रहे हैं... भोजपुरी के लिए कुछ करेंगे नहीं। खाली मूड़ी गिना देंगे कि हमहूं भोजपुरिहा हूं। हुंह, सजनी हमहूं राजकुमार ! जाने दीजिए अइसे लोगों की बात मत करिए!’
सबसे पहले तो एक सस्ता सवाल ‘लोक कवि’ के लेखक से भी किया जा सकता है- वह खड़ी बोली में क्यों लिख रहे हैं, भोजपुरी में क्यों नहीं? पर यह सवाल अर्थहीन है। असली सवाल है- हिंदी है क्या? आज जिसे हम हिंदी कहते हैं आज़ादी की लड़ाई में वह एक नारा थी, बाद में अनेक हिंदीवादी समर्थकों के लिए भी। यह नारा यह बताने का भी साधन था कि भारत की सब भाषाओं में उसके बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन क्या यह कभी सच था या आज है?
तथाकथित हिंदी क्षेत्र के कितने लोग वह हिंदी बोलते हैं जो हिंदी की एक बोली मात्र है-खड़ी बोली। राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी कही जाने वाली सभी लोक भाषाओं ने कुरबानी दी। मारवाड़ी, पहाड़ी, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली... गिनती बहुत लंबी है... लगभग कुछ ऐसा ही वेदों के काल के बाद साहित्यिक संस्कृत के विकास के और प्राकृतों और अपभ्रंशों के पिछड़ने के काल में हुआ था। शायद यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी सामाजिक संप्रेषण की। भौगोलिक मांगों के विकास की। सच तो यह है कि जिस प्रदेश की भाषा हिंदी मानी जाती है, वहां के लोग भी यह हिंदी नहीं बोलते, जो आज हिंदी कही जाती है। इसलिए उनकी कुरबानी भी कम नहीं है। अगर भोजपुरी लोक संस्कृति नहीं पनप रही है तो खड़ी बोली क्षेत्र की अपनी संस्कृति भी कहीं खो रही है।
दूसरी देखने की बात यह है कि क्या चाहने वालों ने अपनी भाषाओं को आधुनिक युग के अनुरूप बनाना चाहा। ब्रजभाषा के प्रेमियों ने अपने आप को राधा और कृष्ण से बाहर निकालने की कोशिश की? भोजपुरी वाले बिरहा आदि को ही अपनी संस्कृति का चरम विकास क्यों माने बैठे हैं? गुजरातियों ने डिस्को डांडिया स्वीकार कर लिया, तो क्या बिरहा की पुरानी प्रस्तुतिकरण की शैलियां पथरा गई हैं कि उनमें विकास नहीं हो सकता- ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रीय संगीत के कठमुल्ले यह माने बैठे हैं कि अब उससे आगे नहीं जाया जा सकता?
(इंडिया टुडे से साभार)
समीक्ष्य पुस्तक - लोक कवि अब गाते नहीं,
उपन्यास - दयानंद पांडेय
प्रकाशक - जनवाणी प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, 30/35-36,
गली नबंर - 9 विश्वास नगर, दिल्ली-110032
पृष्ठ संख्या - 184, मूल्य 200 रूपए
उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध’ से एकदम चर्चित दयानंद पांडेय इस बार एक और भी चर्चित उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ ले कर आए हैं। ‘लोक कवि...’ के दो पहलू हैं जो चर्चा की मांग कर रहे हैं। पहला है बाज़ारीकरण, दूसरा है लोक संस्कृतियां और आज का भारत। दूसरे पहलू को और भी केंद्रित करें तो वह है हिंदी का स्वरूप-खड़ी बोली बनाम आंचलिक भाषाएं। कई कठोर प्रश्न तो दयानंद पांडेय ने उठाए हैं, पर उनके और भी कठोर उत्तरों से वह कतराते हैं। वही नहीं, हिंदी की इन आंचलिक संस्कृतियों के अधिकांश चाहने वाले भी।
