Friday, 13 December 2013

अपनी वैचारिकी से पलटी मारना किसी को सीखना हो तो वह लखनऊ के साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव से सीखे

दयानंद पांडेय 

नौ-दस महीने में ही अपनी वैचारिकी से पलटी मारना किसी को सीखना हो तो वह लखनऊ के साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव से सीखे। इसी बरस बीते मार्च में लखनऊ सोसाइटी ने लखनऊ लिट्रेचर फ़ेस्टिवल आयोजित किया था। तब उन को उस कार्यक्रम में बुलाया गया था कि नहीं यह बात तो आयोजक और वह ही जानें। पर तब वीरेंद्र यादव ने हिंदुस्तान अखबार में साहित्य का फ़ेस्टिवल हो जाना शीर्षक से  रुदन में लबालब एक टिप्पणी लिखी थी। इस टिप्पणी में उन्हों ने प्रेमचंद को बड़ी शिद्दत से याद किया था। लखनऊ में हुए लेखक सम्मेलन मे प्रेमचंद के भाषण को उन्हों ने कोट किया था, ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'  आगे उन्हों ने लिखा कि, लगता है प्रेमचंद की इस नसीहत से सबक लेते हुए लिट फ़ेस्ट के आयोजकों ने महफ़िल तो सजाई और मनोरंजन का सामान भी जुटाया लेकिन यह सावधानी भी बरती कि उन लेखकों को दूर ही रखा गया जिन के दिलो दिमाग में प्रेमचंद के कथन की अनुगूंज अभी तक रची-बसी है। संभवत: इसी के चलते आयोजन के निमंत्रण पत्र में किसी हिंदी लेखक का नाम था और न ही एकाध अपवादों को छोड़ कर किसी को आमंत्रण।


ऐसी गलतबयानी वीरेंद्र यादव ही कर सकते हैं। नरेश सक्सेना, योगेश प्रवीन, यतींद्र मिश्र, रूपरेखा वर्मा और मैं खुद, अमरेंद्र त्रिपाठी आदि हिंदी के लेखक उस आयोजन में आमंत्रित थे। पर वीरेंद्र यादव को अपने इर्द-गिर्द के चार-छ लेखकों को छोड़ कर लखनऊ में लेखक ही नहीं दिखते। या कि वह किसी को लेखक मानते ही नहीं। उन की इस रतौधी का इलाज अब बहुत मुश्किल दिखता है। गौरतलब यह भी है कि लोहिया को फ़ासिस्ट बताने वाले वीरेंद्र यादव ने यहां इस टिप्पणी में लोहिया के  गुणगान भी गाए हैं। खैर, इसी टिप्पणी में वह संत और सीकरी आदि पर भी लफ़्फ़ाज़ी झोंक कर अफ़सोस जाहिर करते रहे कि इस आयोजन में राजा, नवाब आदि आए। विंटेज कार रैली आदि हुई। नाच-गाना आदि हुआ। और फिर निष्कर्ष देते हुए लिखा था कि, 'शायद साहित्य के सरोकारों से मुक्त होने और 'फ़ेस्टिवल' में तब्दील के अनिवार्य दुष्परिणाम है। सचमुच साहित्य के नाम पर यह दृष्य दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है।'


चलिए न मानते हुए भी मान लिया यह भी एक बार। लेकिन कुतर्क और पलटीबाज़ी की भी एक सीमा होती है। मैं ने इस के मद्देनज़र फ़ेसबुक पर एक टिप्पणी भी लिखी। आप भी गौर कीजिए :


सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ों की जागीर बन गया है यह शहर लखनऊ साहित्य के नाम पर?


