कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स
- साहित्य अकादमी लौटाने वाले कुछ लेखक ऐसे भी हैं जो अमरीकी संस्था फ़ोर्ड फाउंडेशन से फंडिंग पाते रहे हैं । उन की इस फंडिंग पर नरेंद्र मोदी सरकार ने रोक लगा दी है। आज एक चैनल पर गुजराती लेखक गणेश देवी से सीधे यही सवाल जब पूछ लिया गया कि क्या फोर्ड फाऊंडेशन द्वारा आप को हो रही फंडिंग को मोदी सरकार द्वारा रोक लगा देने की प्रतिक्रिया में यह साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी का फैसला आप ने ले लिया है ? यह सवाल सुनते ही गणेश देवी पसीना-पसीना हो गए । कोई जवाब नहीं दे पाए । तो मामला कहीं पे निगाहें , कहीं पे निशाना का भी है ।
- एक अफ़वाह उड़ी है जिस पर मुझे छटाक पर भी भरोसा नहीं है । पूरी बात मज़ाक लगती है। फिर भी बता रहा हूं कि देश भर से साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी की आंधी से प्रभावित उत्तर प्रदेश के कुछ लेखक भी शर्मिंदा हैं सो यह लेखक भी यश भारती , भारत-भारती और साहित्य भूषण आदि लौटाएंगे। और यह वह लोग हैं जिन के पास साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं हैं । लेकिन दादरी चूंकि उत्तर प्रदेश में ही है, सो यह फ़ैसला लेने को उत्सुक हैं । लेकिन मैं इस बात को पूरी तरह मज़ाक ही मानता हूं , यह बात पुन: दुहरा रहा हूं। क्यों कि एक तो इस में ज़्यादातर लेखक रीढ़हीन हैं । दूसरे , यह सारे पुरस्कार बड़ी मान-मनौव्वल , जोड़-जुगाड़ और अपमानजनक प्रक्रिया से गुज़र कर हासिल किए गए हैं।
- पंजाबी कवि पाश की जब पंजाब में आतंकवादियों ने हत्या की थी या सुलतानपुर में मान बहादुर सिंह मान की हत्या हुई और फिर गाज़ियाबाद में जब सफ़दर हाशमी की हत्या हुई थी तब कितने लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था ? ऐसी और भी घटनाओं को जोड़ कर कोई विद्वान , कोई जानकार , कोई क्रांतिकारी अगर मुझे जानकारी दे सके तो आभारी रहूंगा। नहीं मैं बिलकुल नहीं पूछ रहा हूं कि 1984 में सिख दंगों या तमाम अन्य दंगों या फिर भोपाल में यूनियन कार्बाईड में मारे गए लोगों की संवेदना में कितने लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए ? कोलगेट , टू जी टाईप स्कैम आदि पर कितने लेखकों ने साहित्य अकादमी लौटाना तो दूर जुबान भी कितने लेखकों ने खोली। मैं यह भी नहीं पूछ रहा । क्यों कि मैं जानता हूं कि ऐसा किसी ने कुछ किया ही नहीं । सोचा भी नहीं ।
- अगर समूचे देश में सभी किस्म की किताबों की सरकारों द्वारा थोक ख़रीद बंद कर दी जाए तो कितने प्रकाशक बचेंगे , कितने लोग लेखक बने रहेंगे और कि कितने लेखकों की किताबें छपती रहेंगी ? कम से कम हिंदी में तो लिखना-छपना ठप्प हो ही जाएगा। यह बात मैं पूरी सख्ती से कह रहा हूं। सच यह है कि सरकारी ख़रीद ने लेखक-पाठक संबंध समाप्त कर दिया है। सरकारी ख़रीद के चलते पचीस रुपए की किताब का दाम प्रकाशक पांच सौ रुपए रखते हैं। तो कोई भी पचीस या पचास रुपए की किताब पांच सौ या हज़ार रुपए में क्यों खरीदेगा ? दूसरे , पनचानबे प्रतिशत प्रकाशक किताबें दुकान पर बिकने के लिए नहीं रखते और कहते हैं कि किताब नहीं बिकती। लेकिन हमारी लेखक बिरादरी कभी भी प्रकाशकों की इस प्रवृत्ति का भूल कर भी विरोध नहीं करती। प्रकाशकों से कभी रायल्टी नाम की अपनी मजदूरी की बात नहीं करती । और तो और इन बेईमान , चोर और मक्कार प्रकाशकों को पैसे दे कर चोरों की तरह किताब छपवाती है। समाज में अपनी पहचान और शिनाख्त खो चुकी यही लेखक बिरादरी छद्म क्रांति का बिगुल बजाती है तो देश की जनता इन का मज़ाक उडाती है। लेकिन इस बिरादरी को इस से कुछ बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। इस लिए भी कि यह लोग जनता के लिए नहीं , ख़ुद के लिए लिखते हैं । ख़ुद का लिखा ख़ुद पढ़ते हैं और अपना अहंकार दसगुना करते हुए मस्त रहते हैं कि हाय , मैं ने क्या तो ग्रेट लिखा है !