सब से पहले मैं बाज़ारीकरण की बात करना चाहूंगा - जो इस रोचक और मार्मिक उपन्यास का मुख्य पक्ष है। इसके लिए हमें इसके कथा पक्ष में जाना होगा। कहानी का मुख्य पात्र लोक कवि यानी मोहना एक सीधा सादा भावुक विरहा का मारा और मधुर आवाज़ में बिरहा गाने वाला सहज प्रतिभा वाला गायक है। वह मुख्य पात्र तो है लेकिन नायकों वाले ढांचे में नहीं ढला है। उसके पास कोई उच्च आदर्श नहीं है, विद्रोह के नारे नहीं हैं... वह अपने परिप्रेक्ष्य की एक ऐसी उपज है जो उसे आम आदमी जैसा ही बनाए रखती है। उसका यही गुण इस उपन्यास को एक अनोखी पैनी धार देता है।
आरंभ में उसमें महत्वाकांक्षा नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। बस एक चाहत है, जो गांव की गोरी धाना के लिए है। धाना के न मिलने से यह चाह कसक बन जाती है। धीरे-धीरे उसकी निजी कसक आसपास के समाज की कुरीतियों विसंगतियों के विरोध में प्रभावशाली गीत बन कर गूंजने लगती है। पिटता पिटाता लाचार मोहना यहां वहां गाता घूमता है कि एक कम्युनिस्ट नेता की नज़र उस पर पड़ती है। इसके बाद मोहना परिस्थितियों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। पार्टी की जन सभाओं से उसके गाने और उसका नाम आसपास के क्षेत्रों तक पहुंच जाता है। वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन चुका है और विधान सभा की चुनावी सभाओं में उसके गानों की लोकप्रियता नेता की जीत का एक कारक बनती है। नेता जी उसे लोक कवि नाम देते हैं। उनके साथ साथ मोहना गांव से उठ कर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नेता की गराज में रहने पहुंच जाता है। यहां उसमें आकांक्षाएं जागती हैं। एक-एक पायदान चढ़ता वह बाज़ार तक पहुंचना चाहता है। अपनी कला पहले रेडियो पर, बाद में कैसेटों पर दिखाना चाहता है। कब बाज़ार उसे अपनी कठपुतली बना लेता है उसे पता नहीं चलता। वह पूरी तरह बाजारू कलाकार बन गया है। चारों तरफ उस का नाम है... अब वह बाज़ार को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की तरह नचाना चाहता है। उसकी गान मंडली में लड़कियों का प्रवेश होता है, इस आधार पर कि इससे उस के मंच कार्यक्रम और अधिक लोकप्रिय हों। पहले परिस्थितियों ने उससे लाभ उठाया था, अब वह परिस्थितियों से लाभ उठाना चाहता है। लेखक के शब्दों में कहें तो-‘वह अर्जुन से कई कदम आगे थे। लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी को देखते। बल्कि कई बार तो सिर्फ़ द्रौपदी को देखते... वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी।’ उनका कहना था कि हर बिगड़ा काम बन सकता है, ‘जोगाड़ चाही’। वह यह नहीं जान पाता कि वास्तव में यह प्रक्रिया उसे बाज़ार के दलदल में और भी नीचे घसीट रही है।
उसकी आरंभिक कसक धीरे-धीरे कचोट में बदल जाती है, जिसे भारी भरकम भाषा में कुंठा कहते हैं। अब उसका जीवन चार-पांच शब्दों में समेटा जा सकता है-सुरा, सुंदरी, समाचार और सत्ता की संगति... एक ओर वह समाचार पत्रों के द्वारा प्रचार की जुगत में लग जाता है "लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते", सत्ता के गलियारों में अपने बाज़ार को और भी बढ़ाने के लिए सम्मान और पुरस्कार समेटना चाहता है, तो दूसरी ओर भीतर की कचोट उसे सुरा और सुंदरी में डुबो देती है... जो अपने जोगाड़ से बाज़ार बढ़ा रहा था, अब वह बाज़ार की कठपुतली बन गया है। इस लाचार गुलामी के अनेक उदाहरण उपन्यास में हैं। एक ही उदाहरण देना काफी होगा। उसके भतीजे को एड्स लग जाता है तो लोक कवि की सबसे बड़ी चिंता इस खबर को हर कीमत पर छिपाए रखने की है - क्योंकि लोगों को पता चल गया तो बाज़ार पर क्या असर पड़ेगा।
