दयानंद पांडेय से प्रदीप श्रीवास्तव की बातचीत
लेखक की आवाज़ को नक्कारखाने में तूती की आवाज़ मानने वाले दयानन्द पांडेय बावजूद इसके लिखते ही रहते हैं। वह अब तक हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं,विषयों में पिचहत्तर से अधिक किताबें लिख चुके हैं। शीघ्र ही उन की कुछ और पुस्तकें भी प्रकाशित होने वाली हैं। वह एक सजग तेज़ तर्रार निर्भीक पत्रकार रहे हैं, उनके लम्बे पत्रकारीय जीवन,अनुभव की छाया स्वाभाविकता उनके साहित्य पर भी खूब पड़ती रहती है। बिना लागलपेट सीधे-सीधे बात कहने की प्रवृत्ति है इस लिए विवाद भी उनके साथ-साथ चलता है। हाईकोर्ट में कंटेम्प्ट का मुकदमा भी झेल चुके हैं। कोर्ट में माफ़ी नहीं मांगी। बेरोजगारी,भूख तमाम दुश्वारियों का सामना किया लेकिन अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया , आगे बढ़ते रहे और अब तक हिंदी साहित्य के अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कारों से पुरस्कृत , सम्मानित हो चुके हैं। बीते दिनों उन से उनके समग्र व्यक्तित्व कृतित्व एवं अन्य विभिन्न बिंदुओं पर जो विस्तृत बातचीत की, वह प्रस्तुत है। जिस में संभवतः आप यह ध्वनि भी सुन लें कि कुछ बिंदु ऐसे हैं जिस पर वह भी कुछ लिखने बोलने कि अपेक्षा किनारे से निकल लेना श्रेयस्कर समझते हैं। आखिर सबकी अपनी-अपनी एक सीमा होती ही है, उनकी भी है।
- नैतिकतावादियों के आरोप ही अश्लील हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि दुनिया में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ नहीं है। हां, अगर आप भ्रष्ट हैं, शोषक हैं , अत्याचारी हैं तो अश्लील हैं: दयानंद पांडेय
- सूर्य प्रसाद दीक्षित आचार्यों के आचार्य हैं। उन का अध्ययन विशद है: दयानंद पांडेय
- लखनऊ अब हमारी आदत में शुमार है। हमारी सांस में शुमार है: दयानंद पांडेय
- यह वामपंथी न तो ख़ुद स्वस्थ ढंग से सोचते हैं , न किसी को सोचने का अवकाश देते हैं: दयानंद पांडेय
- जीवन में बहुत कठिनाइयां, अपमान और दुश्वारियां भुगती हैं। बेरोजगारी भुगती है, भूख और परेशानियां देखी हैं: दयानंद पांडेय
- शिक्षा और चिकित्सा अब डकैती के अड्डे हैं: दयानंद पांडेय
- ग़नीमत बस यही थी कि हम कभी पत्रकारिता में दलाली की आंधी में दलाल नहीं बने। चाटुकार नहीं बने। किसी सूरत नहीं बने: दयानंद पांडेय
- फ़िल्में भी खेमेबाजी का शिकार हैं पर साहित्य में सिर्फ़ खेमेबाजी ही शेष रह गई है। सिनेमा से टकराने या सिनेमा के बरक्स साहित्य खड़ा होने की भी नहीं सोच सकता: दयानंद पांडेय
- पूरे मुग़लिया इतिहास में जोधाबाई नाम का कोई चरित्र नहीं है। पर कमाल अमरोही की क़लम ने गढ़ दिया। इतना कि जोधा अकबर नाम से दूसरी फिल्म बनी। फिर धारावाहिक भी: दयानंद पांडेय
- हरिचरन प्रकाश बड़े कथाकार हैं। हरिचरन प्रकाश को लोगों ने अंडररेटेड लेखक बना कर रखा है: दयानंद पांडेय
- अमिता दुबे तो जैसे कोई निर्मल नदी हैं। कल - कल बहती हुई। खुद को साफ़ करती हुई और सब को साथ ले कर चलती हुई: दयानंद पांडेय
- अश्लीलता का आरोप अश्लील लोगों ने ही लगाया। अपनी खीझ और हताशा में: दयानंद पांडेय
- ऐसे लेखकों और फिल्मकारों को भय लगा रहता है कि अगर वह इस्लामिक हिंसा के विरोध में खड़े हुए तो सांप्रदायिक घोषित हो जाएंगे : दयानंद पांडेय
प्रश्न - आपकी बातचीत से लेकर लेखन तक में बैदौली गांव, गोरखपुर शहर ऐसे समाए रहते हैं जैसे फूलों में खुश्बू,महानगरों में लोग, शर्बत में मिठास, भक्ति में भाव, जबकि शिक्षा-दीक्षा पूरी होते-होते आप लखनऊ, दिल्ली आदि शहरों में पहुंचे तो वहीं का होकर रह गए ,बैदौली छूट गया, गोरखपुर छूट गया। क्या कारण रहे, क्या शहरों की चकाचौंध से आप भी स्वयं को बचा नहीं पाए ?
उत्तर - सच तो यही है कि गांव ही नहीं छूटा हम से, शहरों की भूलभुलैया में हम ख़ुद ही कहीं छूट गए हैं। पर वास्तव में छूटता कहां कुछ है भला। कुछ भी कभी भी नहीं छूटता। फूल की ख़ुशबू एक शाश्वत सत्य है। जन्मभूमि है मेरी बैदौली। गोरखपुर मेरा शहर है। जो भी बना - बिगड़ा गोरखपुर में ही। आधार कहिए, बुनियाद कहिए सब कुछ वहीं तो है। परिस्थितियां हैं, सुविधाएं हैं, ज़रूरतें हैं जो लखनऊ, दिल्ली कर देती हैं। मेरा वश चले तो आज भी अपनी जन्मभूमि और अपने गांव बैदौली में रहूं। जैसे कि मेरे पड़ पितामह , पितामह और पिता रिटायर होने के बाद गांव में ही रहे। याद आता है कि पिता उस समय मेरे साथ नोएडा में थे। छोटे भाई के साथ लखनऊ लौटे। दो-चार दिन लखनऊ में रहने के बाद गांव जाने की ज़िद पर आ गए। भाई कहता रहा कि दो-तीन दिन बाद एक काम से चलना है, गोरखपुर तब चलिएगा। लेकिन पिता तो पिता। कहने लगे नहीं ले चलोगे, तो अकेले चला जाऊंगा। परेशान हो कर छोटे भाई ने मुझे फ़ोन किया। सारी बात बताई। कहा कि मैं समझा दूं। मैं जानता था कि वह समझाने से मानने वाले व्यक्ति नहीं हैं। इस लिए भाई से कहा कि जैसे भी हो आज उन्हें गांव ले जा कर छोड़ आएं। नहीं कहीं अकेले निकल गए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
एक तो उम्र हो गई थी दूसरे, वह कई बार चीज़ों को भूल जाते थे। ऐसे में कहीं खो गए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। भाई उसी दिन पिता जी को गांव ले गया। आख़िर गांव पहुंचने के दूसरे ही दिन वह सर्वदा-सर्वदा के लिए खो गए। दुनिया को विदा कह गए। तो क्या वह अपनी जन्मभूमि पर ही प्राण छोड़ना चाहते थे ? आकुल - व्याकुल थे कि कैसे भी हो जन्मभूमि पर चलना है , गांव चलना है। उम्र के अलावा उस वक़्त कोई बीमारी नहीं थी। बात करते-करते विदा हो गए। रही बात शहरों की तो गोरखपुर से निकल कर पहला लक्ष्य मुंबई जाने का था। फ़िल्मी दुनिया में क़िस्मत आजमानी थी। लखनऊ तो कभी सोचा भी नहीं था। गया भी तो दिल्ली। कोई पांच साल रहा दिल्ली। ''सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट'' और ''जनसत्ता'' में रहा। फिर ''स्वतंत्र भारत'', लखनऊ आया था सिर्फ़ एक साल के लिए। लेकिन सरकारी घर मिल गया। भाइयों, पत्नी को नौकरी। बच्चों को अच्छा स्कूल। शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का एक शेर है :
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
तो यह शेर मेरे लिए लखनऊ के लिए बन गया। लखनऊ की गलियां छोड़ कर नहीं जा पाया। कई बार अवसर भी मिला। ''स्वतंत्र भारत'' में कानपुर और ''राष्ट्रीय सहारा'' में दिल्ली ट्रांसफर हुआ। बारी-बारी। दिल्ली में ''आज तक'' में नौकरी की बात हुई। लेकिन लौट - लौट आया। बात वही कि कौन जाए पर लखनऊ की गलियां छोड़ कर। लखनऊ शानदार शहर है। मुंबई , दिल्ली के मुक़ाबले छोटा और आरामदेह। अब नोएडा में भी घर है। पर अधिकतर लखनऊ में ही रहता हूं। नोएडा आता - जाता रहता हूं। जैसे गोरखपुर और गांव आता - जाता रहता हूं। हमारे कई पत्रकार साथी लखनऊ से यहां-वहां गए। पद -प्रलोभन में, अधिक पैसे की मोह में, या बेरोजगारी दूर करने के लिए। ज़्यादातर लोग तबाह हो गए। कोई कई बीमारियों से घिर गए। किसी को लकवा मार गया। किसी को हार्ट प्रॉब्लम और जाने क्या - क्या। कई साथी लोग विदा हो गए। बार - बार शहर बदलना हर पत्रकार को सूट नहीं करता। कभी इस शहर , कभी उस शहर। परिवार बिखर जाता है। बच्चों की पढ़ाई गड़बड़ा जाती है। और मुझे सब से ज़्यादा शांति से रहना अच्छा लगता है। दो पैसा कम मिले , दो रोटी कम मिले , बड़ा पद न मिले कोई बात नहीं। शांति , सुख और नींद ज़्यादा ज़रूरी है।
परिवार सुखी रहे , परिवार का साथ रहे , यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता में क्या है कि आज आप उत्कर्ष पर हैं , कल पता नहीं क्या हो। आज आप स्टार हैं , पचास लोग आगे - पीछे हैं। सत्ता पक्ष , प्रतिपक्ष सब के दुलारे हैं। कल को बेरोजगार हैं। या मुख्य धारा में नहीं हैं तो कोई पूछने और पहचानने वाला नहीं। तो बहुत उतार - चढ़ाव है पत्रकारिता की ज़िंदगी में। हम ने बहुत उतार - चढ़ाव देखे हैं। भुगते हैं बार - बार। एक समय था कि हवाई जहाज या हेलीकाप्टर से चलना होता था। नियमित। पर ऐसा भी हुआ कई बार कि स्कूटर या कार में पेट्रोल के लिए भी पैसे नहीं थे। लेकिन लखनऊ ने मुझे हमेशा संभाल लिया। हर दुःख - सुख में। अभी भी संभाले हुए है। चार दशक होने जा रहे , लखनऊ की बाहों में। लखनऊ की गलियों में। लखनऊ वैसे भी चकाचौंध का शहर नहीं है। व्यर्थ की दौड़भाग नहीं है। सुकून और संतोष का शहर है। सब कुछ तो है लखनऊ में। शहर भी एक आदत होते हैं। लखनऊ अब हमारी आदत में शुमार है। हमारी सांस में शुमार है। यहां अच्छे लोग भी हैं , कमीने लोग भी। हर जगह होते हैं। लेकिन अच्छे लोग ज़्यादा हैं। बहुत ज़्यादा।
प्रश्न - आप हिंदी विषय लेकर स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि पढ़ाई पूरी होने से पहले ही पत्रकारिता जगत में आ गए। यह आपका अपना निर्णय था या घर का दबाव कि अब कुछ करो।
उत्तर - पत्रकारिता में तो बी ए प्रथम वर्ष में ही आ गए। बीस बरस की उम्र में। अचानक ही आ गए। पत्रकारिता की ज़िंदगी पहले शुरू हो गई। शायद यही प्रारब्ध था। एम ए तो बाद में किया। बस जैसे तैसे किया था। करनी तो पी एच डी भी थी। पिता जी की इच्छा यही थी। वह चाहते थे कि आई ए एस बनूं या अध्यापक बनूं। किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाऊं। अध्यापक की परंपरा थी घर में। मेरे पड़ पितामह और पितामह दोनों ही हेड मास्टर से रिटायर हुए थे। हुआ यह कि तब के दिनों कविता - कहानी लिखने लगा था। हमारे एक मित्र थे जयप्रकाश शाही। हम से चार - पांच साल बड़े थे। हमारे गांव के पास उन का भी गांव था। वह एम ए कर चुके थे। हम बी ए कर रहे थे। शाही जी कविताएं लिखते थे। कवि गोष्ठियों में मिलते थे। पत्रकार भी थे। एक दिन वह मुझे समझाने लगे कि , 'लेख भी लिखिए। ' मैं ने कहा कि , 'कविता कहानी ही बहुत है। ' वह समझाने लगे कि , ' कविता लिख कर कहीं छपिएगा तो कितनी जगह मिलेगी ?' बित्ता से नाप कर बोले , ' इतनी ? ' फिर बित्ता थोड़ा और बढ़ा कर बोले , ' इतनी ? ' मैं ने कहा , ' कहानी में तो ज़्यादा जगह मिलती है। ' वह बोले , ' कहानी या कविता तो फिर रोज - रोज कोई लिख भी नहीं सकता।' फिर अख़बार का पूरा पेज दिखाते हुए बोले , ' लेख तो पूरे पेज का हो सकता है। ' वह बोले , ' रोज न सही , हफ़्ते में दो - तीन लेख तो लिख ही सकते हैं। ' वह बोले , ' फिर देखिए अख़बार में कितनी ज़्यादा जगह मिलेगी आप के लिखे को। और अकसर मिलेगी। कविता , कहानी में तो कभी - कभी। वह भी ऊंट के मुंह में जीरा। ' मैं टालता रहा पर जय प्रकाश शाही पीछे पड़े रहे। अंतत : लेख लिखने लगा। रिपोर्ट लिखने लगा। राष्ट्रीय पत्रिकाओं में कविताएं , कहानियां तो छपती ही थीं , लेख भी छपने लगे। उन दिनों सारा कम्युनिकेशन चिट्ठियों के भरोसे था। नेट , और सोशल मीडिया तो सपने में भी नहीं थे। लैंड लाइन फ़ोन तो थे पर हमारे जैसों की पहुंच से बहुत दूर। तो मैं अपनी डाक का इंतज़ार शाम तक करने के बजाए सीधे दस बजे सुबह डाकखाने पहुंच जाता था।
रचनाओं की स्वीकृति , अस्वीकृति , चेक , मनीआर्डर , पत्रिकाएं , अख़बार , जो भी था मिल जाता था। एक दिन अचानक ख़ूब सफ़ेद खद्दर का कुरता पायजामा पहने , सिगरेट फूंकते एक व्यक्ति ने पूछा , ' आप दयानंद पांडेय हो ? ' मैं ने हामी में सिर हिलाया। तब पूछा , ' मुझे जानते हैं ? ' मैं ने न में सिर हिला दिया। उन्हों ने पूछा , ' पूर्वी संदेश का नाम सुना है ? ' मैं ने कहा , ' हां ! ' वह बोले , ' मुझे ज़की कहते हैं। मोहम्मद ज़की ! ' वह भी अपनी डाक देखने आए थे। मैं ने उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। सिगरेट हाथ में लिए हुए ज़की साहब ने भी नमस्कार किया और बोले , ' सारिका में प्रेमचंद पर लेख आप का ही है ? ' हाथ जोड़ कर मैं ने हामी भरी। तब टाइम्स आफ इण्डिया की पत्रिका सारिका के अक्टूबर , 1978 के अंक में प्रेमचंद पर एक मेरा लिखा एक दो पेज का रिपोर्ताज छपा था जिस में प्रेमचंद की प्रतिमा के बगल में खड़े मेरी फ़ोटो भी छपी थी। उस फ़ोटो से ही मोहम्मद ज़की ने मुझे पहचाना था। मेरे लिखे के प्रति उन के मन और ज़ुबान पर मेरे लिए प्रशंसा के भाव थे। यह दिसंबर , 1978 की बात है। तब मैं बीस बरस का था। मोहम्मद ज़की पिता की उम्र के। बात करते - करते मोहम्मद ज़की ने अचानक मुझ से पूछा , ' मेरे साथ काम करेंगे ? '
' कहां ? '
' पूर्वी संदेश में। '
' लेकिन मैं तो अभी बी ए में हूं। पढ़ रहा हूं। '
' कोई बात नहीं। ' ज़की बोले , ' पढ़ाई छोड़ने को कहां कह रहा हूं। ' वह बोले , ' पढ़ाई जारी रखें। ' कह कर उन्हों ने अपने साथ रिक्शे पर बैठने को कहा। ' मेरे पास साइकिल है। ' संकोच में आ कर कहा।
' साइकिल बाद में आ कर ले लीजिएगा । ' कहते हुए मेरा हाथ पकड़ कर रिक्शे पर खींच कर बैठा लिया। सिविल लाइंस में अपने दफ्तर ले गए। और अपनी कुर्सी पर मुझे बैठा दिया। प्रेस के सारे स्टाफ को बुलाया। मेरा परिचय करवाया और बताया कि आज से 'पूर्वी संदेश' के संपादक यही हैं। ' मैं हकबका गया। इतना ही नहीं इस हफ़्ते छपने वाले पूर्वी संदेश अख़बार की प्रिंट लाइन में बतौर संपादक मेरा नाम भी छपा। आगे भी छपता रहा। ज़की साहब ने मुझे पूरी छूट दे रखी थी कि क्लास ख़त्म होने के बाद दफ़्तर आऊं। शर्त बस यह थी कि अख़बार छपने में देरी न हो। सोमवार की तारीख में छपने वाला अख़बार शुक्रवार की शाम हर हाल छप जाना चाहिए। जैसे भी हो। पंद्रह दिन तक ज़की साहब ने काम सिखाया और समझाया। फिर फ्री हैंड दे दिया। घर में पिता जी नाराज़ थे कि बीच पढ़ाई नौकरी की क्या ज़रूरत है। ज़की साहब को यह बात बताई तो कहने लगे , ' बरखुरदार आप को तो अख़बार में काम मिला है। मैं ने तो बीड़ी बनाते हुए पढ़ाई की है। ' सुन कर मैं अकबका गया। क्यों कि ज़की साहब की लाइफ स्टाइल बड़ी एरिस्ट्रोकेटिक थी। नफ़ासत और नज़ाकत भरी।
अपर मिडिल क्लास वाली लाइफ थी। शानदार बंगला। हरदम कलफ लगे साफ़ शफ्फाक कपड़े। लगता ही नहीं था कि यह आदमी कभी बीड़ी बनाने की मज़दूरी भी किया होगा। ज़की साहब ने चुनाव भी दो बार लड़े और हारे। उस की अलग कहानी है। पर तब के दिनों देश के बड़े - बड़े राजनीतिज्ञों से उन का मिलना - जुलना और दोस्ती थी। कभी मिनिस्टर विदाऊट पोर्टफोलियो कहे जाते थे। हिंदी , अंगरेजी और ऊर्दू पर ज़बरदस्त पकड़। दो घंटे में पूरा अख़बार फाइनल कर देते थे। ''पूर्वी संदेश'' के अलावा देश की सभी पत्रिकाओं में भी तब छपता रहता था कुछ न कुछ। निरंतर। लिखने का , छपने का जैसे नशा सा हो गया था। जिस हफ़्ते कुछ कहीं न छपे तो शहर में कहीं निकलने का , किसी से मिलने का मन नहीं होता था। नहीं मिलता था। नहीं जाता था कहीं। छपास की जैसे बीमारी थी तब।
कुछ महीने बाद दूसरे प्रतिद्वंद्वी अख़बार ''जनस्वर'' के मालिक सरदार देवेंद्र सिंह मिल गए। पूछा , ' पूर्वी संदेश में कितना मिलता है ? ' बताया , ' डेढ़ सौ रुपए। ' देवेंद्र सिंह बोले , ' दो सौ रुपए दूंगा , जनस्वर आ जाइए।' देवेंद्र सिंह बड़े ट्रांसपोर्टर व्यवसाई थे। जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर से उन की गहरी दोस्ती थी। चंद्रशेखर गोरखपुर आते तो देवेंद्र सिंह के घर ही रुकते थे। खैर ''जनस्वर'' चला गया। ज़की साहब को बताने गया तो पता चला कि वह दिल्ली गए हैं। उन की पत्नी को बताया तो वह कुछ बोली नहीं। कोई तीन - चार महीने बाद एक कार्यक्रम में ज़की साहब मिल गए। पूछा , ' कहां हैं बरखुरदार ? ' उन्हें बताया , ' जनस्वर में। दो सौ रुपए मिलते हैं। ' वह किंचित नाराज हुए नालमेरी पीठ ठोंकते हुए बोले , ' ढाई सौ दूंगा। कल से आ जाइए। ' फिर ''पूर्वी संदेश'' वापस आ गया। ज़की साहब से बहुत कुछ सीखने को मिलता। 1981 में दिल्ली घूमने गया। घूमने क्या गया हमारे एक चचेरे भाई बैंक का इम्तहान देने जा रहे थे। रेलवे पास था तो उन के साथ हम भी दिल्ली चले गए। वह बैंक इम्तहान की तैयारियों में लग गए। हम अख़बारों और पत्रिकाओं के दफ़्तर घूमने लगे। लोगों से मिलने लगे। ''सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट'' पत्रिका तब बस शुरू ही हुई थी। रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण था सर्वोत्तम। सर्वोत्तम के संपादक तब अरविंद कुमार थे। कनॉट प्लेस में हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के सामने सूर्यकिरन बिल्डिंग में सर्वोत्तम का आफिस था। ''साप्तहिक हिंदुस्तान'' में हिमांशु जोशी ने अरविंद कुमार से भी मिलने की सलाह दी। हिमांशु जी तब तक मुझे कई बार ''साप्तहिक हिंदुस्तान'' में छाप चुके थे। तो अरविंद कुमार से मिला। कोई दस मिनट अरविंद जी इधर - उधर की बात पूछते रहे। अचानक बोले , ' भइया रे , मेरे साथ काम करोगे ? ' मैं हकबका गया। कुछ समझ नहीं पाया। पूछा , ' कहां ? ' अरविंद जी हंसते हुए बोले , ' इसी सर्वोत्तम में। ' गूंगे के गुड़ वाली बात हो गई। मैं कुछ बोल नहीं पाया। अरविंद जी बोले , ' अपना बायोडाटा लिख कर दे दो। कल तक सारी फ़ार्मेल्टीज पूरी करवा दूंगा। कल से ही ज्वाइन भी कर लो। ' मैं ''सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट'' में नौकरी करने लगा। मोहम्मद ज़की को चिट्ठी लिख कर यह सूचना भेज दी। वह बहुत खुश हुए। जवाबी चिट्ठी में मेरी तारीफ़ में क्या - क्या नहीं लिख दिया। वह दिल्ली आते तो पहले ही चिट्ठी लिख कर अपने होटल का पता लिख भेजते। मैं मिलता रहा। वह जब भी आते। सर्वोत्तम में अरविंद जी से सरलता , सहजता और काम करने की लगन सीखी। अरविंद जी से सीखने और जीने के बेहिसाब क़िस्से हैं। आगे कभी विस्तार से बताऊंगा। दिल्ली से जब '' जनसत्ता '' शुरू हुआ तो ''जनसत्ता'' आ गया। पहली टीम में था। प्रभाष जोशी जी से भी बहुत कुछ सीखा। फिर लखनऊ ''स्वतंत्र भारत'' में संपादक थे वीरेंद्र सिंह। ''इंडियन एक्सप्रेस'', दिल्ली में राजीव सक्सेना थे। लखनऊ, ''पायनियर'' से गए थे। वीरेंद्र सिंह से परिचय करवाया। वीरेंद्र सिंह ''स्वतंत्र भारत'' , लखनऊ लाए। फ़रवरी , 1985 की यह बात है। वीरेंद्र सिंह जैसा अध्ययनशील और कड़ियल संपादक मैं ने अभी तक दूसरा नहीं देखा। उन के जैसा जीनियस नहीं देखा। सितंबर, 1991 में ''नवभारत टाइम्स'' ले आए राम कृपाल सिंह। राष्ट्रीय समाचार फीचर्स में संपादक बना 1994 में। इस फीचर एजेंसी को मैं ने लांच किया और देश की नंबर वन फीचर एजेंसी बनाया। फिर ''राष्ट्रीय सहारा'' आया जुलाई 1996 में। फिर तो लंबा किस्सा है। बहुत से नामी गिरामी संपादक, लेखक और राजनीतिक लोग मेरी ज़िंदगी में बड़ा आधार और संबल रहे हैं। इन सब से आत्मीय संबंध रहे हैं। सब का स्नेहभाजन रहा हूं।
फिर भी मुझे इतना बताने की कृपया अनुमति दीजिए कि जय प्रकाश शाही, मोहम्मद ज़की , अरविंद कुमार और वीरेंद्र सिंह मेरी पत्रकारीय ज़िंदगी की बुनियाद हैं। बहुत ज़रूरी बुनियाद। यह लोग न होते तो शायद मैं पत्रकारिता में नहीं होता। ऐसे और इस तरह तो नहीं ही होता। ख़ास कर अरविंद कुमार और वीरेंद्र सिंह से बहुत कुछ सीखा। ख़ास तौर पर यह सीखा कि भूखों मर जाएंगे पर पत्रकारिता में कभी दलाली नहीं करेंगे। चाटुकारिता और चमचई नहीं करेंगे। जो आज की तारीख़ में पत्रकारिता में बड़ी अनिवार्यता बन चुका है। जो जितना बड़ा दलाल , उतना बड़ा पत्रकार। जीवन में बहुत कठिनाइयां, अपमान और दुश्वारियां भुगती हैं। बेरोजगारी भुगती है, भूख और परेशानियां देखी हैं। लड़ - लड़ गया हूं। टूट - टूट गया हूं। टूट कर चकनाचूर हो गया हूं पर ग़लत के आगे कभी झुका नहीं। स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। कोई गलत काम नहीं किया। कभी किसी क़िस्म की दलाली नहीं की। सीना तान कर सर्वदा रहा हूं। रह रहा हूं। रहूंगा। लेखन में भी , पत्रकारिता में भी।
प्रश्न - और आगे बढ़ने से पहले सोचता हूँ यह जानता चलूँ कि आज कैसे याद करते हैं आप अपने बचपन को, छात्र जीवन को,अपने गांव बैदौली को ?
उत्तर - बचपन तो अभी भी अम्मा की गोदी में बैठा हुआ झांकता है। अम्मा की कमर पर बैठा हुआ। जिस को अम्मा कनिया कहती थी। इया यानी दादी के क़िस्सों में उलझा हुआ है। बचपन बड़ा संकोची और उलझन भरा था। गंवई और शहरी दोनों की मिलावट थी। मटमैला सा था। यह गंवई और शहरी की मिलावट आज भी है। रहेगी। हुआ यह कि बचपन में अम्मा गांव में , मैं शहर में। मैं यहां तू वहां , ज़िंदगी है कहां ! गीत जैसी ज़िंदगी थी। स्थिति थी। ख़ालीपन सा था। भारी ख़ालीपन। अम्मा के त्याग और प्यार की डोर की बड़ी ताक़त थी। बैदौली तो भौतिक रूप से आज भी छूटा हुआ है। लेकिन मेरे मन में किसी महल की तरह है बैदौली। जन्म - भूमि होती ही ऐसी है। अम्मा , पिता जी थे तब नियमित आना - जाना था। अब तो बहुत कम हो गया है। अब तो घर पर ताला लग गया है। खेत बटाई पर। कहने को किसान हूं पर सिर्फ़ काग़ज़ पर। खसरा , खतौनी में खेत पर नाम दर्ज होने भर से तो कोई किसान नहीं हो सकता। किसान और लेखक होना आज की तारीख़ में बहुत कठिन है। कभी न छोड़ें खेत की बात को निभाना बहुत कठिन है। काश कि बचपन फिर लौट आता। ज़िंदगी फिर से शुरू से जीने को मिल जाती। प्रभा ठाकुर का एक गीत है : जीना आया जब तलक तो ज़िंदगी फिसल गई। तो बचपन फिसल गया है। बचपन क्या ज़िंदगी भी फिसल गई है। नीरज का गीत है न : कारवां गुज़र गया , ग़ुबार देखते रहे।
प्रश्न - आज शैक्षिणक संस्थानों में गुरु जी ,मास्टर साहब नहीं मैम, सर होते हैं ,मेरा आशय आप समझ रहे हैं। आज आप अपने मास्टरसाहब या गुरुओं को लेकर क्या सोचते हैं,जब उन्हें याद करते हैं तो मन में क्या भाव होते हैं ?
उत्तर - मन श्रद्धा से भर जाता है। पहले के लोग गुरुजन लोग थे। शिक्षा व्यापार नहीं , थी। दान थी। विद्यादान की अवधारणा थी। राजा के ही बच्चे क्यों न हों , गुरुकुल में पढ़ने जाते थे। गुरु के घर जाते थे। तुलसीदास ने लिखा ही है राम के लिए : गुरु गृह गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई। उज्जैन के संदीपनी आश्रम में श्रीकृष्ण भी पढ़ने गए थे। द्रोणाचार्य के पास पांडव और कौरव भी पढ़ने गए ही थे। कर्ण भी परशुराम के पास गए। यह लंबी कथा है। बाद के समय में भी यह परंपरा जारी रही। बाद के समय विद्यादान विद्या व्यापार में तब्दील होता गया। हमारे समय भी आहिस्ता - आहिस्ता विद्यादान पर ग्रहण लगने लगा था। कोचिंग तो नहीं ट्यूशन की बीमारी शुरू हो गई थी। पर दाल में नमक बराबर। अब तो बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना भी लग्जरी हो चला है। शिक्षा और चिकित्सा अब डकैती के अड्डे हैं। स्वीट्जरलैंड का एक स्कूल तो अब पचास करोड़ रुपए सालाना फीस लेता है। भारत में भी यह लूट जारी है। अबाध। हमारे समय में अंगरेजी और गणित ऐसे विषय थे कि इन का नाम सुन कर ही बुखार आ जाता है। यू पी बोर्ड में लड़कियों को इन दोनों विषय से छूट थी। होम साइंस लेने का विकल्प था उन के लिए। इस लिए लड़कियों का रिजल्ट हमेशा बहुत बढ़िया रहता था। लेकिन ज़्यादातर लड़के अंगरेजी और गणित के चक्कर में शहीद होते रहते थे। साल दर साल। गणित और अंगरेजी के नाम पर लड़कों की कुटाई भी गज़ब होती थी। सातवीं या आठवीं क्लास की बात है। गणित के एक अध्यापक थे। नंगे पांव चलते रहते थे। पेंटर हुसैन की तरह। लड़के उन्हें हरमिया , मरकहवा आदि संबोधनों से नवाजते थे। झुका - झुका कर मारते थे। लातों से , डंडों से। तीन दशक से भी पुरानी बात है। गोरखपुर गया था।
गर्मियों का दिन था। लगन बहुत तेज़ थी। सवारी मिलनी कठिन थी। हर जगह भीड़ बहुत थी। अचानक एक कस्बे से मैं गुज़रा। पुलिस की जिप्सी में था। हमारे एक मित्र थे। उन दिनों गोरखपुर में एस एस पी थे। जब भी गोरखपुर उन दिनों जाता था , पुलिस की एक जिप्सी हमारी सेवा में लगा देते थे। तो उस कस्बे में सवारियों की भीड़ में वह नंगे पांव वाले मास्टर साहब दिख गए। सर्वदा की तरह नंगे पांव ही थे। मैं ने रुक कर उन को नमस्कार किया। पूछा कहां जाइएगा, आइए छोड़ देता हूं। वह आ कर जिप्सी में बैठ गए। थोड़ी देर बाद बोले , 'बहुत अच्छा किया मुझे बैठा लिया। दो घंटे से इस चिलचिलाती धूप में खड़ा था। कोई सवारी नहीं मिल रही थी।' मैं ने हाथ जोड़ लिया। फिर वह बोले , 'मेरे विद्यार्थी हो ?' मैं ने हामी भरी। वह बोले , 'फिर भी मुझे सम्मान दे रहे हो ? मैं तो बहुत पीटता था , भूल गए ?' मैं ने विनत हो कर फिर हामी भरी। बोले, 'अब क्यों डर रहे हो। मैं तो रिटायर हो गया हूं। और तुम पुलिस में हो।' मैं ने उन्हें बताया कि पुलिस में नहीं हूं। मेरे एक मित्र पुलिस में हैं। फिर मेरे बारे में पूछा कि क्या करता हूं। आदि - इत्यादि। उन्हें उन के गंतव्य पर छोड़ा। मुझे बहुत आशीष देने लगे। उन का वास्तविक नाम मुझे आज भी याद नहीं है। तब भी याद नहीं था। पर उन की पिटाई और उन का पढ़ाना कभी भूल नहीं सकता। अंगरेजी के हमारे स्कूल अध्यापक तो हमारे मोहल्ले में ही रहते थे। वह भी पिटाई बहुत करते थे। पर छड़ी से। उन की ख़ासियत थी कि लड़का भले किसी और विषय में फेल हो जाए , कितना बड़ा गधा हो पर वह अपने क्लास के किसी भी बच्चे को अंगरेजी में फेल नहीं होने देते थे। न बोर्ड के इम्तहान में , न स्कूल के इम्तहान में।
पासिंग मार्क्स से ही सही , मार - पीट कर पास करवा देते थे। उन की ख्याति इतनी थी कि एक डी एम ने अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए ट्यूटर रख लिया था। ऐसे अनेक अध्यापक हैं मेरे जीवन में। जो हमेशा हमारे साथ रहते हैं। एक और अध्यापक का वाकया सुनिए। गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर था। रात हो गई थी। ट्रेन दो घंटे लेट थी। अचानक एक पुराने अध्यापक दिखे। मैं ने तुरंत नमस्कार किया। बरसों बाद भी मुझे पहचान लिया उन्हों ने। तब जब कि विद्यार्थी जीवन में बहुत दुबला-पतला था। अब मुटा गया हूं। फिर भी मेरे नाम से मुझे पहचाना। मैं चकित था। बाद में बताया उन्हों ने कि मेरा लिखा वह बहुत सालों से पढ़ते आ रहे हैं। मेरी फ़ोटो भी देखते रहते हैं , इसी लिए पहचान लिया। अचानक उन को जाने क्या भूत सवार हुआ कि प्लेटफार्म पर उपस्थित लोगों से मेरा परिचय करवाने लगे। बताने लगे , मेरा विद्यार्थी है। बहुत अच्छा लिखता है। आदि - आदि। जब तक ट्रेन नहीं आई वह मेरा परिचय लोगों से करवाते रहे। बच्चों जैसा उत्साह लिए वह मेरी इतनी प्रशंसा करते रहे कि मैं लज्जित होने लगा। उन से हाथ जोड़ कर कहा कि अब और परिचय मत करवाइए।
लेकिन वह जब तब मेरी पीठ ठोंक-ठोंक कर, आशीर्वाद दे - दे कर परिचय करवाते रहे। बताते रहे कि मेरा विद्यार्थी है। प्लेटफार्म पर उन को जानने वाले लोग बहुत थे। लोग गुरु जी कह कर उन का पांव छूते। वह मेरा परिचय करवाते। जब तक ट्रेन नहीं आई , सिलसिला चलता रहा। उन का वह अनुराग देख कर मन आज भी पुलकित हो जाता है। देखिए एक और अध्यापक की याद आ गई। बी ए में पढ़ाते थे। बनारस के एक अख़बार के संवाददाता थे। मैं 'पूर्वी संदेश' में था। किसी रिपोर्टिंग या प्रेस कांफ्रेंस में मिलते थे। क्लास में मेरी तारीफ़ के पुल बांधते रहते। पत्रकारों को बड़े ठाट से बताते , मेरे विद्यार्थी हैं। उन अध्यापक को भी याद करता हूं जो अकसर क्लास में मुझे देखते ही कहते थे कि अरे कवि जी , आप कहां क्लास में आ जाते हैं ? हम लोग बाहर ही मिल लेंगे। वह बीच - बीच में मेरे सवालों से सशंकित रहते थे। ऐसे और भी अनेक अध्यापक हैं जो मेरे जीवन में माखन , मिसरी की मिठास लिए उपस्थित हैं। प्राइमरी क्लास की भी कुछ टीचर याद आती हैं। हो सका तो मेरे गुरुजन शीर्षक से कभी कोई संस्मरण लेख लिखूंगा। कुछ अध्यापिकाओं को भी याद करूंगा। ख़ास कर उन अध्यापिका को ज़रूर जिन की क्लास में खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती थी। जिन का विषय नहीं होता, वह छात्र भी उन की क्लास में सिर्फ़ उन्हें देखने के लिए उपस्थित होते थे। एक और अध्यापिका थीं, युवा थीं, बहुत सुंदर और बहुत पैसे वाली। कार से चलती थीं। जो मेरे आकाशवाणी के एक मित्र के साथ बहुत अनुराग रखती थीं।
प्रश्न - गुरुओं या मास्टर साहब के प्रति उस दौर में छात्रों में जो एक सम्मान का भाव होता था वह आज सर, मैम के युग में विलुप्त हो गया है। इसके पीछे मुख्य कारण क्या रहे, इस स्थिति का शिक्षा और समाज पर आप क्या प्रभाव देखते हैं ?
