दयानंद पांडेय
बहुत कठिन है अपने समूचे जीवन में सौ नाटक देख पाना। हम ने तो अभी तक नहीं देखा। लेकिन डाक्टर अनिल रस्तोगी ने कमाल किया। अपने जीवन के सौवें नाटक में अभिनय का नया रिकार्ड बना दिया। फ़िल्मी भाषा का आधार ले कर जो कहूं तो डाक्टर अनिल रस्तोगी भारतीय थिएटर के धुरंधर हैं। अप्रतिम धुरंधर। इन सर्दियों में बयासी वर्ष की उम्र में लोग घर से बाहर निकलने में सकुचाते हैं। पर 22 दिसंबर की घनघोर सर्दी की रात में अनिल रस्तोगी ने कोई सत्तर मिनट तक अभिनय किया। एकल अभिनय। कोई सामान्य नाटक होता या कोई औपचारिक नाटक होता तो बात और होती। पर अपनी ही ज़िंदगी के पन्नों को अपने अभिनय में , अभिनय की आंच में उपस्थित करना , ज़रा नहीं बहुत कठिन है। बियांड द कर्टेन नाम का यह नाटक अनिल रस्तोगी का आत्मकथात्मक नाटक है। लेकिन मैं जब इस नाटक को देख रहा था तब बियांड द कर्टेन के लिहाज़ से नहीं , बिटविन द अनिल रस्तोगी के ख़याल से देख रहा था। बतर्ज़ बिटविन द लाइंस। वास्तव में यह पूरा नाटक बिटविन द अनिल रस्तोगी ही था। वैज्ञानिक अनिल रस्तोगी और अभिनेता अनिल रस्तोगी के बीच का जीवन , जीवन का अंतरसंघर्ष , अंर्तद्वंद्व और उस के आड़े-तिरछे उहापोह को अभिनय की तिर्यक रेखा में उतारना आसान नहीं था। अभिनय के रंग में रंगना आसान नहीं था। बीते हुए दिनों में सिर्फ़ उतरना या लौटना नहीं था , उसे लिखना नहीं था , अभिनय का जीवन देना था। सिलसिलेवार। घुप अंधेरे में कुछ खोजना आसान होता है पर घुप कोहरे में कुछ खोजना , खो जाना भी होता है। दुर्घटना की संभावनाएं प्रबल होती हैं। पर हमारे जैसे रंग दर्शक अनिल रस्तोगी के अभिनय के कोहरे में धरती और आकाश के मिलन का सम्मोहन देख रहे थे। बाहर असली कोहरा था , भीतर अभिनय का कोहरा। परत दर परत अनिल रस्तोगी की ज़िंदगी और अभिनय का कोलाज रचता हुआ। ज़िंदगी का कोलाज , अभिनय के कोहरे को घना करता हुआ नया और अदृश्य आकाश रच रहा था जिस में अनिल रस्तोगी के अभिनय की आंच थी। यह आंच कोहरे को पिघलाती हुई किसी सूर्य की तरह रौशनी का जगमग थी। गोया कोहरे का भी कोई इंद्रधनुष होता हो। अनिल रस्तोगी के अभिनय का इंद्रधनुष ऐसे ही तो निर्मित होता है। अलौकिक , औचक और अविरल अभिनय का इंद्रधनुष।
वैज्ञानिक अनिल रस्तोगी और अभिनेता अनिल रस्तोगी के लिए लेखक और निर्देशक ने कुछ अन्य नाटकों के संवादों का भी आसरा लिया। चेख़व के नाटक स्वान सांग [ हंस गीत ] को तो बियांड द कर्टेन का आधार ही बनाया है। पर अन्य नाटकों के संवादों का भी सहारा लिया। इस फेर में अभिनेता अनिल रस्तोगी का रंग चटक हो गया , वैज्ञानिक अनिल रस्तोगी कहीं किसी कोहरे में आहिस्ता से खो गया। बस ज़िक्र में ही हवा की तरह वैज्ञानिक अनिल