सधी किस्सागोई का सबूत दयानंद पांडेय ‘अपने अपने युद्ध’ में ही दे चुके थे। यहां वह उस कला को और पैनी तरह से सामने लाने में सफल हुए हैं। बड़ी कुशलता से उपन्यास के चतुर्थांश तक पहुंच कर जब मोहना का नाम अपने चरम पर है दयानंद पांडेय बड़े सहज ढंग से कथा का रूख गांव की ओर मोड़ देते हैं। बड़े जोड़-तोड़ के बाद मोहना को पांच लाख का पुरस्कार-सम्मान मिला है। यह सम्मान दिया जाएगा उसके अपने जनपद में। सम्मान पा कर वह अपने पैतृक गांव जाता है। यहां से उसके व्यक्तित्व के कई मार्मिक प्रसंगों की पुराकथा शुरू होती है। गांव की भाभियां महिलाएं उसका परीछन कर रहीं हैं। लोक संस्कृति के सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं। दूर खड़ी सकुचाई सी एक बुढ़िया सी स्त्री को भी एक चतुर महिला परीछन में भाग लेने के लिए पुकारती है। यह बुढ़िया सी है मोहना की सखी धाना। फिर धाना के साथ मोहना के यौवन के रूमानी क्षण। कुछ दृश्य तो संस्कृत की रूमानी काव्य परंपरा के निकट पहुंच जाते हैं।
मोहना की सबसे बड़ी खूबी है अपने निजी संबंधों में पूरी निष्ठा और निभाव। इसके चलते अनेक पात्र आते हैं। वे सब अपनी शक्तियों कमज़ोरियों और रोचक कथाओं और पुराकथाओं के साथ आते हैं और मुख्य कथा को बल देते हैं। चेयरमैन साहब। ठाकुर पत्रकार। गायिका मीनू, उसका पति उमेश। स्वतंत्रता सेनानी त्रिपाठी जो कभी निष्ठावान थे, जिन्होंने देश की आज़ादी में अपने योगदान को भुनाना नहीं चाहा और अब सत्ता के गलियारों में लाइसैंसों के दलाल बन गए। गांव के विलेज बैरिस्टर गायक गणेश तिवारी जो हर किसी के काम में रोड़ा अटका सकते हैं और ज़मीन जायदाद खरीदवा भी सकते हैं और फिर बिना कीमत बेचने वाले को वापस दिलवा भी सकते हैं। हर होने वाले रिश्ते को तुड़वा सकते हैं। शहर के वकील वर्मा जो पैसा कमाने के लिए विधवा ठकुराइन को डरा बहका कर उस का धन-तन लूटते खसोटते रहते हैं... गांव के भुल्लन पंडित... उन का बेटा गोपाल जो बैंकाक से एड्स की सौगात ला कर गांव को सौंप जाता है। भुल्लन पंडित को छोड़ कर ये सब किसी न किसी तरह बाज़ार के शिकार हैं। पांडेय में कहीं कुछ ऐसा छिपा है जो कभी भविष्य में उनसे आधुनिक समाज का वृहत् कथा सरित्सागर लिखवा सकता है...।
पर अब मैं उन कठोर सवालों की ओर आता हूं जो दयानंद ने उठाए हैं, पर जिनका साफ जवाब देने से वह कतरा गए हैं। इन जवाबों के लिए एक बार पूरे समाज को आज़ादी की और हिंदी की लड़ाई के इतिहास में जाना पड़ेगा। या शायद संस्कृत भाषा और प्राकृतों के परस्पर संबंधों में भी।
अंत तक आते-आते लोक कवि निराश हो चुके हैं। अब वे तब गाते हैं जब महफिल उखाड़नी होती है। अंतिम दृश्य में वह खुद से सवाल करते हैं-
‘भोजपुरी बिरहा में यह लड़कियों की फसल मैंने ही बोई है तो काटेगा कौन?’
लेकिन इस से भी पहले...