उत्तर - शिक्षा जब व्यापार हो जाएगी तो आदर भाव तो विलुप्त ही हो जाएगा। पहले के शिक्षक , शिक्षक ही नहीं अभिभावक भी होते। ग़लती से कोई लड़का फेल हो जाए तो लड़के से ज़्यादा शिक्षक उदास हो जाते थे। लगता था जैसे वही फेल हो गए हों। लड़के अच्छे नंबर से पास होते थे तो लगता था कि वह शिक्षक लोग ही पास हो गए हैं। हमारे समय में फर्स्ट डिवीजन पास होना बड़ी उपलब्धि होती थी। तब के अध्यापक सीना तान कर कहते रहते थे कि हमारे बच्चे तो फर्स्ट डिवीजन पास होते हैं। ऐसे गोया वही पास हुए हों , फर्स्ट डिवीजन। मैं स्कूल में वाद विवाद प्रतियोगिता , अंत्याक्षरी आदि में दिलचस्पी रखता था। जनपदीय आयोजनों में फर्स्ट आता था। शील्ड लाता था। हमारी तैयारी करवाने वाले अध्यापक प्रिंसिपल साहब के सामने वह शील्ड ले कर ऐसे उपस्थित होते थे जैसे वही , शील्ड जीत कर लाए हों।
प्रश्न - बतौर साहित्यकार क्या वर्तमान यानी नई शिक्षा-नीति से आप इस स्थिति में कोई साकारात्मक परिवर्तन की आशा करते हैं ?
उत्तर - शिक्षा नीति में तो आमूल-चूल परिवर्तन की दरकार है। हम अभी भी मैकाले की शिक्षा नीति पर ही हैं , वह शिक्षा नीति जो सिर्फ़ क्लर्क बनाती है। इसे नष्ट कर नई वैज्ञानिक शिक्षा नीति चाहिए जो देश और लोगों को आगे ले जाए। सिर्फ़ क्लर्क बनाने की फैक्ट्री न बनाए। सिर्फ़ मुग़लिया सल्तनत की पैरोकारी ही न करे। सही इतिहास पढ़ाए।
प्रश्न - मुझे लगता है इस बिंदु पर कभी अलग से चर्चा उचित रहेगी, फिलहाल यह कि जब आप बैदौली से चले शहर की ओर तो अपने सपनों की पोटली में कौन-कौन से मुख्य सपने लिए हुए थे ? उन्हें साकार करने में कैसी दुश्वारियां आईं, उनसे कैसे पार पाया आपने ?
उत्तर - शहर जब आए तो कोई सपने जैसी बात नहीं थी। हलकी सी जो याद है वह यह कि रोज - रोज ज़बरदस्ती पटक - पटक कर , मार - मार कर अम्मा द्वारा दूध पिलाने से बहुत परेशान था। पिता जी के बड़े भाई यानी बाबू जी , गोरखपुर जा रहे थे। सुबह का समय था। उस वक़्त भी अम्मा दूध पिला रही थी। ज़बरदस्ती। सांस मिलते ही भाग कर मैं घर के आंगन से बाहर निकल कर दुआर पर आया। और बाबू जी से ज़िद करने लगा कि हम भी चलेंगे। उन्हों ने अपनी साइकिल पर बैठा लिया। हम गोरखपुर आ गए। कोई पांच साल की उम्र थी। तो सपना नहीं लक्ष्य था कि अम्मा के ज़बरिया दूध पिलाने से छुट्टी मिले। कैसे भी। गोरखपुर आया तो कुछ दिन बाद जुलाई में बाबू जी और पिता जी ने रेलवे जूनियर इंस्टीट्यूट ले जा कर स्कूल में नाम लिखवा दिया। क्लास वन में। बाबू जी रेलवे में बड़े बाबू थे। पिता जी तार घर में थे। संयुक्त परिवार था। सब लोग साथ ही रहते थे। पढ़ने लगा।
प्रश्न - इन दुश्वारियों के बीच, क्या कभी मन में यह बात भी आती थी कि बस बहुत हुआ करियर का संघर्ष, नहीं जूझना मुझे ऐसे, लौट चलता हूँ अपने गांव देश,अपने बैदौली, जहाँ की माटी में समाई बचपन की मौज-मस्ती भर लेगी बाँहों में, नया दौर शुरू होगा जीवन में,अपना परिवार, अपने लोग होंगे, वहीं ढूंढ़ लेंगे जीवन गाड़ी चलाने का कोई रास्ता।
उत्तर - कई बार। ऐसे अनेक दृश्य हैं। भाग कर गांव भी गया हूं। पत्रकारिता की गुलामी और सड़ांध से बचने के लिए। पत्रकारिता में व्याप्त दलाली से आजिज आ कर। पत्रकारिता के कारपोरेट में तब्दील होने की आंधी से बचने के लिए। यह सोच कर कि अब खेती - बारी ही करूंगा। गांव में ही रहूंगा। पर गांव की पट्टीदारी , गांव की तमाम मुश्किलें देख कर फिर - फिर भाग आया शहर। कैलाश गौतम की एक कविता है , गांव गया था , गांव से भागा। इस कविता में जो गांव की यंत्रणा है , तनाव है , गांव इस कविता से सौ गुना आगे जा कर बदल चुका है। मेरा एक उपन्यास है 'वे जो हारे हुए'। वे जो हारे हुए में इस यंत्रणा का बहुत विस्तार से वर्णन है। उपन्यास का नायक आनंद तय कर के गांव गया है। कि अब गांव में ही रहेगा। गांव तो छोड़िए आनंद के माता - पिता ही नहीं चाहते कि वह गांव में रहे। वह कहते हैं आनंद से कि गांव आते - जाते रहो , यही ठीक है। रहना नहीं। दलित एक्ट के दुरूपयोग , मुस्लिम सांप्रदायिकता से लगायत गांव की तमाम व्याधियों को वह गिना जाते हैं। कहते हैं तुम आदर्शवादी हो , आदर्शवाद यहां नहीं चलेगा। पिट - पिटा कर तुम तो यहां से शहर वापस चले जाओगे। हम लोग कहां जाएंगे। हमारा जीना मुश्किल हो जाएगा। गांव के लोग जीने नहीं देंगे। सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। क्यों कि शहर से ज़्यादा समझौते हैं गांव में। कदम - कदम पर। ऐसा ही कुछ। एक पात्र तो स्पष्ट कहता है , गांव में राक्षस रहते हैं। क़स्बे में आदमी। शहर में देवता। बहुत से विवरण हैं , गांव , शहर के इस उपन्यास में।
बहुत से निजी क़िस्से हैं गांव जा कर रहने के। लेकिन एक क़िस्सा तो कभी नहीं भूलता। 'नवभारत टाइम्स' अख़बार के लखनऊ संस्करण में था। अचानक जब बंद हो गया 'नवभारत टाइम्स' तब तो कहीं और नौकरी खोजने के बजाय मैं सपरिवार गांव चला गया। यह सोच कर कि तो हमेशा के लिए गांव रह जाऊंगा। या फिर कुछ दिन बाद कुछ देखूंगा। दो - चार दिन बाद ही गांव में खुसुर - फुसुर होने लगी। एक पट्टीदार जो सूदखोरी के धंधे में थे। ग्राम प्रधान भी थे। हमारे घर के रास्ते ही उन के घर जाने का रास्ता था। रोज ही जब कभी देखते तो लगभग चिल्ला कर पूछते कि , ' भाई ! कब तक रहेके बा ? ' कभी पूछते , ' का भाई , कब जाएके बा ? ' वह जानते थे कि 'नवभारत टाइम्स' बंद होने के बाद घर आया हूं। पहले के समय में दो - चार दिन भी गांव जा कर रहना नहीं हो पाता था। रिपोर्टिंग की व्यस्तताएं थी। शादी व्याह या कोई और ज़रूरी काम हो घर में तभी रुकता था। पर अब की का रुकना अलग ही था। प्रधान ही नहीं और भी लोग पूछते रहते थे। पर प्रधान रोज - रोज आते - जाते ख़ूब ज़ोर से चिल्ला कर बड़ी आत्मीयता का पुट मिला कर पूछते। इस आत्मीयता में गहरा तंज होता था। मैं ओसारा या दुआर छोड़ कर छत पर या आंगन में चला जाता। उन के आने - जाने के समय। फिर भी उन का प्रश्न बंद नहीं होता। वह पूछते ही रहते। एक दिन अम्मा उन पर बरस पड़ी। यह पूछते हुई कि , ' हमार बाबू तुहार दिहल खात हवैं का ? तोहके का तकलीफ़ होत बा ? '
' अरे नाहीं चाची , हम तो वैसे ही पूछत रहलीं ! '
' ता मत पूछल करा !' अम्मा बोली।
हफ़्ते भर में ही मैं लखनऊ लौट आया। फिर भी अम्मा चाहती थी कि रिटायर होने के बाद मैं गांव पर ही रहूं। रिटायर हुए साढ़े छ साल हो गए। बहुत चाह कर भी रिटायर होने के बाद गांव रहना नहीं हो पाया है। अम्मा - पिता जी भी अब नहीं हैं। बड़े से तिमंज़िले घर पर अब ताला लग गया है। गांव आना - जाना भी बहुत कम हो गया। अम्मा का दूध , खेत के मेड़ की दूब का दूध बुलाता बहुत है। पर कहां जा पाता हूं। जाता भी हूं कभी तो हद से हद तीन - चार दिन रह पाता हूं। तब जब कि शहर के घर से ज़्यादा बड़ा घर है। ज़्यादा सुविधाएं हैं। फोर लेन की सड़क पर है मेरा गांव। बनारस रोड पर गोरखपुर से मात्र पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर। गांव से ज़्यादा तो नोएडा चला जाता हूं। लगता है जैसे शहर का घुन लग गया है।
प्रश्न - इस संघर्ष काल में क्या कोई ऐसा भी रहा जो हर क्षण आपका मददगार बना रहा, आपकी शक्ति बन आपको आगे बढ़ाता रहा,प्रेरित करतारहा।
उत्तर - हां , अम्मा थी न ! अब भी भौतिक रूप से साथ न होने के बावजूद हर कठिन समय वही साथ देती है। आत्मिक रूप से। नैतिक रूप से। साहस और धीरज देती रहती है। जब भी कोई कठिन समय आता है तो अम्मा और गांव वाले मंदिर के शिव जी ही याद आते हैं। याद करता हूं इन्हें तो कठिनाई आसान हो जाती है। दूर हो जाती है। और भी हित-मित्र हैं। परिवारीजन हैं। दुःख - सुख के साथी हैं। पर असल साथी अम्मा और शिव जी ही हैं। हमारी ताक़त हैं। पत्नी तो साथ हैं ही। किसी भी के जीवन में तीन ही ताक़त हैं। मां , ईश्वर और पत्नी। अब तो कई बार पत्नी ही मां की तरह उपस्थित रहती हैं। हर दुःख में। एक समय गांव में लोग चिढ़ाते थे , नौकी माई ! हर किसी को। कोई भी वृद्ध स्त्री नौकी माई का ताना दे कर किसी भी युवा को चिढ़ाती रहती थी। नौकी माई , मतलब पत्नी। अब समझ आता है कि हां , पत्नी भी मां ही होती है। किसी भी के जीवन में यही दो स्त्रियां हैं जो आप के हर दुःख - सुख में निःस्वार्थ उपस्थित रहती हैं संबल बन कर। आप कितनी भी ग़लतियां करें यह दोनों ही आप को सर्वदा माफ़ करती रहती हैं। अनकंडीशनल।
प्रश्न - परिवार का क्या रुख रहा, मॉं-बाप,भाई-बहन क्या इन सभी से आपको अपेक्षित सहयोग मिलता रहा ?
उत्तर - परिवार का रुख़ मिला - जुला है। सहयोग भी , असहयोग भी। हमारे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे : जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से। तो जग जीतने वाले भी अपनों से हार जाते हैं। मैं भी जब - तब हारता ही रहता हूं। कई बार क्या अकसर ही बिना लड़े ही हार जाता हूं। क्या करूं , अपनों से लड़ना नहीं हो पाता मुझ से। घर ही नहीं , बाहर भी अपनों से नहीं लड़ पाता कभी। सो हार जाता हूं। आप ने देखा होगा , दफ़्तर में भी कभी अपनों से नहीं लड़ा। उन से हारता ही रहा। अपना बन कर लोग पीठ में छुरा भोंकते रहे और मैं सब कुछ जानते हुए भी हारता रहा। अपनों से हारना , जैसे नियति है हमारी। शेर से लड़ सकता हूं , सिस्टम से लड़ सकता हूं , लड़ता ही रहा हूं। पर अपनों से नहीं।अपनों से हारने का ही रिकार्ड है हमारा । घर में भी , बाहर भी। बात वही है कि जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से। बड़े - बड़े लोग अपनों से हारते रहे हैं। हम बड़े लोग तो नहीं हैं पर अपनों से हारने में ज़रूर शुमार हैं। पिता से सब से ज़्यादा हारा हूं। अब पुत्र से हारता हूं ।
हां , पिता जी को मेरा लिखना - पढ़ना कभी पसंद नहीं था। अम्मा को भी नहीं। आकाशवाणी पर जब कविता पढ़नी शुरू की तो अम्मा बहुत नाराज थी। उस को लगता था कि नचनिया , गवइया बन जाऊंगा। जो उस को पसंद नहीं था। शुरू के समय कविता लिखता था। कवि सम्मेलनों में जाने लगा। फिर थिएटर की रिपोर्टिंग भी। लोगों ने कहा कि लड़का नाटक देख रहा है। बिगड़ जाएगा। पिता जी का गुस्सा सातवें आसमान पर। उन्हीं दिनों रेड लाइट एरिया पर एक रिपोर्ताज भी लिखा जो अख़बार में छपा। पिता जी की नज़र में पानी सिर से ऊपर गुज़र गया था। बोले , ' नाटक , नौटंकी क्या कम पड़ रहा था जो इस तरह नाम रोशन करने लगे ? ' लोग क्या कहेंगे , क्या सोचेंगे आदि - इत्यादि की चिंता भी जताई। आदेश और निर्देश दिया कि आज से लिखना , अखबारबाजी बंद ! ' पूरा घर तनाव में आ गया। यह सब देख कर सचमुच कुछ दिनों तक लिखना क्या पढ़ना भी बंद कर दिया। घर से निकलना बंद कर दिया। पर कब तक बंद रखता भला। जल्दी ही सब कुछ पटरी पर आ गया। लिखने और अख़बार के बिना तब मैं रह ही नहीं सकता था।
प्रश्न - 'पूर्वी संदेश' से पत्रकारिता प्रारम्भ करने के बाद आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कार्य किया, कैसा अनुभव रहा वहां ?
उत्तर - 'पूर्वी संदेश' , गोरखपुर से। पर वह पार्ट टाइम जॉब था। क़ायदे से 'सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट' , दिल्ली से। फिर 'जनसत्ता' , दिल्ली। लखनऊ में 'स्वतंत्र भारत' , 'नवभारत टाइम्स' , 'राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क' और 'राष्ट्रीय सहारा'। सभी जगह के अनुभव अलहदा हैं। ज़्यादातर खट्टे , कुछ - कुछ मीठे भी। 'स्वतंत्र भारत' की ज़मीन पर तो हमने दो उपन्यास भी लिखे हैं। 'अपने - अपने युद्ध' और दूसरा , 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े'। 'अपने - अपने युद्ध' में तो 'जनसत्ता' भी आ जाता है थोड़ा सा। थिएटर , हाईकोर्ट वग़ैरह भी है। पर 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' में तो सिर्फ़ और सिर्फ़ 'स्वतंत्र भारत'। रही बात अनुभव की तो इन टोटल अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे। शुरू में जब पत्रकारिता में आया था तो यह सोच कर कि देश और समाज को बदलेंगे पत्रकारिता के मार्फत। आदर्शवाद का बुखार बहुत था। बहुत जल्दी यह बुखार उतर गया। देश और समाज तो ख़ैर क्या बदलते , ख़ुद ही बदल गए। तमाम ख़बरें ब्रेक करने के बावजूद आहिस्ता - आहिस्ता नौकरी वाले पत्रकार बन कर रह गए। बाद में तो एक कारपोरेट पत्रिका के हो कर रह गए। घर -परिवार चलाने की विवशता मान लिया यह। ग़नीमत बस यही थी कि हम कभी पत्रकारिता में दलाली की आंधी में दलाल नहीं बने। चाटुकार नहीं बने। किसी सूरत नहीं बने। इसी बात का संतोष है। बहुत संतोष है।
प्रश्न - जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ कि आपने पत्रकारिता की कोई पढ़ाई किये बिना ही इस क्षेत्र में कदम रखा, ऐसे में प्रारंभिक दौर में निश्चित ही समस्याएं आई होंगी, कैसे, किससे सीखा पत्रकारिता के गुर ?
उत्तर - पत्रकारिता एक तरह से मोची जैसा काम है। रिक्शा चलाने जैसा काम है। हल या कुदाल चलाने जैसा काम है। योग करने जैसा है। इस को सीखा ही जाता है। करने से आता है। सिर्फ़ स्कूली पढ़ाई से नहीं। स्वाध्याय से बात बनती है। करत -करत अभ्यास जड़मति होत सुजान वाली बात है। तो मैं ने काम करते - करते सीखा। आज भी सीखता हूं। हर किसी से सीखता हूं। आप ने मेरे साथ काम किया है। पर आप से भी बहुत कुछ सीखा है। बहुत से लोग नेशनल स्कूल आफ ड्रामा , दिल्ली या अन्य थिएटर स्कूलों से थिएटर की पढ़ाई कर निकले हैं। पर सभी के सभी थिएटर नहीं कर रहे। कुछ फिल्मों में चले गए , कुछ सरकारी नौकरियों या अन्य काम में। कुछ तो व्यवसाय में। बहुत से लोग बिना किसी स्कूल में थिएटर की पढ़ाई किए भी थिएटर में बड़ा नाम हैं और रहे हैं। इसी तरह पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से या अन्य एक्टिंग स्कूलों से निकले सभी लोग फ़िल्म नहीं कर रहे। बहुत से लोग दूसरे अन्य काम में लग गए। कई सारे लोग बल्कि ज़्यादातर लोग बिना किसी इंस्टीट्यूट के बड़े निर्देशक और अभिनेता बने हैं। किशोर कुमार ने तो कभी संगीत भी नहीं सीखा। शास्त्रीय संगीत के किसी उस्ताद के पास भी नहीं गए। मुकेश का भी यही हाल था। यह दोनों अभिनेता बनने आए थे मुंबई। बने भी। पर मुकम्मल गायक बन गए। कुमार शानू आदि बहुत से ऐसे गायक हैं। सुभाष घई जैसे लोग तो पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से अभिनय की पढ़ाई कर के आए थे , डायरेक्टर बन गए। सत्यजीत रे , ऋत्विक घटक , विमल राय , हृषिकेश मुखर्जी जैसे तमाम डायरेक्टर ने किसी स्कूल से कोई पढ़ाई नहीं की। एस डी वर्मन तो रॉयल फेमिली से रहे हैं। कोलकाता विश्विद्यालय से लॉ की पढ़ाई की थी। पर घर से बग़ावत कर संगीतकार बन गए। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। फ़िल्म , पत्रकारिता और अन्य क्षेत्रों के।
आई आई एम सी से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बावजूद कई लोग अच्छे पत्रकार नहीं बन सके। छोटी - छोटी नौकरियों में संघर्षरत हैं। कई लोग पत्रकारिता छोड़ कर अन्य काम में लग गए। व्यापार में लगे। कुछ तो प्रशासनिक सेवाओं में चले गए। अन्य नौकरियों में चले गए। हिंदी आलोचना के पितामह आचार्य रामचंद्र शुक्ल तो हाईस्कूल ही पास थे। लेकिन बी एच यू में हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी हुए। आलोचक तो वह बड़े हैं ही। टालस्टाय बड़े जमींदार थे पर बहुत पढ़े - लिखे वह भी नहीं थे। बहुत सारे बड़े पत्रकार हैं , जिन्हों ने तो विधिवत पढ़ाई भी नहीं की पर बड़े पत्रकार हुए। प्रभाष जोशी भी सिर्फ़ हाई स्कूल तक पढ़े थे। लेकिन 'जनसत्ता' में तो संपादक थे ही , 'इंडियन एक्सप्रेस' में भी रेजिडेंट एडीटर रहे। दिल्ली और चंडीगढ़ में। चंडीगढ़ का 'इंडियन एक्सप्रेस' लांच किया था प्रभाष जोशी ने। बहुत से ऐसे पत्रकार हैं जो पढ़ाई लिखाई में तो फिसड्डी थे पर बड़े पत्रकार बने। कई तो ऐसे पत्रकार हैं जो कभी कलम जेब से ही नहीं निकालते थे और बड़े अख़बारों के संपादक बन गए। बरसों बरस रहे। हर कोई महावीर प्रसाद द्विवेदी नहीं होता। महावीर प्रसाद द्विवेदी रेलवे में दो सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़ कर पचीस रुपए महीने पर 'सरस्वती' का संपादक बने थे। मदनमोहन मालवीय वकालत करने के बाद भी कुछ समय तक संपादक रहे थे। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें एक वाक्य ठीक से लिखना नहीं आया पर मालिकों के चरण छूना आता था तो ग्रुप एडीटर बन गए। अंग्रेजी पत्रकारिता में तो एक से एक धुरंधर रहे हैं। कोई अकादमिक पढ़ाई नहीं और बड़े - बड़े संपादक रहे। पढ़ाई किसी भी चीज़ की हो , कुछ सीखने को तो मिलता ही है। लेकिन पत्रकारिता ऐसी विधा है कि सिर्फ़ पत्रकारिता की डिग्री ले कर आप पत्रकारिता नहीं कर सकते। और आजकल तो आप जितने बड़े दलाल, उतने बड़े पत्रकार। बहुत सी कहानियां हैं। अब देखिए न , जागरण सहित आज तक जैसे कई संस्थान भी पत्रकारिता का स्कूल चलाते हैं। लाखों की फीस लेते हैं। लेकिन अपने ही संस्थान में वहां से पढ़ कर निकले लोगों को नौकरी नहीं देते। क्या तो वह काबिल नहीं हैं। तो भइया पढ़ाते क्यों हैं ऐसा कि नाक़ाबिल लोग आप के स्कूल से निकलते हैं।
प्रश्न - आज जब आपने पत्रिकारिता, से लेकर साहित्य जगत तक में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है,एक चर्चित नाम हैं, कैसे याद करते हैं अपने माता-पिता को ?
उत्तर - विशिष्ट स्थान जैसा तो कुछ भी नहीं है। बहुत साधारण और सामान्य आदमी हूं। हां , हमारे लिए तो माता - पिता भगवान का दूसरा नाम हैं। इसी तरह उन्हें सर्वदा याद रखता हूं। याद रखना चाहता हूं। जमील ख़ैराबादी का एक शेर है :
इक - इक सांस अपनी चाहे नज़्र कर दीजे
मां के दूध का हक़ फिर भी अदा नहीं होता।
प्रश्न - मन में ऐसा कब क्या चलना प्रारम्भ हुआ कि आपने '' अम्मा के नीलकंठ विषपायी होने की अनंत कथा '' लिखी ?
उत्तर - अम्मा का त्याग , धीरज और परिवार में अपमान। निरंतर अपमान। अत्याचार नहीं समझें इसे।
गांव में संयुक्त परिवार की यह त्रासदी थी। लेकिन अम्मा हमारे लिए जैसे जान छिड़कती थी। अपनी तमाम बंदिशों और सीमाओं में क़ैद रह कर , ख़ुद घूंघट में रह कर भी मुझे अपनी आंख देती थी। ख़ुद पिंजरे में रह कर भी मुझे पंख देती थी उड़ने के लिए। और मैं उड़ा भी। किसी पक्षी की तरह अम्मा की भावनाओं के नील गगन में। ऐसे बहुत से विवरण दर्ज हैं नीलकंठ विषपायी अम्मा में। अम्मा की , अम्मा की अनमोल सखियों की। अम्मा से जुड़ी मौसी , फुआ और पत्नी की। मेरी भी। यह किताब भी अभी कुछ दिन पहले आ गई है। पहले अमेज़न ई बुक पर थी। अब प्रिंट में भी है। अम्मा हमारा उपन्यास है। वह उपन्यास जो कभी पूरा नहीं हो पाता। उस के बारे में अभी या कभी भी बात शुरू करूं तो कभी ख़त्म नहीं होगी।
प्रश्न - आप यह भी लिखते हैं कि आपके ताऊ जी ने आपके पिता जी को पढ़ाया, आपको भी पढ़ाया। ऐसा करना सहज नहीं होता। उन्हें आप बहुत भावुक होकर याद भी करते हैं। ऐसे व्यक्ति के बारे में कोई भी विस्तार से जानना चाहेगा। ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने आपके पिता जी के हिस्से की भी बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ निभाईं।
उत्तर - बिलकुल। संयुक्त परिवार की मर्यादा थी यह। वह समूचे परिवार को एक साथ ले कर चलते थे। जिन्हें आप ताऊ जी कह रहे हैं , हम उन्हें बाबू जी कहते थे। पिता जी , जिन्हें हम बबुआ कहते थे और बाबू जी में उम्र की भी बहुत दूरी थी। बाबू जी सब से बड़ी संतान थे और बबुआ सब से छोटे पुत्र। उन के बाद दो फुआ भी थीं। कुल दस संतान थीं हमारे बाबा की। जिन में तीन बेटे और सात बेटियां। बाबू जी और बबुआ के बीच भी एक बेटा बाबा के थे। पर वह बचपन में ही दिवंगत हो गए थे। इसी तरह सात फुआ में से दो फुआ को तो हम ने देखा भी नहीं। यह लोग शादी , बच्चे के बाद दिवंगत हुईं। तो उम्र के भारी अंतर् के कारण बाबू जी से बहुत छोटे थे बबुआ। कभी कोई झगड़ा या विवाद होता बड़की माई से तो बबुआ से रोती हुई कहतीं , , ' ए बाबू , तुहें अपने कोंरा में खेलवले हईं ! ' यह सुनते ही बबुआ चुप हो जाते। और आंख झुकाए धीरे से घर से बाहर निकल जाते। इतना कि कोई अपना बेटा भी मां का इतना आदर न करे जितना हमारे बबुआ बड़की माई का करते थे। बाबू जी का आदर भी बहुत करते थे। भाई होने के बावजूद पितृवत आदर करते थे। इतना ही नहीं , बाबू जी जब नहीं रहे तो हमारे चचेरे भाइयों को भी बबुआ पुत्रवत स्नेह देते रहे। हम भाइयों से ज़्यादा। यह संयुक्त परिवार के संस्कार और मर्यादा थी। कभी दोनों भाइयों में अनबन नहीं देखी हमने। सोचिए कि बाबू जी ने कभी कलाई पर घड़ी नहीं पहनी। पान नहीं खाया। कोई शौक़ नहीं किया कभी। साइकिल से ही चलते थे। पंचर हो जाए तो हो जाए , साइकिल में हवा इस लिए नहीं भरवाते थे कि पैसा देना पड़ेगा। कई बार हम बच्चों को साइकिल देते थे कि हवा भरवा लाएं। बिना पैसे के। हम लोग खुद दुकान से पंप ले कर हवा भर लेते थे। हम लोगों की जानकारी में उन्हों ने कभी कोई फ़िल्म नहीं देखी थी। पर आख़िरी समय में जब वह अपने बारे में बेसिर पैर की बात करने लगे थे तो बताया कि पूरी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक फ़िल्म देखी थी , 'धूल का फूल'। दिल्ली में दोस्तों के साथ। सादगी की बेमिसाल मिसाल थे। कमीज की कॉलर भी फट जाए तो उसे अल्टर करवा लेते थे। फटी कमीज भी फेंकते नहीं थे। कहते थे कि जाड़े में कोट के नीचे पहन लेंगे। पूरे घर का खर्च चलाने वाले बाबू जी , अपने ऊपर कुछ खर्च करने से कतराते थे। सादा जीवन , उच्च विचार के कायल थे। अपने समय के हाई स्कूल थे। उन की गणित और अंग्रेजी , जनरल नॉलेज बहुत मज़बूत थी।
एक बार की बात है कि बाबू जी रिटायर हो कर गांव में रहने लगे थे। एक बार सरकारी अफसरों की टीम गांव आई। किसी विकास योजना के बाबत। अंगरेजी में डिसकसन कर रहे थे। धोती , बंडी पहने बाबू जी भी गांव के लोगों के साथ सड़क पर उपस्थित थे। अफसरों की टीम की बातचीत का निष्कर्ष यह था कि योजना काग़ज़ पर उतार दी जाए। अमल में लाने की कोई ज़रूरत नहीं। बाबू जी ने उन अफसरों से बड़ी विनम्रता से कहा कि यह तो आप लोग बहुत ग़लत करने जा रहे हैं। सारे अफसर भड़क गए। बोले , ' तुम को क्या मालूम ? ' बाबू जी ने फिर बड़ी विनम्रता से उन की सारी बातचीत का विवरण उपस्थित गांव वालों को बता दिया। अफसर सब डर गए। हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगी और गांव से भाग गए। ऐसी बहुत सी बातें हैं बाबू जी के बारे में। उन की जानकारी के बारे में , उन की कंजूसी के बारे में त्याग और परिवार के लिए समर्पण के बारे में। फर्स्ट क्लास का रेलवे पास मिलता था उन्हें। पर मारे संकोच के फर्स्ट क्लास की जगह सेकेंड क्लास में चलते थे। पास समय से रिलीज करवा लेते थे पर बहुत कम चलते थे। ज़्यादातर पास लैप्स हो जाता था। ख़ुद न कोई ग़लत काम करते थे , न कोई ग़लत काम बर्दाश्त करते थे। उन की बड़ी तमन्ना थी कि रिटायर होने तक उन की तनख्वाह फ़ोर फिगर में हो जाए। पर 1978 में 918 रुपए पर ही रिटायर हो गए। कई सारी इच्छाओं की तरह उन की यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई। इस का उन्हें बहुत अफ़सोस था। अलग बात है बाद में पेंशन तीस चालीस हज़ार तक हो गई उन की। तब जब कि दो बार पेंशन बेच दिए थे। रेलवे का ए सी पास और रेलवे के अस्पताल की सुविधा भी आजीवन रही। फिर भी बाबू जी की इन कथाओं पर लिखूं तो पूरा कथा विराट हो जाए।
प्रश्न - किशोरावस्था में अपने हमउम्र चचेरे भाई के साथ आप अपने अभिवावकों से छिप-छिप कर खूब सिनेमा देखा करते थे। यह सर्वविदित है कि उस दौर में सिनेमा को बच्चों के लिए अभिवावक गण अच्छा नहीं मानते थे। पकड़े जाने पर कई बार खूब पिटाई भी हो जाती थी, जब आप दोनों पकड़े गए तो क्या प्रतिक्रिया रही अभिवावकों की ?