- अब न कोई रवींद्रनाथ ठाकुर है , न बंकिम , न शरतचंद्र और न ही भारतेंदु , प्रेमचंद है , न मैथिलीशरण गुप्त , दिनकर , निराला , महादेवी , नेपाली , बच्चन , न ही अज्ञेय , मुक्तिबोध , शमशेर आदि जो जनता से सीधे जुड़ा हो और जनता उस के पीछे चलने को , उस के कहे को , उस के लिखे को सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हो। हां, राजनीतिकों के डिक्टेशन पर चलने वाले , अपनी ज़िद , कुतर्क और अहंकार में जीने के आदी लेखक जिन को उन का पड़ोसी भी नहीं पहचानता , न ही कोई पाठक संसार है उन का , ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं । अपठनीय इतने कि चेतन भगत जैसे मसाला लेखक उन की स्पेस ले लेते हैं । जनता और जनता की भावनाओं को समझने में नाकाम यही लोग अकेले क्रांति की बिगुल बजाते हुए , अपने को खुदा मानते हुए , एकतरफा फ़ैसला लेते हुए इतिहास में दर्ज होने को बेताब दीखते हैं । इन की इस ललक कि सजनी हमहूं राजकुमार , के क्या कहने !
- जो लोग नहीं जानते , वह लोग यह तथ्य भी ज़रूर जान लें कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और प्रसिद्ध कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पुराने गांधीवादी हैं। लाल बहादुर शास्त्री , हेमवती नंदन बहुगुणा , शिब्बन लाल सक्सेना जैसे कांग्रेसियों के साथ ज़मीनी स्तर पर काम कर चुके हैं। वह हिंदी के पहले ऐसे लेखक हैं जो लेखकों द्वारा निर्वाचित हो कर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने हैं। इस के पहले वह हिंदी के पहले निर्वाचित उपाध्यक्ष थे। उन्हों ने हिंदी को साहित्य अकादमी में प्रतिष्ठित किया है। हिंदी का मान बढ़ाया है । एक भी पैसे का कोई दाग उन पर नहीं है।
- भारत की राजनीति एक ज़माने से एक भी रत्ती नैतिक नहीं रह गई है । और हमारे लेखक सरकार पर नैतिक दबाव डालने के लिए अपने वह पुरस्कार लौटाने का शहीदाना अंदाज़ दिखा रहे हैं , जिन पुरस्कारों को पाने के लिए उन्हों ने नैतिकता की सारी किताबें बंगाल की खाड़ी में बहा दी थीं । इतना ही नहीं जो लोग अब तक यह पुरस्कार नहीं पा सके हैं , अभी भी नाक रगड़ रहे हैं। यह पुरस्कार पाने के लिए निर्धारित अपमान के नित नए अभ्यास करते जा रहे हैं।
इन की इस ललक कि सजनी हमहूं राजकुमार , के क्या कहने !......................'Dara ne mara" ............ bahot badhiya dada
ReplyDeletepranam.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश का संकट, संकट में देश - ११११ वीं बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteसीधा कटाक्ष... वाह!
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