Thursday, 19 June 2014

अगर फेसबुक न होता तो जाने कितने पागलखाने खोलने पड़ गए होते


फेसबुक अब भले ही हमारे जैसे लोगों के लिए असाध्य बीमारी बन गई हो पर यह भी तय है कि अगर फेसबुक  न होता तो जाने कितने पागलखाने खोलने पड़ गए होते।  कम से कम साइकेट्रिक तो कम पड़ ही जाते। बहुत सारे लोगों की गतिविधियां और टिप्पणियां कम से कम यही बताती हैं। वो गाना है न कि :

न मिलता गम तो  बरबादी के अफ़साने कहां जाते
अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहां जाते !

फेसबुक ने दरअसल सेफ्टी वाल्व का भी बड़ा काम किया है।   बहुत सारे लोगों का गुस्सा, प्यार, तकरार और इस का इजहार यहां जैसे बरसात की तरह बरसता रहता है और लोग इस में  भींगते और सूखते रहते हैं।  लोगों की कुंठा और ज्ञान का संगम देखना हो तो फेसबुक से बढ़िया नदी नहीं मिलेगई । बल्कि कहूं कि कुंठा,  ज्ञान और महत्वाकांक्षा की ऐसी त्रिवेणी कहीं नहीं मिलेगी । होंगे दुनिया में ढेर सारे लोकतांत्रिक देश और मंच भी।  पर जो लोकतंत्र फेसबुक पर उपस्थित है वह तो अविरल है और अनिर्वचनीय भी। लोकतंत्र का यह स्वाद और इस स्वाद की तलब अन्यत्र दुर्लभ है । कई मित्रों  को और खुद मुझे भी कई बार लगता है कि यहां फेसबुक पर वक्त गुज़ारना वक्त खराब करने के सिवाय कुछ नहीं है । बहुत हद तक यह बात सही भी  है और कई बार इस फेसबुक से विदा ले लेने का मन होता है । विदा ले भी लेते हैं पर फिर यह गाते हुए लौट ही आते  हैं कि, तुम्हारी अंजुमन से उठ कर दीवाने कहां जाते ! अब आप ही बताइए कि वैसे ही तो नहीं लिखा गया और गाया  गया है कि:
भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहां जाएं 
मुहब्बत हो गई जिन को वो दीवाने कहां जाएं !


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