रस्तोगी किसी हवा की तरह आता , किसी बादल की तरह बूंदाबांदी कर कब चला जाता , पता ही नहीं चलता। तब जब कि अनिल रस्तोगी का वैज्ञानिक भी क़ामयाब वैज्ञानिक रहा है। उन के जीवन और रंगकर्म का बुनियादी आधार रहा है। पर बियांड द कर्टेन में वह फिलर की तरह उपस्थित रहा। उन का सोशल वर्क भी अनुपस्थित। अनिल रस्तोगी का अभिनेता हावी रहा। स्क्रिप्ट , निर्देशन और अभिनय में भी। सारा तानाबाना अभिनेता के लिए ही जैसे बुना गया था।
अनिल रस्तोगी के अभिनेता को निखारने के लिए बशीर नाम का एक रूपक चरित्र गढ़ा गया था। ग़ौरतलब है कि कोई साढ़े तीन दशक पहले प्रसारित कविता चौधरी के उड़ान धारावाहिक में अनिल रस्तोगी ने बतौर एस पी बशीर की भूमिका की थी। किसी नाटक में नहीं। बहरहाल , बशीर और अनिल रस्तोगी के बीच के संवाद अनिल रस्तोगी की ज़िंदगी के पृष्ठों को पढ़ने का प्रयोग नायाब था। एकल अभिनय को पुष्ट और सबल बनाने का इस से बेहतर उपाय नहीं हो सकता था। लेकिन वैज्ञानिक अनिल रस्तोगी ने सी डी आर आई जैसी बड़ी संस्था में डायरेक्टर पद की यात्रा आसानी से नहीं पार की होगी। बहुतेरे अनुसंधान किए होंगे। किए ही हैं। अनेक शोध और शोधपत्र हैं , उन के। उन का विवरण भी होना चाहिए था बियांड द कर्टेन में। पर लेखक , निर्देशक ने जाने क्यों इसे अनुपस्थित करना बेहतर समझा। शोध के लिए जर्मनी यात्रा के बहाने , वैज्ञानिक को जैसे किसी गुज़रे हुए छोटे से स्टेशन की तरह छोड़ दिया गया। अनिल रस्तोगी द्वारा अभिनीत तमाम नाटकों , चरित्रों की चर्चा की अनुपस्थिति भी खली। कम से कम महत्वपूर्ण नाटकों , चरित्रों के बिना बियांड द कर्टेन की कल्पना नहीं करनी चाहिए थी। पुनर्लेखन करने वाले लेखक यश योगी और निर्देशक मुस्कान गोस्वामी पर अनिल रस्तोगी की जीवन यात्रा , अभिनय यात्रा से ज़्यादा चेखव , शेक्सपियर के हेमलेट , ओथेलो , किंग लीयर की छाया और संवाद छाए रहे। इन विदेशी नाटकों के आतंक में निर्देशक मुस्कान गोस्वामी फंस गईं । जब कि डाक्टर अनिल रस्तोगी की अभिनय यात्रा में एक से एक क़ामयाब नाटक और निर्देशक उपस्थित रहे हैं। पर सब अनुपस्थित थे। पंछी आ , पंछी जा बन गए। क्या राज बिसारिया , क्या उर्मिल थपलियाल। सब फुर्र। डिमेंशिया का यह रूपक निश्चित ही अनिल रस्तोगी के अभिनय के हंस की उड़ान में स्पीड ब्रेकर बना रहा। गो कि अनिल रस्तोगी ने अपने अभिनय की गति में बाधा नहीं बनने दिया। इस स्पीड ब्रेकर को बारहा तोड़ा। तोड़ते ही गए।
