दयानंद पांडेय
हम सुख़नफ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं !
नुमाइश के लिए गुलकारियां दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियां दोनों तरफ़ से हैं
जैसे शेर लिखने वाले मुनव्वर राना ने आख़िरकार साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी की घोषणा कर के अशोक वाजपेयी की लिखी इस पटकथा की हवा निकाल कर रख दी है। हालां कि अशोक वाजपेयी की एक कविता है :
हम अपने समय की हारी होड़ लगाएं
और दांव पर लगा दें
अपनी हिम्मत, चाहत, सब-कुछ –
पर एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए
ताकि हारने और गिरने के पहले
हम अंधेरे में
अपने अंतिम अस्त्र की तरह
फेंक सकें चमकती हुई
अपनी फिर भी
बची रह गई प्रार्थना ।
अशोक वाजपेयी की इस प्रार्थना के बावजूद उन की काठ की हांडी अब फिर से भला कहां चढ़ पाएगी ? पर मुनव्वर राना की इसी गज़ल का ही आख़िरी शेर है :
मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियां दोनों तरफ़ से हैं ।
लेकिन अशोक वाजपेयी की राजनीति इस बात को कहां समझने वाली है भला ?
सौभाग्य से मुनव्वर राना मेरे महबूब शायर हैं और अशोक वाजपेयी भी मेरे प्रिय कवि हैं । अद्भुत वक्ता और आलोचक भी हैं ।
मुनव्वर राना |
पहली नज़र में देखने पर मामला सचमुच बहुत नाज़ुक लगता है । पर क्या सचमुच ?
हालां कि साहित्य अकादमी प्रति वर्ष चौबीस भाषाओं के दो दर्जन से अधिक लेखकों को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजती है । इस अनुपात में जाएं तो बहुत काम लेखकों ने अभी यह पुरस्कार लौटाया है । बल्कि चार पांच भाषाओं को छोड़ दें तो ज़्यादातर भाषाओं से साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की बोहनी भी नहीं हुई है । पर देश में यह पहली बार है कि इतनी भारी संख्या में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए गए हैं । यह भी कम चिंता का विषय नहीं है । सरकार के लिए ख़तरे की घंटी है । जाने कब यह सिलसिला थमेगा , यह कोई नहीं जानता। लगता है जैसे कोई भूचाल आ गया है देश में । और यह साहित्यकार इस भूचाल को थाम लेने ही के लिए अपना-अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार कुर्बान किए जा रहे हैं । साहित्य अकादमी पुरस्कार न हो , बच्चों का खिलौना हो । क्या तो यह लेखक सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार न्यौछावर कर रहे हैं । सांप्रदायिकता सचमुच बहुत खतरनाक होती है। वह चाहे हिंदू सांप्रदायिकता हो
या मुस्लिम सांप्रदायिकता। दिक्कत यह है कि हमारे राजनीतिक तो राजनीतिक
लेखक , पत्रकार और बौद्धिक जन भी हिंदू सांप्रदायिकता पर ख़ूब ज़ोर से बोलते और
लिखते हैं। अच्छी बात है। लेकिन मुस्लिम सांप्रदायिकता पर इन के मुंह सिल
जाते हैं। कलम थम जाती है। यह बात हमारे मित्र क्यों नहीं समझना चाहते कि
उन की इसी चुप्पी ने ही नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधान मंत्री बना दिया है। उन्हें शक्तिशाली बना दिया है । समूची दुनिया इस्लामी आतंकवाद से जूझ रही है , दुनिया तबाह है पर हमारे देश के कुछ लेखक अपनी विचारधारा की आड़ ले कर लंबी ख़ामोशी की चादर ओढ़ कर सो गए हैं । कश्मीर हिंसा , कश्मीरी अलगवावदियों , कश्मीरी पंडितों की समस्या , नक्सली हिंसा आदि पर उन की चुप्पी उन्हें ही रास आती है , देश और समाज को नहीं । गंगा जमुनी तहज़ीब की बात करते यह लोग नहीं अघाते पर गाय का मांस खाने की पैरवी में जी जान लगा देते हैं । क्या गंगा जमुनी तहज़ीब एकतरफा चलती है । एक आस्था , दूसरी आस्था का सम्मान नहीं करती । गाय का मांस खाना ही धर्मनिरपेक्षता है ? किसी मंदिर की मूर्ति पर पेशाब करना , और फिर उस का बखान करना ही धर्मनिरपेक्षता है ? इस सब से सिर्फ़
साहित्य अकादमी लौटाने से , साहित्य अकादमी को तमाशा बना देने से यह बिगड़ी
बात नहीं बनने जा रही। इस ख़तरे को समझना बहुत ज़रुरी है। रेत में सिर धंसा
लेने से देश के हालात नहीं बदलने जा रहे। ऐसी नौटंकी से देश नहीं बदलता । न ही समाज। अन्ना आंदोलन की याद आती है ।अन्ना आंदोलन के असमय गर्भपात की याद आती है । हालां कि अन्ना आंदोलन साहित्य अकादमी के वापसी जैसी नौटंकी नहीं था ,जनांदोलन था । जो बीच राह लुट गया । और फिर साहित्य समाज को जोड़ने का काम करता है , तोड़ने का नहीं । दुनिया का सारा साहित्य मनुष्यता को संवारने का साहित्य है । चाहे वह किसी भी भाषा का साहित्य हो , समाज को हरगिज़ नहीं तोड़ता। साहित्य सर्वदा ही शोषित के पक्ष में होता है , शोषक के नहीं ।
भारतीय भाषा के हर एक लेखक को किसी भी सरकार का विरोध करने का मौलिक ,
नागरिक और संवैधानिक अधिकार है। भाजपा और नरेंद्र मोदी का भी। लेकिन
साहित्य अकादमी किसी भाजपा , किसी कांग्रेस की या किसी नरेंद्र मोदी के
पिता जी की जागीर नहीं हैं। यह भारतीय भाषाओं के सभी लेखकों की अपनी जागीर
है। दुर्भाग्यवश कुछ लेखक इस तथ्य को भूल-भाल कर सस्ती लोकप्रियता के फेर
में पड़ गए हैं। इन सब की मति मारी गई है। विरोध के बेहिसाब तरीक़े हैं लेकिन