अपने लखनऊ का साहित्यिक मंज़र भी खूब है। कि जो क्रांतिकारी लोग लिट फ़ेस्ट का पिछली बार बायकाट किए थे, वही सूरमा भोपाली लोग अब की कैसे तो सूरमेदानी लिए मुसकुराते हुए खड़े फ़ोटो खिंचवाते रहे ! यह देखना भी दिलचस्प था। हम तो शहर में थे नहीं लेकिन लौटे तो अखबारों और फ़ेसबुक पर उस की बदली-बदली बयार में बहती फ़ोटो देखी तो मन मुदित हो गया। तो क्या अब की मल्टी नेशनल कंपनियां प्रायोजक नहीं थीं ? अंगरेजी आदि का जाल बट्टा नहीं था? कि अंगरेजियत नहीं थी? लेकिन अब मुस्कुराते हुए फ़ोटो खिंचवाते इन क्रांतिवीरों से पूछे कौन? रही बात पत्रकारों की तो उन में यह सब पूछने की भूख और रवायत दोनों ही जय हिंद है। जहालत से उन की बहुत तगड़ी रिश्तेदारी है। अशोक वाजपेयी भी आए थे लेकिन क्रांतिकारी आलोचकों, संपादकों और लेखकों को उन के आने से कोई गुरेज़ नहीं था। उन के साथ यह कार्यक्रम शेयर किया। यह तो अच्छी बात हुई। कि कुछ सही पूर्वाग्रह छूटा तो सही, कुछ ऐंठ टूटी-छूटी तो सही। लेकिन रज़ा फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित विश्व कविता समारोह भारी फ़ज़ीहत में फंस गया है। अशोक वाजपेयी रज़ा फ़ाउंडेशन के सर्वेसर्वा हैं। इस पर भी इस शहर में किसी लेखक, पत्रकार या आलोचक ने उन से कोई बात क्यों नहीं की? यह भी हैरतंगेज़ है। क्या यह शहर इतना सोया हुआ है? या सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ों की जागीर बन गया है यह शहर लखनऊ साहित्य और संस्कृति के नाम पर? या कि बस सुविधा की ही बात रह गई है। कि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू ! यह सवाल सुलगना लाजिम है। क्यों कि अवसरवादिता की यह तो पराकाष्ठा है।

दिलचस्प यह कि बीते मार्च में जब यह लखनऊ लिट्रेरी फ़ेस्टिवल का आयोजन हुआ, जिसे लखनऊ सोसाइटी ने आयोजित किया था तो वीरेंद्र यादव और उन का गिरोह खासा नाराज़ रहा। लेकिन अब की दिसंबर में जब यही आयोजन एक दूसरी संस्था लखनऊ एक्सप्रेसंस ने लखनऊ लिट्रेरी कार्निवाल नाम से आयोजित किया तो वीरेंद्र यादव और उन के लोग हैपी हो गए। तब जब कि यह आयोजन भी लखनऊ लिट्रेरी फ़ेस्टिवल की पुनरावृत्ति ही रहा। वह तो फिर भी फ़ेस्टिवल था यानी त्यौहार ! और यह कार्निवाल था यानी तमाशा। और इस आयोजन में भी वही राजा और वही नवाब लोग थे। वही फ़िल्मी लोग थे। वही नाच-गाना और वही विंटेज कार एक्ज़ीबिशन आदि। मतलब वही सारे नखरे, वही टोटके आदि। वही महफ़िल. वही मनोरंजन के सामान आदि। लेकिन वीरेंद्र यादव गए इस आयोजन में राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि देने के बहाने। वह प्रेमचंद का कहा भी भूल गए। कि,  ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'

लखनऊ के एक सुपरिचित लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा ने फ़ेसबुक पर अपनी वाल पर लिखा है कि :


लखनऊ कार्पोरेटी लिटररी फेस्टिवल रिलायंस के पैसों से संपन्न हुआ है . अब यहाँ बताने की क्या जरूरत की यह साहित्य का आखेटीकरण है या साहित्यकारों के वैचारिकी की दुम और उसके कंपन का मापीकरण है। 
.
सुभाष चंद्र कुशवाहा की इस टिप्पणी पर कवि कौशल किशोर की एक टिप्पणी भी गौरतलब है:

यह फेस्टिवल साहित्य का कारपोरेटीकरण है जिसका मकसद साहित्य को उपभोक्तावादी माल में बदलना है, उसे सामाजिक सरोकार व उसकी मूल चिंता से दूर ले जाना है। लेकिन विडम्बना कहिए कि सब चुप हैं। ऐसे में मुझे मुक्तिबोध याद आते हैं: 
 
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन नि
र्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं,
उनके खयाल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ति।
रक्तपाई वर्ग से नाभिनालबद्ध ये सब लोग
नपुंसक-भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती।

सुभाष चंद्र कुशवाहा इसी टिप्पणी की एक प्रतिक्रिया में लिखते हैं :