उत्तर - आप तो जैसे हमारी पूरी कुंडली बांच कर बैठे हैं। लगता है हमारे सारे संस्मरण पढ़ कर बैठे हैं। सिनेमा देखना हम लोगों के लिए तब पाप और अपराध की श्रेणी में था। सिनेमा ? अरे सड़क पर लगा पोस्टर भी देखना बहुत बड़ा अपराध था। पाप से हम लोग डरते बहुत थे। पाप शब्द सोचते ही मन में भय की सिहरन हो जाती थी। नर्क की कल्पना मन में आ जाती थी। कि ऐसा किया तो ऐसा होगा। अगले जन्म में नरक मिलेगा। आदि - इत्यादि। नदी किनारे सांप है , झूठ बोलना पाप है ! जैसी बातें झूठ बोलने से भी डराती थीं। लेकिन गांव में नौटंकी और नाच देखने के तथा शहर में सिनेमा देखने के कच्चे - पक्के क़िस्से हमारे पास बहुत हैं। आप ने सिनेमा के बाबत पूछा है तो सिनेमा का ही क़िस्से सुनिए।
तब हम हाई स्कूल में थे। यानी दसवीं में। हर महीने की पंद्रह तारीख़ फीस डे होता था। फीस जमा होने के बाद आधे दिन की छुट्टी होती थी। ज़्यादातर लड़के सिनेमा देखने का प्रोग्राम बना लेते थे। हम नहीं जाते थे। लड़के अकसर सिनेमा देख कर उस के बारे में बात करते थे। हम चुप रहते थे। हालां कि तब तक सिनेमा देख चुके थे। रेलवे जूनियर इंस्टीट्यूट स्कूल ने एक बार 'हमारा घर' पिक्चर दिखवाई थी। दूसरी मेहरबान पिता जी ने खुद दिखाई थी। एक रिश्तेदार के साथ किसी खुशी में। इस के पहले पिता जी ने हम को , अम्मा को और हमारी एक लगभग अंधी फुआ को बड़ी फरमाइश पर सड़क पर लगे पोस्टरों को सिनेमा बता कर दिखा दिया था। रिक्शे पर हम लोग बैठे थे। और वह हम सभी को पोस्टर वाला सिनेमा दिखाते साइकिल पर थे। अम्मा की इच्छा थी सिनेमा देखने की जिसे अम्मा ने फुआ से कहा। फुआ , जिन्हें साफ़ दीखता नहीं था , पिता जी से फरमाइश की थी कि , ' बाबू सिनेमा देखा द ! ' और बाबू ने रास्ते भर के पोस्टर दिखा दिए थे। यह कहते हुए कि , ' दीदी देखु फिर सिनेमा ! ' फुआ को खैर क्या देखना था। लेकिन अम्मा ने घूंघट हटा - हटा कर और हम ने आंख फाड़ - फाड़ कर देखा था। रिक्शे पर चलते हुए। अम्मा की गोद में बैठे हुए। घर जा कर बताया था कि , ' एक नहीं , कई ठो सिनेमा देखलीं। ' एक बड़ी चचेरी बहन ने छूटते ही हंसते हुए कहा था , ' त बाबू सिनेमा नाहीं , पोस्टर देख के अइले हउवे ! ' तब कुछ पोस्टर , सिनेमा नहीं समझ आया था। लेकिन यह पुरानी बात थी। कुछ बहुत पल्ले भी नहीं पड़ी थीं यह फ़िल्में। अब तो कुछ याद भी नहीं कि क्या था उन फिल्मों में। बचपन की बात थी।
अब हम टीनएज थे। फिल्म के पोस्टर देख कर भी रोमांच हो जाता था। तो सोचते थे कि कभी हम लोग भी देखें। हम लोग मतलब हम और हमारे चचेरे भाई। हम से एक महीने , पांच दिन के बड़े थे। पर हम लोग शुरू से एक साथ एक क्लास और एक सेक्शन में ही पढ़ते थे। एक ही रंग के एक जैसे कपड़े पहनते थे। बड़की माई कभी साथ ले कर हम दोनों को चलती थीं तो राह में , बाज़ार में लोग पूछते थे कि जुड़वां हैं क्या ? तो बड़की माई बताती थीं कि , ई हमार है , ई देवर क। यह स्थिति थी। दोस्त लोग अकसर हम दोनों से भी फ़िल्म की बात करते थे। चलने को कहते थे। पर हम लोग न सिर्फ़ गांव में , मोहल्ले में बल्कि क्लास में भी शरीफ़ बच्चों की पहचान रखते थे। छोटे - छोटे बाल। पीछे बंधी हुई चुटिया। कहीं कुछ गड़बड़ नहीं करने वाले। झूठ भी नहीं बोलते थे। क्यों नदी किनारे सांप था और झूठ बोलना पाप था। अध्यापक लोग भी इज्जत और स्नेह की नज़र से देखते थे। कुल मिला कर शराफ़त की पुड़िया थे हम दोनों।
तो हम दोनों ने दोस्तों से बातचीत में बहुत शर्माते हुए एक बार सिनेमा देखने की बात की। दोस्त सब ख़ुश। लेकिन पेंच फंसा पैसे को ले कर। हालां कि दो - तीन लड़कों ने जो व्यापारियों के बेटे थे , पैसा पर्याप्त रखते थे , पैसे का इंतज़ाम करने की बात की। कहा कि धीरे - धीरे कर के वापस दे देना। कालेज के पास ही झंकार टाकीज था। 'दो कलियां' पिक्चर लगी हुई थी। उन दिनों पुरानी फिल्मों के टिकट रिड्यूस रेट पर मिलते थे। सेकेण्ड क्लास , फर्स्ट क्लास , डी सी और बालकनी के टिकट होते थे। तय हुआ कि फर्स्ट क्लास का टिकट लिया जाए। तब यह फर्स्ट क्लास का टिकट डेढ़ रुपए में आता था। मतलब तीन रुपए की बात थी। यह चिंता भी हुई कि इतना पैसा वापस भी कैसे और कहां से करेंगे ? दस - पांच पैसे की ही मुश्किल थी।
लेकिन वह लड़के तो चले गए थे दोपहर के शो के टिकट के लिए। क्यों कि हम लोग सब के सामने , सब के साथ जाने में डर रहे थे। डर था कि कोई कहीं देख लेगा तो क्या कहेगा ? और जो बात घर पहुंच गई तब क्या होगा ? तो तय हुआ था कि जब सिनेमा शुरू हो जाए तब एक लड़का इशारा करेगा। इशारा होने के पहले तक सिनेमा घर की सामने की सड़क के उस पार हम लोग रहेंगे। सिनेमा शुरू हुआ , इशारा मिला और हम लोग दौड़ कर उस पार पहुंचे। सिनेमा घर के अंधेरे में ले कर वह पहुंचा। गेटकीपर ने टिकट देख कर सीट पर बैठा दिया। दस मिनट भी नहीं हुआ कि चचेरे भाई फुसफुसाए कि , ' बहुत डर लग रहा है। हम तो जा रहे हैं। ' मुझ से भी चलने को कहा। मैं असमंजस में पड़ गया। जब दो - तीन बार वह फुसफुसाए तो पीछे बैठे लोग डपट बैठे , ' जाना हो तो भाग जाओ। नहीं चुपचाप देखो। ' वह कुछ देर चुप रह कर फिर फुसफुसाए। मैं ने तब तक पैसे और मनोरंजन का हिसाब लगा लिया था। दिल कड़ा कर के कहा , ' पैसे लगे हैं। हम तो नहीं जाएंगे। ' पर वह चले गए। अब मैं डरने लगा। कि घर जा कर बता देंगे वह तो हमारा क्या होगा ? लेकिन तभी दस मिनट बाद वह लौट आए। बोले , ' पैसा तो देना ही पड़ेगा। अब हम भी देखेंगे। ' इंटरवल हुआ तो हम लोग सिर झुका कर किसी अपराधी की तरह अपनी सीट पर बैठे रहे। सिनेमा फिर शुरू हुआ। भय की जगह सिनेमा ने ले लिया। खत्म होने पर सिर झुकाए निकल लिए। और दौड़ कर सिनेमा परिसर पार किया। अब दूसरे दिन क्लास में हम लोग लड़कों के बीच चर्चा का विषय थे। और डर गए हम लोग। लेकिन बात न आग की तरह फैली , न घर तक पहुंची। न किसी ने कुछ पूछा। पर हम लोग अपराध बोध से बुरी तरह ग्रसित थे। बाद में अगर हम दोनों के बीच कोई मतभेद होता तो दोनों एक दूसरे को डराते कि बता देब ! तो अगला मनाने लगता कि नहीं , नहीं। यह सब खुसुरफुसुर ही होता।
यह काम कभी हम करते , कभी वह। अंतत: समझौता हो जाता। बात ख़त्म हो जाती। लेकिन एक रात हम लोग आंगन में चटाई पर लालटेन ले कर पढ़ रहे थे। घर के लोग सो गए थे। किसी बात पर हम ने कहा कि बता देईं ? फिर वह मुझे मनाने लगे। मैं मान गया। पर थोड़ी देर बाद वह अचानक उठ कर खड़े हो गए। बोले , ' आज हम बता ही देते हैं। ' बहुत मनाने पर भी वह नहीं माने। गए बाबू जी को धीरे से जगाया। घर के बाहर ले गए। यह कह कर कि कुछ बताना है। घर किराए का था पर बड़ा था। घर के बाहर बड़ा सा हाता था। बड़ा सा कुआं और मंदिर था। चारो तरफ फूल फल के वृक्ष। लान। बंगला फेल। जमींदार साहब का हाता था। पीछे - पीछे हम भी गए। खैर कुएं के पास बाबू जी को ले जा कर भाई ने कान पकड़ कर बताया कि एक ग़लती हो गई है। चांदनी रात थी। बाबू जी घबराए। पर धीरे से पूछे , ' क्या कर दिया ? '
' हम लोगों ने चोरी से एक सिनेमा देखा है। ' भाई ने कहा। सुन कर बाबू जी सोच में पड़ गए। उम्मीद थी कि आदत के मुताबिक बाबू जी हम लोगों के कान ऐंठेंगे। थप्पड़ मारेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं किया।थोड़ी देर बाद बोले , ' कोई बात नहीं। अगर ग़लती मान ली है और इस का पश्चाताप हो रहा है तो माफ़ करता हूं। लेकिन फिर यह ग़लती कभी मत करना। ' चलते - चलते कहने लगे , ' मुझे बता दिया , बात खत्म हो गई। किसी और से कभी मत कहना। ' हम लोग वापस घर में आ कर सो गए। पर छाती पर पड़ा पाप का पत्थर हट गया था। यह 1972 की बात थी। दस - दस , पांच-पांच पैसे कर के सिनेमा के टिकट के पैसे भी लौटा दिए। लेकिन उस बरस फिर कोई सिनेमा नहीं देखा। लड़कों के बहुत कहने पर भी नहीं। बात ख़त्म हो गई थी।
पर सचमुच ?
अगले साल एक दिन कालेज पहुंचे तो रेनी डे हो गया। सभी लड़के सिनेमा के लिए निकल गए। उस दिन हम लोगों के पास पैसे थे। एक रिश्तेदार आए थे। हम लोगों को दो - दो रुपए दिए थे , जाते समय। घर में हम लोगों ने बताया नहीं। तो उस भरी बारिश में सड़क पर लगे सिनेमा के पोस्टर देखते हुए निकले कि कौन सी देखी जाए। सिनेमा की न कोई जानकारी थी , न समझ। पोस्टर ही आसरा थे। तब के समय पोस्टर देखना भी अपराध था। खैर , एक पोस्टर दिखा , 'जवानी दीवानी'। तब के समय पोस्टर के साथ ही सिनेमा घर का नाम भी लिखा रहता था। पहुंचे कृष्णा टाकीज। डेढ़ रुपए वाला टिकट खरीदा। सिर झुका कर भीगे कपड़ों में सिनेमा देखा। इंटरवल में सिर झुका कर बैठ गए। सिनेमा खत्म हुआ तो बाहर निकले चोरों की तरह। बारिश बंद थी। घर पहुंचे। अपराध बोध तो था पर भय उतना नहीं था। जितना पहले था। उन दिनों तो कभी अकेले में हस्तमैथुन भी कर लेते तो अपराध से गड़ जाते थे। बहुत दिनों तक यह अपराधबोध बना रहता। अब उस साल धीरे - धीरे कर के हम लोगों ने छ फ़िल्में देख डालीं। एक फ़िल्म के साथ गड़बड़ हो गया लेकिन। नाम नहीं याद आ रहा किसी राष्ट्रपति का निधन हो गया था।
तो राष्ट्रीय शोक में सारे स्कूल भी बंद हो गए। सभी लड़के ख़ुश। भागे सिनेमा घरों की तरफ। थोड़ी देर हम लोग शोक में रहे पर जल्दी ही शोक से बाहर निकले और सिनेमा देखने के लिए तय किया। लेकिन जहां जाएं , हाऊसफुल। पैदल ही चलना था। कुछ लड़कों ने बताया कि वीनस टाकीज़ में टिकट मिल जाएगा। कोई दो किलोमीटर पर था। भागे - भागे पहुंचे। सचमुच टिकट मिल गया और पिक्चर शुरू भी नहीं हुई थी। ऐसे दिनों में जब सारे टाकीज हाऊसफुल हो जाते थे तो दो टाकीज़ उम्मीद की किरन बनते थे। दोनों अगल बगल थे। एक यूनाइटेड , दूसरा वीनस। क्यों कि दोनों ही खटारा सिनेमाघर थे। और पुरानी फ़िल्में ही दिखाते थे। लेकिन उस दिन यूनाइटेड भी हाऊसफुल था। दोनों ही सिनेमाघर सिनेमा भी देर से शुरू करते थे। ताकि लोगों से फिल्म नहीं छूटे। दोनों टाकिजों को मालूम था कि कहीं और टिकट न मिलने पर ही नून शो में लड़के आते थे। और सिनेमा शुरू हो जाने पर बिदक कर वापस हो जाते थे। तो साढ़े बारह का शो यह लोग एक बजे शुरू करते थे। सब को मालूम था। हम लोग नए थे। बाद में मालूम हुआ। सिनेमा घर में घुसने पर पाया कि कालेज के कुछ लड़के तो थे ही पर मुहल्ले के भी कई लड़के थे। उन में हम दोनों शरीफ़ भाई लोग भी। लेकिन हर कोई एक दूसरे को देखते हुए भी नहीं देख रहा था। दो तो छोटे - बड़े सगे भाई भी थे।
सब एक दूसरे से अनभिज्ञ सिर झुकाए। इंटरवल में भी अनजाने बने रहे। फ़िल्म थी 'दो बदन'। यह भी फ़िल्म शुरू होने पर पता चला। खैर फिल्म खत्म होने पर सब लोग आंख झुकाए , अनजान बने घर लौटे। अब इस में मोहल्ले का एक डिक्लेयर्ड लाखैरा लड़का भी था। उस को न किसी का भय था , न संकोच। अब जब-तब वह हम लोगों को देखता तो 'दो बदन' फिल्म का कोई न कोई गाना , गाने लगता। हम लोग पहले तो शर्माते और किनारा कस लेते। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पर वह हर किसी उस लड़के को देख कर 'दो बदन' के गाने, गाने लगता , जो उस फिल्म को उस दिन देखे होता था। कुछ लड़कों ने एक बार अकारण उस की पिटाई भी कर दी। पर वह आदत से लाचार था। वह हम लोगों की ख़ास तौर पर कलई खोलना चाहता था। कहता था कि, ' बड़े शरीफ़ बने घूमते हो तुम लोग , और यह हरकत ? ' पर हम लोग उसे अनसुना कर देते। पर कब तक अनसुना करते। एक बार ज्यों उस ने गाना गाया, हम दोनों भड़क गए। मन हुआ कि उसे वहीँ पीट दें। पर तभी हमारे दूसरे चचेरे बड़े भाई जो वकील थे , आ गए। तो हम लोग टाल कर वहां से हट गए। वकील साहब अभी नए वकील हुए थे और हम से नाराज भी रहते थे। बेबात। उस दिन तो नहीं पर बाद में उन्हों ने उस लड़के से मामला जानना चाहा तो उस ने 'दो बदन' की बात बता दी। और उम्मीद कि अब घर में हम लोगों की ख़ातिरदारी होगी। पर तब ऐसा कुछ नहीं हुआ।
हुआ लेकिन गांव में हुआ। ऐन होली के समय। तब हम लोग सारे त्यौहार गांव पर ही मनाते थे। घर के सब लोग इकट्ठे थे। होली के ठीक एक दिन पहले वकील साहब ने बम फोड़ा कि यह दोनों बिगड़ गए हैं। सिनेमा देख रहे हैं। अब इंट्रोगेशन शुरू हुआ। दोनों का अलग - अलग। तीन फिल्मों के नाम मैं ने बताए। तीन फिल्मों के चचेरे भाई ने। हम को उन की बताई फिल्मों को बता कर तोड़ा गया। उन को हमारी बताई फिल्मों को बता कर। फिर एक साल पहले देखी गई फ़िल्म 'दो कलियां' का भी ज़िक्र आया। बाबू जी को बताने का भी ज़िक्र आ गया। हम लोग कहने ही के लिए नहीं , सचमुच शरीफ़ थे। सो इंट्रोगेशन में लोगों को बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ी। तुरंत टूट गए। एक डांट और दो थप्पड़ में ही सारी हवा निकल गई। सारी कलई खुल गई। सारी शराफ़त धुल गई। फिर क्या था दोनों ही को जब जो चाहे बात - बेबात धुलाई होने लगी। जिसे देखो, वही हाथ साफ़ करने लगता। पूरा घर हम दोनों से नाराज। हम लोगों से भी ज़्यादा लोग बाबू जी से नाराज। खास कर हमारे पिता जी। बाबू जी की बिन बोले हर कोई क्लास ले रहा था। चुपचुप। कि घर में बड़कवा हैं पर बच्चों को बिगाड़ रहे हैं। इंट्रोगेशन में पैसा कहां से आया, इस की भी पड़ताल हुई। हम ने अम्मा और मौसी का भी नाम लिया।
अब अम्मा की भी शामत। उस की भी क्लास लगी। ख़ैर , अम्मा अलग पीटें, बड़की माई अलग। वकील साहब अलग। बबुआ अलग। गांव के लोग समझ ही नहीं पाए कि दोनों शरीफ़ बच्चों की सर्विसिंग क्यों हो रही है लगातार। पूरे घर की पूरी होली ख़राब हो गई थी। अम्मा ने तो हम से बात ही करनी बंद कर दी। बस झापड़ लगा देती थी। मैं गोरखपुर चला गया पर वह बोली नहीं। हमारी ओर देखती भी नहीं थी। कहती थी , ' पइसा देहले रहलीं, कुछ खाए पिए खातिर। सनीमा देखे खातिर नाहीं। ' फिर कहती कि , ' ई कुलि देखलस त देखलस, राजा जानी काहें देखलस। देखही के रहल त कउनो धार्मिक देखले होत ! ' फिर दे दनादन ! अम्मा को राजा जानी फिल्म से बहुत समस्या थी। कई महीने तक नहीं बोली। हम ने भाभी को भी लगाया अम्मा को समझाने के लिए। पर वह कुछ भी समझने को तैयार नहीं थी। और तो और बबुआ मौसी के गांव जा कर , मौसी की भी क्लास ले लिए। कहा कि , ' आइंदा बच्चे को पैसा दे कर बिगाड़िए नहीं ! ' ऐसे अनेक क़िस्से हैं हमारे सिनेमा देखने के और फिर सिनेमा से जुड़ने के। संजीदगी से जुड़ने के। सिनेमा पर लिखने के।
कभी मन हुआ और अवकाश मिला तो अलग से विस्तार से लिखूंगा। हम और हमारे सिनेमा के बाबत। नौटंकी और नाच देखने के बाबत। हां , लेकिन कभी क्लास बंक कर सिनेमा नहीं देखा। क्लास बंक कर , कालेज के मैदान में पेड़ के नीचे जा कर कभी - कभी सोता ज़रूर था। हमारे गांव के कुछ युवा तो ऐसे थे कि किसी का निधन हो गांव में तो बहुत जल्दी शव यात्रा निकलवाने में लग जाते थे ताकि वापसी से पहले एक नून शो या मैटिनी शो ही सही देख लें। ऐसे अनेक वाकये हैं। कि आप सुनें तो हंसने लगें। रोमांच भी एक से बढ़ कर एक हैं। लिखना है कभी इस पर भी। जब आलस से छुट्टी मिले।
प्रश्न - डांट-डपट,नाराजगी,पिटाई सब हुआ लेकिन फिर भी सिनेमा के प्रति आपका मोह भंग नहीं हुआ, आगे चलकर ' सिनेमा सिनेमा ' किताब भी लिखी। इसे लिखने के पीछे कोई खास कारण रहा क्या ?
उत्तर - बाद में तो सिनेमा हमारा शौक़ ही नहीं, सांस बन गया। लिखने की सांस। एक समय था कि मैं जब भी सोचता था, सिनेमा सोचता था। सिनेमा लिखने और सिनेमा बनाने की सोचता था। मुंबई जाने का, फ़िल्मकार बनने का सपना था। पर मुंबई की जगह चला गया दिल्ली। मुंबई जाने का सपना, सिनेमा लिखने और सिनेमा बनाने का सपना आहिस्ता - आहिस्ता टूट गया। कामतानाथ का एक उपन्यास है, 'तुम्हारे नाम'। एक बार तो हमने इस 'तुम्हारे नाम' पर फ़िल्म बनाने की पूरी योजना बनाई।लखनऊ आ कर लोकेशन समझा , देखा। कास्ट सोच ली। पर सब बिखर गया समय के झोंके में।
यह ज़रूर हुआ कि दिल्ली में अरविंद कुमार के साथ 'सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट' में काम करने का लाभ यह मिला कि फिल्मों और फ़िल्मी लोगों के बारे में बहुत जाना। एक समझ विकसित हुई। अरविंद जी 'टाइम्स आफ इंडिया' की फ़िल्म पत्रिका 'माधुरी' के संस्थापक संपादक थे। सोलह साल तक 'माधुरी' के संपादक रहे थे। तो फ़िल्मी दुनिया के नस - नस से वाकिफ थे। फिल्म के बड़े - बड़े लोगों से उन का मिलना - जुलना था। दोस्ती थी। मुझे भी बहुत से लोगों से मिलवाया। अरविंद जी के साथ बहुत सी फ़िल्में देखीं। फिल्मों को समझा। फिर फिल्मों पर लिखने का सिलसिला चल निकला। फ़िल्मी लोगों से इंटरव्यू आदि भी।
प्रश्न - आज भी फ़िल्में देखते हैं ?
उत्तर - हाल तक तो ख़ूब। पर अब बहुत कम। फ़िल्म पर लिखना तो और भी कम। बल्कि नहीं ही। फ़िराक का एक शेर याद आ रहा है :
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँ ही कभू लब खोले हैं
पहले 'फ़िराक़' को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
प्रश्न - कैसी फ़िल्में देखना आपको पसंद है ?
उत्तर - हर तरह की फ़िल्में। कोई एक फ्रेम नहीं कि यही देखेंगे और वह नहीं देखेंगे। बस फ़िल्म अच्छी होनी चाहिए। बांध कर रखे। बोर नहीं करे। बस। कुछ तो हो फ़िल्म में। आजकल तो ज़्यादातर फ़िल्में बकवास हैं। ओ टी टी का दौर है। देखने बैठता हूं तो पूरी रात बर्बाद हो जाती है। टुकड़े - टुकड़े में देखने में बात नहीं बनती। ओ टी टी हो या फ़ेसबुक पर आने वाली रीलें। सारा समय लील जाती हैं। लिखने का सारा समय छीन लेती हैं। वैसे भी अब कोई पढ़ना ही नहीं चाहता, देखना ही चाहता है। इसी लिए अब तो हम ने फ़ेसबुक पर भी लिखना लगभग बंद कर दिया है। विरक्ति सी हो गई है। बहुत जी उछलता है तो कुछ आलू - चना टाइप कर लेता हूं। तकनीक ने बहुत सी चीज़ें बदल दी हैं। मुझे भी बदल दिया है। लोग आन लाइन इंटरव्यू करते हैं। दो - दो घंटे तक बोलता रहता हूं। लोग यू ट्यूब पर डाल देते हैं। यू ट्यूब भी नहीं। पढ़ने से ज़्यादा लोग यू ट्यूब पर डटे रहते हैं। लेकिन जानता हूं कि लिखे की जगह कभी कोई नहीं ले सकता। तकनीक और मीडियम बदलते रहते हैं। आते - जाते रहते हैं। लिखना और पढ़ना कभी नहीं जाता। सारी ख़बर रात में लोग न्यूज़ चैनलों पर देखे रहते हैं। फिर भी सुबह अख़बार देखते हैं। कुछ लोग अब अख़बार भी नेट एडिशन देखते हैं। पर वह देखना ही होता है। पढ़ना नहीं। पढ़ना तो प्रिंट में ही आनंद देता है। इसी तरह जो आनंद फिल्मों में है, ओ टी टी में नहीं। फिल्मों में रस है। ओ टी टी में सिर्फ सनसनी। धारावाहिक भी अब बेअसर हुए जा रहे। पुराना वाला क्रेज़ नहीं रहा।
प्रश्न - ' सिनेमा सिनेमा ' किताब को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता कि भारतीय हिंदी सिनेमा पर आपकी बड़ी गहरी दृष्टि रही है, तब और वर्तमान सिनेमा में कला और तकनीकी दृष्टि से मूलभूत अंतर क्या पाते हैं ?
उत्तर - सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है। आज की तारीख़ में साहित्य और अन्य कलाएं , सिनेमा से बहुत पीछे हैं। संगीत और सिनेमा ही छाए हुए हैं। या फिर क्रिकेट। एक समय कहा जाता था कि साहित्य समाज का दर्पण है। आजकल यह जैसे बदल कर सिनेमा समाज का दर्पण हो गया है। फ़िल्में भी खेमेबाजी का शिकार हैं पर साहित्य में सिर्फ़ खेमेबाजी ही शेष रह गई है। सिनेमा से टकराने या सिनेमा के बरक्स साहित्य खड़ा होने की भी नहीं सोच सकता। छ दशक पहले आई थी 'मदर इंडिया'। किसान और महाजनी सभ्यता पर इस से बड़ी रचना भारत में दूसरी तो मुझे कोई और नहीं दिखी अभी तक। किसी भी भाषा में। न फ़िल्म में , न साहित्य में। प्रेमचंद का 'गोदान' भी पानी मांगता है 'मदर इंडिया' के आगे। ऐसी कसी हुई , इतनी शानदार फ़िल्म आगे भी कोई बनाएगा या लिखेगा, मुश्किल है। बहुत सी प्रेम कहानियां हैं। पर 'मुगलेआज़म' और विमल रॉय वाली 'देवदास' जैसी तो कोई तीसरी नहीं। शरत बाबू के 'देवदास' पर कई भाषाओं में फ़िल्में बनी हैं। हिंदी में ही तीन हैं। पर विमल रॉय की 'देवदास' अनूठी है। 'मुगलेआज़म' में कमाल अमरोही ने मुग़लिया सल्तनत की शान बनाए रखने के लिए कई सारे क्लासिक झूठ गढ़े हैं। जैसे कि पूरे मुग़लिया इतिहास में जोधाबाई नाम का कोई चरित्र नहीं है। पर कमाल अमरोही की क़लम ने गढ़ दिया। इतना कि 'जोधा अकबर' नाम से दूसरी फिल्म बनी। फिर धारावाहिक भी। अनारकली अकबर की रखैल थी। पर कमाल अमरोही ने अकबर का चेहरा साफ़ करने के लिए सलीम की माशूक़ा बना दिया। अनारकली की मजार आज भी लाहौर में है। पर इन तमाम विसंगतियों के मुगलेआज़म बतौर फिल्म शानदार फिल्म है। हां , पहले की अपेक्षा फिल्मों में तकनीक आदि का ज़बरदस्त विकास हुआ है। पर फिल्मों से कहानी फुर्र है। गानों से मिठास भी फुर्र है। नब्बे के दशक में एक फ़िल्म आई थी 'राजा हिंदुस्तानी'। इस फ़िल्म में एक गाना था परदेसी जाना नहीं , जाना नहीं मुझे छोड़ के ! ख़ूब बजा। सिर पर चढ़ कर बजा। पर यह गाना अब कहां चला गया , कोई नहीं जानता। 'राजा हिंदुस्तानी' , 'जब जब फूल खिले' का रीमेक थी। इस फिल्म का एक गाना है , परदेसियों से न अंखियां मिलाना , परदेसियों को है एक दिन जाना ! आज भी ख़ूब सुना जाता है। यह तो कहीं नहीं गया। पहले की फ़िल्म में तकनीक भले आज जैसी नहीं थी पर कला तो थी। लाजवाब थी। जो अब दिखती नहीं। बहुत सी नई चीज़ें आ गई हैं। पर सिनेमा से कथा का सुर और गानों से मिठास लापता हो गई है। मिट सी गई है।
प्रश्न - हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री के बारे में आपकी जानकारियां इतनी विशद हैं कि लगता है जैसे इसी विषय पर शोध किया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए बात आगे बढ़ाता हूँ कि हिंदी सिनेमा जगत पर आज यह आरोप और गहरा होता जा रहा है कि उसने इस सनातन देश, सनातन संस्कृति को हमेशा नष्ट करने का प्रयास किया।
मंदिर, मठ पुजारियों साधु संतों को हमेशा गलत आचरण में लिप्त,अनैतिक कार्यों, व्यभिचार के केंद्र के रूप में चित्रित किया। सनातन संस्कृति, धर्म को घोर अंध विश्वासों, अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं के प्रतीक के रूप में चित्रित किया,जबकि मुस्लिम,ईसाई धर्मावलम्बियों या समुदायों को एक आदर्श सर्वगुण संपन्न, सर्वश्रेष्ठ मानवतावादी के रूप में चित्रित किया। इतना ही नहीं देश को उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम में विभाजित करने की कोशिश की। फिल्म में दक्षिण भारतीय व्यक्तियों, सिखों को हमेशा मुर्ख हँसी का पात्र ही दिखाया गया। पठानी सूट यानी सलवार सूट पहने पठान को असाधारण रूप से साहसी बहादुर के रूप में स्थापित किया गया जबकि सच इसके उलट है,वो तथ्य सामने रखते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति सरदार हरि सिंह नलवा जिन्हें सर हेनरी ग्रिफिन ने "खालसाजी का चैंपियन" कहा है। ब्रिटिश शासकों ने उनकी तुलना नेपोलियन से भी की है।
इन्हें "शेर ए पंजाब" भी कहा जाता है, ने जहांगीरिया युद्ध के समय जब सेना सहित बर्फीली नदी पार कर पठानों को बुरी तरह परास्त किया तो तथाकथित बहादुर पठान यह कहते हुए भाग खड़े हुए कि - तौबा, तौबा, खुदा खुद खालसा शुद। अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं। एक युद्ध के बाद उन्होंने बड़ी संख्या में पठान फौजियों को कैद कर लिया, यह प्रसिद्ध था कि नलवा कभी शत्रु को जीवित नहीं छोड़ते, सभी को मौत की सजा दी जाएगी, यह जानकार भयभीत पठानों ने महिलाओं को आगे कर दिया। उनके बार-बार रोने गिड़गिड़ाने, हाथ जोड़ने पर हरिसिंह ने कहा जो कैदी अपनी औरत के कपड़े पहन कर कैद से बाहर निकलने को तैयार होगा उसे ही मुक्त करेंगे। सभी सलवार कुर्ता पहनकर बाहर आ गए। लेकिन हरिसिंह का ख़ौफ़ ऐसा कि बाद में भी पठान यही पहनते रहे,यह उनकी परम्परा बन गया। आज भी पहन रहे हैं। वह पूरे दावे के साथ यह भी कहते हैं कि हरि सिंह के ख़ौफ़ का प्रभाव यह था कि अफगानी माँएं रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कहतीं कि चुप हो जाओ नहीं तो नलवा आ जाएगा। शोले फ़िल्म में इसी की नक़ल की गई है कि सो जा नहीं गब्बर आ जाएगा। वह ' हरि सिंह नलवा - द चैम्पियन ऑफ़ खालसा जी ' किताब का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इस किताब में भी सप्रमाण इन बातों का उल्लेख मिलता है। महान नलवा के सम्मान में ही भारत सरकार ने २०१३ में उनके ऊपर डाक टिकट जारी किया था। ऐसे महान सेना नायक को बहादुर बताने के बजाए उन पर इतिहासकारों की ही तरह चुप्पी साधे बॉलीवुड ने अपने एजेंडे के तहत हरिसिंह नलवा से परास्त, उनसे सदैव भयाक्रांत होने के चलते स्त्रियों के कपड़े पहनने वाले पठानों को असाधारण बहादुर के रूप स्थापित किया। इस बिंदु पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - दादा साहब फालके ने लिखा है कि जब वह पहली अंगरेजी फिल्म 'लाइफ आफ क्राइस्ट' देख रहे थे तब फिल्म देखते समय ही उन के मन में राजा हरिश्चंद्र की कहानी चल रही थी। और यह देखिए कि उन्हों ने पहली फ़िल्म भी जब बनाई तो 'राजा हरिश्चंद्र' ही बनाई। यह मूक फिल्म थी। इतना ही नहीं , उन की लगभग सारी फ़िल्में पौराणिक पात्रों के नाम पर ही हैं। भारतीयता , देशभक्ति और भक्ति वाली फ़िल्में ही बनीं बहुत समय तक। बाद में जब आहिस्ता-आहिस्ता हिंदी फिल्मों में मुस्लिम समाज के लोगों ने दखल देना शुरू किया तो यह सब बहुत महीन ढंग से शुरू किया गया। फिर जैसे आज की तारीख़ में मुस्लिम वोट बैंक की बड़ी अहमियत है , वैसे ही तब के समय मुस्लिम दर्शकों की भी अहमियत थी। आज भी बहुत है। दिलीप कुमार बहुत बड़े अभिनेता हैं। उन का कोई सानी नहीं। पर क्या है कि सिर्फ़ अभिनेता बड़ा होने से कोई फ़िल्म नहीं चलती। लेकिन मैं ने देखा है कि दिलीप कुमार की फ़िल्में देखने मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका टूट पड़ता था सिनेमाघरों में। आमिर , सलमान , शाहरुख़ के साथ भी ऐसा ही है। संजय खान , फ़िरोज़ खान के साथ भी ऐसा था। पहले हाजी मस्तान फिर बाद में दाऊद इब्राहिम का पैसा भी इन की फिल्मों में पानी की तरह बहता था। जिस की फिल्म चाहें चला दें , जिस की चाहें पिटवा दें। फ़िल्में भी नहीं मिलने दें। पहले भी ऐसा था , आज भी ऐसा है। तो यह लोग फिल्मों का कंटेंट भी तय करने लगे , परदे के पीछे से। माफियाओं के नाम से गाने भी आए फिल्मों में। फिर गंगा जमुनी तहज़ीब का तकाज़ा भी आ गया। बी आर चोपड़ा जैसे फिल्मकारों ने दाल में नमक की तरह गंगा जमुनी तहजीब मिलाई।
कमाल अमरोही जैसे लोग नफ़ासत की चाशनी में लपेट कर मुग़लों की बड़ी चमकदार छवि फिल्मों में पेश की। तवायफों को भी नायिका का रुतबा दिया। फिर जब सलीम जावेद की जोड़ी फिल्म लिखने आई तो पंडित पोंगा हो गया। व्यवसाई लुटेरा, मौलवी जहीन और उदार। क्षत्रिय अत्याचारी बन गया। फ़िल्में चलने लगीं। तो बाकी लोग भी इस भेड़ चाल की भेंट चढ़ गए। 'दीवार' बड़ी शानदार फ़िल्म है। इस में अमिताभ बच्चन का किरदार आस्तिक है। मां के साथ मंदिर जाता है। पर मंदिर में प्रवेश नहीं करता। मंदिर को हिकारत से देखता है। लेकिन 786 बिल्ला सर्वदा साथ रखता है। यह बिल्ला उस की जान बचाता रहता है। जिस दिन बिल्ला छूटता है, जान से हाथ धो बैठता है। तो इस तरह के नैरेटिव ख़ूब चले हैं फिल्मों में चलते रहेंगे। महेश भट्ट का भी ऐसी फिल्मों में बड़ा योगदान है। बहुत सी प्रो टेररिस्ट फ़िल्में बनी हैं और ख़ूब चली हैं। आप के सवाल के जवाब में इस तरह की तमाम बातें और बता सकता हूं। पर छोड़िए भी। लोग सिनेमा देखते हैं मनोरंजन के लिए। नैरेटिव का पोथा बांचने के लिए नहीं। फिल्मों को मनोरंजन मान कर देखिए। बाक़ी को गोली मारिए। बाहुबली , कश्मीर फाइल्स , केरला स्टोरी , साबरमती रिपोर्ट जैसी फ़िल्में भी बनने लगी हैं। कभी मनोज कुमार भी भारतीयता में डूबी फ़िल्में बनाते थे। चलती भी थीं। फ़िल्में साहित्य नहीं हैं कि कोई नहीं पढ़े तब भी लेखक लिखते रहेंगे। फ़िल्में बनाने में पैसा बहुत लगता है। बहुत मंहगा और खर्चीला मीडियम है। दादा साहब फाल्के ने मात्र पंद्रह हज़ार में राजा हरिश्चंद्र बनाई थी। अब करोड़ों की लागत है। लागत भी वापस हो रही है और कमाई भी डट कर हो रही है। अभिनेता लोग डेढ़ सौ , दो सौ करोड़ एडवांस इनकम टैक्स जमा कर रहे हैं। साहित्य स्वांत: सुखाय हो सकता है। संगीत भी। फ़िल्म नहीं। बनाई थी स्वांत : सुखाय एक फ़िल्म राजकपूर ने 'मेरा नाम जोकर'। क्लासिक फिल्म है। बहुत शानदार। लेकिन चली नहीं। राजकपूर सड़क पर आ गए। बनाई थी शैलेंद्र ने भी स्वांत: सुखाय 'तीसरी कसम'। बरबाद हो गए। इसी ग़म में दुनिया को अलविदा कह गए। ऐसे अनेक क़िस्से हैं। वह एक गाना है न ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे कैसे ! तो बहुत सी प्रतिभाएं सफलता - असफलता में हेरा गईं। खोजे नहीं मिलतीं।
प्रश्न - आरोप यह भी है कि सनातन समाज को हतोत्साहित, अपमानित करने, झूठा इतिहास स्थापित करने के लिए ही जोधा-अकबर, मुगल-ए-आज़म जैसी झूठी फ़िल्में लगातार बनाई जा रही हैं। जबकि अकबर की जोधाबाई नाम की कोई बेगम थी ही नहीं। एक कार्यक्रम में गीतकार,पटकथा लेखक जावेद अख्तर जिन्होंने शोले फ़िल्म का भी संवाद लिखा था, पूछे जाने पर स्वीकार किया कि जोधा काल्पनिक फ़िल्मी कैरेक्टर है, फ़िल्म आपलोग मनोरंजन के लिए देखिये। लेकिन मुख्य बात तो यह है कि यह सब अनवरत होते रहने के बावजूद हमारा बौद्धिक वर्ग अनवरत चुप ही रहता चला आ रहा है,आखिर क्यों? क्या आपने इस बिंदु पर कुछ कहा-सुना, कभी कुछ लिखा?