यह कुछ लेखक तुरंता वाले तरीक़े के चक्कर में पड़ कर अपनी फज़ीहत ख़ुद
करते घूम रहे हैं। कहते हैं न कि खरबूजा , खरबूजे को देख कर रंग बदलता है।
तो कह सकते हैं कि यह कुछ लेखक लोग भी खरबूजा बन गए हैं। साहित्य अकादमी
पुरस्कार लौटाने का ऐलान कर छद्म बहादुरी का तमगा बटोर रहे हैं । वह
साहित्य अकादमी पुरस्कार जो लेखकों की ज्यूरी ने ही लेखकों को दिए थे ,
किसी सरकार , किसी नरेंद्र मोदी ने नहीं । भले आपसी जोड़-तोड़ किया हो।
जोड़-जुगाड़ , मान-मनौवल आदि किया हो। अपमान के कई फज़ीहत फेज़ से भी गुज़रे
हों। पर राजनीतिक या सरकारी हस्तक्षेप तो नहीं ही कभी रहा है अभी तक। तो
गोया कि चुनांचे यह तो अपना ही विरोध हो गया। जिस डाल पर बैठे हैं , वही
डाल काटने वाली बात हो गई।
वैसे भी साहित्य में पुरस्कार और सम्मान अब अपमान की अनकही कहानी बन कर रह गए हैं।
सरकारी हों , निजी हों या संस्थागत। सब की कहानी एक जैसी है। पुरस्कार और
सम्मान वापसी भी अब एक नौटंकी के सिवाय कुछ नहीं है। जो लेखक प्रकाशकों से
अपनी रायल्टी लेने का दम नहीं रखते वह समाज बदलने और व्यवस्था को चुनौती
देने का दम भरते हैं। हुंकार भरते हैं। डींग मारते हैं । चींटी मारने की
हैसियत नहीं , शेर मारने की रणनीति बनाते हैं। क्या तो शिकार करेंगे। समाज
बदलेंगे। सवाल है कि आप को पढ़ता भी कौन है , समझता भी कौन है ? किसे बदलना
चाहते हैं आप ? पहले ख़ुद को तो बदलिए। भारत की राजनीति एक ज़माने से एक भी रत्ती नैतिक नहीं रह गई है । और हमारे
लेखक सरकार पर नैतिक दबाव डालने के लिए अपने वह पुरस्कार लौटाने का शहीदाना
अंदाज़ दिखा रहे हैं , जिन पुरस्कारों को पाने के लिए उन्हों ने नैतिकता की
सारी किताबें बंगाल की खाड़ी में बहा दी थीं । इतना ही नहीं जो लोग अब तक
यह पुरस्कार नहीं पा सके हैं , अभी भी नाक रगड़ रहे हैं। यह पुरस्कार पाने
के लिए निर्धारित अपमान के नित नए अभ्यास करते जा रहे हैं। अब न कोई रवींद्रनाथ ठाकुर है , न बंकिम , न शरतचंद्र और न ही भारतेंदु ,
प्रेमचंद है , न मैथिलीशरण गुप्त , दिनकर , निराला , महादेवी , नेपाली ,
बच्चन , न ही अज्ञेय , मुक्तिबोध , शमशेर आदि जो जनता से सीधे जुड़ा हो और
जनता उस के पीछे चलने को , उस के कहे को , उस के लिखे को सहर्ष स्वीकार
करने को तैयार हो। हां, राजनीतिकों के डिक्टेशन पर चलने वाले , अपनी ज़िद ,
कुतर्क और अहंकार में जीने के आदी लेखक जिन को उन का पड़ोसी भी नहीं पहचानता
, न ही कोई पाठक संसार है उन का , ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं ।
अपठनीय इतने कि चेतन भगत जैसे मसाला लेखक उन की स्पेस ले लेते हैं । जनता
और जनता की भावनाओं को समझने में नाकाम यही लोग अकेले क्रांति की बिगुल
बजाते हुए , अपने को खुदा मानते हुए , एकतरफा फ़ैसला लेते हुए इतिहास में
दर्ज होने को बेताब दीखते हैं । इन की इस ललक कि सजनी हमहूं राजकुमार , के
क्या कहने !
पंजाबी कवि पाश की जब पंजाब में आतंकवादियों ने हत्या की थी या सुलतानपुर
में मान बहादुर सिंह मान की हत्या हुई और फिर गाज़ियाबाद में जब सफ़दर हाशमी
की हत्या हुई थी तब कितने लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था ?
ऐसी और भी घटनाओं को जोड़ कर कोई विद्वान , कोई जानकार , कोई क्रांतिकारी
अगर मुझे जानकारी दे सके तो आभारी रहूंगा। नहीं मैं बिलकुल नहीं पूछ रहा
हूं कि 1984 में सिख दंगों या तमाम अन्य दंगों या फिर भोपाल में यूनियन
कार्बाईड में मारे गए लोगों की संवेदना में कितने लेखकों ने साहित्य अकादमी
पुरस्कार लौटाए ? कोलगेट , टू जी टाईप स्कैम आदि पर कितने लेखकों ने
साहित्य अकादमी लौटाना तो दूर जुबान भी कितने लेखकों ने खोली। मैं यह भी
नहीं पूछ रहा । क्यों कि मैं जानता हूं कि ऐसा किसी ने कुछ किया ही नहीं ।
सोचा भी नहीं । साहित्य अकादमी लौटाने वाले कुछ लेखक ऐसे भी हैं जो अमरीकी संस्था फ़ोर्ड
फाउंडेशन से फंडिंग पाते रहे हैं । उन की इस फंडिंग पर नरेंद्र मोदी सरकार
ने रोक लगा दी है। आज एक चैनल पर गुजराती लेखक गणेश देवी से सीधे यही सवाल
जब पूछ लिया गया कि क्या फोर्ड फाऊंडेशन द्वारा आप को हो रही फंडिंग को
मोदी सरकार द्वारा रोक लगा देने की प्रतिक्रिया में यह साहित्य अकादमी
पुरस्कार वापसी का फैसला आप ने ले लिया है ? यह सवाल सुनते ही गणेश देवी
पसीना-पसीना हो गए । कोई जवाब नहीं दे पाए । तो मामला कहीं पे निगाहें ,
कहीं पे निशाना का भी है ।
अगर समूचे देश में सभी किस्म की किताबों की सरकारों द्वारा थोक ख़रीद बंद कर
दी जाए तो कितने प्रकाशक बचेंगे , कितने लोग लेखक बने रहेंगे और कि कितने
लेखकों की किताबें छपती रहेंगी ? कम से कम हिंदी में तो लिखना-छपना ठप्प हो
ही जाएगा। यह बात मैं पूरी सख्ती से कह रहा हूं। सच यह है कि सरकारी ख़रीद
ने लेखक-पाठक संबंध समाप्त कर दिया है। सरकारी ख़रीद के चलते पचीस रुपए की
किताब का दाम प्रकाशक पांच सौ रुपए रखते हैं। तो कोई भी पचीस या पचास रुपए
की किताब पांच सौ या हज़ार रुपए में क्यों खरीदेगा ?
