८७ साल के नामवर अब बालसुलभ अदाओं के मारे हुए हैं
इन दिनों पप्पू यादव की किताब द्रोहकाल के पथिक का विमोचन कर के नामवर सिंह विवाद के बोफ़ोर्स पर सवार हैं। यह वही नामवर सिंह हैं जिन के ७५ वर्ष के होने पर देश भर में घूम-घूम कर समारोह करवाए थे प्रभाष जोशी ने। जीते जी इतना बड़ा सार्वजनिक सम्मान ७५ का होने पर किसी और हिंदी लेखक का देश भर में हुआ हो, यह मेरी जानकारी में नहीं है। हालां कि नामवर के यह सम्मान समरोह भी हलके विवाद में आए थे तब। लेकिन नामवर को तो जैसे ऐसे विवादों का शगल है। लोग लाख विरोध करें उन को फ़र्क नहीं पड़ता। क्यों कि वह सचमुच के नामवर हैं और रहेंगे भी। फ़ेसबुक पर भी इस को ले कर घमासान जारी है। नामवर सिंह द्वारा इस लोकार्पण की जितनी निंदा की जाए कम है। माना कि वाद, विवाद, संवाद उन का प्रिय विषय है लेकिन पतन की भी एक सीमा होती है। पतन के नित नए प्रतिमान गढ़ते नामवर अपनी नामवरी का इस कदर दुरुपयोग करेंगे, यह बात लोग शुरु से जानते रहे हैं। किसी के लिए यह आश्चर्य का विषय नहीं है। विवाद और नामवर का चोली-दामन का साथ है। एक समय राज्य सभा में जाने के फेर में वह भ्रष्टाचार के प्रतिमान और भारतीय राजनीति में सामंती लहज़े को ठसके के साथ उपस्थित करने के लिए जाने जाने वाले लालू प्रसाद यादव फ़ेज़ में अपनी फ़ज़ीहत करवा चुके हैं। अब दूसरी बार वह हत्यारे पप्पू यादव फ़ेज़ में फंस गए हैं। पप्पू की किताब का लोकार्पण कर खुद पप्पू बन गए हैं। हालां कि भाजपाई नेता जसवंत सिंह की किताब का जब उन्हों ने लोकार्पण किया तो उन्हें ठाकुरवाद से जोड़ा गया था। फिर यही पुनरावृत्ति आनंद मोहन सिंह के साथ हुई। ज्योति कुमारी के कथा-संग्रह के लोकार्पण में उन्हों ने उस किताब में छपी अपनी ही भूमिका पर सवाल खड़ा कर दिया। और कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। फिर कुछ दिन बाद उन का बयान आया कि मुझ से बातचीत के आधार पर भूमिका लिखी गई। फिर कुछ दिन बाद उन्हों ने लिख कर बयान जारी किया कि तब मेरे हाथ जाड़े के मारे कांप रहे थे, इस लिए बोल कर लिखवाया। ऐसे और भी बहुतेरे विवाद हैं जो नामवर के साथ नत्थी हैं। कुछ व्यक्तिगत तो कुछ साहित्यिक विमर्श के। बहुत दिन नहीं बीते हैं जब परमानंद श्रीवास्तव ने उन्हें तानाशाह आलोचक घोषित किया था। यह वही परमानंद थे जो नामवर के सेकेंड लाइनर कहलाते थे। बहुत लोग उन्हें नामवर का मुंशी भी कहते थे। आलोचना पत्रिका में नामवर ने परमानंद श्रीवास्तव को ही अपने साथ संपादक बनाया था। और वही परमानंद श्रीवास्तव उन्हें तानाशाह आलोचक कह गए तो बहुत आसानी से तो नहीं कहा होगा। अब परमानंद जी नहीं हैं तो भी सच यही है कि हिंदी जगत ने नामवर की तानाशाही खूब भुगती है। और उन की तानाशाही के विवाद भी। अब यह ताज़ा विवाद पप्पू यादव की किताब का न सिर्फ़ उन के द्वारा लोकार्पण है बल्कि उस की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है।
