डॉ.सुरभि सिंह
सुप्रसिद्ध रचनाकार और पत्रकार दयानंद पांडेय जी का यह पांचवां संस्मरण-संग्रह है। इस के पहले यादों का मधुबन , हम पत्ता , तुम ओस , नीलकंठ विषपायी अम्मा और यादों की देहरी आ चुके हैं। अभी जल्दी ही यादों की देहरी संस्मरण-संग्रह आया था। अब कुछ महीनों के भीतर ही पाठकों के समक्ष यह नया संस्मरण-संग्रह भी आ गया है। जैसा कि इस के नाम से ही स्पष्ट है दीप्तमान द्वीप में सागर से रोमांस। यह संस्मरण सागर से रोमांस तो है ही , यादों की कोमल संवेदनाओं से भी जुड़ा हुआ है। दयानंद पांडेय ने इस में अपनी श्रीलंका यात्रा के बहुत ही सुंदर क्षणों को शब्दों में पिरोया है।
जब आप इसे पढ़ना प्रारंभ करते हैं तो लगता है स्वयं यात्रा का एक भाग बन गए हैं और यह एक लेखक की सब से बड़ी विशेषता होती है कि वह बिंबों, शब्द चित्रों,और अनुभूतियों के माध्यम से पाठकों को भी अपने साथ जोड़ ले। लेखक की यह विशेषता उनके हर उपन्यास, कहानी और यहां तक कि कविताओं में भी दिखती है । यह संस्मरण स्वयं उन्हें भी बहुत प्रिय है। यही कारण है कि इसे उन्हों ने अपने इस संस्मरण संग्रह का शीर्षक बनाया है । वैसे भी शीर्षक अपने आप में सभी भावों और अंतर्तत्वों को स्पष्ट करने वाला होना चाहिए। इस दृष्टि से उन का यह संस्मरण पूरी तरह से सफल रहा है।
इस में अनेक ऐसे स्थल हैं जो मन को छू लेते हैं। सब से अधिक मार्मिक वह स्थल है जहां वे सागर की लहरों के मध्य शोर को सुन कर रामचरितमानस की निम्नलिखित पंक्तियों का स्मरण करते हैं :
विनय न मानति जलधि जड़, गए तीन दिन बीत ।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होही न प्रीत ।
मानवीय झंझावातों, मन की उथल-पुथल और संवेदनात्मक अनुभूतियों से स्वयं भगवान राम भी मुक्त नहीं थे। लेखक के मानस पटेल का विस्तार इसी बात से प्रकट हो जाता है कि वह अपनी अनुभूतियों को त्रेता युग तक पहुंचा देता है ।
इस के बाद के भी सभी संस्मरण अलग-अलग भावों को लिए हुए हैं। सभी संस्मरण अलग-अलग संवेदनाओं और अनुभूतियों को प्रकट करते हैं। कहीं पर क्रोध है, कहीं आवेश है, कहीं करुणा है, कहीं ममता है ,कहीं हास्य का पुट है, तो कहीं हृदय में दबी हुई गहरी फांस है ,कहीं कसक है ,कहीं टीस और कहीं शांत मन की अभिव्यक्ति है। लेकिन सभी में आप जीवन के भिन्न-भिन्न रंग पाएंगे। यह उनके लेखकीय उपक्रम की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि भाव स्वतः प्रकट होते चलते हैं।
मैं इन संस्मरणों के विषय में अधिक कुछ नहीं कहूंगी क्यों कि इन्हें आप स्वयं पढ़ेंगे और समझेंगे। मैं तो बात कर रही हूं लेखक की उस पैनी दृष्टि की जो एक समग्रता के साथ पूरी समष्टि को अपने साथ समेटे हुए है और जो पूरी तरह से शिवम की भावना से ओतप्रोत है। लेखक अपने संस्मरणों को आप के साथ इस लिए साझा कर रहा है ताकि उस के अनुभव कहीं न कहीं आप के भी काम आ सकें , आप का भी पथ प्रदर्शन कर सकें ।
संस्मरणकार अपने संस्मरणों में, वर्ण्य विषय वस्तु का आलोचनात्मक मूल्यांकन करता है , जो उस के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित होते हैं। यहां लेखक ने भी अपने व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दों का जामा पहनाने में बहुत कुशलता का परिचय दिया है। उन की सभी रचनाएं संवेदनात्मक दृष्टि के साथ-साथ एक आलोचनात्मक विवरण भी प्रस्तुत करती चलती हैं। पत्रकारिता में उनकी तेज़ धार से सभी परिचित हैं उनके संस्मरणों में भी इस ईमानदारी और सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता के दर्शन होते हैं।
वे समकालीन हिंदी साहित्य के उन लेखकों में से हैं जिन्हों ने पत्रकारिता, कथा-साहित्य और संस्मरण लेखन—तीनों क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक अपनी पैठ बनाई है। उन के संस्मरण और व्यक्तिचित्र न केवल व्यक्तिगत अनुभवों का विवरण हैं, बल्कि भारतीय समाज, सत्ता, मीडिया जगत और साहित्यिक परिवेश की भी महत्वपूर्ण टिप्पणी प्रस्तुत करते हैं। इस संस्मरण पुस्तक में दयानंद पांडेय की लेखकीय दृष्टि स्पष्ट, निर्भीक और साक्ष्य-आधारित है। यह आप इस पुस्तक में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वे घटनाओं को बिना लाग-लपेट, और सीधेपन के साथ प्रस्तुत करते हैं और यही सीधी बात प्रस्तुत करना ही लेखकीय निष्पक्षता है ,जिस में लेखक या संस्मरणकार बिना किसी तथ्य को छुपाए हुए सपाट रूप में प्रस्तुत कर देता है।