दूसरे , पनचानबे प्रतिशत प्रकाशक किताबें दुकान पर बिकने के लिए नहीं रखते
और कहते हैं कि किताब नहीं बिकती। लेकिन हमारी लेखक बिरादरी कभी भी
प्रकाशकों की इस प्रवृत्ति का भूल कर भी विरोध नहीं करती। प्रकाशकों से कभी
रायल्टी नाम की अपनी मजदूरी की बात नहीं करती । और तो और इन बेईमान , चोर
और मक्कार प्रकाशकों को पैसे दे कर चोरों की तरह किताब छपवाती है। समाज में
अपनी पहचान और शिनाख्त खो चुकी यही लेखक बिरादरी छद्म क्रांति का बिगुल
बजाती है तो देश की जनता इन का मज़ाक उडाती है। लेकिन इस बिरादरी को इस से
कुछ बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। इस लिए भी कि यह लोग जनता के लिए नहीं , ख़ुद के
लिए लिखते हैं । ख़ुद का लिखा ख़ुद पढ़ते हैं और अपना अहंकार दसगुना करते हुए
मस्त रहते हैं कि हाय , मैं ने क्या तो ग्रेट लिखा है !
तो साहित्य अकादमी लौटा कर इन लेखकों ने समाज में अपना मजाक ही उड़ाया है । क्यों कि यह लेखक अगर राजनीति भी कर रहे हैं तो इन को राजनीति करने भी नहीं आती । कर्नाटक में कुलबुर्गी की हत्या हुई । वहां कांग्रेस की सरकार है । उत्तर प्रदेश की दादरी में अख़लाक़ की हत्या हुई । दादरी उत्तर प्रदेश में है । कानून व्यवस्था सर्वदा राज्य सरकार का विषय होता है । और कमोबेश सभी लेखकों ने राज्य सरकारों की बजाय मोदी सरकार और मोदी को निशाना बनाया है । यह उन का अधिकार है । मोदी की गलती यह है कि इन घटनाओं की तुरंत निंदा नहीं की और उचित समय का इंतज़ार करने में समय गंवाया । इस बीच भाजपा के छुटभैयों ने अनाप-शनाप बयान दे कर माहौल बिगाड़ा । खैर यह उन की अपनी राजनीति है । वह लेखकों के डिक्टेशन पर राजनीति नहीं करने वाले । पर काशी के लेखक काशीनाथ सिंह क्या कर रहे हैं ? एक लाख का साहित्य अकादमी तो मौखिक बयान दे कर लौटा दिया । लेकिन पांच लाख के यश भारती पर वह क्यों चुप लगा गए ? यह दोहरा मानदंड लेखन में तो नहीं चलता । काशी को भारत भारती भी निश्चित रूप से लौटा देना चाहिए । और मुनव्वर राना ? साहित्य अकादमी लौटाने के एक दिन पहले तक साहित्य अकादमी लौटाने वालों को थका हुआ बता रहे थे । निंदा कर रहे थे । लेकिन अचानक एक चैनल पर वह नाटकीय हो गए । चेक हवा में लहरा दिया । साहित्य अकादमी लौटाने का ऐलान ऐसे कर दिया गोया कोई मुशायरा लूट लिया हो । मुशायरे की ड्रामेबाज़ी नहीं है साहित्य अकादमी मुनव्वर राना । खैर अभी भी मुनव्वर कह रहे हैं कि अगर प्रधान मंत्री कह दें तो वह अपनी साहित्य अकादमी वापस ले लेंगे । सोनिया की चरणवंदना में लोट-पॉट आरती लिखने के बावजूद मुनव्वर राना एक मकबूल शायर हैं पर साथ ही वह ट्रांसपोर्ट का कारोबार भी करते हैं । यह उन की कारोबारी विवशता भी मानी जा सकती है । और अब तो बात इतनी आगे बढ़ गई है कि पी एम ओ से प्रधान मंत्री से मुलाकात करने के बाबत आए फ़ोन के बाद मुनव्वर राना नरेंद्र मोदी को बड़ा भाई मान कर उन का जूता तक उठाने को तैयार हो गए हैं । गोपालदास नीरज जैसे लोकप्रिय कवि खुल कर कह रहे हैं कि यह साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की कवायद सिर्फ़ नरेंद्र मोदी को बदनाम करने की कार्रवाई है । नरेंद्र कोहली , मैत्रेयी पुष्पा जैसे उपन्यासकार खुल कर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने को गलत बता रहे हैं । प्रेमचंद पर विश्वकोश तैयार करने वाले कमल किशोर गोयनका तक इस साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी पर अशोक वाजपेयी पर निशाना साध गए हैं । हां , अप्रत्याशित रूप से गुलज़ार भी बोल गए हैं और बता दिए हैं कि अब कुछ भी बोलने में डर लगता है। मान लिया गया है कि कांग्रेस द्वारा विगत में उन्हें दिए गए इंदिरा गांधी पुरस्कार का यह ऋण चुका रहे हैं गुलज़ार । नहीं संचार क्रांति के इस युग में कौन मान लेगा भला कि भारत में अब कुछ बोलना डर का विषय हो गया है ? आज़म खान नहीं बोल रहे हैं , कि ओवैसी नहीं बोल रहे हैं ? आदित्यनाथ नहीं बोल रहे हैं , कि साक्षी या साध्वी नहीं बोल रहे ? की अपने स्वनामधन्य लेखक नहीं बोल रहे ? साहित्य अकादमी की नदी में इस बीच बहुत कुछ बह गया है । विरोध , प्रतिरोध और समर्थन के जुलूस , बयान , टिप्पणियों आदि की इतनी सारी लहरें उठ और गिर चुकी हैं कि इन की औपचारिक मिनिट्स भी किसी के पास नहीं है । बन भी नहीं सकती । साहित्य अकादमी ने लेखकों के पक्ष में खड़े होने और लेखकों की हत्या के ख़िलाफ़ अपना ज़रूरी बयान , बैठक , निंदा आदि सारी औपचारिकताएं पूरी निष्ठा से निभा दी हैं । सवाल फिर भी शेष हैं , शेष रहेंगे । संसद और साहित्य कभी भी शांत रहने वाली इकाई नहीं रही हैं । यही इन का जीवन और यही इन की ऊर्जा है ।
पर अशोक वाजपेयी ?