ठाकुर पत्रकार और लोक कवि अपने को भोजपुरी का प्रेमी मानते हैं। एक दिन वे भोजपुरी की दुर्दशा पर बात कर रहे थे। तब लोक कवि कहते हैं- ‘क्या कीजिएगा भोजपुरी गरीब गंवार की भाषा है... जइसे गरीब की लुगाई है, भोजपुरी सबकी भौजाई है... लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए। पाकिस्तान को हरा दिए, देश को जिता दिए, लेकिन भोजपुरी को जिताने की फिकिर नहीं की। चंद्रशेखर जी अपने बलिया वाले... कुछ हज़ार लोगों की बोली डोगरी को, नेपाली को संविधान में बुला लिए। लेकिन भोजपुरी को भुला गए।’
इस चर्चा में बाबू राजेंदर प्रसाद भी नवाजे जाते हैं। और ज़िक्र वीएस नायपाल का भी होता है जो भोजपुरी मूल के होते हुए भी और आधुनिक हिंदी या खड़ी बोली से अपरिचित होते हुए भी, अपने पुरखों की भाषा के लिए कुछ नहीं करते। जब पत्रकार उन्हें बताता है कि नायपाल अंगरेज़ी के दिग्गज हैं, तो लोक कवि फ़रमाते हैं, ‘ऐसे ही लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी का विनाश कर रहे हैं... भोजपुरी के लिए कुछ करेंगे नहीं। खाली मूड़ी गिना देंगे कि हमहूं भोजपुरिहा हूं। हुंह, सजनी हमहूं राजकुमार ! जाने दीजिए अइसे लोगों की बात मत करिए!’
सबसे पहले तो एक सस्ता सवाल ‘लोक कवि’ के लेखक से भी किया जा सकता है- वह खड़ी बोली में क्यों लिख रहे हैं, भोजपुरी में क्यों नहीं? पर यह सवाल अर्थहीन है। असली सवाल है- हिंदी है क्या? आज जिसे हम हिंदी कहते हैं आज़ादी की लड़ाई में वह एक नारा थी, बाद में अनेक हिंदीवादी समर्थकों के लिए भी। यह नारा यह बताने का भी साधन था कि भारत की सब भाषाओं में उसके बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन क्या यह कभी सच था या आज है?
तथाकथित हिंदी क्षेत्र के कितने लोग वह हिंदी बोलते हैं जो हिंदी की एक बोली मात्र है-खड़ी बोली। राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी कही जाने वाली सभी लोक भाषाओं ने कुरबानी दी। मारवाड़ी, पहाड़ी, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली... गिनती बहुत लंबी है... लगभग कुछ ऐसा ही वेदों के काल के बाद साहित्यिक संस्कृत के विकास के और प्राकृतों और अपभ्रंशों के पिछड़ने के काल में हुआ था। शायद यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी सामाजिक संप्रेषण की। भौगोलिक मांगों के विकास की। सच तो यह है कि जिस प्रदेश की भाषा हिंदी मानी जाती है, वहां के लोग भी यह हिंदी नहीं बोलते, जो आज हिंदी कही जाती है। इसलिए उनकी कुरबानी भी कम नहीं है। अगर भोजपुरी लोक संस्कृति नहीं पनप रही है तो खड़ी बोली क्षेत्र की अपनी संस्कृति भी कहीं खो रही है।
दूसरी देखने की बात यह है कि क्या चाहने वालों ने अपनी भाषाओं को आधुनिक युग के अनुरूप बनाना चाहा। ब्रजभाषा के प्रेमियों ने अपने आप को राधा और कृष्ण से बाहर निकालने की कोशिश की? भोजपुरी वाले बिरहा आदि को ही अपनी संस्कृति का चरम विकास क्यों माने बैठे हैं? गुजरातियों ने डिस्को डांडिया स्वीकार कर लिया, तो क्या बिरहा की पुरानी प्रस्तुतिकरण की शैलियां पथरा गई हैं कि उनमें विकास नहीं हो सकता- ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रीय संगीत के कठमुल्ले यह माने बैठे हैं कि अब उससे आगे नहीं जाया जा सकता?
(इंडिया टुडे से साभार)
समीक्ष्य पुस्तक - लोक कवि अब गाते नहीं,
उपन्यास - दयानंद पांडेय
प्रकाशक - जनवाणी प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, 30/35-36,
गली नबंर - 9 विश्वास नगर, दिल्ली-110032
पृष्ठ संख्या - 184, मूल्य 200 रूपए
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