यह अनिल रस्तोगी की अभिनय कला है , उस का ताप और उस की आंच है , जिस ने इन कमियों को खलने नहीं दिया। जो भी हो इस बहाने अनिल रस्तोगी की जीवन और अभिनय यात्रा को दर्शक के झरोखे से देखना दिलचस्प था। अनिल रस्तोगी की ज़िंदगी के तमाम पृष्ठों में लखनऊ और लखनऊ के लोग ज़िंदगी और सांस की तरह उपस्थित हैं। अनिल रस्तोगी ने देश भर में घूम-घूम कर नाटक किए हैं। एक-एक नाटक के सैकड़ों शो किए हैं। पर लखनऊ में जितने नाटक किए हैं , कहीं और नहीं। अकेले दम पर नाटकों को उठा लेने वाले डाक्टर अनिल रस्तोगी ने 75 से अधिक फ़िल्में भी की हैं। अनेक धारावाहिक किए हैं। फिल्मों में भी उन का बड़ा नाम है। बतौर चरित्र अभिनेता बड़े-बड़े सुपर स्टार्स के साथ काम किया है। पर फ़िल्में , धारावाहिक करना आसान है। थिएटर नहीं। अभी भी पाता हूं कि फ़िल्मों से ज़्यादा थिएटर में उन का मन लगता है। उन्हों ने कभी ऐसा कुछ कहा तो नहीं पर थिएटर उन का फर्स्ट लव लगता है। बियांड द कर्टेन में जब डाक्टर अनिल रस्तोगी अपनी ज़िंदगी के पन्ने मंच पर अभिनय के जरिए बांच रहे थे , देखा कि दर्शकों के बीच बैठी उन की पत्नी सुधा जी जैसे उन पृष्ठों को ज़्यादा बांच रही थीं। ऐसे जैसे कोई मंच पर गाना गए और मंच से नीचे बैठे लोग उस गाने को दुहरा रहे हों। भावविभोर हो कर दुहरा रहे हों। ठीक वैसे ही , जैसे यह पन्ने अकेले डाक्टर अनिल रस्तोगी के ही नहीं , उन के भी हों। सच भी यही है। हर नाटक में जैसे वह उन की छाया की तरह उपस्थित रहती हैं। पूरे मनोयोग से। वह मंच पर होते हैं और सुधा रस्तोगी मंच से नीचे , मीरा बन कर कृष्ण की तरह उन्हें निहारती हुई। व्यवस्था संभालती हुई। हर बार यह देखता रहा हूं। पर इस बार चूंकि वह मेरे ठीक आगे ही बैठी थीं , तो उन के मनोभाव को बांचना मेरे लिए बहुत सुखद था। बहुत आसान था।
दर्पण द्वारा लखनऊ के संत गाडगे के प्रेक्षागृह में मंचित इस नाटक के आख़िर में जब अनिल रस्तोगी ने अपने अभिनय में बच्चन की कविता का पाठ किया कि जो बीत गई सो बात गई , उन की ज़िंदगी के पन्ने जैसे फड़फड़ाने लगे थे। प्याज की तरह परत दर परत खुलते गए। सर्द मौसम में खचाखच भरे हाल में लेकिन हम ने अनुभव किया कि डाक्टर अनिल रस्तोगी का अभिनय बीती हुई बात नहीं है। उन के अभिनय के अभी कई नए पृष्ठ खुलने हैं और हमें पढ़ने हैं। डाक्टर अनिल रस्तोगी सिर्फ अभिनेता नहीं हैं , हमारी उम्मीद के सूर्य भी हैं। अभिनय के सूर्य। पितामह की उम्र में भी उगते हुए सूर्य। क्यों कि वह तो हर बार अपनी अभिनय यात्रा का सांचा ख़ुद तोड़ते हैं। नया सांचा बनाते हुए अपना सूर्य ख़ुद रचते हैं। उगता हुआ सूर्य। किसी नवजात शिशु की तरह। तभी तो वह अभिनय की नित नई इबारत लिखते हैं। एकदम टटकी। अविरल और अपूर्व। हमारे बीच वह अभिनय के किसी उत्सव की तरह उपस्थित हैं। सचमुच वह अभिनय के हंस भी हैं। उन्हें उन की सेंचुरी का यह हंस मुबारक़ !
बहुत मुबारक़ !

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