उत्तर - फिल्म एक ऐसा मीडियम है जिस में में बहुत तर्क नहीं चलता। सिर्फ़ पैसा चलता है। फिर कुतर्क का कोई विरोध भी नहीं करता। तथ्य और तर्क नहीं बॉक्स ऑफिस का सत्य चलता है। अस्सी के दशक में एक फिल्म आई थी 'दुनिया मेरी जेब में'। 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में इस की समीक्षा छपी थी। शीर्षक था : दुनिया मेरी जेब में पर अक्ल ? और आप जिस बौद्धिक समाज की बात कर रहे हैं , वह फिल्म देखता ही नहीं। देखता भी होगा तो इस पर बोलता नहीं। फिल्म को वह गटर की चीज़ मानता है। अपने स्तर का नहीं मानता। ऐसे भी लोग हैं जिन के पास टाइम नहीं है सिनेमा आदि देखने के लिए। दो किस्से गौरतलब हैं। दिलीप कुमार नए - नए स्टार हुए थे। जहाज से सफर कर रहे थे। उन्हों ने देखा कि उस जहाज में जमशेद जी टाटा भी हैं। दो - चार बार इधर - उधर हुए। लेकिन टाटा ने उन की नोटिस नहीं ली। आख़िर अपने पी ए को टाटा के पी ए के पास भेजा इस संदेश के साथ कि इस जहाज में दिलीप कुमार भी हैं। टाटा के पी ए ने उन्हें बताया भी। टाटा ने फिर भी उन की नोटिस नहीं ली। अंतत: दिलीप कुमार ख़ुद टाटा के पास गए और बताया कि मुझे दिलीप कुमार कहते हैं। टाटा ने सिर हिला कर बात ख़त्म कर दी। दिलीप कुमार ने बताया कि मैं फ़िल्म ऐक्टर हूं। तब टाटा ने कहा कि मैं फ़िल्में नहीं देखता। दिलीप कुमार ने पूछा , क्यों ? टाटा ने कहा कि इस सब के लिए मेरे पास टाइम कहां है ? दिलीप कुमार मायूस हो कर अपनी सीट पर आ गए।
एक बार दिल्ली में एक पेंटिंग प्रदर्शनी में जार्ज फर्नांडीज गए। उद्घाटन के लिए। राजेश खन्ना और राज बब्बर भी थे। जार्ज उस समय अटल सरकार में मंत्री थे। प्रदर्शनी उद्घाटन के बाद वह राज बब्बर से बतियाने लगे। राजेश खन्ना को लिफ्ट नहीं दी। राजेश खन्ना को अच्छा नहीं लगा। कि राज बब्बर उन से बहुत जूनियर थे। सुपर स्टार भी नहीं थे। तो उन्हों ने कलाकार से अपनी यह तकलीफ बताई। कहा कि मुझे भी जार्ज से इंट्रोड्यूस करवाएं। कलाकार ने राजेश खन्ना का परिचय जार्ज से करवाया और बताया कि अपने समय के सुपर स्टार हैं। जार्ज उन की दिक्कत समझ गए। बताया कि उन्हों ने कभी कोई फ़िल्म देखी ही नहीं। राज बब्बर के लिए बताया कि इन को भी फिल्म के कारण नहीं , सोशलिस्ट मूवमेंट के कारण जानता हूं , जब स्टूडेंट लीडर थे यह। तो राजेश खन्ना का मूड कुछ ठीक हुआ। राजेश खन्ना एक बार ऐसे कभी किसी कार्यक्रम में अभिनेता राजकुमार के बगल में जा कर बैठ गए। राजकुमार ने उन को लिफ्ट नहीं दी। तो राजेश खन्ना ने उन से कहा कि बाई द वे मुझे राजेश खन्ना कहते हैं। तब भी राजकुमार ने उन को कोई तवज्जो नहीं दी। पर जब राजेश खन्ना ने ऐसा तीन चार बार कहा तो राजकुमार उन की तरफ पलटे, यह तो ठीक है , पर आप काम क्या करते हैं ? राजेश खन्ना उस समय सुपर स्टार थे। उन के आगे - पीछे कोई नहीं था। तब यह हाल था।
एक क़िस्सा ज़ीनत अमान का भी है। वह कई बार राज कुमार के सामने से गुज़रीं। तो राजकुमार ने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा कि , आप सुंदर हैं। फिल्मों में ट्राई क्यों नहीं करतीं ? आप को काम मिल जाएगा। राजकुमार के ऐसे अनेक क़िस्से प्रचलित हैं। राजकुमार के ऐसे तंज फ़िल्मी दुनिया के नकलीपन की पोल खोलते हैं। बाइस्कोप यानी फ़िल्मी परदे की दुनिया बहुत चमकीली है पर इस से भी ज़्यादा खोखली है।
प्रश्न - यह भी जानना चाहूंगा कि अकबर ने महाराणा प्रताप फिर उनके पुत्र अमर सिंह से अनवरत युद्ध से थक-हार कर अपनी पुत्री शहजादी ख़ानम का विवाह अमर सिंह से किया , भतीजी बीवी मुबारक का विवाह मान सिंह से करवाया, ऐसी यथार्थ ऐतिहासिक घटनाओं पर कहानी, उपन्यास ,फ़िल्मों का अकाल है। यहाँ तक कि इतिहास भी दबे मन से ही कुछ बोलता है, क्या राय है आपकी, आपने ऐसी कोई कहानी, उपन्यास आदि लिखा है क्या ?
उत्तर - धर्म निरपेक्षता की नौटंकी सिर्फ़ राजनीति और साहित्य में ही नहीं , फिल्मों में भी भरपूर है। रिस्क ज़ोन है यह। रिस्क ले कर कोई फ़िल्मकार फ़िल्म बना भी दे अगर इस विषय पर तो रिलीज ही नहीं हो पाएगी। हो भी गई तो थिएटरों में आग लगा दी जाएगी। शरिया क़ानून की चाबुक चल जाएगी। जो लोग यूनिफार्म सिविल कोड नहीं चाहते , वह लोग ऐसी फिल्म को नहीं चलने देंगे। जिस देश में लोग सलमान रुश्दी जैसे लेखक को नहीं रहने देते , उस देश में ऐसी फ़िल्मों को वह कैसे चलने देंगे। और कहा न , फ़िल्म बहुत खर्चीला और पैसा कमाने वाला मीडियम है। पैसा फूंकने वाला मीडियम नहीं। हर कोई देवानंद नहीं हो सकता कि फ़िल्म दर फ़िल्म पिटती जाए , और वह फ़िल्म बनाते जाएं। अलग बात है कि अगर यह बात आप को मालूम है , हम को मालूम है , तमाम लोगों को मालूम है तो क्या देवानंद को नहीं मालूम रही होगी ? ऐसी फिल्म बनाने के लिए किसी फ़िल्मकार के लिए बहुत साहस चाहिए। देवानंद में भी यह साहस नहीं था। वैसे भी फिल्म से पैसा कमाने वाले व्यापारी कभी ऐसा रिस्क नहीं लेना चाहेंगे। कहानी , उपन्यास भी कोई लिखेगा तो सलमान रुश्दी की तरह उसे देश निकाला मिल जाएगा। सिर तन से जुदा हो जाएगा। भाजपा की प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा एक सही बात कर के भी बरसों से अपने घर में क़ैद हो कर रह गई हैं। रही मेरी बात तो इतिहास पर उपन्यास लिखना मेरा विषय नहीं रहा है। इतिहास का अध्ययन भी मेरा इतना विशद नहीं है कि इस पर लिख सकूं। क्यों कि सिर्फ़ सूचना मात्र से कोई कहानी या उपन्यास नहीं लिखा जा सकता। यह मेरी सीमा है और विवशता भी। कहानी , उपन्यास लिखना पत्रकारिता नहीं है।
प्रश्न - प्रायः यह बात होती ही रहती है कि हिंदी सिनेमा जगत पर बीते पांच-छह दशकों से अंडरवर्ल्ड के गुंडे मवालियों माफियाओं का कब्जा है , वो वर्ग विशेष के लोगों को ही काम करने देते हैं, या जो उनके एजेंडे के तहत काम करने को तैयार होता है। अनेक प्रतिभाशाली कलाकारों का करियर इन मवालियों और इनकी सोच वालों के गुट ने हमेशा के लिए नष्ट कर कर दिया और प्रतिभाशुन्य डेढ़फुटियों को ही धकिया-धकिया कर आगे बढ़ाते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही प्रतिभाशाली ऐक्टर विवेक ओबेराय ने खुल कर यह बताया कि किस तरह बॉलीवुड को कब्जे में किये वर्ग विशेष के गुट ने षड्यंत्रपूर्वक उनके करियर को नष्ट कर दिया। सुशांत सिंह आदि प्रतिभाशाली तेज़ी से उभरते कलाकारों की रहस्य्मयी मृत्यु संदेह और गहरा करती है। आपका शोध, आपकी पत्रकारीय दृष्टि इस विषय में क्या कहती है ?
उत्तर - यह सब तो खुल्लमखुल्ला है। कौन नहीं जनता इस विषय में। इस में किसी शोध या दृष्टि की ज़रूरत नहीं है। गोविंदा और अन्नू कपूर जैसे लोग भी इसी काकस का शिकार हैं। गायक सोनू निगम , अभिजीत , अनुराधा पोडवाल आदि बहुत से ऐसे गायक और अनेक कलाकार हैं जिन के पास अब कोई काम नहीं है। बरसों से नहीं है। मोदी के कार्यकाल में भी दाऊद इब्राहिम का नेटवर्क टूटा नहीं है वालीवुड से। वह जो चाहता है , वही होता है। गुलशन कुमार की हत्या के बाद अब कोई बहुत हाथ - पांव नहीं खोलता। नदीम को आज तक मोदी सरकार भी भारत नहीं ला सकी। कि भारत ला कर उसे सज़ा दिलाई जा सके। न इस पर कोई चर्चा होती है। बाल ठाकरे जब थे तब थोड़ा बहुत बैलेंस किए रहते थे। अब तो उन का नालायक़ बेटा उद्धव ठाकरे कहता है , औरंगज़ेब हमारा भाई है ! फ़िल्मी दुनिया क्रिकेट खेल कर चैरिटी के लिए कुछ पैसा तो इकट्ठा कर सकती है पर अगर आप कहीं किसी विपदा में फंसे पड़े हैं तो मौक़े पर जा कर आप को बचाने नहीं जा सकती। और अब तो कोई चैरिटी का तमाशा किए भी फ़िल्मी दुनिया को ज़माना हो गया। राजनीति से ज़्यादा सेक्यूलर पाखंडी वालीवुड में हैं। एक ज़माने से हैं। उन का सिक्का चलता है। क्यों कि इन के बीच दाऊद का डर चलता है। बहुत चलता है। वालीवुड में दाऊद का डर और पैसा ज़्यादातर लोगों को सेक्यूलर बनाता है। ज़्यादा उड़ेंगे तो गुलशन कपूर की तरह उड़ा दिए जाएंगे।
प्रश्न - आपने लता मंगेश्कर , ह्रदय नाथ मंगेशकर ,आशा भोंसले ,हेमलता ,उषा उत्थुप , शारदा सिन्हा ,पीनाज़ मसानी , कुमार शानू , दलेर मेहंदी , शंकर महादेवन व लूई बैंक्स , अनाइडा, बालेश्वर आदि अपने समय के अनेक प्रतिष्ठित संगीत मर्मज्ञों से समय-समय पर बातचीत की। भारतीय संगीत को दिए गए इनके योगदान के विषय में आज आप क्या सोचते हैं, किसकी कला और व्यवहार ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया, और क्यों ?
उत्तर - लता मंगेशकर तो प्रतिमान हैं। गायकी में भी , व्यक्तित्व में भी। देवत्व था उन में। उन के स्वर में। पर बात करने में जो सहजता हृदयनाथ मंगेशकर के साथ महसूस हुई , अन्य में नहीं। दोस्ती हो गई। आशा भोंसले भी बहुत सरल हैं। इन सभी गायकों के साथ मुझे कभी कोई दिक़्क़त नहीं हुई। गायकों में जगजीत सिंह के सब से ज़्यादा इंटरव्यू किए। जगजीत सिंह से मेरे झगड़े भी ख़ूब हुए। कई बार हुए। पर वह जब भी लखनऊ आते तो फोन कर मुझे बुलाते थे बतियाने के लिए। पर दुर्भाग्य यह कि जब इंटरव्यू की किताब छपने को हुई तो उन का एक भी इंटरव्यू नहीं मिल सका। अख़बार के जंगल में कहीं खो गया। बिस्मिल्ला खां , हरिप्रसाद चौरसिया आदि कई लोगों के इंटरव्यू गुम हो गए। नहीं मिल सके। प्रभावित तो सभी ने किया। सभी गुणी लोग हैं। बालेश्वर तो हमारे मित्र ही थे। सुबह शाम का मिलना था। मनोज तिवारी आदि एक समय बहुत पीछे पड़े। इन और ऐसे कई लोगों का इंटरव्यू कभी नहीं ले सका। पता नहीं क्यों मन नहीं हुआ। कई बार मिस करता हूं कि काश कभी मोहम्मद रफ़ी , किशोर कुमार और मुकेश से भी मिलने का अवसर मिला होता। उन से भी इंटरव्यू करने का सौभाग्य मिला होता। बाक़ी तो दिलीप कुमार से लगायत अमिताभ बच्चन आदि तमाम अभिनेताओं और अभिनेत्रियों से मिलने और इंटरव्यू करने का सौभाग्य मिला है। बहुतों के इंटरव्यू लिए हैं। पर सब से ज़्यादा इंटरव्यू अटल बिहारी वाजपेयी और जगजीत सिंह के।
प्रश्न - आपने 'सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट', 'जनसत्ता', 'स्वतंत्र भारत, 'राष्ट्रीय सहारा' दिल्ली और लखनऊ,'नव भारत टाइम्स',' राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क' जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कार्य किया। कहाँ कार्य करना आपको सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण लगा, क्यों ?
उत्तर - ज़िंदगी और नौकरी में चुनौती सर्वदा उपस्थित रहती है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाली बात है। तो चुनौती हर जगह थी। लेकिन हम ने बिना किसी तनाव के हर जगह नौकरी की। चुनौतियां आती थीं, ख़ुद ही लहरों की तरह आ कर मिट जाती थीं। हर नौकरी को हम ने इंज्वाय किया। कभी कुछ ज़्यादा दिक़्क़त हुई तो घर, परिवार सामने दिखता था। फिर जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए ! सोच कर मुस्कुरा लेता था। बात ख़त्म हो जाती थी , अनायास। दफ़्तर को कभी घर ले कर नहीं आया। न दफ़्तर का कोई तनाव। बीच - बीच में बेरोजगारी भी भुगती। पाया कि बेरोजगारी आदमी को नपुंसक बना देती है। पर काम चलता रहा। किसी के आगे कभी हाथ नहीं पसारा। टेंशन में नहीं आया। ऐसे जैसे तैर कर नदी पार करता रहा। बेरोजगारी की नदी हो या ज़िंदगी की नदी, तैर कर ही पार की जा सकती है। धैर्य और साहस के साथ। डूब कर नहीं। ऐसे ही पार किया। दो नौकरी छोड़ कर लगभग सारी नौकरियां मुझे ऑफर हुईं। एक 'जनसत्ता' में अप्लाई किया था। टेस्ट और इंटरव्यू के बाद नौकरी मिली थी। दूसरे, 'राष्ट्रीय सहारा' में सिफ़ारिश के बाद नौकरी मिली थी। सहारा में बिना सिफारिश, बिना रेफरेंस किसी को नौकरी नहीं मिलती थी तब। परंपरा थी यह।
प्रश्न - पत्रकारिता जगत में आप दशकों रहे हैं, बल्कि यह कहना उचित होगा कि आज भी हैं। अपने समय के अनेक प्रतिष्ठित सम्पादकों के साथ कार्य करने का आपको अवसर मिला। एक संस्मरण में आपने कन्हैया लाल नंदन को याद करते हुए उनके व्यक्तित्व के विषय में काफी कुछ, बड़ी मार्मिक बातें लिखीं हैं। उन्हें धारा के विपरीत चलने वाला कहा, उनके लिए कहा यह भी जाता है कि वह दिनमान ,सारिका ,पराग ही नहीं पूरे दस दरियागंज के सम्पादक थे। ऐसे विशिष्ट सम्पादक का क्या आपके पत्रकारीय जीवन पर कोई प्रभाव रहा है ? कैसे याद करते हैं आज उन्हें ?
उत्तर - जब मैं पढ़ता था। बी ए में था। गोरखपुर में था। बिना किसी परिचय के नंदन जी ने सारिका में फ़ोटो सहित मुझे छापा था। उस से मेरी एक पहचान बनी। नंदन जी जब तक सारिका , दिनमान , पराग में थे मुझे सर्वदा छापते रहे। निरंतर। दिल्ली गया तब भी उन का स्नेह मिलता रहा। दिनमान के लिए कई रिपोर्टें लिखवाईं। चौधरी चरण सिंह के साथ कवरेज के लिए बागपत भेजा। चरण सिंह का इंटरव्यू किया मैं ने। उसे दिनमान में बढ़िया से छापा। इस के पहले रघुवीर सहाय ने भी दिनमान में बहुत छापा था। साप्ताहिक हिंदुस्तान में मनोहर श्याम जोशी , कादंबिनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी के भी स्नेह सहयोग का भागीदार रहा हूं। रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह भी मुझे बहुत पसंद करते थे। लिखवाते और छापते रहे। अनुभव यह है कि मिलने वाले संपादक का व्यवहार और होता है , साथ काम करने वाले संपादक का व्यवहार और। स्वाभाविक भी है। मैं ख़ुद भी दो जगह संपादक रहा हूं लेकिन यह फ़र्क़ अपनी भरसक नहीं आने दिया। बाक़ी सब की अपनी राय है, अपना अनुभव है। समय बहुत बदलाव मांगता है। और मैं बहुत बदल नहीं पाता। घर में बिजली का बल्ब कभी नहीं बदल पाया। कुल हासिल यह कि तकनीकी रूप से टोटली निल हूं। कंप्यूटर या नेट फ्रेंडली बिलकुल नहीं हूं। तिस पर आलसी भी बहुत।
प्रश्न - उनकी तुलना में आज के सम्पादकों के बारे में क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर - तुलना ? अरे , अब संपादक नाम की संस्था अब समाप्त हो चुकी है। संपादक की जगह अब दलालों ने ले ली है। मैनेजरों ने ले ली है। संपादक के नाम पर अब एक ऐसा मैनेजर रखा जाता है जो मालिकानों और कर्मचारियों के बीच का कोऑर्डिनेट करे। प्रबंधन करे। कर्मचारियों का शोषण करे। मंत्रियों, मुख्य मंत्रियों से मालिकानों को मिलवाने का प्रबंध करे। कंपनी के उलटे - सीधे काम करवाए।राजनीतिक और आर्थिक दलाली करे। बनारस के अभिमन्यु लाइब्रेरी में आचार्य महावीर प्रसाद के तैल चित्र का अनावरण करने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आए थे। मैं तब विद्यार्थी था पर तब बनारस गया हुआ था आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से ही मिलने। इस बाबत एक लंबा संस्मरण भी लिखा हुआ है। ख़ैर उस समय किसी पत्रिका में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कुछ अप्रिय छपा हुई था। किसी ने उस की चर्चा की। तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी प्रतिक्रिया में हंसते हुआ कहा , ' अरे भाई , सम - पादक हैं। उन्हें अपना कार्य करने दीजिए। उपस्थित सभी लोग हंसने लगे।
प्रश्न - थिसारस की बात आते ही ' समान्तर शब्दकोश ' नाम से हिंदी का पहला थिसारस लिखने वाले अरविंद कुमार याद आते हैं। 'सरिता', 'माधुरी', 'कारवां' आदि पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे ,संघर्षपूर्ण प्रारंभिक जीवन के बाद उन्होंने सफलतापूर्ण जीवन भी पाया। उनके साथ आपके एक तरह से घरेलू सम्बन्ध रहे। आज भी आप उन्हें बहुत सम्मान के साथ याद करते हैं। उनके बारे में काफी कुछ लिखा भी। उनके समग्र व्यक्तित्व कृतित्व पर आपकी विस्तृत राय क्या है ?
उत्तर - अरविंद कुमार महान भारतीय संपादकों में शुमार हैं। हिंदी के कुछ गिनती के संपादक हैं जो शुचिता और नैतिकता के लिए परिचित हैं। अरविंद कुमार उन में से हैं। फ़िल्म पत्रिका 'माधुरी' के वह सोलह साल संपादक रहे। संस्थापक संपादक। ग्लैमर की दुनिया में रह कर भी ग्लैमर से, दिखावे से बहुत दूर थे। शैलेंद्र, गुलज़ार जैसे गीतकार उन के जिगरी दोस्तों में थे। राज कपूर , किशोर साहू , श्याम बेनेगल जैसे तमाम निर्देशकों के बहुत क़रीब थे। अभिनेताओं में होड़ रहती थी उन से मिलने की। अरविंद कुमार से जुड़ी फ़िल्मी कहानियों की बड़ी चर्चा होती थी एक समय। फ़िल्मफ़ेयर जैसे पुरस्कारों की ज्यूरी में थे। अमिताभ बच्चन से जब मैं मिला तो इंटरव्यू में बिन पूछे वह अपने निर्माण में अरविंद कुमार का नाम लेने लग गए। एक बार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के मालिकों में से किसी ने विनोद मेहरा की सिफ़ारिश कर दी। विनोद मेहरा अरविंद कुमार के दोस्त थे। पर वह इस सिफ़ारिश पर विनोद मेहरा से बहुत नाराज हुए। और कहा कि मेरे रहते विनोद मेहरा, माधुरी में तुम्हारे बारे में एक लाइन नहीं छपेगी , न तुम्हारी कोई फोटो। विनोद मेहरा ने बहुत सफाई दी कि मैं ने कोई सिफारिश नहीं करवाई है। पर अरविंद कुमार ने विनोद मेहरा की एक न सुनी। ऐसे ग्लैमर की दुनिया को अरविंद कुमार ने थिसारस पर काम करने के लिए एक झटके से छोड़ दिया। 'माधुरी' से इस्तीफ़ा दे दिया। बाद में जब आर्थिक दिक़्क़त आई तो खुशवंत सिंह की सलाह पर 'सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट' के संस्थापक संपादक बने। मैं तो उन से औपचारिक रूप से मिलने गया था और दस मिनट की बातचीत में उन्हों ने मुझे नौकरी ऑफर कर दी थी। अरविंद जी पर मैं ने कई सारे लेख और संस्मरण लिखे हैं। अरविंद कुमार जितने अच्छे संपादक थे, वक्ता उतने ही ख़राब। लेकिन अनुवादक शानदार थे। समीक्षक शानदार थे। इस से भी बढ़ कर आदमी बहुत शानदार थे। बहुत सरल , बहुत सहज। बहुत सी भाषाएं जानते थे। बाल श्रमिक होते हुए भी अंग्रेजी में एम ए थे। हिंदी , अंग्रेजी ही नहीं संस्कृत के भी उदभट विद्वान थे। अरविंद जी के पिता जी गीता रोज पढ़ते थे। लेकिन उन का संस्कृत उच्चारण बहुत भ्रष्ट था। इस दिक़्क़त को अरविंद कुमार ने समझा और गीता का सहज अनुवाद संस्कृत में किया। ताकि लोग आराम से पढ़ सकें। सहज गीता नाम से इसे राजकमल ने प्रकाशित किया है। 'शब्देश्वरी' एक अलग किताब है जिस में हिंदू धर्म के बहुत सारे देवी देवताओं के तमाम सारे नाम संयोजित किए हैं अरविंद जी ने। यह सब तब है जब अरविंद कुमार कम्युनिस्ट थे। अरविंद कुमार के थिसारस की ही चर्चा लेकिन ज़्यादा होती है। पेंग्विन ने तीन वॉल्यूम में उन का हिंदी , अंगरेजी और अंगरेजी हिंदी थिसारस प्रकाशित किया। अरविंद कुमार ने अनुबंध में स्पष्ट लिखवा दिया था कि 15 प्रतिशत रॉयल्टी लेंगे। और कि हर साल न्यूनतम रॉयल्टी की धनराशि भी दर्ज करवा दी। कहा कि अगर इस से कम रॉयल्टी मिली तो किताब वापस ले लेंगे। शुरू में चार - पांच साल तो सब ठीक चला। पर एक साल रॉयल्टी बहुत कम आई तो किताब वापस लेने की नोटिस दे दी। पेंग्विन वालों ने कहा कि कुछ किताबें बची पड़ी हैं , उन का क्या होगा ? अरविंद जी ने कहा कि बची हुई सारी किताबें वह तुरंत खरीद लेंगे। पर किताब तो अब वापस। किताब वापस ले कर सारी किताबें उन्हों ने अमेज़न पर डलवा दीं। साल भर में सब बिक गईं। अब पेंग्विन वाले परेशान। माफ़ी मांगने लगे। किताब वापस मांगने लगे। अरविंद जी ने मना कर दिया। और ख़ुद प्रकाशक बन गए। राजकमल ने भी सहज समांतर कोश नाम से छापा है। हर साल वह एडवांस रॉयल्टी दे आता है। नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी छापा है यह थिसारस समांतर कोश नाम से। वहां बुरा हाल है। अरविंद कुमार का थिसारस ऑनलाइन भी है। अरविंद लेक्सिकन नाम से। 6 लाख से अधिक अंगरेजी और हिंदी शब्द हैं इस पर। असल में यह थिसारस सिर्फ विद्वानों के लिए ही नहीं , अनुवादकों के भी बहुत काम का है। इस लिए इस की पूछ चौबीसो घंटे की है। अरविंद जी तो कई और भारतीय भाषाओं में थिसारस पर काम कर रहे थे। जैसे तमिल , तेलगू , मलयालम आदि पर। लेकिन वह अधूरा रह गया। बीच कोरोना वह विदा हो गए।
प्रश्न - इस बात पर भी आपका मत जानना चाहूंगा कि हिंदी के पहले शब्दकोश के रूप में ' अरविन्द जी का ' समान्तर शब्दकोश ' प्रचलित है। एक लेखक शेषनाथ प्रसाद ने इसी बिंदु पर अपने लेख में लिखा कि हिंदी का पहला थिसारस सत्यनारायण सिंह वर्मा '' हिंदी भूषण '' का १९२९ में प्रकाशित ' पद्य शब्दकोश ' है। आपकी क्या राय है ?
उत्तर - अब दावा करने को कोई भी , कुछ भी कर सकता है। कोई रोक तो है नहीं। पर यह सच है कि हिंदी में पहला प्रकाशित थिसारस अरविंद कुमार का है। संस्कृत में अमर सिंह का आठ हज़ार शब्दों वाला अमर कोश ज़रूर पहले से है। प्रजापति कश्यप का अठारह हज़ार वैदिक शब्दों का संकलन निघंटुथा भी। अंग्रेजी के रोजेट से भी पहले से। हिंदी में तो अभी बहुत से लोग थिसारस शब्द से ही नहीं परिचित हैं। थिसारस का कंसेप्ट तो बहुत दूर की बात है। थिसारस मतलब डिक्शनरी नहीं है। आप जानते हैं कि हल्दी के लिए 125 शब्द हैं। हेलमेट के लिए 32 शब्द। आप को मालूम है कि भगवान शिव के लिए 2317 शब्द हिंदी में उपलब्ध हैं? इसी तरह ईश्वर के लिए 188 शब्द, अल्लाह के 33, इच्छा के लिए 60, प्रेमपात्र के लिए 71, प्रेमपात्रा के लिए 57, आकाश के लिए 36, वसंत के लिए 31, वर्षा के लिए 28, मोती के लिए 30, साहस के लिए 35 और रात के लिए 57 शब्द हिंदी में उपलब्ध हैं? यह सारी जानकारियां अरविंद कुमार ने अपने हिंदी के पहले थिसारस में परोसी हैं। असल में शब्द रथ है भाव का, विचार का। इस रथ पर सवार हो कर बात एक आदमी से दूसरे आदमी तक पहुंचती है। इस रथ पर सवार हो कर ज्ञान और विज्ञान सदियों के फ़ासले तय करते हैं। इस तरह किसी भी भाषा के हाथों में थिसारस एक शक्तिशाली उपकरण होता है। यह न केवल उन की शब्द संपदा को कई गुना बढ़ा देता है बल्कि अभिव्यक्ति की राह में आने वाली अनेक कठिनाईयों को दूर कर देता है। थिसारस ग्रीक शब्द थैजौरस का हिंदीकरण है। इसका अर्थ ही है ‘कोश’। शब्दश: थिसारस भी एक तरह का शब्दकोश होता है क्यों कि इस में शब्दों का संकलन होता है। वास्तव में थिसारस या समांतर कोश और शब्दकोश एक दूसरे के बिलकुल विपरीत होते हैं। किसी शब्द अर्थ जानने के लिए हम शब्द-कोश का सहारा लेते हैं। लेकिन जब बात कहने के लिए हमें किसी शब्द की तलाश होती है तो लाख शब्दों को समाए होने के बावजूद शब्दकोश हमें वह शब्द नहीं दे सकता। तब थिसारस हमारे काम आता है। शब्दकोश अगर अस्पष्ट को स्पष्ट करता है तो अमूर्त को मूर्त करता है थिसारस । यह क्षमता ही थिसारस की शक्ति का मूल है। और इसी के कारण यह भाषा के बेहतर उपयोग का सशक्त उपकरण बन जाता है। गरज यह है कि किसी भी ज्ञात शब्द के सहारे हम किसी भी अज्ञात या विस्मृत शब्द तक तत्काल पहुंच सकते हैं।
प्रश्न - जिनके समग्र साहित्य, यह भी कहें कि ह्रदय में भी लक्ष्मण की नगरी लखनऊ धड़कती थी ऐसे विशिष्ट कथाकार अमृतलाल नागर के भी आप बहुत करीब थे, उनके साथ आपका बहुत मिलना-जुलना था, उनके लेखन, व्यवहार पर आपने लिखा भी बहुत है। उनके लेखन, व्यवहार में ऐसी क्या विशेषता थी कि आप उन तक खिंचे चले जाते थे ?