इस संग्रह में शामिल उन के संस्मरणों में सत्ता, राजनीति, साहित्यिक गुटबाज़ी, मीडिया के पाखंड और सामाजिक विसंगतियों पर तेज़, विश्लेषणात्मक और किसी सीमा तक कटाक्षपूर्ण कलम चली है। लेखक स्वयं को भी आलोचना से नहीं बचाते—उन की आत्मालोचनात्मक प्रवृत्ति ईमानदार संस्मरणकार की पहचान है। किसी भी रचना में उस के शिल्प का बहुत महत्व होता है और शिल्प में भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्यों कि यदि भाषा संप्रेषण युक्त नहीं होगी तो पाठकों के हृदय तक नहीं पहुंच पाएगी । बिना पाठकों के हृदय तक पहुंचे वह अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाएगी। इस दृष्टि से हम देखते हैं कि इस संस्मरण-संग्रह के सभी संस्मरणों की भाषा लोगों के हृदय तक पहुंचने वाली है ।
सहज, बोलचाल के करीब, पत्रकारिता-सुलभ और प्रभावशाली भाषा ने संस्मरणों को जीवंत बना दिया है। विषय और प्रसंग के अनुसार उसमें कहीं-कहीं पैनापन व्यंग्यात्मकता और जरूरत पड़ने पर भावनात्मकता भी आ गई है। शैली की दृष्टि से भी सीधी, संवादात्मक शैली का प्रयोग हुआ है जो पाठक को घटनाओं के भीतर ले जाती है। विवरणों में प्रामाणिकता और दृश्यात्मकता है, पात्रों का जीवंत प्रस्तुतिकरण है । उन्होंने अनुभव-केंद्रित संरचना का उपयोग किया हैं।
हर संस्मरण एक स्वतंत्र कथा की तरह विकसित होता हुआ दिखता है। उन्हों ने बहुत निर्भीकता का परिचय दिया है । वैसे उन के निर्भीक लेखन से हम सभी परिचित हैं । इस में भी उन्हों ने कई प्रसंगों में पत्रकारिता, राजनीति और साहित्यिक जगत के अंतरंग पक्षों को उजागर किया है। इन संस्मरणों में अधिकतर चरित्र सजीव, स्पष्ट और यादगार बन कर उभरे हैं। यह उन की लेखनी का ही कमाल है कि प्रशंसा या निंदा कुछ भी हो—पाठक को पक्ष नहीं, सत्य दिखाई देता है। उन्हों ने लेखक मित्रों, साहित्यकारों, राजनेताओं, पत्रकारों या सहयोगियों के चरित्रों को बिना संकोच के, वास्तविक रूप में प्रस्तुत किया है।
लेखक एक अच्छे कवि भी हैं उनकी कविताओं में माटी का सोंधापन और एक संवेदनात्मक परख भी है। मानवीय अनुभूतियों को मार्मिक ढंग से उकेरने में उनका कोई जोड़ नहीं है । हालां कि उन की कविताएं यदा-कदा ही दिखती हैं । इस संग्रह में भी आप को उन की कुछ कविताएं पढ़ने को मिलेंगी जिन में अनुभूतियों का सूक्ष्म अंकन है जो हमारे जीवन के बहुत करीब हैं ।
सही अर्थों में मानव जीवन स्वयं में एक सुंदर कविता है यह कविता कभी तुकांत होती है तो कभी अतुकांत और कभी-कभी यह अतुकांत कविता गद्य में भी दिख जाती है ,गद्य के रूप में भी दिख जाती है । लेखक दयानंद पांडेय जी के संस्मरण में भी यह गद्य कविता झलक जाती है। इन संस्मरणों में पहाड़ी झरनों के समान निर्मलता है और रात रानी की ग़मक भी। पढ़ने पर क्रम नहीं टूटता है क्यों कि सभी संस्मरण सिलसिलेवार हैं। कहीं न कहीं उन में एक कड़ी है जो एक दूसरे से जुड़ती चली जाती है।
कई बार लगता है एक बड़े से उपन्यास के कई उपभाग हों और औत्सुक्य बना ही रहता है ,निरंतरता भंग नहीं होती है। जिन्हों ने “यादों की देहरी” संस्मरण-संग्रह पढ़ा है उन के मन में अभी भी भावनाओं की भूमि नम होगी और जब वे इस संस्मरण-संग्रह को पढ़ेंगे तो अनुभूतियों की कोंपल फूटेगी। चेतना के स्तरों का हौले हौले स्पर्श करते हुए प्रस्तुत संग्रह के संस्मरण सजीव बन जाते हैं और यह सजीवता कहीं भी खंडित नहीं होती है। सभी संस्मरण आप के मन को न केवल अपने से लगेंगे बल्कि उन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए भी आप प्रयत्नशील हो उठेंगे और इस तरह यह संस्मरण आप के अपने बन जाएंगे।
एक बार इन्हें पढ़ने के बाद आप पुनः पढ़ना चाहेंगे और पुनः उन विवरणों से अपने आप को जोड़ना चाहेंगे। यात्रा वृतांत ,कथा साहित्य और औपन्यासिक कलेवर के मिश्रित रंग में रंगा हुआ यह संस्मरण-संग्रह आप को जीवन के नए आयामों से परिचित कराएगा , ऐसा मेरा विश्वास है।
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