नामवर ने अपनी नामवरी में बता दिया है कि पप्पू और उन का लेखन हाथी है, बाकी सब चींटी हैं। किताब एक सांस में पढ़ जाने की कवायद आदि-आदि भी वह कर गए हैं। जो भी हो अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि नामवर अब एक छोटे बच्चे सरीखे हैं, जिन को कोई भी अगवा कर सकता है, अपनी सुविधा से। उन को चाकलेट खिला कर या कुछ भी लालच दे कर, दिखा कर उन से कुछ भी बुलवा और लिखवा सकता है। ८७ साल के नामवर अब बालसुलभ अदाओं के मारे हुए हैं। तो क्या इस सब को उस मनोवि्ज्ञान के आलोक में भी देखा जाना चाहिए कि बच्चे और वृद्ध एक जैसे होते हैं। एक समय था कि नामवर जल्दी किसी को पहचानते नहीं थे, अब सब को पहचानते हैं। यह उन के मौखिक ही मौलिक का विस्तार है। यह होना ही था। विष्णु खरे ने नामवर की इस प्रतिभा को बहुत पहले ही से पहचान लिया था, बतर्ज़ फ़िराक बहुत पहले से तेरे कदमों की आहट जान लेते हैं ! पर तब विष्णु खरे को लोगों ने नहीं सुना। उन्हें उन की कुंठा में ढकेल कर सो गए लोग। लेकिन नामवर तो निरंतर जाग रहे हैं। अपने अध्ययन, अपनी विद्वता और अपने व्यक्तित्व का निरंतर दुरुपयोग करते हुए। प्रकाशकों के बंधक बन चुके नामवर एक बार तब और विवाद में आए थे जब राजा राममोहन ट्रस्ट की खरीद समिति के सर्वेसर्वा थे। और करोड़ों की खरीद एक ही प्रकाशक को थमा दी। तब वह सी बी आई जांच के भंवर में आए थे। लेकिन तब अशोक वाजपेयी ताकतवर प्रशासक थे दिल्ली के सत्ता गलियारे में। नामवर अशोक वाजपेयी की शरण में गए। अशोक वाजपेयी ने सहिष्णुता दिखाई और नामवर बच गए। तो जीवन भर अशोक वाजपेयी को कोसने वाले नामवर ने भी अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी दिलवाने में पूरी ताकत लगा दी। और दे दिया। नामवर की नामवरी का अंदाज़ा इसी एक बात से लगा लीजिए कि नामवर को साहित्य अकादमी पुरस्कार पहले मिला और उन के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन से दो साल बाद। वह भी आलोचना पर नहीं, उपन्यास पर। अनामदास का पोथा पर। खैर अभी तो आन रिकार्ड, आफ़ रिकार्ड हर जगह पप्पू यादव के रंग में नामवर रंगे मिल रहे हैं। अब जाने नामवर नाम के इस बच्चे को प्रकाशक ने टाफी दे कर फुसलाया है कि माफ़िया और हत्यारे पप्पू यादव ने। कहना कठिन है। पर यह जानना भी दिलचस्प है कि नामवर न सिर्फ़ कम्युनिस्ट हैं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बनारस से चुनाव लड़ चुके हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार जनयुग के संपादक भी रह चुके हैं। और यह पप्पू यादव बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के ही एक विधायक अजित सरकार का भी हत्यारा है। उस हत्या को ले कर सज़ा काट रहा है। अभी वह पेरोल पर है। फ़ेसबुक पर यह घमासान भी अलग-अलग रंगों में जारी है। मैं ने खुद अपनी वाल पर लिखा है :
पतन के नए प्रतिमान
बरास्ता द्रोहकाल का पथिक,पप्पू यादव -नामवर सिंह
और फिर एक दूसरी टिप्पणी भी है:
यह भी
क्या स्वर्णिम समय है ? प्रणाम कीजिए इस समय को भी। भारत रत्न सचिन
तेंदुलकर, पत्रकार शिरोमणि तरुण तेजपाल और अब महान लेखक राजेश रंजन ऊर्फ़
पप्पू यादव ! वो गाना है न आ जा तुझे भी सैर करा दूं, तमंचे पे डिस्को !