उत्तर - नागर जी सचमुच मुझे बहुत प्यार करते थे। उन की सादगी , उन का खुलापन किसी डोर की तरह मुझे उन तक खींच कर पहुंचा देती थी। कथा कहने की उन की कला भी अद्भुत थी। था मैं उन के पोते की उम्र का पर वह हमेशा बराबरी से बात करते थे। जब मेरा पहला उपन्यास 'दरकते दरवाजे' छपा तब मैं दिल्ली रहने लगा था। 1983-84 की बात है। यह उपन्यास नागर जी को ही समर्पित किया था। उन्हें उपन्यास देने दिल्ली से लखनऊ आया। मिल कर दिया। वह बहुत खुश हुए। थोड़ी देर पन्ने पलटते रहे। मैं उन के सामने बैठा था। फिर अचानक उन्हों ने मेरी तरफ देखा और बोले, 'इधर आओ!' और इशारा कर के अपने बगल में बैठने को कहा। मैं संकोच में पड़ गया। फिर उन्हों ने लगभग आदेशात्मक स्वर में कहा, 'यहां आओ!' और जैसे जोड़ा, 'यहां आ कर बैठो !' मैं गया और लगभग सकुचाते हुए उन की बगल में बैठा। और यह देखिए आदेश देने वाले नागर जी अब बिलकुल बच्चे हो गए थे। मेरे कंधे से अपना कंधा मिलाते हुए लगभग रगड़ते हुए बोले, 'अब मेरे बराबर हो गए हो !' मैं ने कुछ न समझने का भाव चेहरे पर दिया तो वह बिलकुल बच्चों की तरह मुझे दुलारते हुए बोले. 'अरे अब तुम भी उपन्यासकार हो गए हो ! तो मेरे बराबर ही तो हुए ना !' कहते हुए वह हा-हा कर के हंसते हुए अपनी बाहों में भर लिए। आशीर्वाद देने लगे, 'खूब अच्छा लिखो और यश कमाओ !' आदि-आदि।
बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया 'स्वतंत्र भारत' में रिपोर्टर हो कर। तो जिस दिन कोई असाइनमेंट दिन में नहीं होता तो मैं भरी दुपहरिया नागर जी के पास पहुंच जाता। वह हमेशा ही धधा कर मिलते। ऐसे गोया कितने दिनों बाद मिले हों। भले ही एक दिन पहले ही उन से मिल कर गया होऊं। हालां कि कई बार उन के पुत्र शरद जी नाराज हो जाते। कहते यह उन के लिखने का समय होता है। तो कभी कहते आराम करने का समय होता है। एकाध बार तो वह दरवाजे से ही लौटाने के फेर में पड़ जाते तो भीतर से नागर जी लगभग आदेश देते, ' आने दो- आने दो।' वह सब से ऐसे ही मिलते थे खुल कर। सहज मन से। सरल मन से बतियाते हुए। उन से मिल कर जाने क्यों मैं एक नई ऊर्जा से भर जाता था। हर बार उन से मिलना एक नया अनुभव बन जाता था। उन के पास बतियाने और बताने की जाने कितनी बातें थीं। साहित्य,पुरातत्व,फ़िल्म, राजनीति, समाज, बलात्कार, मंहगाई। जाने क्या-क्या। और तो और जासूसी उपन्यास भी।
प्रश्न - उनसे कोई ऐसी बातचीत, वाकिया जो आप आज भी भुला नहीं पाए, अब भी वो हरसिंगार के फूलों सी तरोताज़ा बनी हुई है ?
उत्तर - बहुत सी बातें हैं। अनगिन। सोचिए कि 'अग्निगर्भा' जैसा मारक और दाहक उपन्यास लिखने वाले नागर जी खुद व्यक्तिगत जीवन में दहेज से अभिशप्त रहे। क्या हुआ कि उन दिनों उन्हें लगातार दो-तीन लखटकिया पुरस्कार मिल गए थे। 'व्यास सम्मान', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और बिहार सरकार का भी एक लखटकिया सम्मान। मैं ने उन से मारे खुशी के कहा कि चलिए अब जीवन कुछ आसान हो जाएगा। सुनते ही वह कुपित हो गए। बोले, 'खाक आसान हो जाएगा?' पोतियों की शादी करनी है। जहां जाते हैं लोग मुंह बड़ा कर लेते हैं कि आप के पास तो पैसा ही पैसा है। 'अग्निगर्भा' के लेखक की यह बेचैनी और यातना मुझ से देखी नहीं गई। फिर मुझे उन का ही कहा याद आया।
एक बार एक इंटरव्यू में उन से पूछा था कि, 'क्या साहित्यकार भी टूटता है?' तो नागर जी पान की गिलौरी मुंह में दाबे धीरे से बोले थे, 'साहित्यकार भी आदमी है, टूटता भी होगा।' उन का वह कहा और बेतरह टूटते मैं ने एक बार फिर देखा जब बा नहीं रहीं थीं। बा मतलब उन की धर्मपत्नी। जिन को वह अक्सर बात बात में कहते, 'बुढिया कहां गई? अभी आती होगी।' वगैरह-वगैरह कहते रहते थे। उसी बुढ़िया के न रहने पर इस बूढे को रोता देखना मेरे लिए दुखदाई हो गया था तब। तब मैं भी रो पड़ा था। करता भी क्या उन को अपने जीवन में मैं ने पहली बार फूट-फूट कर रोते देखा था। कोई 72-73 वर्ष की उम्र में वह रो रहे थे। तेरही के बाद एक दुपहरिया गया तो वह फिर फूट पड़े। रोते-रोते अचानक बा के लिए वह गाने लगे, 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।' अदभुत था यह। पतियों के न रहने पर बिलखते-रोते तो मैं ने बहुतेरी औरतों को देखा था पर पत्नी के न रहने पर बिलखते रोते मैं पहली बार ही इस तरह किसी पुरुष को देख रहा था। यह पुरुष नागर जी थे। नागर जी ही लोक लाज तज कर इस तरह रो सकते थे। रोते-रोते कहने लगे- मेरा ज़्यादतर जीवन संघर्ष में बीता। बुढिया ने बच्चों को भले चने खिला कर सुला दिया पर कभी मुझ से कोई उलाहना नहीं दिया। न कभी किसी से कुछ कहने गई, न किसी के आगे हाथ पसारा। कह कर वह फिर उन की याद में रोने लगे।
एक बार मुझे पीलिया हो गया। महीने भर की छुट्टी हो गई। कहीं नहीं गया। नागर जी के घर भी नहीं। उन की एक चिट्ठी स्वतंत्र भारत के पते से आई। लिखा था क्या उलाहना ही था कि बहुत दिनों से आए नहीं। फिर कुशल क्षेम पूछा था और लिखा था कि जल्दी आओ नहीं यह बूढ़ा खुद आएगा तुम से मिलने। अब मैं तो दफ़्तर जा भी नहीं रहा था। यह चिट्ठी विजयवीर सहाय जो रघुवीर सहाय के अनुज हैं उन के हाथ लगी। वह बिचारे चिट्ठी लिए भागे मेरे घर आए। बोले, 'कहीं से उन को फ़ोन कर ही सूचित कर दीजिए नहीं नाहक परेशान होंगे।' मेरे घर तब फ़ोन था नहीं। टेलीफ़ोन बूथ से फ़ोन कर उन्हें बताया तो उन्हों ने ढेर सारी हिदायतें कच्चा केला, गन्ना रस, पपीता वगैरह की दे डालीं। उन दिनों वह 'करवट' लिख रहे थे। बाद में बताने लगे कि, 'उस में एक नए ज़माने का पत्रकार का भी चरित्र है जो तुम मुझे बैठे-बिठाए दे जाते हो इस लिए तुम्हारी तलब लगी रहती है।' सच कहूं तो नागर जी की तलब मुझे अभी भी लगी रहती है। काश कि वह लौट आते ! कुछ समय पहले अचला नागर की बहू सविता शर्मा नागर ने नागर जी पर दो घंटे की एक फ़िल्म बनाई है चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर। मुझे भी इस फ़िल्म में नागर जी को बारंबार याद करने का संयोग मिला है। हमारी याद में वह सर्वदा बने रहते हैं। बने रहेंगे।
प्रश्न - लखनऊ के ही मुद्राराक्षस से भी आपका बहुत मिलना-जुलना रहा, उनकी एक अलग ही विचारधारा,व्यवहार था,वह भी खूब याद आते होंगे, आज क्या सोचते हैं उनके लेखन, मिज़ाज़ के बारे में ?
उत्तर - मुद्राराक्षस बाग़ी तबीयत के आदमी थे। बुद्ध , कबीर और ग़ालिब का समुच्चय थे वह।विचारधारा उन की कई बार बदली। एक खूंटे से बंध कर रहने वाले नहीं थे। पहले वह लोहियावादी थे। समाजवादी थे। बाद में वह लोहिया को फासिस्ट बताते हुए वामपंथी बन गए। और यह देखिए वामपंथियों की ऐसी तैसी करते हुए वह अंबेडकरवादी बन गए। दलित चिंतक बन गए। प्रेमचंद को दलित विरोधी कहने लग गए। सिस्टम से लड़ते - लड़ते वह ख़ुद से भी लड़ने लग गए। उन के अंतर्विरोध भी बहुत थे। बहुत से क़िस्से हैं उन के। 'हिंदी के चंबल का एक बागी मुद्राराक्षस' शीर्षक से एक संस्मरण उन के जीते जी ही लिखा था। आज भी लोग इसे पढ़ते हैं। मुद्रा बहुत गदगद थे इसे पढ़ कर। अलग बात है कि मुद्रा की बातों और यादों को कुछ पन्नों में संस्मरण रूप में लिख कर छुट्टी नहीं पाई जा सकती।
वास्तव में हिंदी जगत में वह इकलौते आदि विद्रोही थे। बहुत ही आत्मीय किस्म के आदि विद्रोही। पल में तोला , पल में माशा ! वह अभी आप से नाराज़ हो जाएंगे और तुरंत ही आप पर फ़िदा भी हो जाएंगे । वह कब क्या कर और कह बैठेंगे , वह ख़ुद नहीं जानते। लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वह सर्वदा प्रतिपक्ष में रहने वाले मानुष हैं। वह जब बतियाते हैं और अतीत में जाते हैं तो लगता है कि कोलकाता में ज्ञानोदय की नौकरी का समय उन के जीवन का गोल्डन पीरियड था। हालां कि वह ऐसा शब्द या कोई भावना व्यक्त नहीं करते। लेकिन जब एक बार मैं 'नवभारत टाइम्स' में था तब बातचीत में जो भाव उन के शब्दों में आए , उन से मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है । मुद्राराक्षस ने आकाशवाणी की गरिमामयी नौकरी भी की है। तब के दिनों वह असिस्टेंट डायरेक्टर हुआ करते थे । पर यूनियनबाज़ी में वह गिरिजा कुमार माथुर से मोर्चा खोल बैठे । झगड़ा जब ज़्यादा बढ़ गया तो वह नौकरी से बेबात इस्तीफ़ा दे बैठे। नौकरी में समझौता कर के जो रहे होते मुद्राराक्षस तो बहुत संभव है वह डायरेक्टर जनरल हो कर रिटायर हुए होते । नहीं डायरेक्टर जनरल तो डिप्टी डायरेक्टर जनरल हो कर तो रिटायर हुए ही होते । जैसे कि उन के साथ के तमाम लोग हुए भी।अच्छी ख़ासी पेंशन पा कर ऐशो आराम की ज़िंदगी गुज़ार रहे होते। लेकिन मुद्रा का चयन यह नहीं था।
सुभाष चंद्र गुप्ता उर्फ़ मुद्राराक्षस तो जैसे संघर्ष का पट्टा लिखवा कर आए थे इस दुनिया में। घर में, बाहर , साहित्य और ज़िंदगी में भी । मुद्रा तो जब दिनकर की उर्वशी की जय जयकार के दिन थे तब के दिनों उन्हों ने अपनी लिखी समीक्षा में उर्वशी की बखिया उधेड़ दी थी। नाराज हो कर दिनकर ने उन से कहा कि कुत्तों की तरह समीक्षा लिखी है। तो मुद्रा ने पलट कर दिनकर से कहा कि कुत्तों के बारे में कुत्तों की ही तरह लिखा जाता है। दिनकर चुप हो गए थे। ऐसा मुद्रा ख़ुद ही बताते थे। मुद्राराक्षस शुरुआती दिनों में लोहियावादी थे। लोहिया के मित्र भी वह रहे। इतना कि रंगकर्मी इंदिरा गुप्ता जी से मुद्राराक्षस का विवाह भी लोहिया ने ही करवाया। लेकिन यह देखिए बाद के दिनों में लोहिया से मुद्रा का मोहभंग हो गया। मुद्रा वामपंथी हो गए।
लोहिया को फासिस्ट लिखने और बताने लग गए मुद्राराक्षस । बात यहीं नहीं रुकी मुद्रा जल्दी ही वामपंथियों के कर्मकांड पर टूट पड़े। माकपा एम को वह भाजपा एम कहने से भी नहीं चूके। सब जानते हैं कि मुद्राराक्षस एक समय अमृतलाल नागर के शिष्य थे। न सिर्फ़ शिष्य बल्कि उन का डिक्टेशन भी लेते थे। नागर जी की आदत थी बोल कर लिखवाने की। बहुत लोगों ने नागर जी का डिक्टेशन लिया है । मुद्रा भी उन में से एक थे। मुद्रा नागर जी के प्रशंसकों में से एक रहे हैं । लेकिन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के एक कार्यक्रम में अमृतलाल नागर पर जब उन्हें बोलने के लिए कहा गया तो मुद्राराक्षस ने जैसे फ़तवा जारी करते हुए कहा कि अमृतलाल नागर बहुत ही ख़राब उपन्यासकार थे। उपस्थित श्रोताओं, दर्शकों में उत्पात मच गया। नागर जी के तमाम प्रशंसक मुद्राराक्षस पर कुपित हो गए। लेकिन मुद्रा अड़ गए तो अड़ गए। नागर जी को वह ख़राब उपन्यासकार बताते ही रहे। इसी तरह एक समय मुद्राराक्षस भगवती चरण वर्मा को जनसंघी बताते नहीं थकते थे ।
जब कामतानाथ की पचहत्तरवीं जयंती मनाई गई तो उस कार्यक्रम की अध्यक्षता मुद्राराक्षस को ही करनी तय हुई थी। पर ऐन वक़्त पर मुद्रा ने आने से इंकार कर दिया। ऐसे और भी तमाम वाकये मुद्राराक्षस के जीवन में उपस्थित हैं। जैसे कि वह मुद्रा के आला अफसर की बहार के दिन थे। तब सोवियत संघ का ज़माना था। दर्पण के लोगों द्वारा आला अफसर के मंचन का कार्यक्रम सोवियत संघ के कई शहरों में बनाया गया। सोवियत संघ के ख़र्च पर । सभी कलाकारों के पासपोर्ट आदि बन गए। तारीखें तय हो गईं। सब ने जाने की अप्रतिम तैयारी कर ली। ऐन वक्त पर मुद्राराक्षस बिदक गए। सोवियत संघ में एक परंपरा सी थी कि नाटक के मंचन के लिए लेखक की लिखित अनुमति भी ज़रूरी होती थी। मुद्राराक्षस ने लिखित अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया। दर्पण के लोगों ने बहुत समझाया। मनुहार किया। कहा कि आप को भी चलना है। मुद्रा बोले , मुझे जाना ही नहीं है । सोवियत संघ में आला अफ़सर का वह मंचन रद्द हो गया । दर्पण के लोग इस बाबत आज भी मुद्राराक्षस को माफ़ नहीं करते । मुद्रा का नाम आते ही किचकिचा पड़ते हैं । गरिया देते हैं । असल में मुद्रा के यहां असहमतियां बहुत हैं और उन से असहमत लोग भी बहुत हैं । बेभाव कहिए या थोक के भाव कहिए ।
मुद्राराक्षस ने राजनीतिक जीवन भी जिया है । दो बार चुनाव भी लड़ा है इसी लखनऊ में और अपनी ज़मानत भी ज़ब्त करवाई है । लेकिन राजनीति में भी कभी उन्हों ने समझौता नहीं किया है। कभी किसी के पिछलग्गू नहीं बने हैं । किसी की परिक्रमा नहीं की है । गरज यह कि साहित्य और ज़िंदगी की तरह वह राजनीति में भी सर्वदा अनफिट ही रहे हैं । नरसिंहा राव तब के दिनों प्रधानमंत्री थे। मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे । डंकल प्रस्ताव की दस्तक थी । पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह लखनऊ के एक सेमिनार में आए थे । सहकारिता भवन में आयोजित डंकल प्रस्ताव के खिलाफ यह सेमिनार था । तमाम ट्रेड यूनियन के लोग उस में उपस्थित थे । विश्वनाथ प्रताप सिंह तब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे । मुद्राराक्षस तब के दिनों लखनऊ शहर जनता दल के अध्यक्ष थे । कार्यक्रम शुरू होने की औपचारिकता हो चुकी थी । विश्वनाथ प्रताप सिंह मंच पर उपस्थित थे । अचानक मुद्राराक्षस आए । सुरक्षा जांच के तहत मेटल डिटेक्टर से गुज़रने को उन्हें कहा गया। मुद्रा बिदक गए। सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें समझाया कि पूर्व प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ी यह प्रक्रिया है । मुद्रा का बिदकना जारी रहा । कहा कि मैं उन की पार्टी का शहर अध्यक्ष हूं , मुझ से भी ख़तरा है उन्हें ? और जब बिना जांच के उन्हें घुसने से मना कर दिया गया तो वह पलट कर कार्यक्रम से बाहर निकल गए । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंच पर बैठे ही बैठे सब देख रहे थे । उन्हों ने कुछ कार्यकर्ताओं से कहा कि अरे , मुद्रा जी नाराज़ हो कर जा रहे हैं । उन्हें मना कर ले आइए । उन्हों ने पूर्व विधायक डी पी बोरा और उमाशंकर मिश्रा को इंगित भी किया । यह लोग लपक कर मुद्रा के पीछे लग गए । मुद्रा को मनाने लगे । लेकिन मुद्रा तो यह गया , वह गया हो गए । विधान भवन तक लोग मुद्रा को मनाते हुए आए । लेकिन मुद्रा नहीं लौटे तो नहीं लौटे । मैं उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' में था । कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए आया था । लेकिन कार्यक्रम छोड़ कर मैं भी साथ-साथ लग लिया यह देखने के लिए कि मुद्रा मानते हैं कि नहीं । मैं ने देखा कि मुद्रा किसी की बात सुनने को भी तैयार नहीं थे । लगातार कहते रहे कि अब इस अपमान के बाद लौटना मुमकिन नहीं है ।
मुद्राराक्षस के साथ ऐसी अनगिन घटनाएं उन के जीवन में उपस्थित हैं । भारत में उन दिनों विदेशी चैनलों की दस्तक और आहट के दिन थे । वर्ष 1996 की बात है । मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने स्टार में एडवाइजर बनाने के लिए बात करने को बुलाया था । निमंत्रण प्रस्ताव के साथ ही डॉलर वाला चेक भी नत्थी था । उन दिनों मैं 'राष्ट्रीय सहारा' में आ चुका था । एक दिन मुद्रा जी 'राष्ट्रीय सहारा' आए और रूपर्ट मर्डोक की वह चिट्ठी दिखाई सब के बीच और डॉलर वाला चेक भी । कहने लगे कि लेकिन मैं जाऊंगा नहीं । मेरे मुंह से निकल गया कि फिर यह चेक भी क्यों दिखा रहे हैं ? मुद्रा हंसे । और वह डॉलर वाला चेक तुरंत फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया । मुद्राराक्षस के बहुत से उपकार मुझ पर हैं । पर एक उपकार के ज़िक्र का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं । एक बार नागर जी पर लिखे एक संस्मरणात्मक लेख में संकेतों में ही सही उन की ज़िंदगी में आई कुछ स्त्रियों का ज़िक्र कर दिया था । नागर जी से अपनी एक पुरानी बातचीत के हवाले से । राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पृष्ठ पर यह संस्मरणात्मक लेख छपा था । उस में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था । लेकिन दफ़्तर के ही कुछ सहयोगियों ने नागर जी के सुपुत्र शरद नागर को भड़का दिया । शरद नागर मेरे ख़िलाफ़ लिखित शिकायत ले कर उच्च प्रबंधन के सम्मुख उपस्थित हो गए । मुझ से स्पष्टीकरण मांग लिया गया । मैं ने स्पष्टीकरण तो दे दिया पर संकट फिर भी टला नहीं था । जाने कैसे मुद्राराक्षस को यह सब पता चल गया । फोन कर के मुझ से दरियाफ़्त किया । मैं ने पूरा वाकया बताया। मुद्रा बोले , इस में ग़लत तो कुछ भी नहीं है । तुम ने कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बल्कि बहुत कम लिखा है । ऐसे विवरण तो बहुत हैं नागर जी के जीवन में । मुझे बहुत पता है । और फिर कई और सारे वाकये बताए उन्हों ने ।मुद्रा यहीं नहीं रुके । बिना मेरे कहे उच्च प्रबंधन से भी वह अनायास मिले और मेरी बात की पुरज़ोर तस्दीक की । कहा कि कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बात ख़त्म हो गई थी ।
हज़रतगंज के काफी हाऊस में उन के साथ बैठकी के तमाम वाकये हैं । लेकिन एक वाकया भुलाए नहीं भूलता। एक जर्मन स्कालर आई थी । वह भारतीय नाटकों और संगीत के बारे में जानना चाहती थी । वीरेंद्र यादव , राकेश , आदि कुछ और लोग भी थे । हिंदी उस की सीमा थी । अंगरेजी और संस्कृत लोगों की सीमा थी । अचानक मुद्राराक्षस ने हस्तक्षेप किया । और जिस तरह बारी-बारी संस्कृत और अंगरेजी में धाराप्रवाह बोलना शुरू किया , वह अद्भुत था । हम अवाक् देखते रहे मुद्रा को । एक बार ऐसे ही कैसरबाग़ के कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में संस्कृत के कोट दे-दे कर भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की धज्जियां उड़ाते मैं मुद्रा को देख चुका था । लेकिन काफी हाऊस में मुद्रा की यह विद्वता देख कर मैं ही क्या सभी दंग थे । काफी हाऊस में पिन ड्राप साइलेंस था तब । भारतीय नाटकों और संगीत पर ऐसी दुर्लभ जानकारियां मुद्रा जिस अथॉरिटी के साथ परोस रहे थे , जिस तल्लीनता से परोस रहे थे वह विरल था । वह जर्मन स्कालर जैसे गदगद हो कर गई थी । उस की गगरी भर गई थी , ज्ञान के जल से । मुद्रा के लिए उस के पास आभार के शब्द नहीं रह गए थे । निःशब्द थी वह । और हम मोहित । बाद के दिनों में एक दोपहर रस रंजन के समय इस घटना का ज़िक्र बड़े सम्मोहन के साथ मैं ने श्रीलाल शुक्ल से एक बैठकी में किया। श्रीलाल जी अभिभूत थे यह सुन कर। फिर धीरे से बोले अध्ययन तो है ही उस आदमी के पास। मैं ने जोड़ा , और शार्पनेस भी । श्रीलाल जी ने हामी भरी, सांस ली । और अफ़सोस के साथ बोले पर इस सब का तो वह लगभग दुरूपयोग ही कर रहे हैं ! लखनऊ मेरा लखनऊ में मनोहर श्याम जोशी ने आज के मुद्राराक्षस को तब के सुभाष चंद्र गुप्ता को जिस तरह उपस्थित किया है वह भी अविस्मरणीय है ।
प्रश्न - आपके करीबी मित्रों में सुशील सिद्धार्थ जी भी हुआ करते थे। जिन्हें याद करते हुए आपने लिखा कि उन्हें देखते ही आपको मजरुह सुल्तानपुरी का यह गीत याद आ जाता है -' ज़माने ने मारे जवां कैसे-कैसे ,ज़मीं खा गई आसमां कैसे-कैसे।' ऐसे सुशील सिद्धार्थ जी से मैं कई बार मिला, हर बार बड़ी आत्मीयता से वह मिले। फ़ोन पर भी अक्सर बातें हो जाया करती थीं। जब उन्हें अपनी दस लम्बी कहानियों का संग्रह ' मेरी जनहित याचिका ' भेजा तो करीब महीने भर बाद उनका फ़ोन आया। संग्रह की कई कहानियों की प्रशंसा करते हुए पूछा, ' अगला कोई संग्रह तैयार है क्या ? ' मेरे हाँ कहते ही पूछा, ' आप लखनऊ में कहाँ रहते हैं ? ' बताया तो कहा, ' वहीं पास में मैं भी रहता हूँ। अगले महीने मैं आ रहा हूँ,आपसे मिलूंगा। अपना कहानी संग्रह तैयार रखियेगा,उसे मैं पब्लिश करवाऊंगा।' जहां तक मैं सही याद कर पा रहा हूँ उस समय वह किताबघर प्रकाशन में थे। इतनी बातें याद करने का मेरा उद्देश्य था उनकी विनम्रता,मिलनसारिता को याद करते हुए आपसे यह जानना कि आप तो उनके बेहद करीब थे, मित्र थे, आप ही उनके व्यक्तित्व कृतित्व के विषय में विस्तार से बता सकते हैं,कैसे याद करते हैं अब उन्हें ?