अशोक वाजपेयी |
सच यह है कि साहित्य अकादमी वापसी की इस नौटंकी की सारी पटकथा ही अशोक वाजपेयी की लिखी हुई है । उन का कांग्रेस से अनुराग किसी से छुपा हुआ नहीं है । [ देखें बॉक्स -1 ] उदय प्रकाश , मंगलेश डबराल आदि इन के पूर्वग्रह के दिनों के लेफ्टिनेंट हैं । और अशोक वाजपेयी कांग्रेस के पुराने और खुर्राट लेफ्टिनेंट । लेकिन कांग्रेस के डिक्टेशन पर यह साहित्यकार इस कदर उतावले हो जाएंगे , देश यह नहीं जानता था । विरोध नरेंद्र मोदी का करना है , विरोध वह साहित्य अकादमी का कर रहे हैं । वह साहित्य अकादमी , जो लेखकों की अपनी है । नेहरू द्वारा स्थापित । राम जाने , साहित्य रचते समय यह लेखक वर्ग शत्रु की शिनाख्त कैसे करते होंगे ? क्या इसी तरह ? कि उन्हें मछली की आंख नहीं दिखती , पूरी मछली दिखती है ? क्या साहित्य इसी लिए समाज कटता जा रहा है ? साहित्य के बजाय सिनेमा समाज का दर्पण बनता जा रहा है । क्या इसी लिए ?
ख़ैर , पुरस्कार लौटने की यह कोई नई कहानी नहीं है । पर सब से मकबूल कहानी है ज्यां पल सार्त्र की नोबल पुरस्कार लौटाने की कहानी । जो आज तक लोग भूले नहीं हैं । बल्कि सार्त्र ने लौटाया भी नहीं था , ठुकराया था नोबल पुरस्कार । उन का वश चला होता तो वह अपने लिए नोबल पुरस्कार का ऐलान भी नहीं होने दिया होता । लेकिन उन्हों ने नोबल न लेने के लिए भी सख्त विरोध दर्ज करने के लिए बहुत ही शालीन भाषा का इस्तेमाल किया था । अपने इन भारतीय लेखकों की तरह नौटंकी की कोई पटकथा नहीं लिखी थी । [ देखें बॉक्स नंबर -2 ] अपने गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने भी जालियां वाला बाग़ में हुई नृशंस हत्याओं के विरोध में नाइटहुड वापस किया था । दुःख में डूब कर । पूरी शालीनता के साथ । किसी नौटंकी में डूब कर नहीं । [ देखें बाक्स नंबर-3 ]। लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लोगों की भाषा पर गौर कीजिए । और लेखकों से पूछिए तो भला कि जिस मुद्दे पर आप यह नौटंकी और हिप्पोक्रेसी बघार रहे हैं , इस मुद्दे पर कभी कुछ लिखा भी है ?
वास्तव में यह लेखक साहित्य अकादमी नहीं लौटा रहे । साहित्य अकादमी लौटाने के बहाने नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं । लोकसभा चुनाव में बनारस जा कर बंद कमरे में बैठक कर यह लेखक नरेंद्र मोदी को चुनाव हराने का असफल उपक्रम भी कर चुके हैं । सुविधाओं और जोड़-तोड़ में आकंठ जीने के आदी हो चले , एक निश्चित माइंड सेट में जीने के आदी हो चले यह लेखक फासिज्म का विरोध करते-करते खुद फासिस्ट हो चले हैं । अपनी विचारधारा से अलग जनता द्वारा एक निर्वाचित प्रधान मंत्री को बर्दाश्त करना अब उन की बर्दाश्त से बाहर हो चला है । इन लेखकों को क्या नहीं मालूम कि राजनीतिक विरोध करने के लिए सड़क पर उतरना पड़ता है ? लाठी , गोली और जेल जैसी सख्त चीज़ों का सामना करना पड़ता है ? समाज में इस सब की स्वीकृति पानी होती है ? यह लेखक यह सारी बातें जानते हैं । लेकिन यह सब करना , सड़क पर उतरना , उन के लिए टेढ़ी खीर है । अब मोमबत्ती जुलूस , एक आध घंटा का धरना , या कोई घंटे-दो घंटे का जुलूस वह ज़रूर सौ पचास लोगों का निकाल सकते हैं लेकिन सड़क पर उतर कर लाठी-गोली खाने का माद्दा नहीं रह गया है । यह वह लेखक हैं जो अपनी मज़दूरी रूपी रायल्टी प्रकाशक से ले पाने की हैसियत भी गंवा चुके हैं । तो इन के लिए सड़क पर उत्तर कर कोई राजनीतिक लड़ाई लड़ने से ज़्यादा आसान है , ड्राइंग रूम में बैठ कर साहित्य अकादमी लौटा देने का मौखिक ऐलान कर देना । वह साहित्य अकादमी जो लेखकों की खुद की है ।
इस प्रसंग में बार-बार साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की चुप्पी को भी विषय बनाते रहे हैं । उन लोगों को जान लेना चाहिए कि साहित्य अकादमी का अध्यक्ष राजनीतिक व्यक्ति नहीं होता जो बात-बेबात बयान देता फिरे । और जो लोग नहीं जानते , वह लोग यह तथ्य भी ज़रूर जान लें कि गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे , साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और प्रसिद्ध कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पुराने गांधीवादी हैं। लाल बहादुर शास्त्री , हेमवती नंदन बहुगुणा , शिब्बन लाल सक्सेना जैसे कांग्रेसियों के साथ ज़मीनी स्तर पर काम कर चुके हैं। वह हिंदी के पहले ऐसे लेखक हैं जो लेखकों द्वारा निर्वाचित हो कर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने हैं। इस के पहले वह हिंदी के पहले निर्वाचित उपाध्यक्ष थे। उन्हों ने हिंदी को साहित्य अकादमी में प्रतिष्ठित किया है। हिंदी का मान बढ़ाया है । एक भी पैसे का कोई दाग उन पर नहीं है। रूस में बरसों से हिंदी पढ़ाने वाले कवि अनिल जनविजय तो लिखते हैं , यही नहीं, तिवारी जी पूरी तरह से निर्लोभ व्यक्ति हैं। साहित्य अकादमी द्वारा अध्यक्ष को उपलब्ध कराई जाने वाली अधिकतर सुविधाएँ उन्होंने त्याग रखी हैं। अकादमी का एक पैसा भी वे अपने निजी कामों के लिए खर्च नहीं करते हैं। बहुत साधारण, सहज और संयमित स्वभाव के तिवारी जी अकादमी का कोई दुरुपयोग नहीं करते हैं। मैं उन्हें निजी तौर पर 38 साल से जानता हूँ। इसलिए मेरी आप सबसे यह अपील है कि उन पर कोई भी आक्षेप या आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए।नामवर सिंह ने अरसे बाद एक संतुलित बात कही कि यह साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना ठीक नहीं है । पर उन के छोटे भाई काशीनाथ सिंह ने ही उन की नहीं सुनी । तो बाकी का क्या कहना और क्या सुनना ।
साहित्य अकादमी लौटाने वाले यह सूरमा लेखक आगे फिर कौन सा पुरस्कार ले सकेंगे ? सेठों के पुरस्कार ज्ञानपीठ , व्यास वगैरह ? इन पुरस्कारों में भी कारपोरेट की आवारा पूंजी वास करती है । बुकर , नोबल वगैरह ? वहां तक दौड़ नहीं है । और फिर अमरीकापरस्त हैं , साम्राज्यवादी आदि हैं यह सब अलग । बाक़ी तो ग़ालिब के एक मिसरे में जो कहूं कि ; हम सुख़नफ़हम हैं ‘ग़ालिब’ के तरफ़दार नहीं ! थोड़ा कहना , बहुत समझना ! आमीन !
मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि इस मुद्दे को सनसनीखेज़ घटना की तरह देखा जा रहा है: एक पुरस्कार मुझे दिया गया था और इसे मैंने लेने से इंकार कर दिया.
यह सब इसलिए हुआ कि मुझे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि भीतर ही भीतर क्या चल रहा है. 15 अक्तूबर, ‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ के स्वीडिश संवाददाता स्तम्भ में मैंने जब पढ़ा कि स्वीडिश अकादमी का रुझान मेरी तरफ है, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ निश्चित नहीं हुआ है, तो मुझे लगा कि अकादमी को इस बाबत ख़त लिखना चाहिए जिसे मैंने अगले दिन ही लिखकर रवाना कर दिया ताकि इस मसले की मालूमात कर लूँ और भविष्य में इस पर कोई चर्चा न हो.
तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्तकर्ता की सहमति के बगैर ही प्रदान किया जाता है. मुझे लग रहा था कि वक्त बहुत कम है और इसे रोका जाना चाहिए. लेकिन अब मैं जान गया हूँ कि स्वीडिश अकादमी के किसी फ़ैसले को बाद में मंसूख करना संभव नहीं.
जैसा कि मैं अकादमी को लिखे पत्र में ज़ाहिर कर चुका हूँ, मेरे इंकार करने का स्वीडिश अकादमी या नोबेल पुरस्कार के किसी प्रसंग से कोई लेना-देना नहीं है. दो वजहों का ज़िक्र मैंने वहां किया है: एक तो व्यक्तिगत और दूसरे मेरे अपने वस्तुनिष्ठ उद्देश्य.
मेरा प्रतिषेध आवेशजनित नहीं है. निजीतौर पर मैंने आधिकारिक सम्मानों को हमेशा नामंजूर ही किया है. 1945 में युद्ध के बाद मुझे लिजन ऑफ़ ऑनर (Legion of Honor) मिला था. मैंने लेने से इंकार कर दिया, यद्यपि मेरी सहानुभूति सरकार के साथ थी. इसी तरह अपने दोस्तों के सुझाव के बावज़ूद भी ‘कॉलेज द फ़्रांस’ में घुसने की मेरी कभी चेष्टा नहीं रही.
इस नज़रिए के पीछे लेखक के जोख़िम भरे उद्यम के प्रति मेरी अपनी अवधारणा है. एक लेखक जिन भी राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक जगहों पर मोर्चा लेता है, वहां वह अपने नितांत मौलिक साधन- यानी ‘लिखित शब्दों’ के साथ ही मौज़ूद होता है. वे सारे सम्मान जिनकी वजह से उसके पाठक अपने ऊपर दबाब महसूस करने लगें, आपत्तिजनक हैं. बतौर ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तख़त या नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां-पाल
सार्त्र के दस्तखतों में भारी अंतर है.
एक लेखक जो ऐसे सम्मानों को स्वीकार करता है, वस्तुतः खुद को एक संघ या संस्था मात्र में तब्दील कर देता है. वेनेजुएला के क्रांतिकारियों के प्रति मेरी संवेदनाएं एक तरह से मेरी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं, पर यदि मैं नोबेल पुरस्कार विजेता, ज्यां-पाल सार्त्र की हैसियत से वेनेजुएला के प्रतिरोध को देखता हूँ तो एक तरह से ये प्रतिबद्धताएँ नोबेल पुरस्कार के रूप में एक पूरी संस्था की होंगी. एक लेखक को इस तरह के रूपांतरण का विरोध करना चाहिए, चाहें वह बहुत सम्मानजनक स्थितियों में ही क्यों न घटित हो रहा हो, जैसा कि आजकल हो रहा है.
यह नितांत मेरा अपना तौर-तरीका है और इसमें अन्य विजेताओं के प्रति किसी भी तरह का निंदा भाव नहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे कई सम्मानित लोगों से मेरा परिचय है और मैं उन्हें आदर तथा प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ.
