Monday, 16 December 2013

रवींद्र वर्मा का महुआ तोड़ कर खाना-खिलाना


मित्रो, आप में से कितने लोगों ने महुआ तोड़ कर खाया है? हमने तो खैर सुबह-सुबह बीन कर खाया है महुआ। निहुरे-निहुरे बीन कर। सुखा कर भी। इस का लाटा भी खाया है और हलुआ भी। महुआ बीन कर उस की माला भी खूब बनाई है। पहनी-पहनाई है। बचपन का हमारा खेल था यह। जीवन था यह। इस लिए भी कि एक खूब बड़ा सा महुआ का पेड़ हमारी छावनी वाले गांव के घर के सामने ही था। और एक उस के ठीक बगल में। सो महुवे की छांव तले महुए की मादकता भी जानी है, उस की आंच भी और उस की गंध भी, मिठास भी। उसे सूखते, सुखाते भी देखा है। एक समय विपन्न लोगों के भोजन में शुमार था महुआ। अब विपन्न लोगों के शराब बनाने में भी शुमार है। खैर, भोजपुरी में मोती बी. ए. का एक बहुत मशहूर गीत भी उन्हीं से कवि सम्मेलनों में खूब सुना है, असो आइल महुआ बारी में बहार सजनी ! इस बहार में बचपन बीता है। जवान हुए हैं हम। लेकिन दिलचस्प यह कि रवींद्र वर्मा का एक उपन्यास कथादेश के अगस्त, २०१३ अंक मे छपा था। एक डूबते जहाज की अंतरकथा। पठनीयता का तत्व भी नाम अनुरुप कई जगह डूबता-उतराता मिलता है इस उपन्यास में। खैर, यह रवींद्र वर्मा की रचनाओं की खास खासियत है। कोई नई बात नहीं है। कई बार तो ऐसी रचनाओं को पढ़ या देख कर मृणाल पांडेय का एक दोहा याद आ-आ जाता है:

खुदै लिख्यै थे,खुदै छपाए
खुदै उसी पर बोल्यै थे।


लेकिन इस उपन्यास एक डूबते जहाज की अंतरकथा में तो कई जगह कुछ वर्णन तथ्यों और अनुभव से परे हैं। इस में पृष्ठ २२ पर तो एक चरित्र आम के साथ-साथ महुआ भी तोड़ कर खाना-खिलाना बताता है। अभी एक दिन पहले ही जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित एक चर्चा में इस लघु उपन्यास पर लखनऊ में कुछ साथियों ने बाकायदा चर्चा की। अच्छी बात है। रचना आई है तो उस पर चर्चा भी होनी ही चाहिए। लेकिन आंख मूंद कर? इस से बचना भी चाहिए। मित्र की रचना है तो मित्र को मित्रवत यह और ऐसी कोई और चूक भी क्या नहीं बताई जाई जानी चाहिए? कि रवींद्र वर्मा जी महुआ तोड़ कर नहीं, बीन कर खाइए। महुआ को महुआ और आम को आम ही रहने दीजिए। लिखने की धुन में महुआ को इतना खास भी मत बनाइए महराज !
लेकिन रवींद्र वर्मा का भी क्या दोष? अब उन के लिए तो बशीर बद्र के कुछ शेर ही याद आ रहे हैं :


दरिया से इख्तलाफ़ का अंजाम सोच लो
लहरों के साथ-साथ बहो तुम नशे में हो

क्या दोस्तों ने तुम को पिलाई है रात भर
अब दुश्मनों के साथ रहो तुम नशे में हो

बेहद शरीफ़ लोगों से कुछ फ़ासला रखो
पी लो मगर कभी न कहो तुम नशे में हो

कागज़ के ये लिबास चिरागों के शहर में
जानां संभल-संभल के चलो तुम नशे में हो

मासूम तितलियों को मसलने का शौक है
तौबा करो, खुदा से डरो तुम नशे में हो


तो क्या करें रवींद्र वर्मा। बेहद शरीफ़ लोगों से घिरे हुए हैं। आरंभ ही से। तो महुआ तोड़ कर खाएं कि आम किसी को फ़र्क नहीं पड़ता। कोई उन्हें बताने वाला है नहीं कि महुआ तो बीन कर ही खाएं। वह तो इन्हें सफलता के नशे में झुमा कर रखे हुए हैं। रही बात मेरी तो मुझ को दर्पण दिखाने की आदत हो गई है और लोग मुझ से कतराने लगे हैं। तो कतराएं। अपनी बला से। बशीर बद्र ही का एक शेर फिर याद आ गया है :

मुखालफ़त से मेरी शख्सीयत संवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूं।


1 comment:

  1. dayanand ji, upanayas par hui paricharcha me yah tathaya ujagar hua tha. ki mahua bina jata hai. oh chuta hai. tora nahi jata. alocha aur sirf alocha aur tarif aur sirf tarif se na to sahitya ka bhala hone walw na sahityakar ka.

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