उत्तर - हम नींव के पत्थर हैं , तराशे नहीं जाते। सुशील सिद्धार्थ वही नींव के पत्थर हैं। अब गुमनाम हैं। अपने समय के वह गोल्ड मेडलिस्ट थे। एक गोल्ड मेडलिस्ट का बेरोजगारी में सुशील सिद्धार्थ हो जाना शीर्षक से एक संस्मरण लिखा है। सुशील सिद्धार्थ स्प्वायल जीनियस हो कर रह गए थे। मुद्राराक्षस से ज़्यादा समझौते थे सुशील सिद्धार्थ के पास। फुटकर काम में इस क़दर खर्च होते गए कि कुछ बड़ा कर ही नहीं पाए। लखनऊ से लगायत दिल्ली तक अनेक लोगों ने उन का बेतरह शोषण किया।
प्रश्न - लखनऊ में ही हरिचरन प्रकाश, शिवमूर्ति, चंद्रेश्वर, सुधाकर अदीब, सूर्य प्रसाद दीक्षित, नरेश सक्सेना, अखिलेश, महेंद्र भीष्म, शैलेन्द्र सागर, डॉ. अमिता दुबे जैसे साहित्यकार भी हैं,मेरी जानकारी के अनुसार यह सभी आपकी मित्र सूची में हैं। हिंदी साहित्य की समृद्धि हेतु किये जा रहे इनके योगदान के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर - आप ऐसे प्रश्न पूछ कर मुझे क्यों फंसा रहे हैं। सच बोलने के लिए अभिशप्त हूं। कई लोग नाराज हो सकते हैं मेरे जवाब से। सभी आदरणीय मित्र हैं। सभी मेरे शुभचिंतक हैं। फिर भी अब जब सवाल हैं तो जवाब हाजिर हैं। जिस क्रम से आप ने नाम लिए हैं , उसी क्रम से जवाब हाजिर है। हरिचरन प्रकाश बड़े कथाकार हैं। हरिचरन प्रकाश को लोगों ने अंडररेटेड लेखक बना कर रखा है। क्यों कि वह चुपचाप रच कर सो जाते हैं। जिस को पढ़ना हो पढ़े। न पढ़ना हो , न पढ़े। वह किसी झंझट में नहीं पड़ते। न किसी को पटाते हैं , न किसी का विरोध करते हैं। कायस्थीय कमनीयता भरपूर है पर कुटिलता नहीं है। अयोध्या के रहने वाले हैं। सो 'मांग के खाइबो, मसीत में सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ' के हामीदार हैं। हरिचरन प्रकाश अपने लेखक को प्रमोट करने के चक्कर में कभी नहीं पड़े। अभी तक तो नहीं पड़े। प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। बहुत से महत्वपूर्ण पद पर रहे हैं। राजभवन में भी रहे। चाहते तो अपने लेखक के लिए क्या - क्या नहीं कर लेते। पर कभी किसी पत्रिका को किसी विभाग से या किसी कारपोरेट सेक्टर से एक पैसे का विज्ञापन भी नहीं दिलवाया। अपने लिए कोई आयोजन नहीं करवाया। जब कि कई सारे सरकारी अफसर लेखक ऐसा करने के लिए परिचित हैं। कभी किसी से कोई सिफ़ारिश नहीं की कि मेरे लिए यह लिख दीजिए या छाप दीजिए। जब कि एक से एक कहानियां और उपन्यास हैं उन के पास। गृहस्थी का रजिस्टर उन की नायाब कहानी है। तस्वीर का तिलक जैसी क्लासिक रचना है हरिचरन प्रकाश के पास। नौकरी में रहते हुए ऐसी रचना की हिम्मत कर पाना कठिन है। अखंड प्रताप सिंह बहुत पावरफुल आई ए एस अफ़सर हुए हैं। मुख्य सचिव भी हुए उत्तर प्रदेश के। अखंड प्रताप सिंह के भ्रष्टाचार पर ऐसी कसी कथा लिखना बहुत साहस का काम था। दुस्साहस कह सकते हैं। तलवार की धार पर चलना था। हरिचरन प्रकाश लेकिन चले। हरिचरन प्रकाश ने अनुपात में लिखा बहुत कम है पर हिंदी में ऐसी सूक्ष्म विवरण वाली कहानी या तो कामतानाथ के पास है या हरिचरन प्रकाश के पास। अपने - अपने युद्ध पर जब हाईकोर्ट में कंटेम्प्ट चल रहा था तब लखनऊ के लेखकों में अकेले हरिचरन प्रकाश ही थे जो साहस और सहानुभूति के साथ मेरे साथ खड़े थे। एक बार न्यायपालिका के ख़िलाफ़ एक लंबी चिट्ठी लिखी थी। खौलती हुई चिट्ठी। जिसे न्यूज़ एजेंसी भाषा के तत्कालीन संपादक मधुकर उपाध्याय तब देश भर के अख़बारों के लिए जारी करने के लिए तैयार थे। लेकिन हरिचरन प्रकाश ने सलाह दी कि इस से बचिए। क्यों कि कंटेम्प्ट में तो आप फिर भी फिक्शन बता कर , काल्पनिक बता कर बच निकल सकते हैं। पर इस खुली चिट्ठी के प्रकाशन के बाद आप जेल ज़रूर जाएंगे। कोई नहीं रोक सकता। क्यों कि यह सीधा हमला है न्यायपालिका पर। और जब आप जेल जाएंगे तो जिस नौकरी में हैं , मालिकान तुरंत निकाल बाहर करेंगे। सरकारी घर भी छिन सकता है। बीवी बच्चे सड़क पर आ जाएंगे। कोई पूछेगा नहीं। जेल में भी परिवार वाले ही मिलने जाएंगे। कोई लेखक , पत्रकार नहीं। पता नहीं कितना समय जेल में रहना पड़ेगा। एक बार सोच लीजिए। ऐसी ही राय कुछ वकील मित्रों की भी थी। मैं ने वह चिट्ठी जारी नहीं करवाई। रुक गया। हरिचरन प्रकाश ने यह राय अपने प्रशासनिक अनुभव से दिया था। प्रशासनिक अनुभव पर हरिचरन की कुछ कहानियां भी बड़ी मार्मिक है। एक कहानी में उन का संवाद , ' भैया भूसा ! ' आज तक बेधता रहता है।
शिवमूर्ति हरिचरन प्रकाश से उलट हैं। शिवमूर्ति भी बड़े कथाकार हैं। पर ओवररेटेड लेखक हैं शिवमूर्ति। जितना शिवमूर्ति ने लिखा है , उस से ज़्यादा उन पर लिखा गया है। बहुत मोटे -मोटे विशेषांक निकले हैं उन पर। बहुतेरे सम्मान शिवमूर्ति के खाते में हैं। 'लमही' सम्मान जब मिला तब लमही ने शिवमूर्ति पर एक विशेषांक भी निकाला। दिल्ली से अशोक वाजपेयी लखनऊ आए उन्हें सामनित करने के लिए। इस अवसर पर अशोक वाजपेयी ने लंबा भाषण भी दिया। अशोक वाजपेयी यहां-वहां की सारी बात करते रहे लेकिन भूल कर भी शिवमूर्ति का नाम नहीं लिया। न शिवमूर्ति की किसी रचना का। सारा समारोह अशोक वाजपेयी का समारोह बन कर रह गया। जब शिवमूर्ति को 'लमही' सम्मान देने के लिए अशोक वाजपेयी के आने की सूचना दी गई तभी लमही के संपादक विजय राय से मैं ने कहा था कि अशोक वाजपेयी शिवमूर्ति के लिए उपयुक्त आदमी नहीं हैं। पर विजय राय मुंह में पान दबाए हूं -हूं करते रहे। कुछ बोले नहीं। बाद में शिवमूर्ति से कहा कि अपनी कुछ किताबें अशोक वाजपेयी को पहले ही भेज दिए होते। शिवमूर्ति बहुत अनमना हो कर बोले , ' दिल्ली में अशोक वाजपेयी के घर जा कर जहाज के टिकट के साथ ही सारी किताबों का सेट दे आया था। फिर भी नहीं बोले तो क्या करें ! ' बात सही भी थी। किताब नहीं पढ़ पाए अशोक वाजपेयी तो कोई बात नहीं। सामने लमही विशेषांक भी था। क्या वह भी नहीं देख पाए वह। सुनते हैं , इसी तरह एक समय नामवर सिंह को संजीव को सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था। नामवर सिंह आए भी। पर अपने लंबे भाषण में संजीव या संजीव की किसी रचना का नाम भूल कर भी नहीं लिया। जो भी हो अशोक वाजपेयी भले शिवमूर्ति का नाम न लें पर शिवमूर्ति की स्वीकार्यता बहुत है। दूर - दूर तक है। उन के संबंध भी लोगों से बहुत हैं। आत्मीय संबंध।
लेकिन भ्रष्टाचार या सिस्टम से लड़ने की कथा शिवमूर्ति के यहां अनुपस्थित है। तस्वीर का तिलक जैसी कोई साहसिक रचना नहीं है शिवमूर्ति के पास। जब कि वह भी सरकारी नौकरी में रहे हैं। परम भ्रष्ट विभाग में। लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ शिवमूर्ति के पास कोई कहानी नहीं है। एक समय धूमकेतु की तरह हिंदी कथा जगत में छा गए थे शिवमूर्ति। पांच दशक बाद कसाईबाड़ा का डंका आज भी बजता मिलता है। सिरि उपमा जोग जैसी मासूम कहानी ले कर वह उपस्थित थे। अबोध और निःशब्द कर देने वाली कहानी। केसर कस्तूरी और भरत नाट्यम जैसी अविरल कहानी। बेरोजगारी पर भरतनाट्यम जैसी दूसरी कथा नहीं है हिंदी में। शिवमूर्ति , संजीव की छाया में पहले ही से रहे हैं। दोनों के गांव आसपास हैं। गाढ़ी दोस्ती है दोनों की। संजीव तो शिवमूर्ति से इतने उपकृत हैं कि कहते हैं , अगले जन्म में शिवमूर्ति का बैल बनूंगा। बहरहाल बाद के समय में शिवमूर्ति , संजीव की कथा छाया में भी आ गए। जातीय विमर्श में फंस गए। रचना और जीवन में उन की प्राथमिकताएं बदलती गई हैं। यह उन का अपना चयन है। कोई कौन होता है ऐतराज करने वाला। मैं भी नहीं।
किसी के ऐतराज से न कोई रचना रुकती है , न समझ , न दृष्टि , न प्राथमिकता। रुकनी भी नहीं चाहिए। बहरहाल शिवमूर्ति के फिसलन की यह यात्रा तर्पण से शुरू हुई। संजीव ने एक बार शिवमूर्ति के गांव में हुए कार्यक्रम में प्रेमचंद होने की इच्छा जताई थी। कहा था कि प्रेमचंद को छूना चाहता हूं। तब मैं ने एक लेख भी लिखा था कहां प्रेमचंद , कहां संजीव। दोनों ही लोग नाख़ुश हो गए। संजीव भी , शिवमूर्ति भी। संजीव और शिवमूर्ति को कोई बताने वाला नहीं है कि प्रेमचंद हों या दुनिया का कोई दूसरा रचनाकार , जातीय विमर्श में फंस कर कालजयी रचना से फिसल जाता है। वर्ग संघर्ष और जातीय संघर्ष दोनों दो बात है। सांप्रदायिक लेखन हो या जातीय लेखन रचना को संकीर्ण बनाता है। रचना का धरती और आकाश दोनों ही छीन लेता है जातीय विमर्श। विवरण भले हो पर लक्ष्य जातीय विमर्श से मुक्त होना चाहिए। बुद्ध कहते थे कि अगर आप मेरे विचार को समझ चुके हैं तो मुझे छोड़ कर आगे बढ़िए। शिवमूर्ति भी अपने पुराने विचार छोड़ कर बहुत आगे निकल गए हैं। इतना कि अब उन्हें राम राज से भी डर लगने लगा है। ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मुसलमानों को मोदी राज में बहुत डर लगता है। असुरक्षित महसूस करते हैं। वह चाहे पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी हों , नसीरुद्दीन शाह हों , आमिर ख़ान , शाहरुख़ ख़ान हों। या अन्य मुसलमान। तो शिवमूर्ति को भी राम राज की चर्चा से भी डर लग जाता है। संविधान का राज है , देश में वह यह भूल जाते हैं। महात्मा गांधी भी राम राज की कल्पना करते थे देश में। गो कि वह संघी या भाजपाई नहीं थे। राम राज से अभिप्राय उन का आदर्श राज्य से था। वैसे किसी के चाहने से राम राज कभी देश में नहीं आ सकता है। क्यों कि देश में राजतंत्र नहीं , प्रजातंत्र है।
शायद पोलिटिकली करेक्ट होने की मुहिम का नतीज़ा है यह। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसे ही तो कहते हैं। इसी जातीय विमर्श में फंस कर एक बार रामविलास शर्मा और नामवर सिंह पर भी शिवमूर्ति बहुत कुपित हुए थे। सामंती और जाने क्या - क्या बता दिया था। बहुत अशोभनीय आरोप लगाए थे। विष - वमन की पराकाष्ठा थी। असहमत होने का मतलब विष - वमन नहीं होता। शिवमूर्ति तब यह शायद भूल गए थे। चौतरफा घिर गए तो चुप लगा गए। यह अलग बात है। प्रेमचंद की रचनाओं में लगभग सभी खल पात्र ब्राह्मण हैं। यहां तक कि एक कहानी में पटवारी भी ब्राह्मण ही है। तो भी जातीय विमर्श और उस की नफ़रत प्रेमचंद के यहां अनुपस्थित है। अगर प्रेमचंद पूड़ी तरकारी लिखते हैं तो आप के मुंह में पूड़ी तरकारी आ जाती है। यह आसान नहीं है। प्रेमचंद इसी लिए प्रेमचंद हैं। प्रेमचंद की एक कहानी है पंच परमेश्वर। सरस्वती में इसे जब छपने के लिए भेजा तो शीर्षक दिया पंचों के भगवान। सरस्वती के तब संपादक थे महावीर प्रसाद द्विवेदी। उन्हों ने न सिर्फ़ कहानी का पुनर्लेखन किया बल्कि शीर्षक भी बदल दिया। पंचों के भगवान और पंच परमेश्वर में बहुत फ़र्क़ है। इतना ही नहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्रेमचंद को अपनी आलोचना में प्रतिष्ठित किया। न महावीर प्रसाद द्विवेदी ने , न रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद के खल पात्र ब्राह्मण हैं। छोड़ो इसे। तो इस लिए कि प्रेमचंद जातिवादी नहीं थे। उन की रचनाओं में जातीय नफ़रत नहीं थी। होती तो नमक़ का दारोगा कहानी का अंत जैसे हुआ है , न होता। अलग बात है कि नमक़ का दारोगा प्रेमचंद की बड़ी कमज़ोर कहानी है।
तुलसी बहुत बड़े कवि हैं। दुनिया के बड़े कवि हैं। संयोग से शिवमूर्ति तुलसी को बहुत जानते हैं। संजीव भी सुनते हैं कभी तुलसी को ख़ूब गाते थे। बजा - बजा कर गाते थे। पर लाख लोकप्रियता के बावजूद वर्णवाद के लिए तुलसी की कुछ लोग निंदा करते मिलते हैं। संजीव तो अब इस समझने से पार निकल चुके हैं। शिवमूर्ति शायद कभी समझें। क्या पता ! शिवमूर्ति की कथा पर फ़िल्में भी बनी हैं। चली नहीं , न चर्चित हुईं यह दूसरी बात है। अभी सौ से अधिक पात्रों वाला 'अगम बहै दरियाव' नाम से एक मोटा सा उपन्यास आया है। मैं ने पढ़ा नहीं है। पर चर्चा हो रही है। फ़ेसबुक पर उपलब्ध सूचना के मुताबिक़ संभवत: अनुवाद की भी बात हो रही है। शिवमूर्ति से भी मेरे अच्छे संबंध हैं। उन के गांव कुरंग भी गया हूं। धान फूटते गोभी वाले गांव में एक संस्मरण भी लिखा है। शिवमूर्ति ने मेरे दो उपन्यासों की बढ़िया समीक्षा भी लिखी है। ख़ास कर 'लोक कवि अब गाते नहीं' की। लोक कवि अब गाते नहीं को शिवमूर्ति ने जिस तरह समझा , शायद किसी और लेखक और आलोचक ने नहीं। 'एक औरत की जेल डायरी' पर भी बढ़िया समीक्षा लिखी थी शिवमूर्ति ने। 'विपश्यना में प्रेम' पर लिखा तो नहीं पर एक क्या दो कार्यक्रमों में ख़ूब बोले और प्रशंसा की।
आरा से आ कर , बलरामपुर में पढ़ा कर लखनऊ में बसे चंद्रेश्वर की कविता में अकुलाहट बहुत है। उन के जीवन में भी। जीवन में भी वह सुखी हैं और अपनी रचना से भी सुखी हैं। बहुत जल्दी ख़ुश हो जाते हैं , बहुत जल्दी नाराज। पर साथ ही किसी और को नाराज करने से बचते हैं। शिवमूर्ति की तरह सब को साध कर चलते हैं। अपने जनपद आरा और अपनी मातृभाषा भोजपुरी के गायक हैं। वामपंथियों से बहुत सट कर रहते हैं पर वामपंथी कर्मकांड में अपने को फिट नहीं पाते। परंपराओं में यक़ीन करने वाला आदमी कभी वामपंथी नहीं हो पाता। चंद्रेश्वर भी नहीं हो पाते। वामपंथियों के बीच उन का दम घुटता है। पर निभा रहे हैं। जाने कब तक निभा पाएंगे। वामपंथियों ने एक गिमिक रच रखा है कि जो वामपंथी नहीं , कवि नहीं। बहुत लोग इस बीमारी के शिकार हैं। चंद्रेश्वर की पत्नी इंदु जी भी कविता लिखती हैं। उन का बेटा भी।
सुधाकर अदीब तो हमारे अग्रज हैं। बहुत सरल और सहज हैं। प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। लेकिन ब्यूरोक्रेसी की ज़रा भी बू नहीं रही कभी। उन की आत्मकथा मानुष पुराण में बहुत से रंग हैं। कई विभाग और कई ज़िलों में रहे हैं। पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के दो बार निदेशक रहे हैं। बहुतों पर उपकार किए हैं लेकिन वह लोग इन्हें भूल गए। तपस्वी रचनाकार हैं। अमृतलाल नागर की परंपरा के रचनाकार हैं। वृंदावन लाल वर्मा की परंपरा के रचनाकार हैं। बहुत शोध , बहुत विचार , बहुत ठहर कर लिखते हैं। उन के लेखन में कथा और सूचना का पाग मिलता है। 'मम अरण्य' में वह लक्ष्मण कथा के बहाने रामकथा लिखते हैं तो 'शाने तारीख़' में शेरशाह सूरी की कथा। 'रंग राची' में मीरा की , 'कथा विराट' में सरदार पटेल की , 'महापथ' में आदि शंकराचार्य की कथा। 'बर्फ़ और अंगारे' में कश्मीर के आतंकवाद की कथा। आसान नहीं है इन विषयों पर लिखना। वह भी इतने मोटे-मोटे उपन्यास के रूप में। इन उपन्यासों में कथारस तो है ही। सूचनाएं भी अपरंपार हैं। बहुत समृद्ध करते हैं सुधाकर अदीब के यह उपन्यास। बहुत से लोगों की जीवनी और आत्मकथाएं भी लिखी हैं। कहानियां और कविताएं भी। हरफन मौला हैं। झूम कर गाते हैं। सुनाते हैं। लेकिन अंडररेटेड लेखक हैं। जितनी ख्याति मिलनी चाहिए , नहीं मिली। जो धूम मचनी चाहिए थी , नहीं मची। लेखकीय राजनीति की यह काली कथा है। हरिचरन प्रकाश की तरह सुधाकर अदीब ने भी कभी अपने लेखक को प्रमोट नहीं किया। अपने लेखक पर खर्च नहीं किया। कुछ प्लांट नहीं किया। लिखा और सो गए। जिन को पढ़ना हो , चर्चा करना हो करे। न करना हो न करे। वैसे भी लेखक का काम लिखना ही है। पी आर करना नहीं। पी आर मतलब जनसंपर्क और प्रचार।
सूर्य प्रसाद दीक्षित आचार्यों के आचार्य हैं। उन का अध्ययन विशद है। अद्भुत , ओजस्वी और अतुलनीय वक्ता हैं। जैसे उन की जीभ पर सरस्वती सर्वदा बसी रहती हैं। उन की वाणी में ओज और प्रवाह है। विषय से सूत भर भी इधर - उधर नहीं होते। देश विदेश घूमते रहे हैं , व्याख्यान देने के लिए। जाने कितनों की ज़िंदगी संवारी है। साहित्य की सभी शीर्ष पुरस्कार समितियों , यथा साहित्य अकादमी , ज्ञानपीठ , व्यास , हिंदी संस्थान आदि में रहते ही हैं। तमाम नियुक्तियों में भी वह बोर्ड में होते हैं। तमाम इंटरव्यू बोर्ड के पैनल में नियमित रहे हैं। आई ए एस अफसरों के इंटरव्यू बोर्ड में भी मुसलसल रहे हैं। तमाम सरकारी विभागों , रेल आदि के बोर्ड में भी। विश्वविद्यालयों में भी। हज़ारों नौकरियां दी हैं। ज्ञान के सागर हैं। भाषा के धनी। मैं तो जब भी कभी शब्दों को ले कर फंसता हूं , किसी जानकारी को ले कर फंसता हूं , तुरंत दीक्षित जी को याद करता हूं । देर रात में भी वह फ़ोन उठा लेते हैं। चुटकी बजाते ही शंका का समाधान कर देते हैं। कभी टाल मटोल नहीं करते। जब रिपोर्टर था तब कई बार रात में ही खबरें लिखनी होती थीं। किसी मोड़ पर , किसी भी विषय पर दीक्षित जी मदद कर देते थे। भले क्राइम की ख़बर हो , राजनीति की हो या साहित्य संस्कृति की। पूरी इनसाइक्लोपीडिया हैं। भारतीय परंपरा और वांग्मय के अनूठे विद्वान। पुराने लेखकों के अनेक क़िस्से उन के पास हैं। क्या नहीं पढ़ा है। अभी एक भाषण में बच्चों के साहित्य , कॉमिक्स और फ़िल्मों पर भी भाषण देते मिले। बिना किसी नोट के। साहित्य अकादमी का कार्यक्रम था। बाल साहित्य के लेखकों का सम्मान था और दीक्षित जी को सुनना एक नए सिरे का अनुभव था। हिंदी के विद्वान हैं पर अपनी अवधी पर उन्हें बहुत नाज़ है। सूर्य प्रसाद दीक्षित सिर्फ़ नाम के ही नहीं , ज्ञान के भी सूर्य हैं। विनम्रता और सहजता अपनी विद्वता के साथ समोए रखते हैं। ऐसे जैसे माखन और मिसरी। लखनऊ में तो इकलौते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के मुख्य स्तंभ रहे हैं। पत्रकारिता विभाग खोलना और उसे यश तक पहुंचाने के लिए भी सूर्य प्रसाद दीक्षित परिचित हैं। जाने क्यों वामपंथी लोग इन से बहुत चिढ़ते हैं। शायद इन की विद्वता से कि इन की परंपरा से। पर सूर्य प्रसाद दीक्षित इकलौते हैं अपनी परंपरा और विद्वता में। बिना किसी खेमेबाजी के। आप खेमे में हैं , नहीं हैं , यह आप जानिए। वह आप के साथ हैं। हर किसी के साथ हैं। अपनी सहजता और सरलता के साथ। कभी उन के घर जाइए , उन की लाइब्रेरी देखिए। फर्श से छत तक पूरे घर में किताबें ही किताबें। हर विधा की। एक बार पूछा कि पेंटिंग आदि कैसे करवाते हैं ? कहने लगे पेंटिंग करवाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। यह किताबें ही घर की शोभा हैं। सचमुच सूर्य प्रसाद दीक्षित हमारी शोभा हैं। हम उन से जब भी मिलते हैं , मिल कर समृद्ध होते हैं। होते ही रहते हैं।
नरेश सक्सेना हमारे प्रिय कवि हैं। आदरणीय हैं। दिल के बहुत साफ़ हैं। कुछ बहुत अच्छी कविताओं के नरेश हैं वह। नरेश सक्सेना का काव्यपाठ आह्लादित करता है। अपनी ही नहीं बहुतेरे कवियों की कविताओं का पाठ वह बहुत मन से करते हैं। तुलसी से लगायत राजेश जोशी तक की कविताएं वह बड़े ठाट से सुनाते हैं। तन्मय हो कर। बहुत विह्वल हो कर। किसी कवि के बारे में , कविता के बारे में उन से कभी भी पूछ लीजिए , सहसा बिना समय लिए बता देंगे। पुल पार करने से / पुल पार होता है / नदी पार नहीं होती / नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना/ पुल पार करने से नदी पार नहीं होती या फिर शिशु लोरी के शब्द नहीं / संगीत समझता है पहले अर्थ समझता है जैसी कविताएं नरेश जी की थाती हैं। नरेश जी बांसुरी बहुत अच्छी बजाते हैं। माऊथ आर्गन भी। तो शायद इसी लिए उन की कविताएं विपदा की नदी से पार ले जाती हैं। उन की कविताओं की बांसुरी बहुत सुरीली है। उन के जीवन में हलचल बहुत है और कविताओं में इस हलचल की गूंज। पत्नी को पहले ही खो चुके थे , बीच कोरोना में जवान बेटे को खो कर भी ख़ुद को न सिर्फ़ संभाले हुए है , बहू और पोते को भी। यह आसान नहीं है। इस दुःख और इस उम्र के बावजूद उन की सक्रियता चकित करती है। वह लोगों से दो - दो हाथ भी कर लेते हैं। यह और विस्मयकारी है। बीच में वह लगभग किसी एक्टिविस्ट की तरह सक्रिय थे। पर लोगों ने उन्हें समझा नहीं। वीरेंद्र यादव जैसे लोगों ने उन पर बहुत अश्लील हमले किए। पर वह टूटे नहीं। निहत्थे लड़ने के कायल हैं वह। एक और घटना घटी कि वह छ घंटे डिजिटल अरेस्ट रहे। कविता और बांसुरी सुनाते रहे। छ घंटे तक। लिख कर सब को बताया। नरेश सक्सेना लेकिन दिल के बहुत साफ़ हैं। बहुत भावुक , बहुत उत्साही। उन की कविताएं बोलती हैं। फिर भी नरेश सक्सेना ओवररेटेड कवि हैं। कवियों , लेखकों में उन की दोस्ती बहुत है। धाक भी बहुत। नरेश सक्सेना ख़ेमेबाज नहीं हैं। सब के साथ हैं लेकिन एक ख़ास गिरोह के चंगुल में जब - तब फंस जाते हैं। लखनऊ में रहते हैं पर मध्य प्रदेश से आते हैं। मध्य प्रदेश जैसे कालिदास के बादलों की तरह उन के भीतर सर्वदा घुमड़ता रहता है। यह बादल कालिदास के अज की तरह रोता रहता है।
अखिलेश हमारे मित्र नहीं परिचित हैं। तद्भव के संपादक हैं। कथाकार कमज़ोर हैं , संपादक ताक़तवर। पेचोख़म बहुत हैं इन में। कब किस को काट दें , कब किस को उठा दें , वह भी नहीं जानते। समय - समय की बात है। आप उन के कितने काम के हैं यह इस बात पर मुन:सर करता है।किसी को इग्नोर करना सीखना हो तो यह अखिलेश से आप सीख सकते हैं। इस के आचार्य हैं वह। उन की राजनीति और साज़िश के आगे मुग़लिया सल्तनत शर्मा जाए। बहुत आहिस्ता से वह चोट करते हैं और आप जान भी नहीं पाते। लेकिन अप्रिय बात भी कैसे सहजता से कही जा सकती है , यह भी अखिलेश से सीख सकता है कोई। नहीं करने की अदा भी उन की बहुत न्यारी है। जैसे अनिल यादव से उन्हों ने तद्भव में छापने के लिए एक रचना मांगी। शायद कोई ट्रैवलॉग था। बहुत दिन हो गए तो अनिल यादव ने पूछा अखिलेश से संदेश भेज कर। बताया कि किताब की तैयारी है , कब तक छाप रहे हैं ? अखिलेश ने संदेश भेजा , अब सीधे किताब ही पढ़ते हैं। या ऐसा ही कुछ। 'अपने - अपने ' युद्ध जब छपने की बात हुई तो राजकमल को मना तो किया ही , फिर भी मैं ने तद्भव में समीक्षा के लिए उपन्यास दिया। कहा कि भले धज्जियां उड़ा दीजिए इस की पर समीक्षा करवा दीजिए।
वह हलका सा हंसे और बोले ठीक है। काफी समय बाद एक कार्यक्रम में मिले तो मैं ने पूछा कि क्या हुआ ? तो वह धीरे से बोले , कोई समीक्षा लिखने को तैयार ही नहीं है। क्या करें ! ऐसे ही जब अभी कथा - लखनऊ के लिए कहानी मांगी तो संदेश भेज कर कहा : ' माफ करेंगे, मेरे लिए अपनी कहानी इस संकलन में शामिल करना संभव नहीं हो पा रहा है। दरअसल इसके लिए उत्साह और दिलचस्पी का अभाव है मुझमें । बाकी आपके प्रयत्न की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं । ' तो अखिलेश ऐसे ही हैं। अखिलेश से आप डिप्लोमेसी भी सीख सकते हैं। बाक़ी काम के लिए , किसी का माठा करने के लिए वीरेंद्र यादव आदि जैसे कुछ विश्वस्त साथी भी हैं उन के पास। अखिलेश ने पहले उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में सिफ़ारिश के बूते नौकरी की। फिर नौकरी छोड़ कर दूरदर्शन के लिए धारावाहिक बनाए। भगवती चरण वर्मा की रचना तीन वर्ष पर आधारित धारावाहिक लखनऊ दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। फिर बाद में दिल्ली दूरदर्शन पर भी। लेकिन दोनों जगह से नए प्रसारण की फीस ले ली। जब कि दिल्ली दूरदर्शन से पुनर्प्रसारण की फीस मिलनी चाहिए थी। पर तथ्य छुपाया गया। प्रसारण कंपनी ब्लैक लिस्ट हो गई। पार्टनर राकेश मंजुल से बाद में इस पर विवाद भी हुआ। हम ने एक ख़बर भी तब लिखी थी। अखिलेश ने मुझे बताया कि यह सारा फ्राड राकेश मंजुल का था। मेरा उस से कुछ लेना - देना नहीं।
आज की तारीख़ में कहते हैं कि पत्रिका निकालना नवाबी शौक़ है। इस शौक़ के तहत ही बहुत से लोग पत्रिका निकालने में घर से पैसा लगाते हैं। बिला जाते हैं। पहल के लिए ज्ञानरंजन जैसे लोग भी भारी विज्ञापन के बावजूद घर से पैसा लगाते रहे हैं। बहुत से ऐसे अन्य नाम हैं। हंस के लिए राजेंद्र यादव का भी बहुत लोगों ने कई - कई तरह से सहयोग किया। विज्ञापन से भी , नक़द धन से भी। निरंतर। राजेंद्र यादव ने इस बाबत ख़ुद कई बार लिखा है। प्रभा खेतान , मैत्रेयी पुष्पा , संजय सहाय आदि कई नाम हैं। राजेंद्र यादव को घर खर्च के लिए भी लोग धन देते रहे हैं। इलाज के लिए भी। राजेंद्र यादव के यहां शराब आदि ले कर जाने वालों की लंबी सूची है। कथादेश के लिए हरिनारायण की भी बहुत लोगों ने मदद की है। करते ही रहते हैं। इलाज पर भी खर्च किया है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। लेकिन अखिलेश लखनऊ में रहते ज़रूर हैं पर ऐसा कोई नवाबी शौक़ नहीं पालते। उलटे तद्भव से अपना घर ख़रीदते हैं। अपना घर चलाते हैं। बड़े ठाट बाट से। तद्भव उन की आजीविका है। तद्भव की छपाई और कागज़ का खर्च एक एन जी ओ उठाता है। लेखकों का पारिश्रमिक कोई और देता है। यह सूचना कोई छुपी नहीं है। तद्भव में प्रकाशित होती रही है। फिर हर अंक में लाखों रुपए का विज्ञापन। यह अनूठा मैनेजमेंट भी लोगों को अखिलेश से सीखना चाहिए। लोग कहते हैं कि 1999 में जब तद्भव शुरू हुआ तो श्रीलाल शुक्ल ने उन की बहुत मदद की। कंटेंट से लगायत विज्ञापन तक। प्रवेशांक भी श्रीलाल शुक्ल विशेषांक था। लेकिन रवींद्र कालिया ने भी बहुत मदद की , यह कम लोग जानते हैं। रवींद्र कालिया अखिलेश को बहुत चाहते थे। इतना कि प्रयाग के एक लेखक अखिलेश को रवींद्र कालिया का अर्दली कहते थे। हालां कि यह अशोभन बात है। पर ममता कालिया ने भी लिखा है कि रवि और वह अपने बच्चों को कम समय दे पाते थे। तो उन के बच्चों को घुमाना , सिनेमा दिखाना आदि अखिलेश ही करते थे। यह सब तद्भव में ही छपा है। बाद में एक किताब में भी। तो रवींद्र कालिया ने अखिलेश को अपने मित्र डी पी त्रिपाठी यानी देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलवा दिया। डी पी त्रिपाठी के एन जी ओ ने तद्भव की छपाई और काग़ज़ का जिम्मा ले लिया। डी पी त्रिपाठी विद्वान आदमी थे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और फिर जे एन यू में पढ़ाते रहे। एक समय कांग्रेस में थे। फिर महाभ्रष्ट शरद पवार के साथ आ गए। सो पैसे की कमी नहीं रही कभी।
अखिलेश को देख कर कई बार तुग़लक़ याद आ जाता है। तुग़लक़ को लोग पागल कहते हैं। पर सच यह है कि तुग़लक़ पागल नहीं था। तुग़लक़ क्रूर और शातिर था। दिल्ली से दौलताबाद या चमड़े के सिक्के आदि का चलन इत्यादि वह अपने सूबेदारों को कमज़ोर करने के लिए करता था। उन से तो वह आसानी से निपट लेता था। पर एक मौलवी जब तुग़लक़ के ख़िलाफ़ तन कर खड़ा हो गया। चुनौती दे दी। तो वह मुश्किल में पड़ गया। मुस्लिम अवाम शासन से ज़्यादा धर्म की सुनती है। सो तुग़लक़ परेशान हो गया। ताज और तख़्त ख़तरे में पड़ गया। पर वह मौलवी तुग़लक़ का तख्ता पलट करता उस के पहले ही उस ने नई योजना बना ली। पड़ोसी शासक से संबंध ख़राब कर लिए। युद्ध की नौबत आ गई। अब तुग़लक़ मौलवी के पास गया। कहा कि हमारे आप के मतभेद अपनी जगह हैं। इस को बाद में भी निपटा सकते हैं। पर पहले मुल्क़ की हिफ़ाज़त ज़रूरी है। मुल्क़ रहेगा , तभी हम आप रहेंगे। फिर उस ने मौलवी से कहा कि हम चाहते हैं कि आप भी इस जंग में साथ दें। और बादशाह की तरह लड़ें। बादशाह की सवारी पर लड़ें। एक मोर्चा आप संभालें , दूसरा मोर्चा हम। मूर्ख मौलवी शाही सवारी पर सवार हो कर मोर्चे पर लड़ने चला गया। लड़ाई तो जानता नहीं था , सो मारा गया। दुश्मन खेमे में जश्न शुरू हो गया कि तुग़लक़ मारा गया। दुश्मन के खेमे में जश्न चल ही रहा था कि तुग़लक़ ने अचानक हमला कर दिया। इस तरह मौलवी भी मारा गया और दुश्मन भी।
महेंद्र भीष्म साधारण पात्रों के असाधारण कथाकार हैं। मेरे प्रिय अनुज हैं और प्रिय मित्र भी। किन्नर उन का प्रिय विषय है। किन्नर पर रचनाएं उन की पहचान है। 'किन्नर कथा' उन का बढ़िया उपन्यास है। 'मैं पायल' उन का ज़बरदस्त उपन्यास है। एक सांस में पढ़वा ले जाता है। एक अप्रेषित पत्र तीसरा कंबल , बड़े साब जैसी कहानियां उन की पहचान है। महेंद्र भीष्म अपने लेखक को प्रमोट करने के लिए भी जाने जाते हैं। हाईकोर्ट में होने का लाभ भी उन्हें मिलता है। उन की रचनाओं पर केंद्रित कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। शिवमूर्ति की तरह सब को साथ ले कर चलने वाले महेंद्र भीष्म विवादप्रिय नहीं हैं। किसी से बिगाड़ नहीं करते। अप्रिय नहीं बोलते। कहीं बहुत दिक़्क़त होती है तो चुप रह जाते हैं। बुंदेलखंडी हैं। इसे वह बहुत शान से बताते हैं। उन की रचनाओं में भी बुंदेलखंडी दिखती रहती है। कथा के तौर पर भी , भाषा के तौर पर भी। बुंदेलखंडियों से उन का बड़ा अपनापा है। लेखक हो , अभिनेता हो या कोई और बुंदेलखंडी है तो महेंद्र भीष्म उस से चिपकने में क्षण भर की भी देरी नहीं करते। महेंद्र भीष्म के पिता भी लेखक थे। पिता बृजमोहन अवस्थी के नाम से प्रति वर्ष विभिन्न पुरस्कार भी देते हैं। कुलपहाड़ के रहने वाले महेंद्र भीष्म ने नाटक भी लिखे हैं। इन का मंचन भी होता रहता है।
शैलेंद्र सागर को हम कथाक्रम के कारण बहुत जानते हैं। प्रतिवर्ष होने वाले कार्यक्रम के लिए भी पत्रिका के लिए भी। आदमी शानदार हैं। एक काकस के जबड़े में रह कर भी अपनी चेतना और स्वतंत्रता बचाए रखने के मास्टर हैं। इस लिए हम उन के क़ायल हैं। रुकिए ज़रा। नौशाद याद आ गए हैं। नौशाद के बहाने कुंदन लाल सहगल याद आ गए हैं। नौशाद बताते थे कि सहगल को एक बड़ा भ्रम यह था कि बिना पिए वह अच्छा नहीं गा सकते। ज़्यादातर गाने सहगल ने शराब पी कर ही गाए हैं। शराब को वह नौटांक कहते थे। नौशाद ने सहगल से एक बार कहा कि नौटांक के बिना भी गा कर देखिए। रिकार्ड करते हैं बिना नौटांक के। बाद में सुन कर देखिए। नहीं ठीक लगेगा तो फिर नौटांक ले कर गा दीजिएगा। दुबारा रिकार्ड कर लीजिए। बड़ी मिन्नतों के बाद नौशाद की यह बात सहगल मान गए। पहला गाना जो बिना नौटांक के सहगल का रिकार्ड किया नौशाद ने वह था मज़रूह सुल्तानपुरी का लिखा जब दिल ही टूट गया तो जी कर क्या करेंगे। सहगल ने रिकार्ड होने के बाद यह गाना सुना। और उन्हें लगा कि यह तो बहुत बढ़िया हो गया है। फिर वह बिना नौटांक के नौशाद के लिए गाने लगे। तो शैलेंद्र सागर को भी कभी काकस के जबड़े से पूरी तरह बाहर आ कर सोचना चाहिए। यह सोच कर कि लखनऊ के उस काकस के बिना भी बात बन सकती है।
जो भी हो , जिस समर्पित भाव से अपने पिता आनंद सागर की याद में वह प्रति वर्ष कथाक्रम आयोजित करते हैं वह अप्रतिम है। शैलेंद्र सागर पहले प्रदेश सरकार के प्रशासनिक अधिकारी थे। पर जल्दी ही वह आई पी एस हो गए। पुलिस सेवा में महानिदेशक पद से रिटायर हुए। पर पुलिसिया बू ज़रा भी नहीं है। यारबाश आदमी हैं। उदारता और सहजता उन का स्थाई भाव है। महिलाओं के मामले में कुछ लोग उन्हें मजाक मजाक में लखनऊ का राजेंद्र यादव भी बताते रहे हैं। रचनाकार और संपादक दोनों ही रूप उन का निर्विवाद है। सब को साथ ले कर चलने के अभ्यस्त हैं। शिवमूर्ति और उन की दोस्ती बहुत पुरानी है। बल्कि शिवमूर्ति की सलाह पर ही कथाक्रम शुरू किया। कथाक्रम के आयोजन में जय और वीरू की इस जोड़ी में शिवमूर्ति परदे के पीछे खड़े रह कर भी अनायास दिख जाते हैं। शैलेंद्र सागर के पास समर्पित और विश्वसनीय लोगों की एक सशक्त टीम है। कुछ पुलिसकर्मी रिटायर हो कर भी उन के लिए समर्पित दीखते हैं आयोजन में। यह सुखद है। अलग बात है कथाक्रम के पुरस्कृत होने वाले लोग कमोवेश एक ही खेमे के लोग हैं। इतना ही नहीं कथाक्रम में विमर्श के लिए विषय भी साल दर साल घुमा फिरा कर वही है। लोगों के भाषण भी वही। कुछ भी अलग नहीं। इसी लिए शुरू में नौशाद ,सहगल और उन के नौटांक का उदाहरण दिया। कि कभी तो काकस के जबड़े से बाहर निकल कर एक बार देखें। क्या पता और अच्छा करें। एक समय था कथाक्रम का जब नामवर सिंह और राजेंद्र यादव के विमर्श में लोग झूम - झूम जाते थे। कुछ लोग नूरा कुश्ती का तंज कसते थे। फिर विषय भी अलग - अलग होते थे। लोग भी जुदा - जुदा। रवींद्र कालिया जैसे लोग मंच पर नामवर का भले विरोध करते मिलते थे पर बाद में वह नामवर से कहते मिलते थे , प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो ! और नामवर पान खाते हुए मंद - मंद मुस्कुराते रहते थे। बहुत से और रचनाकार , आलोचक भी अलग - अलग सुर में रहते थे। पर अब तो सब के सब एक ही सुर में दीखते हैं। किसी बाग़ में एक ही फूल , एक ही फल नीरस बना देता है बाग़ को। लोग जान गए हैं कि कौन क्या बोलेगा। सो उठ कर चल देते हैं। अब कि जैसे वीरेंद्र यादव हैं। उन को आप विषय कुछ भी दे दीजिए , वह वही बोलेंगे , जो उन को बोलना है। उन का बोलना कभी बदलता ही नहीं। दशकों से एक ही टेप बजा देते। सो लोग ऊब चुके हैं। ऐसे ही अन्य कई लोग हैं। ख़ैर , यह शैलेंद्र सागर का अपना विवेक है। कुछ कहने सुनने की बात नहीं।
अमिता दुबे तो जैसे कोई निर्मल नदी हैं। कल - कल बहती हुई। खुद को साफ़ करती हुई और सब को साथ ले कर चलती हुई। मेरे लिए तो सर्वदा शुभ बन कर उपस्थित रही हैं। रहती हैं। उन की रचना जैसे सुघड़ है , जीवन भी उतना ही सुघड़। दोस्ती तो वह सभी से करती हैं पर बैर किसी से नहीं। जो लोग उन से बैर रखते हैं , उन से भी उन का बैर नहीं है। जाने किस मिट्टी की बनी हैं। धीरज , सादगी और विनम्रता जैसे उन की अभिन्न सखियां हैं। जीवन में सर्वदा प्रसन्न। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में प्रधान संपादक हैं। एक समय था कि हिंदी संस्थान में पॉलिटिक्स बहुत थी। हर कोई एक दूसरे से भिड़ा हुआ। उलझा हुआ। पर अमिता दुबे ने अपने मृदुल व्यवहार , मेहनत और सदाशयता से हिंदी संस्थान की सारी पॉलिटिक्स समाप्त कर दी। उन का लेखन , उन का वाचन ही उन का परिचय है। मुक्तिबोध पर अमिता दुबे की पी एच डी है। मुक्तिबोध जैसे कठिन गद्यकार और कवि को लेकिन वह बहुत सरलता से बांचती हैं। मुक्तिबोध पर उन की कई किताबें हैं। कहानी , उपन्यास के साथ ही बाल कहानियों और कविताओं पर भी वह निरंतर सक्रिय हैं। अपमान करने वालों को भी कैसे तो वह चुप रह कर निरुत्तर और पराजित कर देती हैं , यह मैं ने देखा है। एक बार हिंदी संस्थान में ही काव्यपाठ के दौरान सरिता शर्मा नाम की एक मंचीय कवियत्री ने अति कर दी। अखिलेश यादव का राज था। उदयप्रताप सिंह कार्यकारी अध्यक्ष। सरिता शर्मा सपा नेताओं के फेरे लगाती रहती थीं सो दिमाग़ बहुत ख़राब रहता था। अमिता दुबे के साथ अकारण अभद्रता शुरू कर दी। मंच पर ही। अनाप - शनाप। उदयप्रताप सिंह भी पता नहीं क्यों अनदेखा कर गए सरिता शर्मा की अभद्रता को। पर अमिता दुबे ने अभद्रता कर रही सरिता शर्मा को ऐसा चुप करवाया कि पूछिए मत। अमिता दुबे वैसे भी मधुरभाषी हैं। किसी कार्यक्रम के संचालन में उन का माधुर्य देखते बनता है। उन का संचालन मानक बन जाता है। कोई मुख्य मंत्री हो , मंत्री या अफ़सर। किसी की लल्लोचप्पो किए बिना कार्यक्रम की गरिमा को उत्कर्ष पर पहुंचना कोई अमिता दुबे से सीखे। अमिता दुबे का अध्ययन जब उन की विनम्रता से मिल कर नदी की तरह बहता है तो मन पुलकित हो जाता है।
प्रश्न - आपकी साहित्यक यात्रा कब प्रारंभ हुई ,शुरुआत गद्य से हुई या पद्य से ?