कुछ कारणों का संबंध सीधे मेरे उद्देश्यों से जुड़ा है: जैसे, सांस्कृतिक मोर्चे पर केवल एक-ही तरह की लड़ाई आज संभव है- दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लड़ाई. एक तरफ पूर्व है और दूसरी तरफ पश्चिम. मेरे कहने का यह अभिप्राय भी नहीं कि ये दोनों एक-दूसरे को गले से लगा लें- मैं भलीभांति इस सच को जानता हूँ कि ये दोनों संस्कृतियाँ आमने-सामने खड़ीं हैं और अनिवार्य रूप से इनका स्वरूप द्वंद्वात्मक है- पर यह झगड़ा व्यक्तियों और संस्कृतियों के बीच है और संस्थाओं का इसमें कोई दखल नहीं.
दो संस्कृतियों के इस विरोधाभास ने मुझे भी गहरे तक प्रभावित किया है. मैं ऐसे ही विरोधाभासों की निर्मिती हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि मेरी सारी सहानुभूतियाँ समाजवाद के साथ हैं और इसे हम पूर्वी-ब्लॉक के नाम से भी जानते हैं; पर मेरा जन्म और मेरी परवरिश बूर्जुआ परिवार और संस्कृति के बीच हुई है. ये सब स्थितियां मुझे इस बात की इज़ाज़त देती हैं कि मैं इन दोनों संस्कृतियों को करीब लाने की कोशिश कर सकूं. ताहम, मैं उम्मीद करता हूँ कि “जो सर्वश्रेष्ठ होगा, वही जीतेगा.” और वह है –समाजवाद.
इसलिए मैं ऐसे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकता जो सांस्कृतिक प्राधिकारी वर्ग के ज़रिये मुझे मिल रहा हो. चाहें वह पश्चिम के बदले पूर्व की ओर से ही क्यों न दिया गया हो, चाहें मेरी संवेदनाएं दोनों के अस्तित्व के लिए ही क्यों न पुर-फ़िक्र हों, जबकि मेरी सारी सहानुभूति समाजवाद के साथ है. यदि कोई मुझे ‘लेनिन पुरस्कार’ भी देता तब भी मेरी यही राय रहती और मैं इंकार करता...जबकि दोनों बातें एकदम अलहदा हैं.
मैं इस बात से भी वाकिफ़ हूँ कि नोबेल पुरस्कार पश्चिमी खेमे का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर मैं यह जानता हूँ कि इसे कौन महत्त्वपूर्ण बना रहा है, और कौनसी वारदातें जो कि स्वीडिश अकादमी के कार्यक्षेत्र के बाहर है, इसे लेकर घट रही हैं –इसलिए सामयिक हालातों में यह सुनिश्चित हो जाता है कि नोबेल पुरस्कार पूर्व और पश्चिम के बीच फांक पैदा करने के लिए या तो पश्चिम के लेखकों की थाती हो गया है, या फिर पूरब के विद्रोहियों के लिए आरक्षित है. यथा, ये कभी नेरुदा को नहीं दिया गया जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से हैं. कोई इस पर गंभीरता से नहीं सोचेगा कि इसे लुइ अरागोन को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए जबकि वह इसके हकदार हैं. यह अफ़सोसजनक था कि शोलकोव की जगह पास्टरनक को सम्मानित किया गया था, जो अकेले ऐसे रूसी लेखक थे जिनका विदेशों में प्रकाशित काम सम्मानित हुआ जबकि अपने ही वतन में यह प्रतिबंधित किया गया था.
दूसरी तरह से भी संतुलन स्थापित हो सकता था. अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम में जब हम सब “121 घोषणापत्र” पर दस्तखत कर रहे थे, तब यदि यह सम्मान मुझे मिलता तो मैं इसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लेता क्योंकि यह केवल मेरे प्रति सम्मान न होता बल्कि उस पूरे मुक्ति-संग्राम के प्रति आदर-भाव होता जो उन दिनों लड़ा जा रहा था. लेकिन चीज़ें इस दिशा में, इस तरह नहीं हुईं.
अपने उद्देश्यों पर चर्चा करते वक्त स्वीडिश अकादमी को कम-अज-कम उस शब्द का ज़िक्र तो करना चाहिए था –जिसे हम ‘आज़ादी’ कहते हैं और जिसके कई तर्जुमें हैं. पश्चिम में इसका अर्थ सामान्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सन्दर्भों तक सीमित है- अर्थात एक ऐसी ठोस आज़ादी जिसमें आपको एक जोड़ी जूते से अधिक पहनने और दूसरे के हिस्से की भूख हड़प लेने का अधिकार है. अतः मुझे लगा कि सम्मान से इंकार करना कम खतरनाक है बजाय इसे स्वीकार करने के. यदि मैं इसे स्वीकार कर लेता तो यह खुद को “उद्देश्यों के पुनर्वास” हेतु सौंपना होता. ‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ में प्रकाशित लेख के अनुसार, “किसी भी तरह के विवादास्पद राजनैतिक अतीत से मेरा नाम नहीं जुड़ा था.” लेख का मंतव्य अकादमी का मंतव्य नहीं था और मैं जानता था कि दक्षिणपंथियों में मेरी स्वीकारोक्ति को क्या जामा पहनाया जाता. मैं “विवादित राजनैतिक अतीत” को आज भी जायज़ ठहराता हूँ. मैं इस बात के लिए भी तैयार हूँ कि यदि अतीत में मेरे कॉमरेड दोस्तों से कोई गलती हुई हो तो बेहिचक मैं उसे कुबूल कर सकूं.
इसका यह अर्थ भी न लगाया जाए कि ‘नोबेल पुरस्कार’ बूर्जुआ मानसिकता से प्रेरित है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसे कई गुटों में, जिनकी नस-नस से मैं वाकिफ़ हूँ, इसकी कई बूर्जुआ व्याख्याएँ जरूर की जायेंगी.
अंत में, मैं उस देय निधि के प्रश्न पर बात करूँगा. पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह भारस्वरूप है. अकादमी समादर-सत्कार के साथ भारी राशि अपने विजेताओं को देती है. यह एक समस्या है जो मुझे सालती है. अब या तो कोई इस राशि को स्वीकार करे और इस निधि को अपनी संस्थाओं और आंदोलनों पर लगाने को अधिक हितकारी समझे –जैसा कि मैं लन्दन में बनी रंग-भेद कमिटी को लेकर सोचता हूँ; या फिर कोई अपने उदार
सिद्धांतों की खातिर इस राशि को लेने से इंकार कर दे, जो ऐसे वंचितों के समर्थन में काम आती. लेकिन मुझे यह झूठ-मूठ की समस्या लगती है. ज़ाहिर है मैं 250,000 क्राउंस की क़ुरबानी दे सकता हूँ क्योंकि मैं खुद को एक संस्था में रूपांतरित नहीं कर सकता –चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. पर किसी को यह कहने का हक़ भी नहीं है कि 250,000 क्राउंस मैं यूं ही कुर्बान कर दूँ जो केवल मेरे अपने नहीं हैं बल्कि मेरे सभी कॉमरेड दोस्तों और मेरी विचारधारा से भी तालुक्क रखते हैं.