 धर्मेन्द्र राय जी, भैस का दूध पी कर भैस बनने वाली बात नहीं है , भैंस के अस्तित्व को नकार करने की विचारधारा पाल कर, भैस का दरबार करने से है ! बात इतनी सरल नहीं होती जितनी समाझ ली जाती है।

 सुभाष चंद्र कुशवाहा की एक और टिप्पणी है :

सफाई मिली है की लखनऊ कार्पोरेटी लिटररी फेस्टिवल रिलायंस के पैसों से नहीं, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, स्टेट बैंक , सरकार और "इत्यादि" के सहयोग से हुआ है . भाई मुझे आयोजन से क्या आपत्ति ? आयोजन चाहे पप्पू यादव कराएँ या दाऊद इब्राहिम? आपत्ति उनसे है जो दूसरे के लिए आदर्श बघारते हैं और अपने के लिए रास्ता निकालते हैं ! और अगर सफाई आ ही रही है तो यह आनी चाहिए की ये "इत्यादि" कौन हैं. कुल कितना खर्च हुआ और किन-किन से कितना आया ? यह बात सिर्फ इसलिए कि सफाई आई है, वरना तो क्या ?

अब सुभाष जी और कौशल किशोर जी के इस लिखे के आलोक में भी ज़रुर सोचा जाना चाहिए। दिलचस्प यह एक तथ्य भी है कि वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ इस तमाशे में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई बल्कि वह इस आयोजन के मार्गदर्शक  मंडल के सदस्य भी हैं। और तब भी किसी दलित लेखक आदि जिस की तुरही वह अकसर बजाते रहते हैं अपने भाषणों में, नहीं बुलाया गया इस आयोजन में। इसी लखनऊ में मुद्रारक्षस, शिवमूर्ति, हरिचरण प्रकाश, नवनीत मिश्र, जैसे कई और सशक्त कहानीकार भी हैं, वह भी इस आयोजन से खारिज रहे। वीरेंद्र यादव के मार्गदर्शक मंडल में रहने के बावजूद। तो यह क्या था महफ़िल सजाना या मनोरंजन का साधन जुटाना? यह ज़रुर पूछा जाना चाहिए। फ़िलहाल तो इस आयोजन को ले कर किसिम-किसिम की चर्चा चल रही है। वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय में शोध छात्र हिमांशु वाजपेयी लखनऊ के ही हैं। और इस आयोजन से गहरे जुड़े हुए हैं। पिछले आयोजन से भी जुड़े थे। उन्हों ने भी फ़ेसबुक पर अपनी वाल पर एक दिलचस्प टिप्पणी दर्ज की है:

लखनऊ वालों के लिए खुशखबरी ! अगर आपमें भी ‘अपना खुद का’ लिटरेचर फेस्टिवल करवाने के कीड़े हैं लेकिन आप लाचारी के चलते बेरहमी उनको मारने में जुटे हैं, तो अब आपको निराश होने की ज़रूरत नहीं है. लिटफेस्ट्स की इस सहालग में हम लेकर आए हैं खास आपके लिए ‘मस्तो बाबा गेसूदराज़’ का सिद्ध किया हुआ चमत्कारी ताबीज़. इस अद्भुत ताबीज़ को धारण करते ही पूरा लखनऊ शहर साहित्य और संस्कृति की दुनिया में आपके वर्चस्व को सजदारेज़ होकर तस्लीम कर लेगा. साहित्य को लेकर आपका और आपकी टीम का अज्ञान पूरी तरह से मिट जाएगा. दुनिया भर का साहित्य और उससे जुड़े मुद्दों की जानकारी सबके दिमाग में अपने आप फीड होने लगेगी. एक से एक खुर्राट और नामी साहित्यकार आपके दरवाज़े आकर गुज़ारिश करेंगें कि ‘लखनऊ में साहित्य और संस्कृति के पुनरूद्धार हेतु कृपया आप एक लिटफेस्ट करवाएं जिसमें हम बिना पैसे लिए शिरकत करेंगें’. सेलिब्रिटीज़ आपके यार-दोस्तों के साथ सटकर फोटो खिंचाने और नकली हंसी हसने में अपनी खुशकिस्मती समझेंगें. लखनऊ आपका अहसान मानेगा कि आपने उसे इतने बड़े सितारों के दर्शन करवाए. और तो और आपके बुलाए दो कौड़ी के शाइर भी महफिल लूट लेंगें. एंकर चाहें अंग्रेज़ों के कक्का ही क्यों न हों, बिल्कुल शुद्ध हिन्दी बोलेंगे. आदिवासियों को चूस लेने वाली मल्टीनेशनल कंपनियां आपको स्पॉन्सरशिप देते वक्त दानवीर कर्ण बन जाएंगीं. आपका जलवा कायम होगा. इरादे लोहा होंगे, मन मुलायम होगा. दूसरों के लिटफेस्ट को कोई नहीं पूछेगा. उनके यहां की भीड़ भी उठकर आपके आयोजन में दौड़ी चली आएगी. जिला प्रशासन आपके कार्यक्रम को न सिर्फ बिना मांगे अनुमति देगा बल्कि मुफ्त जगह और सुरक्षा भी उपलब्ध करवाएगा. शहर के बड़े बड़े लोग आपके फेस्ट में शिरकत करने के लिए लबलबाए रहेंगें. पत्रकार लोग मनचाहा कवरेज देंगें. खूब चर्चा होगी. राज्य सरकार इस महान साहित्य सेवा हेतु आपका नाम पद्मश्री के लिए भेजेगी. विश्वविद्यालय साहित्य और संस्कृति में आपके योगदान पर पीएचडी करवाएंगें...