तमंचे पे डिस्को ! अब देखिए न कि एक से एक भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, सब
के सब नत हैं इस डिस्को के आगे और नाच रहे हैं। दुर्योधन, दुशासन समेत।
आमीन बुलेट राजा, आमीन !
इस पर ले कर बहुतेरी टिप्पणियां हैं, लाइक हैं।
हमारे प्रिय कथाकार और मित्र उदय प्रकाश भी इस को ले कर तंज और रंज में हैं।हिंदी साहित्य की नामवरी प्रवृत्ति पर उन के 'कोडेड फार्मूला' पर गौर कीजिए :
'जब लेखक और प्रकाशक के बीच विवाद हो तो प्रकाशक के साथ रहो, जब प्रशासन और स्टुडेंट के बीच विवाद हो तो प्रशासन का साथ दो, जब अफ़सर और मातहत की बात हो तो हमेशा अफ़सर के पक्ष में रहो, जब जातिवाद और उसके विरोध के बीच झगड़े हो तो सवर्णवाद का साथ दो, जब उत्कृष्टता और मीडियाकिरी के बीच चुनना हो तो दूसरे को ही चुनो... जब बंदूक और कलम के बीच बहस चले तो बंदूक के साथ रहो ....सामंतवाद और लोमड़ चतुराई यही सीख देते हैं।'
एक हमारे मित्र हैं चंद्रेश्वर जी। कवि हैं। बहुत सरल भी हैं। कि कोई गाली भी दे तो प्रतिवाद या विरोध नहीं करेंगे। कहेंगे क्या करना है, उसी का मुंह गंदा हो रहा है। इस हद तक सीधे हैं। लेकिन कभी कोई बात ज़्यादा हो जाती है तड़क जाते हैं। फ़ुल बिहारी अंदाज़ में। तो वह भी इस प्रसंग को ले कर बहुत आहत हैं। वह भी फ़ेसबुक पर बहस चलाए हुए हैं। लेकिन नामवर की नामवरी देखिए कि उन के विवाद को ले कर भी कई विवाद खड़े हो जाते हैं। और साहित्य में जाति के अलंबरदार लोग अपनी जाति का झंडा यहां भी अपनी सुविधा से गाड़ लेते हैं। बहस कोई भी हो, विषय कोई भी हो इन मित्रों को बस एक ही चश्मा सूझता है और एक ही राग। वह है जाति राग। इस विवाद पर चंद्रेश्वर जी की वाल पर मेरी भी कुछ फ़ेसबुकिया गुफ़्तगू का जायजा लीजिए:
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नामवर सिंह को लेकर इतना गंभीर होने की ज़रूरत नहीं है. उनकी साहित्येतर गतिविधियों की बात छोड़ दें तो साहित्य में भी उनके व्यक्तित्व की जो महानता दिखती है, वह गिरोह द्वारा गढ़ी और बनाई गई ज़्यादा, शोध-अध्ययन से अर्जित की गई कम है. हिंदी जैसी विकसित होती भाषा के साहित्य के एक आलोचक के पास इतना समय कहां है कि वह नियुक्ति-प्रोन्नति-सेमिनार का तिकड़म भी करे, चुनाव भी लड़ ले, पढ़ा भी ले और लिख भी ले? पतन उसका होता है, जिसका कभी उत्थान हुआ हो. भाषा की जादूगरी और चेला-चपाटों (जिन्हें सही मायने में क्रीत दास कहा जाना चाहिए) के दम पर निरर्थक विवाद खड़े करने की बात छोड़ दें तो नामवर सिंह ने साहित्य की दुनिया में ऐसा किया, जिसके नाते साहित्य की दुनिया में उन्हें बहुत तवज्जो दी जाए?
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ReplyDeleteकृपया अंतिम वाक्य 'ऐसा किया क्या, जिसके नाते साहित्य की ..... ' पढ़ें.
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