उत्तर - वर्ष 1973 की बात है। 11 वीं का छात्र था। कालेज में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ। एक से एक बढ़ कर कवि आए हुए थे। देश के लगभग सारे शीर्ष कवि। रात दो बजे तक कवि सम्मेलन चला। मन भीग गया था। जाने क्यों सोम ठाकुर का एक गीत मुझे क्लिक कर गया। जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम/ सेज की शिकन संवारते न बीत जाए रात ! यह गीत जैसे मन में टंग गया। आज भी टंगा हुआ है। घर पहुंचा तो सोने की बजाय लालटेन जला कर पढ़ने बैठ गया। क़लम काग़ज़ लिया और एक कविता लिख डाली। शीर्षक था 'एक किरन।' चचेरे भाई भी साथ थे। कवि सम्मेलन में भी साथ थे। उन को वह कविता दिखाई। वह पढ़ कर बहुत ख़ुश हुए। फिर लालटेन बुझा कर हम लोग सो गए। फिर तो कविता अंकुआती रहती। हम लिखते रहते। एक बार 'आज' अख़बार में बनारस भेजी एक कविता। तब बनारस से 'आज' अख़बार ही छप कर गोरखपुर आता था। और यह देखिए , वह कविता छप गई। बाद में दस रुपए का एक मनीआर्डर भी आया उस कविता के मानदेय के रूप में।हौसला बढ़ता गया। तब उस क्षेत्र का सब से बड़ा और एकमात्र दैनिक अख़बार 'आज' ही था। दस रुपए का मानदेय मनीआर्डर बहुत दिनों तक संभाल कर रखे था। 'आज' के बाद कई पत्रिकाओं में रचनाएं छपीं। एक समय तो छपास की बीमारी हो गई थी। बहुत बड़ी बीमारी। उसी बीच गोरखपुर में आकाशवाणी का केंद्र खुला। युव वाणी कार्यक्रम में कविता पढ़ने लगा। पचीस रुपए का चेक मिला। फिर तो छपने और प्रसारण का सिलसिला चल निकला। कवि गोष्ठियों में जाने लगा। कवि सम्मेलनों में भी। फिर तो पुरवैया बह निकली। कवि हो गया। फिर कहानियां भी लिखने लगा। जगह - जगह कविताएं और कहानियां छपने लगीं। देश भर में।
प्रश्न - ' अपने-अपने युद्ध ' आपका यह उपन्यास काफी चर्चित रहा , कह यह भी सकते हैं कि विवादित भी, इस पर मुकदमा भी चला, अदालत में आपको माफ़ी भी मांगनी पड़ी, अब कभी मन में यह नहीं आता कि आपने माफ़ी मांग कर गलती की थी, आप एक लेखक थे,आपने सच लिखा था तो आपको नहीं झुकना चाहिए था या पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का बोझ इतना था कि आप सीधे खड़े रह नहीं सके, या अदालत व्यवस्था सजा का भय हावी हो गया था। सच क्या था ?आखिर पूरा मामला क्या था ?
उत्तर - माफ़ी तो नहीं मांगी थी। किसी अदालत में कभी माफ़ी नहीं मांगी। किस ने कहा कि माफ़ी मांगी ? न मेरे लेखक ने कभी कहीं माफ़ी मांगी। न कभी कहीं झुका , न माफ़ी मांगी। परिवार मुझे ऐसा मिला है जिस ने हर दुःख - सुख में सर्वदा साथ दिया है। सीधा खड़ा रहने दिया है। सारे कष्ट सह लिए पर कभी झुकने नहीं दिया। कोई प्रमाण हो किसी अदालत में झुकने का, माफ़ी मांगने का तो कृपया प्रस्तुत करें।
प्रश्न - इस पर अश्लीलता का भी आरोप लगा, क्या आप आरोप को अस्वीकार करते हैं ?
उत्तर - अश्लीलता का आरोप अश्लील लोगों ने ही लगाया। अपनी खीझ और हताशा में। ‘अपने - अपने युद्ध’ की लोकप्रियता उन से देखी नहीं गई। तो यह लोग करते भी तो क्या करते भला। और कोई चारा नहीं था।
प्रश्न - इस प्रकरण पर ' हंस ' पत्रिका के सम्पादक राजेंद्र यादव न सिर्फ आपके बचाव में खुलकर खड़े हुए बल्कि ' हंस ' में चार पन्ने की सम्पादकीय भी लिखी। ऐसा मना जाता है कि उन्होंने मित्रता खूब निभाई। आप क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर- मित्रता निभाना तो इसे नहीं ही कहिए। लड़ाई में साथ देना ही कहिए। क्यों कि तब बहुत सारे लोग साथ छोड़ गए थे। दफ़्तर में भी स्पष्टीकरण मांग लिया गया था। जब कि दफ़्तर में इस से कुछ लेना - देना नहीं था। अदालत की तरह ही दफ़्तर में भी उस स्पष्टीकरण का निर्भीकता से जवाब दिया था। बता दिया था कि इस कंटेम्प्ट में कुछ नहीं होगा। अगर होगा तो मैं ख़ुद इस्तीफ़ा दे दूंगा। असल में जिन वकील साहिबा ने परदे के पीछे रह कर वह कंटेम्प्ट हाईकोर्ट में करवाया था, हमारे आफिस के वकीलों के पैनल में थीं। वह ही आफिस में भी हमारी नौकरी के पीछे पड़ीं। हम ने सिर्फ़ उन को एक छोटा सा संदेश भिजवाया था कि अभी तो अपने - अपने युद्ध में आप का सिर्फ़ छोटा सा चरित्र चित्रण किया है। क्या चाहती हैं कि आप को केंद्र में रख कर पूरा उपन्यास लिख दूं ? उन्हों ने तुरंत ही अपने हाथ-पांव समेट लिए। दफ़्तर में भी और हाईकोर्ट में भी। इतना ही नहीं जो मेरी सूचना है, उस के मुताबिक़ वकील साहिबा का नाम कम से कम तीन बार हाईकोर्ट में जस्टिस बनने के लिए गया। पर हर बार उन के शुभचिंतकों ने अपने - अपने युद्ध का वह हिस्सा फ़ोटोस्टेट करवा कर उपन्यास साथ में संलग्न कर राष्ट्रपति , केंद्रीय क़ानून मंत्रालय और गृह मंत्रालय को भेजा। कई - कई लोगों ने भेजा। और मोहतरमा तमाम रसूख और जुगाड़ के बावजूद जस्टिस बनने से रह गईं। ख़ैर, लखनऊ में तो कुछ लेखक ऐसे शुभचिंतक निकले कि इस कंटेम्प्ट में मुझे कब जेल भेजा जाए , इस प्रत्याशा में दुबले होने लगे। ऐसे समय में राजेंद्र यादव ने केशव कहि न जाए क्या कहिए शीर्षक से चार पृष्ठ की संपादकीय लिखी। 'हंस' के मार्च , 2002 की इस संपादकीय में राजेंद्र यादव ने तमाम बातें लिखी थीं पर एक कविता जो कोट करते हुए लिखी थी वह बहुत मानीखेज थी। ऐसे जैसे तेजाब उड़ेल दिया था राजेंद्र यादव ने। आप देख लीजिए :
और अनायास ही मुझे मार्टिन नीमोलर की वे पंक्तियां याद आने लगीं जिन्हें शायद ब्रैख्त ने भी दुहराया है-
जर्मनी में नाजी पहले-पहल
कम्यूनिस्टों के लिए आए ....
मैं चुप रहा/क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नहीं था
फिर वे आए यहूदियों के लिए
मैं फिर चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी भी नहीं था
फिर वे ट्रेड-यूनियनों के लिए आए
मैं फिर कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं तो ट्रेड-यूनियनी भी नहीं था
फिर वे कैथोलिकों के लिए आए
मैं चूंकि प्रोटेस्टेंट था इसलिए इस बार भी चुप रहा
और अब जब वे मेरे लिए आए
तो किसी के लिए भी बोलने वाला बचा ही कौन था ?
जब प्रतिरोधी और परिवर्तनकारी शक्तियां बिखरी हों, आपसी हिसाब-किताब चुका रही हों और फंडामेंटलिस्ट यथास्थितिवादी ताकतें एकजुट होकर आक्रामक हों तो फासीवाद आता है। या जब हम स्वयं अपने व्यक्तिगत हिसाब चुकाने में लगे हों और बाहरी शक्तियों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से ‘दुश्मन’ को सबक सिखाने के लिए आमंत्रित करें तो गुलामी का दौर शुरू होता है। मुसलमानी आक्रमण से लेकर अंग्रेजों तक का इतिहास गवाह है।
इस मनोहारी वातावरण में आप ही बताइए दयानंद पांडेयजी, अगर आपने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में कोर्ट या जजों के यानी न्यायपालिका के विरुद्ध कुछ सच्चाइयां लिख दी हैं तो मुझे क्या लेना-देना ? अब अगर कुछ न्यायमूर्ति इसे व्यक्तिगत आक्षेप मानकर आपको जेल भेज दें तो इसमें मैं क्या करूं ? क्या करूं ? गणतंत्र-दिवस के एक दिन पहले के भाषण में राष्ट्रपति न्यायपालिका को जुआघर कहें, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस कृष्ण अय्यर खुद इन्हें भ्रष्टाचार के अड्डे बताएं, या कहीं न्याय न मिलने पर फिल्मों के गुस्सैल नायक भ्रष्ट जजों और न्यायपालिका को खुलेआम गालियां दें तो कुछ नहीं होता। करते रहें वे ऐसा, मगर आपको किस कुत्ते ने काटा था कि इन अप्रिय सत्यों को बघारते फिरें ?
प्रश्न - आपकी दृष्टि में कोई रचना अश्लील की परिधि में कब आ जाती है ?
उत्तर - रचना और अश्लील ? मुझे इस सवाल पर ही ऐतराज है। क्या वात्स्यायन का काम सूत्र अश्लील है ? हां , अगर आप कोई चौसठ पेजी अश्लील साहित्य पढ़ रहे हैं तो बात और है। कोई पीली किताब पढ़ रहे हैं तो बात और है। कोई नीली फ़िल्म देख रहे हैं तो बात और है। यह तो है अश्लीलता की परिधि में। पर जीवन में भी है , यह अश्लीलता। यह नीली फ़िल्में बन ही इस लिए रही हैं कि लोग देख रहे हैं। पीला साहित्य छप ही इस लिए रहा है कि लोग पढ़ रहे हैं। 'प्लेब्वॉय' जैसी पत्रिकाएं , कैलेंडर , नीली फिल्मों का दुनिया में बहुत बड़ा बाज़ार है। अरबों खरबों का। आप कहते रहिए अश्लील। पर्यटन का अनिवार्य धंधा है औरतों का बाज़ार। ऐसी अश्लीलता आप की ज़िंदगी और आप के समाज में है। पर इस बिना पर कला के माध्यमों में , रचना में अश्लीलता तलाशने का बाज़ार बनाने से भरसक बचिए। बचिए अश्लीलता का आरोप लगा कर किसी रचना को ख़ारिज करने से। बचिए रचना को ख़ारिज करने के लिए अश्लीलता को औज़ार बनाने से। इसे परमाणु बम मत बनाइए , किसी रचना को रौंदने और नष्ट करने के लिए। यह रचना ही नहीं , मनुष्यता की भी हत्या है। किसी रचना को ख़ारिज करने के और भी कई औजार और हथियार हैं। तमाम हैं। उन का उपयोग कीजिए न ! नहीं इग्नोर कीजिए। यह सब से बड़ा हथियार है। इस का इस्तेमाल करने से लेकिन आप डरते हैं। क्यों कि लोग तो पढ़ रहे हैं। आप के इग्नोर करने से कोई पढ़ना बंद नहीं कर रहा। तो जैसे किसी स्त्री को चरित्रहीन या पुरुष को लंपट कह कर आप पराजित कर लेते हैं , ठीक वैसे ही किसी रचना को पराजित करने के लिए अश्लील कह देते हैं। यह कायरता है। यह कायरता आप को नपुंसक भी बनाती है। आप नहीं जानते ? नहीं जानते तो जान लीजिए।
प्रश्न - आपके कुछ मित्र जिनका साहित्य जगत में एक बड़ा कद है। आपका लिखा खूब पढ़ते भी हैं। बरसों से उन लोगों से मेरी बातचीत होती ही रहती है। प्रसंगवश कई बार वह लोग ' अपने-अपने युद्ध ' आपकी कई कहानियों और अभी जल्दी ही पब्लिश हुए आपके एक और उपन्यास ' विपश्यना में प्रेम ' आदि का ज़िक़्र करते हुए कहते हैं कि कई बार आप बोल्ड लिखते-लिखते पोर्न के करीब पहुँच जाते हैं। जिससे आपके लिखे का स्तर गिर जाता है। इस आरोप का क्या उत्तर देना चाहेंगे आप। क्षमा कीजियेगा मैं उन लोगों के नाम नहीं बता सकता ।
उत्तर - नाम बताने की ज़रूरत भी नहीं है। मैं पूछना भी नहीं चाहता। लेकिन जानता हूं ऐसा आरोप लगाने वालों को। पर अगर इन मित्रों के मानदंड पर चीज़ें तय होंगी तो फिर संस्कृत का ज़्यादातर साहित्य पोर्न घोषित हो जाएगा। वाणभट्ट से लगायत कालिदास तक बोल्ड लेखक हैं फिर तो। बहुत सारे अंग्रेजी , बांग्ला , तमिल , मराठी साहित्य भी। देखिए मैं लिखता हूं अपनी ख़ुशी के लिए। किसी और को ख़ुश करने के लिए नहीं। किसी के डिक्टेशन पर नहीं लिखता। शेयर मार्केट नहीं है लेखन कि भाव गिर गया , भाव उछल गया। हमारे जीवन में जो है , वह है। क्या है कि कोई औरत आप से नहीं पटती , आप के मन की नहीं करती तो उसे चरित्रहीन घोषित करने में कितना समय लगता है ? स्त्रियों द्वारा किसी पुरुष से मतभेद होते ही लंपट और औरतबाज़ कहने में कितना देर लगता है ? यह सब ऐसी ही बातें हैं। तो लेखकों की ऐसी बातों को बहुत गंभीरता से मान नहीं लेना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को अश्लील बता देना कुछ इसी तरह है। जब लेखन में आप कोई कमज़ोरी नहीं निकाल पाते कथ्य या भाषा के स्तर पर तो अश्लील बता देते हैं। मतभेद हो जाता है तो अश्लील बता देते हैं। बहुत आसान होता है किसी रचना को अश्लील बता देना। एक महिला आलोचक ने अपने - अपने युद्ध को किसी अंग्रेजी उपन्यास से उड़ाया हुआ बता दिया था। हम ने उन को बहुत घेरा कि वह उपन्यास कहां और कैसे मिलेगा ? वह लगातार भागती रहीं बताने से। कभी नहीं बता पाईं। सच यह है कि मुझे इतनी अंगरेजी आती ही नहीं कि मैं अंगरेजी में कोई उपन्यास या कहानी पढ़ सकूं और उसे उड़ा सकूं। यह बात जब उन महिला आलोचक को बताई तो वह सिर पर पैर रख कर भाग गईं। मंटो की ठंडा गोश्त बहुत शानदार कहानी है। लेकिन उस पर अश्लीलता का मुक़दमा चला। कोर्ट में फैज़ अहमद फैज़ ने मंटो को लेखक मानने से ही इंकार कर दिया। क्यों कि फैज़ के कहने पर मंटो प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं बने थे। फैज़ ने कोर्ट में मंटो को रिजेक्ट कर के बदला ले लिया। इस्मत चुगताई की लिहाफ़ पर भी बड़ा बवाल मचा। लोलिता , लेडीज चैटर्लीज़ लवर आदि पर भी ऐसे बेवकूफी के इल्जाम लगे। द्वारिका प्रसाद के उपन्यास मम्मी बिगड़ेंगी और घेरे से बाहर पर भी यह बेहूदा आरोप लगे। खुशवंत सिंह , कमला दास आदि की एक लंबी सूची है। फिर तो लोगों को तुलसीदास पर भी यह आरोप लगा देना चाहिए।
कालिदास एक जगह पार्वती की उपासना को ले कर लिखते हैं कि पार्वती हिमालय पर शंकर की आराधना में बैठी हैं। कि ओस की एक बूंद उन के सिर पर गिरती है। लेकिन उन के केश इतने सुकोमल हैं कि ओस टपक कर उन के नयनो की पलकों पर आ जाती है। नयन के पलक भी इतने नरम हैं कि ओस की बूंद छटक कर कपोलों पर आ जाती है। कपोल भी इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छलक कर उन के वक्ष पर आ जाती है। लेकिन पार्वती के वक्ष इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है। तो क्या कालिदास का यह वर्णन अश्लील है ? हम ने यह वर्णन बहुत संक्षेप में बताया है। कालिदास ने यह बताने में कोई बीस - बाईस श्लोक खर्च किए हैं। बहुत सारी और उपमाएं दी हैं।
तो क्या यह अश्लील है ?
वाणभट्ट कादंबरी में जिस तरह बार - बार कटि प्रदेश का लंबा-लंबा वर्णन करते हैं तो क्या वह अश्लील है ? अज्ञेय शेखर एक जीवनी या नदी के द्वीप में जिस तरह उदात्त हो कर वर्णन करते हैं , क्या वह अश्लील है। मैं इन लेखकों और वर्णन की आड़ में अपने को बिलकुल नहीं बचा रहा। सिर्फ़ इतना सा कहने की अनुमति चाहता हूं कि एक शब्द , एक वाक्य अश्लील नहीं लिखता हूं। अश्लीलता मुझ पर यह और ऐसा ओछा आरोप लगाने वालों के मन में है , दृष्टि में है। यह लोग ज़िंदगी को बहुत संकुचित और संकीर्ण ढंग से जीने वाले लोग हैं। अपनी दृष्टि , सोच और समझ को विकसित नहीं कर पाए हैं। करना चाहिए। जिस दिन कर लेंगे , अश्लीलता का आरोप लगाना भूल जाएंगे। दुनिया में कुछ भी अश्लील नहीं है। अब आप राम आता है , राम जाता है। नदी कल कल बह रही थी। जैसे वाक्य विन्यासों से आगे नहीं बढ़ पा रहे तो दोष आप में है। कभी खुले में निकलिए और देखिए कि आकाश कैसे धरती पर झुका जा रहा है। उसे निहारिए। मन उमग जाएगा। कभी भरी बरसात में इंद्रधनुष को देखिए। कभी हलकी सी धूप में बरसती बूंदों से प्यार कीजिए। कभी ख़ाली खेतों की मिट्टी में मूसलाधार बारिश को देखिए। देखिए कि बरखा कैसे मिट्टी की प्यास को हरती है। यह देख पाएंगे तभी जान पाएंगे कि एक प्रेमी कैसे स्त्री को प्रेम करता है। उस की भूख और प्यास को अपनी प्यास से मिटाता है। आप को फिर कुछ भी अश्लील नहीं लगेगा। न अपने - अपने युद्ध , न कोई कहानी , न विपश्यना में प्रेम। विपश्यना में प्रेम में लोगों को एक स्त्री के मातृत्व की भूख नहीं दिखी ? अफ़सोस कि अश्लीलता दिखी। अफ़सोस कि अपने - अपने युद्ध में संजय का संघर्ष नहीं दिखा। सिस्टम से लड़ता हुआ , न्यायपालिका के पाखंडी न्याय से लड़ता हुआ उस की जिजीविषा नहीं दिखी। कुछ स्त्री प्रसंग ही दिखे। नहीं जानते लोग कि संजय के इस संघर्ष में कुछ स्त्री प्रसंग न होते तो वह आत्महत्या भी कर सकता था। इतना सा मनोविज्ञान नहीं जानते लोग ? स्त्रियां कैसे तो पुरुषों को अपने प्यार से जीवन देती हैं , हौसला और बल देती हैं , यह लोग नहीं जानते। बस अश्लीलता की छुद्रता का आरोप जानते हैं।
पढ़िए कभी जैनेंद्र कुमार की सुनीता को। एक क्रांतिकारी कैसे स्त्री के चक्कर में पड़ कर सारी क्रांति को पलीता लगा बैठा है। पर यही सुनीता एक दिन. एक निर्जन जगह जा कर अचानक नग्न हो कर उस के सामने उपस्थित होती है यह उलाहना देती हुई कि इसी के लिए सब कुछ भूल बैठे हो ? वह ठिठक जाता है और लज्जित होता है। फिर इस स्त्री मोह से निकल कर अपने काम में लग जाता है। तो क्या यह अश्लील है ? पौराणिक कथा है कि सती अनसुइया नग्न हो कर अपनी जांघ पर बिठा कर ब्रह्मा , विष्णु , महेश को भोजन करवाती हैं। तो यह अश्लील है ? शिवलिंग को स्त्रियां दोनों हाथ से पकड़ कर माथे लगाती हैं। पूजती हैं। तो क्या यह अश्लील है ? का वर्षा जब कृषि सुखाने ! आप ने भी सुना होगा। कई लोग अज्ञानता में इसे घाघ की पंक्ति बता बैठते हैं। लेकिन है तुलसी की। वह भी रामचरित मानस की। तुलसीदास तो मर्यादा पुरुषोत्तम के गायक हैं। फिर भी। बालकांड में धनुष यज्ञ हो चुका है। सीता का राम से विवाह निश्चित हो चुका है। सीता एक वाटिका में सखियों के साथ घूमने गई हैं। उन्हें मालूम है कि राम भी वाटिका में आएंगे। सो ख़ूब बन-ठन कर गई हैं। राम लक्ष्मण के साथ वाटिका में आते भी हैं। लेकिन सीता की तरफ देखते नहीं। सीता बहुत परेशान हैं कि हमारी तरफ देखते क्यों नहीं। सखियों से अपनी यह तकलीफ साझा भी करती हैं। सखियां सांत्वना भी देती हैं कि अभी नहीं , न सही अब तो ज़िंदगी भर देखेंगे। तो सीता जैसे अफना जाती हैं। विकल हो कर कहती हैं : का वर्षा जब कृषि सुखाने। समय चुकि पुनि का पछिताने॥ यानी सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? तो क्या यह अश्लील है ? तुलसी ने सीता हरण भी लिखा है , रामचरित मानस में। तो क्या यह अश्लील है ? मिले एक विद्वान मुझे जो कहने लगे कि तुलसी को सीता का अपहरण नहीं लिखना चाहिए था। ग़लत संदेश जाता है। अब इस अश्लीलता का भी क्या करें भला !
प्रश्न - यदि मैं सही याद कर पा रहा हूँ तो राजेंद्र यादव ने 'हंस' के एक अंक के कवर पर प्रभु जोशी की एक पेंटिंग ली जिसमें निर्वस्त्र स्त्री थी, ऐसे ही ' पाखी ' पत्रिका ने अप्रैल- २०१९ के कवर पर लिओनार्दो दा विन्ची की पेंटिंग मेग्डालिना ली जिसमें करीब-करीब निर्वस्त्र स्त्री है,कभी खुशवंत सिंह ने भी ऐसा ही किया था। नैतिकतावादियों ने प्रश्न खड़े किये, आप इसे श्लील अश्लील मानते हैं ?
उत्तर - अश्लीलता लोगों के भीतर होती है। कला में नहीं। कला की किसी भी विधा में नहीं। नैतिकतावादियों के आरोप ही अश्लील हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि दुनिया में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ नहीं है। हां , अगर आप भ्रष्ट हैं , शोषक हैं , अत्याचारी हैं तो अश्लील हैं। किसी रचना , किसी पेंटिंग में अश्लीलता और नैतिकता के खाने बनाना अश्लील है।
प्रश्न -' अपने-अपने युद्ध ' उपन्यास पर एक बात और कहना चाहूंगा कि देखा जाए तो यह प्रकाशित होने से पूर्व ही विवाद में आ गया था। हिंदी साहित्य जगत के दो प्रभावशाली लोगों ने प्रकाशकों को फ़ोन किया कि उपन्यास ठीक नहीं है इसे पब्लिश न करें। यह स्थिति क्यों आई, ऐसा क्या हिंदी साहित्य जगत में खेमेबाजी के कारण हुआ कि आप उनके खेमें के नहीं हैं इसलिए आगे न बढ़ पाएं या आपकी उनसे कोई अदावत थी जिस कारण उन्होंने ऐसा किया,और यह भी बताइये कि बरसों आप इस बिंदु पर क्यों चुप रहे, फिर बहुत बाद में क्या सोच कर सारी बातों का खुलासा करते हुए दस पन्नों का लेख लिखा ' गुजिश्ता अपने-अपने युद्ध ' जो ' लहक ' पत्रिका के फ़रवरी-मार्च -२०१९ अंक में पब्लिश हुआ। उस विस्तृत लेख की ही तरह विस्तार से बताइये।
उत्तर - असल में यह 'अपने - अपने' युद्ध सब से पहले राजकमल प्रकाशन को भेजा था , छापने के लिए। जल्दी ही छाप रहे हैं की सूचना भी एक बार राजकमल के अशोक माहेश्वरी ने दी। पर प्रकाशकों की एक आदत होती है लोगों से सलाह लेने की। तो अशोक माहेश्वरी ने लखनऊ में अखिलेश और वीरेंद्र यादव से इस बारे में चर्चा की। इन लोगों ने उपन्यास पढ़े बिना ही राय दे दी कि मत छापिए। जब कुछ दिन बीत गए तो फ़ोन कर के पूछा अशोक माहेश्वरी से। अचानक उन्हों ने असमर्थता जता दिया। फिर यह उपन्यास दो - तीन और प्रकाशकों को भेजा। उन लोगों ने हाईकोर्ट वाला हिस्सा हटाने या माइल्ड करने को कहा। हम ने कहा कि एक कामा , फुलस्टाप भी नहीं हटाऊंगा। बात रह गई। 'अपने - अपने युद्ध' लिखने में ढाई महीने लगे थे। छपने में ढाई साल लग गए। फिर इस उपन्यास को दिल्ली के जनवाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया। 'अपने - अपने' युद्ध की लोकप्रियता जब शिखर छू गई तब एक सुबह राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी का फ़ोन का फ़ोन आया कि आप से मिलना चाहता हूं। वह आए। अनुबंध पत्र के साथ आए। कहा कि अपने - अपने युद्ध का पेपरबैक छापना चाहता हूं। हम ने कहा कि सहर्ष छापिए। हम ने तो पहले ही आप को यह उपन्यास भेजा था। अशोक माहेश्वरी बोले , ' मुझ से गलती हो गई। ' कहने लगे , ' अखिलेश और वीरेंद्र यादव से सलाह ले ली इस उपन्यास पर तो इन लोगों ने मना कर दिया। तब मुझे इस उपन्यास की ताक़त का अंदाज़ा नहीं था। अब छापना चाहता हूं। ' हम ने कहा कि , ' यह लोग फिर मना कर दें तो ? ' अशोक बोले , ' अब उन से पूछना ही नहीं है। ' पर जब अनुबंध पत्र पर दस्तख़त करने से पहले पढ़ा तो पाया कि वह पेपरबैक और हार्ड बाउंड दोनों छापना चाहते थे। दोनों का ज़िक्र था। हम ने उन से कहा कि।, ' पेपरबैक तो ठीक है। क्यों कि जनवाणी पेपरबैक नहीं छापता। पर हार्ड बाउंड तो नहीं दे सकता। ' कहा कि , ' जिस ने विश्वास कर के छापा है , उसे यह संस्करण बेच तो लेने दीजिए। ' अशोक बोले , ' जनवाणी का संस्करण कभी ख़त्म ही नहीं होता। ' ख़ैर हम ने मना कर दिया। अब इन लोगों को कुछ नहीं सूझा तो उपन्यास को अश्लील घोषित कर दिया। साज़िशों से लेकिन कोई रचना कभी दबती नहीं है। यह बात इन लोगों को जान लेनी चाहिए।
प्रश्न - विवाद दयानन्द पाण्डेय का पीछा नहीं छोड़ते या दयानन्द पाण्डेय उनके पीछे पड़े रहते हैं। 'अपने-अपने युद्ध ' से लेकर प्रलेक पब्लिशर तक हो या कभी वीरेंद्र यादव या अभी हाल में विष्णु नागर तक।
उत्तर - जैसे जल ही जीवन है। वैसे ही विवाद भी जल है। और जल है तो जीवन है। 'अपने - अपने युद्ध' का विवाद तो समझ आता है। उपन्यास में न्यायपालिका विवाद से जब तैर कर बाहर आ गया तो बाक़ी विवादों का कोई मतलब नहीं। 'अपने - अपने' युद्ध विवाद में तो मुझे जेल हो सकती थी। लेकिन हाईकोर्ट के सामने नहीं झुका तो बाक़ी तो सब फिलर हैं। वीरेंद्र यादव के साथ एक बड़ी दिक़्क़त यह है कि वह चुनी हुई चुप्पियों और चुने हुए विरोध के क़ायल हैं। दूसरे, वह हिंदुत्व के प्रखर विरोधी हैं लेकिन कट्टर यादव हैं। उन को अपने यादव होने पर बहुत फ़ख्र हैं। यादव होने पर फ़ख्र होने में कोई बुराई नहीं है। पर अगर आप इस से दो क़दम आगे चल कर अपनी यादवी श्रेष्ठता में यादववादी हो जाते हैं तो यह एक क़िस्म का अंतर्विरोध है। ऐसे ही अन्य तमाम अंतर्विरोधों के वह मारे हुए हैं। अध्ययनशील आदमी हैं। हिंदी ही नहीं , अंगरेजी भी अच्छी जानते हैं। पर अपने अध्ययन का दुरूपयोग बहुत करते हैं। जैसे कभी मुद्राराक्षस करते थे। वीरेंद्र यादव एक समय मेरे बड़े प्रशंसकों में से रहे हैं। रेखा पर लिखे मेरे एक लेख पर तो वीरेंद्र यादव ने गज़ब तारीफ़ की थी मेरी। मेरे उपन्यासों के भी वह बहुत मुरीद रहे हैं। वीरेंद्र यादव ही नहीं उन के पिता जी भी मेरे प्रशंसक रहे हैं। ऐसा वीरेंद्र यादव ख़ुद बताते थे। मेरा जब भी कोई उपन्यास आता था तो उन्हें देता था। वीरेंद्र यादव बताते थे कि आप का उपन्यास पहले पिता जी पढ़ते हैं। उन के पढ़ने के बाद ही मुझे पढ़ने का अवसर मिलता है। वीरेंद्र यादव ख़ुद तो प्रशंसा करते ही थे बताते थे कि मेरे पिता जी आप के बहुत प्रशंसक हैं। अब तो वह मुझे विष्णु नागर की एक हालिया पोस्ट पर अपने कमेंट में आस्तीन का सांप लिख गए हैं। तुलसीदास के धुरंधर विरोधी हैं पर तुलसी को कोट कर भी मुझ पर निशाना साधा और जैसे विष्णु नागर को निर्देश दिया : जाके प्रिय न राम-वैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। विष्णु नागर ने उन का निर्देश माना नहीं , यह और बात है। सब कुछ के बावजूद वीरेंद्र यादव का मैं अब भी सम्मान करता हूं। उन के विचलन को ज़रूर चिन्हित करता रहा हूं पर उन के लिए कभी कुछ अपमानजनक नहीं लिखा , न कहा। कभी कोई निजी आरोप नहीं लगाया। जब कि लगाने को बहुत कुछ है। पर कभी नहीं लगाया। नहीं लगाऊंगा कभी। वीरेंद्र यादव अब भी जब कभी कहीं मिलते हैं तो अग्रज मानते हुए आदर सहित हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूं। पहले तो वह घूरते हुए निकल जाते थे। पर अब सिर हिला कर नमस्कार का जवाब देते हैं। हाथ भी मिला लेते हैं। ख़ैर, हुआ यह कि वीरेंद्र यादव को वर्ष 2013 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण देने की घोषणा हुई। तो मैं ने फ़ेसबुक पर लिखा :
लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
-परसाई
बहुत पहले यह पढ़ा था, अब साक्षात देख रहा हूं। आप भी ज़रा इस का ज़ायका और ज़ायज़ा दोनों लेना चाहें तो गौर फ़रमाइए। और आनंद लीजिए परसाई के इस कथन के आलोक में।
अब की बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों के लिए एक योग्यता यादव होना भी निर्धारित की गई थी। रचना नहीं तो क्या यादव तो हैं, ऐसा अब भी कहा जा रहा है।
यह एक टिप्पणी मैं ने फ़ेसबुक पर चुहुल में लगाई थी। किसी का नाम नहीं लिया था। लेकिन ध्यान में चौथी राम यादव का नाम जरूर था। वीरेंद्र यादव के बाबत तो मैं इस तरह सोच भी नहीं रहा था। क्यों कि अभी तक मैं मानता रहा था कि वीरेंद्र यादव जाति-पाति से ऊपर उठ चुके लोगों में से हैं। और कि सिर्फ़ यादव होने के बूते ही उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने साहित्य भू्षण से नहीं नवाज़ा होगा। आखिर वह पढ़े-लिखे लोगों में अपने को शुमार करते रहे हैं। पर इस पोस्ट के थोड़ी देर बाद ही उन का यह संदेश मेरे इनबाक्स में आया।
Virendra Yadav
दयानंद जी , निंदा चाहे जितनी कीजिए ,लेकिन तथ्यों से आँखें मत मूंदिये . वह कौन सा पुरस्कृत यादव है जिसके पास रचना नहीं है सिर्फ यादव होने की योग्यता है . चाहें तो अपनी टिप्पणी पर पुनर्विचार करें .