इसलिए ये दोनों बातें- पुरस्कार लेना या इससे इंकार करना, मेरे लिए तकलीफ़देह है.
इस पैगाम के साथ मैं यह बात यहीं समाप्त करता हूँ कि स्वीडिश जनता के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है और मैं उनसे इत्तेफ़ाक रखता हूँ.
रवींद्रनाथ टैगोर ‘नाइटहुड’ सम्मान लौटाते हुए
नोबेल पुरस्कार लौटाते हुए सार्त्र का खत
सार्त्र |
मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि इस मुद्दे को सनसनीखेज़ घटना की तरह देखा जा रहा है: एक पुरस्कार मुझे दिया गया था और इसे मैंने लेने से इंकार कर दिया.
यह सब इसलिए हुआ कि मुझे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि भीतर ही भीतर क्या चल रहा है. 15 अक्तूबर, ‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ के स्वीडिश संवाददाता स्तम्भ में मैंने जब पढ़ा कि स्वीडिश अकादमी का रुझान मेरी तरफ है, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ निश्चित नहीं हुआ है, तो मुझे लगा कि अकादमी को इस बाबत ख़त लिखना चाहिए जिसे मैंने अगले दिन ही लिखकर रवाना कर दिया ताकि इस मसले की मालूमात कर लूँ और भविष्य में इस पर कोई चर्चा न हो.
तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्तकर्ता की सहमति के बगैर ही प्रदान किया जाता है. मुझे लग रहा था कि वक्त बहुत कम है और इसे रोका जाना चाहिए. लेकिन अब मैं जान गया हूँ कि स्वीडिश अकादमी के किसी फ़ैसले को बाद में मंसूख करना संभव नहीं.
जैसा कि मैं अकादमी को लिखे पत्र में ज़ाहिर कर चुका हूँ, मेरे इंकार करने का स्वीडिश अकादमी या नोबेल पुरस्कार के किसी प्रसंग से कोई लेना-देना नहीं है. दो वजहों का ज़िक्र मैंने वहां किया है: एक तो व्यक्तिगत और दूसरे मेरे अपने वस्तुनिष्ठ उद्देश्य.
मेरा प्रतिषेध आवेशजनित नहीं है. निजीतौर पर मैंने आधिकारिक सम्मानों को हमेशा नामंजूर ही किया है. 1945 में युद्ध के बाद मुझे लिजन ऑफ़ ऑनर (Legion of Honor) मिला था. मैंने लेने से इंकार कर दिया, यद्यपि मेरी सहानुभूति सरकार के साथ थी. इसी तरह अपने दोस्तों के सुझाव के बावज़ूद भी ‘कॉलेज द फ़्रांस’ में घुसने की मेरी कभी चेष्टा नहीं रही.
इस नज़रिए के पीछे लेखक के जोख़िम भरे उद्यम के प्रति मेरी अपनी अवधारणा है. एक लेखक जिन भी राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक जगहों पर मोर्चा लेता है, वहां वह अपने नितांत मौलिक साधन- यानी ‘लिखित शब्दों’ के साथ ही मौज़ूद होता है. वे सारे सम्मान जिनकी वजह से उसके पाठक अपने ऊपर दबाब महसूस करने लगें, आपत्तिजनक हैं. बतौर ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तख़त या नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां-पाल
सार्त्र के दस्तखतों में भारी अंतर है.
एक लेखक जो ऐसे सम्मानों को स्वीकार करता है, वस्तुतः खुद को एक संघ या संस्था मात्र में तब्दील कर देता है. वेनेजुएला के क्रांतिकारियों के प्रति मेरी संवेदनाएं एक तरह से मेरी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं, पर यदि मैं नोबेल पुरस्कार विजेता, ज्यां-पाल सार्त्र की हैसियत से वेनेजुएला के प्रतिरोध को देखता हूँ तो एक तरह से ये प्रतिबद्धताएँ नोबेल पुरस्कार के रूप में एक पूरी संस्था की होंगी. एक लेखक को इस तरह के रूपांतरण का विरोध करना चाहिए, चाहें वह बहुत सम्मानजनक स्थितियों में ही क्यों न घटित हो रहा हो, जैसा कि आजकल हो रहा है.
यह नितांत मेरा अपना तौर-तरीका है और इसमें अन्य विजेताओं के प्रति किसी भी तरह का निंदा भाव नहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे कई सम्मानित लोगों से मेरा परिचय है और मैं उन्हें आदर तथा प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ.
कुछ कारणों का संबंध सीधे मेरे उद्देश्यों से जुड़ा है: जैसे, सांस्कृतिक मोर्चे पर केवल एक-ही तरह की लड़ाई आज संभव है- दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लड़ाई. एक तरफ पूर्व है और दूसरी तरफ पश्चिम. मेरे कहने का यह अभिप्राय भी नहीं कि ये दोनों एक-दूसरे को गले से लगा लें- मैं भलीभांति इस सच को जानता हूँ कि ये दोनों संस्कृतियाँ आमने-सामने खड़ीं हैं और अनिवार्य रूप से इनका स्वरूप द्वंद्वात्मक है- पर यह झगड़ा व्यक्तियों और संस्कृतियों के बीच है और संस्थाओं का इसमें कोई दखल नहीं.
दो संस्कृतियों के इस विरोधाभास ने मुझे भी गहरे तक प्रभावित किया है. मैं ऐसे ही विरोधाभासों की निर्मिती हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि मेरी सारी सहानुभूतियाँ समाजवाद के साथ हैं और इसे हम पूर्वी-ब्लॉक के नाम से भी जानते हैं; पर मेरा जन्म और मेरी परवरिश बूर्जुआ परिवार और संस्कृति के बीच हुई है. ये सब स्थितियां मुझे इस बात की इज़ाज़त देती हैं कि मैं इन दोनों संस्कृतियों को करीब लाने की कोशिश कर सकूं. ताहम, मैं उम्मीद करता हूँ कि “जो सर्वश्रेष्ठ होगा, वही जीतेगा.” और वह है –समाजवाद.