सुपर तांत्रिक ताबीज़ का मूल्य- 151 रूपए मात्र
स्पेशल तामसी ताबीज़ का मूल्य- 251 रूपए मात्र

गलत साबित करने वाले को 1000 रूपए इनाम...

सम्पर्क करें- ‘मस्तो बाबा गेसूदराज़’. फोन नंबर- 420840420840

(हिमांशु बाजपेयी जैसे फ्रॉडियों से सावधान: ये नास्तिक है और लोगों को आस्था से विमुख करता है)

चलिए हिमाशु की इस टिप्पणी को आप अपने ढंग से ले लीजिए। लेकिन वीरेंद्र यादव के उस रुदन का क्या करें? जो बीते आयोजन के समय उन्हों ने दर्ज किया था। यकीन न हो तो उन की वह टिप्पणी जस की तस आप मित्रों के ध्यानार्थ यहां साथ में नत्थी कर रहा हूं। और इस बार के आयोजन में उन की उपस्थिति की चहक भरी फ़ोटो भी। अब आप ही सोचिए कि क्या किसी की वैचारिकी इतनी जल्दी पलटी मार जाती है? कि संतन को सीकरी से अब काम पड़ ही गया है? या कि खाने के और दिखाने के और होते हैं? और कि क्या अवसरवादिता भी इसे ही नहीं कहते हैं? कि आदमी खुद का भी लिखा- कहा भी भूल जाए, 'शायद साहित्य के सरोकारों से मुक्त होने और 'फ़ेस्टिवल' में तब्दील के अनिवार्य दुष्परिणाम है। सचमुच साहित्य के नाम पर यह दृष्य दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है।' फिर यह तो फ़ेस्टिवल भी नहीं कार्निवाल था। यानी तमाशा ! बल्कि कहीं ज़्यादा। क्यों कि तब दो दिन का फ़ेस्टिवल हुआ था, अब की तीन दिन का कार्निवाल हुआ है।

चलिए और तो सब ठीक है। यह सब अपनी-अपनी सुविधा और विवेक पर मुन:सर है। कि आप कहां जाएं, कहां न जाएं और कि क्या करें और क्या न करें, क्या लिखें और क्या बोलें। पर प्रेमचंद के उस कहे का भी क्या करें, ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'  प्रेमचंद के कथन की अभी तक रची-बसी अनुगूंज इतनी जल्दी बिसर गई? तो क्या दर्जा सचमुच गिर गया है?  साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव तो निश्चित ही नहीं बताएंगे। मित्रो, आप ही कुछ बताइए !



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2 comments:

  1. बड़ा आश्चर्य है कि सत्ता के गलियारों में खुले आम शिरकत करने वाले ड्रामेबाज़ आज लोहिया का आश्रय ढूंढ रहे हैं।क्रांति का परचम उठाने वाले इन तथाकथित बुद्धिजीवी सज्जनों को जातिवाद के नंगे नाच की आलोचना का समय ही नहीं मिला, यह पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या है।आपने इन सफेद कबूतरों की असलियत बेनकाब कर दी है तो इनका फड़फड़ाना जायज़ है।

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