इसलिए मैं ऐसे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकता जो सांस्कृतिक प्राधिकारी वर्ग के ज़रिये मुझे मिल रहा हो. चाहें वह पश्चिम के बदले पूर्व की ओर से ही क्यों न दिया गया हो, चाहें मेरी संवेदनाएं दोनों के अस्तित्व के लिए ही क्यों न पुर-फ़िक्र हों, जबकि मेरी सारी सहानुभूति समाजवाद के साथ है. यदि कोई मुझे ‘लेनिन पुरस्कार’ भी देता तब भी मेरी यही राय रहती और मैं इंकार करता...जबकि दोनों बातें एकदम अलहदा हैं.
मैं इस बात से भी वाकिफ़ हूँ कि नोबेल पुरस्कार पश्चिमी खेमे का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर मैं यह जानता हूँ कि इसे कौन महत्त्वपूर्ण बना रहा है, और कौनसी वारदातें जो कि स्वीडिश अकादमी के कार्यक्षेत्र के बाहर है, इसे लेकर घट रही हैं –इसलिए सामयिक हालातों में यह सुनिश्चित हो जाता है कि नोबेल पुरस्कार पूर्व और पश्चिम के बीच फांक पैदा करने के लिए या तो पश्चिम के लेखकों की थाती हो गया है, या फिर पूरब के विद्रोहियों के लिए आरक्षित है. यथा, ये कभी नेरुदा को नहीं दिया गया जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से हैं. कोई इस पर गंभीरता से नहीं सोचेगा कि इसे लुइ अरागोन को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए जबकि वह इसके हकदार हैं. यह अफ़सोसजनक था कि शोलकोव की जगह पास्टरनक को सम्मानित किया गया था, जो अकेले ऐसे रूसी लेखक थे जिनका विदेशों में प्रकाशित काम सम्मानित हुआ जबकि अपने ही वतन में यह प्रतिबंधित किया गया था.
दूसरी तरह से भी संतुलन स्थापित हो सकता था. अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम में जब हम सब “121 घोषणापत्र” पर दस्तखत कर रहे थे, तब यदि यह सम्मान मुझे मिलता तो मैं इसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लेता क्योंकि यह केवल मेरे प्रति सम्मान न होता बल्कि उस पूरे मुक्ति-संग्राम के प्रति आदर-भाव होता जो उन दिनों लड़ा जा रहा था. लेकिन चीज़ें इस दिशा में, इस तरह नहीं हुईं.
अपने उद्देश्यों पर चर्चा करते वक्त स्वीडिश अकादमी को कम-अज-कम उस शब्द का ज़िक्र तो करना चाहिए था –जिसे हम ‘आज़ादी’ कहते हैं और जिसके कई तर्जुमें हैं. पश्चिम में इसका अर्थ सामान्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सन्दर्भों तक सीमित है- अर्थात एक ऐसी ठोस आज़ादी जिसमें आपको एक जोड़ी जूते से अधिक पहनने और दूसरे के हिस्से की भूख हड़प लेने का अधिकार है. अतः मुझे लगा कि सम्मान से इंकार करना कम खतरनाक है बजाय इसे स्वीकार करने के. यदि मैं इसे स्वीकार कर लेता तो यह खुद को “उद्देश्यों के पुनर्वास” हेतु सौंपना होता. ‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ में प्रकाशित लेख के अनुसार, “किसी भी तरह के विवादास्पद राजनैतिक अतीत से मेरा नाम नहीं जुड़ा था.” लेख का मंतव्य अकादमी का मंतव्य नहीं था और मैं जानता था कि दक्षिणपंथियों में मेरी स्वीकारोक्ति को क्या जामा पहनाया जाता. मैं “विवादित राजनैतिक अतीत” को आज भी जायज़ ठहराता हूँ. मैं इस बात के लिए भी तैयार हूँ कि यदि अतीत में मेरे कॉमरेड दोस्तों से कोई गलती हुई हो तो बेहिचक मैं उसे कुबूल कर सकूं.
इसका यह अर्थ भी न लगाया जाए कि ‘नोबेल पुरस्कार’ बूर्जुआ मानसिकता से प्रेरित है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसे कई गुटों में, जिनकी नस-नस से मैं वाकिफ़ हूँ, इसकी कई बूर्जुआ व्याख्याएँ जरूर की जायेंगी.
अंत में, मैं उस देय निधि के प्रश्न पर बात करूँगा. पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह भारस्वरूप है. अकादमी समादर-सत्कार के साथ भारी राशि अपने विजेताओं को देती है. यह एक समस्या है जो मुझे सालती है. अब या तो कोई इस राशि को स्वीकार करे और इस निधि को अपनी संस्थाओं और आंदोलनों पर लगाने को अधिक हितकारी समझे –जैसा कि मैं लन्दन में बनी रंग-भेद कमिटी को लेकर सोचता हूँ; या फिर कोई अपने उदार
सिद्धांतों की खातिर इस राशि को लेने से इंकार कर दे, जो ऐसे वंचितों के समर्थन में काम आती. लेकिन मुझे यह झूठ-मूठ की समस्या लगती है. ज़ाहिर है मैं 250,000 क्राउंस की क़ुरबानी दे सकता हूँ क्योंकि मैं खुद को एक संस्था में रूपांतरित नहीं कर सकता –चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. पर किसी को यह कहने का हक़ भी नहीं है कि 250,000 क्राउंस मैं यूं ही कुर्बान कर दूँ जो केवल मेरे अपने नहीं हैं बल्कि मेरे सभी कॉमरेड दोस्तों और मेरी विचारधारा से भी तालुक्क रखते हैं.
इसलिए ये दोनों बातें- पुरस्कार लेना या इससे इंकार करना, मेरे लिए तकलीफ़देह है.
इस पैगाम के साथ मैं यह बात यहीं समाप्त करता हूँ कि स्वीडिश जनता के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है और मैं उनसे इत्तेफ़ाक रखता हूँ.
रवींद्रनाथ टैगोर ‘नाइटहुड’ सम्मान लौटाते हुए
रवींद्रनाथ टैगोर |
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