मैं तो हतप्रभ रह गया। यह पढ़ कर। सोचा कि अग्रज हैं, उतावलेपन में जवाब देने के बजाय आराम से कल जवाब दे दूंगा। फ़ेसबुक पर ही या फ़ोन कर के। पर दूसरे दिन जब नेट खोला और फ़ेसबुक पर भी आया तो उस पोस्ट पर आई तमाम लाइक और टिप्पणियों में यह एक टिप्पणी वीरेंद्र यादव की यह भी थी: अब आप इसे भी पढ़िए:
Virendra Yadav अनिल जी , दयानंद जी खोजी पत्रकार हैं .दरअसल हिन्दी संस्थान के इतिहास में अब तक द्विज लेखक ही पुरस्कृत होते रहे हैं शूद्र और दलित लेखक उस सूची से हमेशा नदारद रहे हैं .यह अकारण नही है कि राजेंद्र यादव तक इसमें शामिल नहीं किये गए हैं .यह मुद्दा विचारणीय है कि आखिर क्यों पिछले वर्षों में किसी शूद्र ,दलित या मुस्लिम को हिन्दी संस्थान के उच्च पुरस्कारों से नहीं सम्मानित किया गया. क्या राही मासूम रजा ,शानी, असगर वजाहत .अब्दुल बिस्मिलाह इसके योग्य नहीं थे/हैं . ओम प्रकाश बाल्मीकि एकमात्र अपवाद हैं वह भी मायावती शासन काल में . जिस संस्थान में पुरस्कारों के लिए एकमात्र अर्हता द्विज होना हो वहां यदि 112 लेखकों में दो शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को सम्मानित किया जाता है तो जरूर उसके इतर कारण होंगें और दयानंद पांडे अनुसार वह यादव होने की शर्त है . वैसे दयानंद पांडे स्वयं इस बार पुरस्कृत हुए हैं इसके पूर्व भी दो बार हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं . और इस बार भी अन्य खोजी पत्रकारों की सूचना के अनुसार उनके लिए उस 'साहित्य भूषण ' संस्थान के लिए एक दर्जन से अधिक संस्तुतियां थी जिसकी उम्र की अर्हता साठ वर्ष है जो उनकी नहीं है . जाहिर है सुयोग्य लेखक हैं अर्हता न होने पर भी संस्तुतियां हो ही सकती हैं .संजीव , शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि के लेखक अयोग्य न होते तो उनकी संस्तुतियां क्यों न होती ? जिन शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को मिल गया उनकी रचना भी कैसे हो सकती है .क्योंकि इसका अधिकार तो द्विज को ही है . यह सब लिखना मेरे लिए अशोभन है लेकिन दुष्प्रचार की भी हद होती है ! ...
अब मेरा माथा ठनका। और सोचा कि वीरेंद्र यादव को यह क्या हो गया है? सोचा कई बार कि कमलेश ने जो कथादेश के सितंबर, 2013 के अंक में एक फ़तवा जारी किया है कि, 'वीरेंद्र यादव प्रतिवाद झूठ और अज्ञान से उत्तपन्न दुस्साहस का नमूना है।' को मान ही लूं क्या? फिर यह शेर याद आ गया।
ज़फ़ा के नाम पे तुम क्यों संभल के बैठ गए
बात कुछ तुम्हारी नहीं बात है ज़माने की।
इस के बाद वीरेंद्र यादव पर मैं ने सात - आठ लेख लगातार लिखे। जाति न पूछो साधु के बरक्स आलोचना के लोचन का संकट ऊर्फ़ वीरेंद्र यादव का यादव हो जाना,अपनी वैचारिकी से पलटी मारना किसी को सीखना हो तो वह लखनऊ के साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव से सीखे , आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है, सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है , वीरेंद्र यादव के विमर्श के वितान में आइस-पाइस यानी छुप्पम-छुपाई का खेल, कामरेड और कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स। वीरेंद्र यादव तिलमिला गए। अपनी यादवी छवि के अनुरूप उन्हों ने किसी भी लेख में उठाए गए सवालों का जवाब नहीं दिया। इन में कोई भी सवाल या आरोप उन पर व्यक्तिगत नहीं था। सभी सवाल वैचारिक और लेखकीय ही था। उलटे फ़ेसबुक पर उन्हों ने मुझे ब्लाक कर अपने फासिस्ट होने का सुबूत दे दिया। ख़ैर , जब वीरेंद्र यादव पर यह कुछ लेख लिखे तो कई लोगों ने टोका। कि क्यों लिख रहे हैं। इस जातिवादी और नफ़रती आदमी की नोटिस ही नहीं लेनी चाहिए। क्या है यह आदमी , जो आप इस को इतना भाव दे रहे हैं। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने फ़ोन कर के कहा कि वीरेंद्र यादव जैसों पर लिख कर क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं। इन जैसों पर लिख कर इन्हें भाव मत दीजिए। इस के बाद इन पर लिखना बंद कर दिया। लेकिन अब आप ने सवाल पूछ लिया है तो यह सब बताना पड़ रहा है। जौनपुर जनपद से लखनऊ आ कर बस गए वीरेंद्र यादव और उन की वैचारिकी लोहिया को फासिस्ट मानती है। वीरेंद्र यादव ने इस बाबत कुछ लेख भी लिखे हैं। तो मैं ने पूछ लिया था कि अगर लोहिया फासिस्ट हैं तो लोहियावादी अखिलेश यादव सरकार से साहित्य भूषण लेने का क्या औचित्य है। अलग बात है अखिलेश यादव और उन के पिता मुलायम सिंह यादव ने लोहियावाद पर कभी यक़ीन नहीं किया। लोहिया का सिर्फ़ नाम भुनाते रहे। लोहिया की दुकान सजाते रहे। लोहिया संचय के ख़िलाफ़ थे पर मुलायम और अखिलेश अरबपतियों में शुमार हैं। लोहिया ग़ैर कांग्रेस के हामीदार थे पर मुलायम , अखिलेश कांग्रेस के चरणों में। छोड़िए मुलायम तो जेल जाने से बचने के लिए मोदी के चरणों में भी रहे। फासिस्ट लोहिया के सवाल पर वीरेंद्र यादव ने जवाब देना तो दूर जगह - जगह मेरा निजी विरोध शुरू कर दिया।
एक बार मंच से अपने भाषण में नरेश सक्सेना ने अच्छा लिखने वालों में मेरा नाम ले लिया। नीचे बैठे वीरेंद्र यादव ने पूरी गुंडई से नरेश सक्सेना को रोका। कहा कि दयानंद पांडेय का नाम नहीं लीजिए। कम से कम पांच मिनट तक वह मेरे नाम को ले कर नरेश सक्सेना को बोलने से रोकते रहे। लखनऊ में जब पहला लिटरेरी फेस्टिवल कनक रेखा चौहान ने आयोजित किया तो एक सत्र में बेकल उत्साही , नरेश सक्सेना और मुझे आमंत्रित किया। ऐन वक़्त पर देखा कि नरेश सक्सेना अनुपस्थित हैं। कार्यक्रम से वापस आ कर नरेश सक्सेना को फ़ोन कर पूछा कि तबीयत तो ठीक है। आप आए नहीं ? नरेश जी बोले , मैं तो आने को तैयार था। पर वीरेंद्र यादव का फ़ोन आ गया। वह मना करने लगे। नहीं आया। इतना ही नहीं वीरेंद्र यादव ने अख़बार में लेख लिख कर लिटरेरी फेस्टिवल का विरोध किया। दिलचस्प यह कि इन्हीं कनक रेखा चौहान ने अगले साल वीरेंद्र यादव और उन के गुरु अखिलेश को लिटरेरी फेस्टिवल में बुला लिया। वीरेंद्र यादव अपने गुरु अखिलेश के साथ सहर्ष पहुंचे। सारा विरोध भस्म ! नरेश सक्सेना एक बार छत्तीसगढ़ के किसी किसी कार्यक्रम में गए। तब भाजपा की सरकार थी वहां। तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह भी उस कार्यक्रम में आए। सभी लेखकों से मिले। नरेश सक्सेना से भी हाथ मिलाया और मिले। संयोग से नरेश सक्सेना से हाथ मिलाते रमन सिंह की फ़ोटो छप गई। सोशल मीडिया पर भी आई। अब वीरेंद्र यादव ने लेख लिख कर नरेश सक्सेना की क्लास ले ली। नरेश सक्सेना ने भी लेख लिख कर कड़ा प्रतिवाद किया। कहा कि गलती हुई कि जब रमन सिंह हाथ मिला रहे तो मुझे वीरेंद्र यादव को फ़ोन कर पूछ लेना चाहिए था कि हाथ मिलाऊं कि नहीं। वीरेंद्र यादव को लेकिन शर्म नहीं आई। नरेश सक्सेना चाहते तो वीरेंद्र यादव से पूछ सकते थे कि जब आप के पिता जी के निधन पर संवेदना व्यक्त करने योगी आदित्यनाथ गए थे तो आप ने क्यों नहीं अपने घर से भगा दिया।
हो सकता है नरेश सक्सेना को यह तथ्य न भी पता हो। पता हो भी तो नहीं कहना चाहिए। होती हैं कुछ निजी मर्यादाएं जिन्हें निभाना चाहिए। वीरेंद्र यादव की बात अलग है। उन की डिक्शनरी में मर्यादा शब्द शायद नहीं है। वीरेंद्र यादव की एक बड़ी बीमारी यह भी है कि विषय कोई भी हो , वह बोलते वही हैं , जो दशकों से बोलते आ रहे हैं। भाषण उन का बदलता ही नहीं। बहरहाल कथाक्रम के मंच पर एक बार वीरेंद्र यादव ने कामतानाथ के साथ बदसुलूकी की। संचालन कर रहे थे वीरेंद्र यादव। कामतानाथ डाक्टर देवराज के बेटे को साथ ले कर गए। और कहा कि देवराज जी के बेटे हैं, इन को भी बोलने के लिए बुला लीजिए। पर वीरेंद्र यादव ने कामतानाथ को डपट दिया। जलील कर दिया। एक शाम अपने घर पर कामतानाथ इस बदसुलूकी का ज़िक्र कर रो पड़े। सिसकने लगे। बहुत मुश्किल से उन्हें चुप करवाया। मुद्राराक्षस के ख़िलाफ़ भी वीरेंद्र यादव ने एक समय ख़ूब विष - वमन किया। कई तरह के निजी आरोप लगाए लिख कर। एक बार प्रगतिशील लेखक संघ के पचहत्तरवें सम्मेलन के भाषण में नामवर सिंह ने आरक्षण पर सवाल उठा दिया। मायावती को इंगित कर कहा कि अब इन को आरक्षण की क्या ज़रूरत है। बहुत से क्षत्रिय , ब्राह्मण भी मज़दूरी कर रहे हैं। बहुत ग़रीब हैं। उन का क्या कुसूर है। उन्हें भी आरक्षण मिलना चाहिए। दूसरे दिन वीरेंद्र यादव ने मंच पर नामवर सिंह का आठ - दस लोगों द्वारा घेराव करवा दिया। घेराव करने वाले लेखक वर्ग से नहीं थे। जाने कौन लोग थे। अलग बात है कि नामवर सिंह ने वीरेंद्र यादव की इस अराजक फ़ौज की नोटिस नहीं ली। न उन का ज्ञापन लिया। बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों ने वीरेंद्र यादव की इस अराजक फ़ौज को मंच से नीचे उतारा। वह लोग हाल से बाहर चले गए। बाद में लेख लिख कर भी वीरेंद्र यादव ने नामवर द्वारा आरक्षण विरोध की खिलाफत की। अभी 'आज तक' के कार्यक्रम में नरेश सक्सेना के जाने पर वीरेंद्र यादव ने फिर फ़ेसबुक पर विषवमन किया। अपमानित किया। आजिज आ कर नरेश सक्सेना ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। यह सब तब है जब अभी कुछ दिन पहले समाजवादी पार्टी के कार्यालय में हिंदी दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में अखिलेश यादव ने वीरेंद्र यादव को सम्मानित किया। इतना ही नहीं अपने भाषण में वीरेंद्र यादव ने लोहिया के हिंदी प्रेम पर मधुर - मधुर बोला। ऐसा अख़बारों में छपा। तो क्या अब लोहिया फासिस्ट नहीं रहे वीरेंद्र यादव की राय में या वामपंथियों की राय में। लोहिया से फासिस्ट होने का टैग मिट गया। अखिलेश यादव द्वारा साहित्य भूषण या हिंदी दिवस पर सम्मानित होने से। किसी पार्टी आफिस में किसी आलोचक का सम्मानित होना ठीक है तो रमन सिंह से नरेश सक्सेना का हाथ मिलाना या 'आज तक ' में जाना कैसे अनुचित है। गए तो 'आज तक ' में लखनऊ से शिवमूर्ति भी थे। जन संस्कृति मंच के वह भी अध्यक्ष हैं। पर वीरेंद्र यादव ने उन पर सवाल नहीं उठाया। इतना ही नहीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शिवमूर्ति को उन के उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' के लिए इसी 'आज तक ' के मंच पर सम्मानित किया। गुलज़ार भी सेक्यूलर खेमे से हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गुलज़ार को 'आज तक ' की तरफ से लाइफटाइम अवार्ड दिया। इस सब पर भी वीरेंद्र यादव का ऐतराज नहीं आया। असल में वीरेंद्र यादव की तुलना केकड़े से की जा सकती है। वह अपने ही लोगों को शुभचिंतक बन कर सब की टांग खींच कर पीछे खींचते रहने के अभ्यस्त हैं। यह आदत उन की कभी जाने वाली नहीं है। अखिलेश यही काम चुप रह कर करते हैं। वीरेंद्र यादव बोल कर , लिख कर। लेकिन लखनऊ की लेखकीय राजनीति में इन लोगों का दबदबा है। नरक है तो हुआ करे।
उस समय हिंदी संस्थान के निदेशक रहे सुधाकर अदीब ने एक बार कहा कि क्यों वीरेंद्र यादव जैसों से पंगा ले रहे हैं ? पुरस्कार समितियों में होते हैं यह और इन के लोग। कभी कुछ नहीं मिलने देंगे। पर प्रेमचंद याद आ गए कि बिगाड़ के डर से क्या सच नहीं कहेंगे ? वीरेंद्र यादव के ऐसे अनेक अंतर्विरोध हैं जो उन के अध्ययन पर उन की दृष्टि पर प्रश्न उठाते हैं। वह लगातार विचलन के शिकार होते जा रहे हैं। अपने अध्ययन पर निरंतर प्रश्न उठाते जा रहे हैं। अभी बीते पुस्तक मेले में नरेश सक्सेना से भेंट हुई। नरेश सक्सेना बात ही बात में वीरेंद्र यादव का दुखड़ा ले बैठे। मुझे याद दिलाया कि आप ने भी तो बहुत लिखा है , वीरेंद्र यादव पर। मैं ने बताया कि हां , सात - आठ लेख लिखे तो हैं। नरेश सक्सेना अपनी धुन में थे। बोले वीरेंद्र यादव तो सब के ख़िलाफ़ लिखते ही रहते हैं। आप बताइए कि किस के ख़िलाफ़ नहीं लिखा है ? मैं मुस्कुराया और बताया कि अखिलेश के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं लिखा है। सुन कर नरेश जी भी मुस्कुराए और बोले , यह तो है। कई लोग मानते हैं कि अखिलेश वीरेंद्र यादव के कहे पर चलते है। लोग ग़लत मानते हैं। मैं ने पाया है कि वीरेंद्र यादव , अखिलेश के कहे पर चलते हैं। वीरेंद्र यादव के गुरु हैं अखिलेश। अखिलेश जैसा चाहते हैं, वीरेंद्र यादव वैसा ही करते हैं। कह सकते हैं कि कई बार वीरेंद्र यादव अखिलेश के स्पीकर बन कर उपस्थित रहते हैं। राणा के चेतक बन कर रहते हैं। पढ़ा ही होगा आप ने कि राणा की पुतली फिरी नहीं चेतक तुरत मुड़ जाता था। एक समय ऐसे ही नामवर सिंह और परमानंद श्रीवास्तव की जोड़ी थी। अलग बात है बाद के समय में नामवर सिंह ने परमानंद श्रीवास्तव को कहीं का नहीं छोड़ा। नामवर सिंह के साथ छोड़ते ही अशोक वाजपेयी तक ने परमानंद श्रीवास्तव को तुरंता आलोचक कह दिया। आने वाले समय में अखिलेश वीरेंद्र यादव का क्या करेंगे या नामवर का इतिहास दुहराएंगे , क्या पता ! क्यों कि वीरेंद्र यादव के आलोचना की सरहद बहुत छोटी है। संकुचित और संकीर्ण है। सिर्फ़ लाल सलाम के भरोसे रचना और आलोचना के दिन हवा हो चुके हैं। चुनी हुई चुप्पियां , चुनी हुए विरोध की एक्सपायरी डेट अब समाप्त है।
जो भी हो आख़िर संपादक की अपनी एक सत्ता होती है। आलोचक और लेखक कई बार अनचाहे संपादक का ग़ुलाम बन जाता है। हामीदार बन जाता है। हर कोई मेरे जैसा तो नहीं होता कि एकला चलो रे ! फिर अखिलेश एक सफल संपादक हैं। तद्भव पत्रिका अच्छी निकाल रहे हैं। अखिलेश द्वारा संपादित तद्भव में भाजपा सरकारों के लाखों के विज्ञापन छपते रहे हैं। कभी वीरेंद्र यादव ने इस बिंदु पर कुछ लिखा ? लिखा कोई लेख कि फासिस्ट सरकारों के मोदी , योगी की फ़ोटो वाले विज्ञापन क्यों छाप रहे हैं तद्भव में अखिलेश ? तब जब कि भाजपा की बिहार में हार पर मिठाई बांटते हुए अखिलेश दिखे एक बार लखनऊ के एक कार्यक्रम में। अलग बात है सरकार किसी की हो , इलाहाबाद से पढ़ने का लाभ अखिलेश सर्वदा लेते रहे हैं , विज्ञापन के लिए। जुगाड़ के लिए। तमाम प्रयास के बावजूद ख़ुद भले प्रशासनिक अधिकारी नहीं बन पाए अखिलेश पर इलाहाबाद से पढ़े आई ए एस और पी सी एस अफसरों की फ़ौज है। केंद्र में भी , प्रदेश में। वह विज्ञापन देने और किताबों की ख़रीद में बहुत काम आते हैं। गांधी कहते थे कि साध्य ही नहीं , साधन भी पवित्र होने चाहिए। लेकिन अखिलेश ने अखिलेश यादव सरकार के समय में तो एक एन जी ओ एक्टिविस्ट को विज्ञापन के लिए ही तद्भव का सहायक संपादक बना दिया था। अखिलेश यादव हटे , वह सहायक संपादक भी तद्भव से हटा। तब जब कि उस का लेखन और संपादन से कोई सरोकार कभी नहीं रहा। फ़ेसबुकिया लेखन और बात है। अलग बात यह भी है कि सोशल मीडिया पर कितनी भी तोड़फोड़ हो। मठ और दुर्ग तोड़े जाएं पर 150 करोड़ की आबादी में चार सौ , पांच सौ छपने वाली तद्भव जैसी पत्रिकाओं के संपादकों की सत्ता अभी भी थोड़ी बहुत सही बरक़रार है। ठसक तो बहुत ही। लेकिन तद्भव को हम किसी कविता और कहानी के लिए नहीं , संस्मरणों के लिए जानते हैं। तद्भव में छपी कोई कविता या कहानी किसी की प्रतिनिधि रचना अभी तक मानी गई। न ही ऐसा कोई कहानीकार या कवि है , जिसे तद्भव ने पहली बार प्रस्तुत किया हो और जान लिया गया हो। उस का डंका बज गया हो। लेख भी बहसतलब नहीं अकादमिक और नीरस ही छपते हैं।
वीरेंद्र यादव के कुछ लेख तद्भव में पढ़े हैं। अगर वीरेंद्र यादव अखिलेश और तद्भव को ले कर ऐसा कुछ लिखते तो अखिलेश उन्हें क्यों छापेंगे ? अखिलेश ने तो विज्ञापन के लोभ में कुछ ऐसे सरकारी अफसरों के लेख भी छापे हैं , रचनाएं छापी हैं जो लेखन के नाम पर फिलर हैं। वीरेंद्र यादव ने लेकिन कभी इस सब पर चूं भी नहीं किया। पता नहीं अखिलेश और वीरेंद्र यादव इस तथ्य से परिचित हैं कि नहीं कि हिंदी जगत उन्हें लेखकों के बीच राजनीति करने के लिए ज़्यादा जानता है। रचना और आलोचना के लिए नहीं। अखिलेश और वीरेंद्र यादव की राजनीति सिर्फ़ तद्भव तक सीमित नहीं है। तमाम आयोजनों और प्रकाशकों के बीच भी उन की राजनीति के कांटे उपस्थित हैं। कोई पचीस बरस से ज़्यादा हुए जब हमारा सब से ज़्यादा चर्चित उपन्यास 'अपने - अपने युद्ध ' राजकमल प्रकाशन से छपने जा रहा था तब उसे अखिलेश और वीरेंद्र यादव ने रुकवा दिया था। उपन्यास के चर्चित होने के बाद यह बात राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी ने मुझे बताई। तब वह अपने - अपने युद्ध का पेपरबैक छापने का प्रस्ताव ले कर आए थे। अशोक माहेश्वरी से मैं ने कहा कि वह लोग फिर मना कर देंगे और आप मान जाएंगे। वह बोले , बिलकुल नहीं। पर अब हम ने ही उन्हें मना किया कि अब जिस प्रकाशक ने छाप दिया है , उसे ही छापने दीजिए। ऐसे ही अनेक लेखकों के साथ यह लोग राजनीति के अभ्यस्त हैं। 'अपने - अपने युद्ध ' की आंच बढ़ती ही गई। हाईकोर्ट में कंटेम्प्ट हुआ। तो देश भर के सभी अख़बारों में ख़बर छपी। राजेंद्र यादव ने हंस में चार पृष्ठ का संपादकीय लिखी , केशव कहि न जाए क्या कहिए। राजकिशोर ने जनसत्ता में आधा पेज लिखा। कथादेश में नवनीत मिश्र ने। तमाम जगहों पर जैसे धूम मच गई। अब इन लोगों ने कहा कि 'अपने - अपने युद्ध ' तो अश्लील उपन्यास है। कोई कसर कहीं से नहीं छोड़ी। बातें बहुतेरी हैं , क्या - क्या कहूं। असल में यह लोग रचना , आलोचना से ज़्यादा राजनीति करते हैं। नहीं जानते कि रचा ही बचा रह जाता है। राजनीति वग़ैरह सड़ कर समाप्त हो जाती है।
बताना चाहता हूं कि 'कथा - लखनऊ' के बाबत प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो को भड़काने में भी इन लोगों का हाथ था। कई लेखकों को फ़ोन कर के पात्रो कहता रहा कि फला - फला का आशीर्वाद है। इन का मार्गदर्शन है। आदि - इत्यादि। इन्हीं लोगों का नाम लेता था। ऐसा कई लेखकों ने बताया। लेकिन यह भी राजनीति ही थी कि शिवमूर्ति को इन लोगों ने कुच्ची के क़ानून को ले कर चोर डिक्लेयर कर दिया था। चोरी का आरोप मढ़ दिया। पर परदे के पीछे से। सीधे नहीं। राजनीति होती ही है , परदे के पीछे से। और यह सब तब था जब कुच्ची का क़ानून तद्भव में ही छपा था। शिवमूर्ति तब बहुत अपमानित महसूस कर रहे थे। एक बार बातचीत में लगभग रुआंसे हो गए थे शिवमूर्ति। पर अब यह राजनीति का चक्र ही है कि शिवमूर्ति इन लोगों से सट कर रहने लगे हैं। बहुत ज़्यादा सट गए हैं। असल में शिवमूर्ति के मिजाज में है कि वह सब को मिला कर चलते हैं। किसी को नाराज नहीं करते। नाराज लोगों को भी , असहमत लोगों को भी साथ मिला लेते हैं। विरोध स्वत: समाप्त हो जाता है। चोरों को चौकीदार बना देने की पुरानी रवायत है। शिवमूर्ति का यह गुण है। अवगुण नहीं। परदे के पीछे से कई बार शिवमूर्ति भी कुछ न कुछ करते रहते हैं। पर खुल्ल्मखुल्ला किसी का बुरा नहीं करते। लोगों की ख़ास कर कुछ लेखकों की मदद करने के लिए भी जाने जाते हैं। वह किसी से बताते नहीं पर लोग जान जाते हैं। ऐसी या वैसी कोई भी बात कभी छुपती कहां है। फिर साहित्य के जातीय विमर्श में भी एका होते बारंबार देखता आ रहा हूं। पुरानी बीमारी है।
अब इतनी बात हुई तो एक वाकया और सुन लीजिए। 2021 का इफको श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार शिवमूर्ति को दिया गया। पर भीतर की एक कथा यह है कि उस बार ज्यूरी में उपस्थित एक लेखिका ने यह पुरस्कार अखिलेश को देने की ठान ली। और अड़ गईं। जब बात बहुत आगे बढ़ गई तो इफको के प्रबंध निदेशक डॉ. उदय शंकर अवस्थी ने उन लेखिका से पूछ लिया कि अखिलेश ने ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कोई कहानी या उपन्यास लिखा हो तो बता दीजिए। अखिलेश के पास ऐसी कोई रचना नहीं हैं , अभी तक। फिर शिवमूर्ति का नाम तय हुआ। तो शिवमूर्ति कई बार ऐसे भी काम कर जाते हैं। चुपचाप। एक बार आप सब को काट सकते हैं पर शिवमूर्ति को नहीं। जो भी हो अखिलेश और वीरेंद्र यादव को यह बहुत बुरा लगा। स्वाभाविक था। तमतमाए वीरेंद्र यादव ने उदय शंकर अवस्थी के ख़िलाफ़ लिखा। बहुत ज़ोरदार लिखा। उदय शंकर अवस्थी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप हैं। वीरेंद्र यादव ने उन की बैंड बजा दी। ज़िक्र ज़रूरी है कि उदय शंकर अवस्थी श्रीलाल शुक्ल के दामाद हैं। श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद उदय शंकर अवस्थी की पहल पर ही इफ़को श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार शुरू किया गया। अलग बात है कि 'रागदरबारी' जिस के लिए श्रीलाल शुक्ल जाने जाते हैं , सहकारी आंदोलन के ख़िलाफ़ है और कि इफको एक सहकारी संस्था है। तो यह पुरस्कार ही सवालों के घेरे में है। दिलचस्प यह भी है कि अखिलेश और वीरेंद्र यादव पर श्रीलाल शुक्ल का बड़ा हाथ रहा है। आशीर्वाद रहा है। वीरेंद्र यादव को देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार श्रीलाल शुक्ल की कृपा से ही मिला था। ज़िक्र ज़रूरी है कि देवीशंकर अवस्थी श्रीलाल शुक्ल के दामाद उदय शंकर अवस्थी के बड़े भाई हैं। तद्भव का प्रवेशांक श्रीलाल शुक्ल विशेषांक था। जो श्रीलाल जी की देखरेख में निकला। शुरू के समय में दबी जुबान ही सही कहा जाता था कि तद्भव के परदे के पीछे के संपादक श्रीलाल शुक्ल ही हैं। सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की पत्रिका उत्तर प्रदेश ने भी इस के पहले श्रीलाल शुक्ल विशेषांक निकाला था। इस के संपादक थे लीलाधर जगूड़ी। श्रीलाल शुक्ल लीलाधर जगूड़ी से इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें साहित्य अकादमी दिलवा दिया। तब की बार श्रीलाल जी साहित्य अकादमी की ज्यूरी में थे। अखिलेश को भी उम्मीद थी कि श्रीलाल जी उन के लिए भी कुछ करेंगे। किया भी बहुत। पर साहित्य अकादमी नहीं दिलवाया। अलबत्ता अखिलेश , वीरेंद्र यादव को अपना सैनिक बनाया। कामतानाथ और मुद्राराक्षस को अकेला और उपेक्षित करने के लिए इन दोनों का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया। कामतानाथ कायस्थ थे , रिजर्व बैंक की पेंशन थी , बड़ी डिप्लोमेसी से वह अपने को किसी तरह संभाल ले गए। पर मुद्राराक्षस जन्मजात बाग़ी। कोई पेंशन नहीं थी। हालां कि एक समय आकाशवाणी में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे थे पर गिरिजा कुमार माथुर से हुए विवाद में इस्तीफ़ा दे दिया था। पेंशन नहीं मिल सकी। श्रीलाल शुक्ल की व्यूह रचना में घिर कर मुद्राराक्षस बिखर गए। छोटे - छोटे समझौते के आदी हो गए।
यह कथा बहुत लंबी है। पर एक वाकया बता कर बात ख़त्म करता हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी थी। कथाक्रम पहले दो दिन का हुआ करता था। रात को रसरंजन के समय श्रीलाल शुक्ल ने अचानक मुद्राराक्षस को बैठे - बैठे बाहों में भरते हुए भावुक हो कर कहा कि इस बार अगर मैं होता ज्यूरी में तो मुद्रा , मैं तुम्हें ही यह देता। मुद्रा भी यह सुन कर भावुक हो गए। पर बाद में पता चला कि ज्यूरी में श्रीलाल शुक्ल थे। और मुद्राराक्षस को साहित्य अकादमी न मिले इस का प्रबल विरोध श्रीलाल शुक्ल ने ही किया था। और नहीं मिला। मुद्राराक्षस ने लेख लिख कर यह खुलासा किया। वीरेंद्र यादव फट मुद्राराक्षस के ख़िलाफ़ लिख कर प्रतिवाद करने सामने आ गए। यह सब देख कर प्रशासनिक अधिकारी रहे एक लेखक मित्र अखिलेश और वीरेंद्र यादव को इंगित कर कहने लगे कि श्रीलाल जी ने क्या तो अपने टट्टू तैयार किए हैं। श्रीलाल शुक्ल बड़े लेखक थे। प्रमोटी ही सही आई ए एस अफ़सर थे। विद्वान थे। पर इस सब से भी बड़े वह डिप्लोमेट थे। एक समय 'रागदरबारी' लिख कर व्यंग्य में अपना झंडा गाड़ कर हरिशंकर परसाई जैसे व्यंग्यकार को खेत किया और साहित्य अकादमी ले कर राही मासूम रज़ा को फेल किया। 'रागदरबारी' को जब साहित्य अकादमी मिला तो राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव' रागदरबारी के सामने था। पर भगवतीचरण वर्मा ज्यूरी में थे। उन्हों ने श्रीलाल शुक्ल के 'रागदरबारी' का नाम लिया। भगवती बाबू का औरा था। लोग बुदबुदा कर ही रह गए 'आधा गांव' के लिए।
विष्णु नागर हमारे पुराने शुभचिंतक हैं। वर्ष 1981 में दिल्ली में मुलाक़ात हुई थी। उन दिनों दिल्ली में ही रहता था। हमारे दुःख सुख के साथी हैं विष्णु नागर। तब से अब तक उन से जुड़ा हुआ हूं। उन के स्नेह का भागीदार हूं। दिल के साफ़ आदमी हैं , विष्णु नागर। अच्छे पत्रकार और अच्छे इंसान हैं।संसदीय राजनीति की अच्छी जानकारी रखते हैं। बस बात - बेबात मोदी विरोध की महामारी का शिकार हैं। तो तमाम जानकारियों का दुरूपयोग भी कर जाते हैं। मध्य प्रदेश से आते हैं। सो अशोक वाजपेयी से गहरे जुड़े हैं। लेखकों में मोदी विरोध के सूत्रधार हैं अशोक वाजपेयी। कांग्रेस के कारिंदे हैं अशोक वाजपेयी। तो विष्णु नागर कविताओं में , व्यंग्य में मोदी की ऐसी - तैसी करने में भला कैसे पीछे रहें। मोदी विरोध की दुकानदारी ही विष्णु नागर के लेखन का अभीष्ट है इन दिनों। अब हुआ यह कि वर्ष 2013 और 2014 में जब लोकसभा चुनाव होने वाले थे तब मैं भी चुनाव पर कलम घसीट रहा था। लिख रहा था कि मोदी आ रहा है। अब तमाम लेखकों और पत्रकारों ने मुझे भाजपाई और संघी कहना दबी जुबान शुरू किया। कुछ खुल कर मेरे ख़िलाफ़ खड़े हो गए। पर क्या करूं मैं उन लेखकों पत्रकारों में से नहीं हूं कि गले में विचारधारा का पट्टा बांध कर भौंकता रहूं। दिन को रात कहने में ख़ुशी महसूस करूं,यहां तो दिन है तो दिन , रात है तो रात कहने का सर्वदा से अभ्यस्त हूं। न किसी विचारधारा का गुलाम हूं , न किसी पार्टी का। न कोई ख़रीद सका। साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी के विरोध में भी बहुत लिखा है। अवार्ड वापसी का सारा मामला अशोक वाजपेयी का निजी मामला था। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से विश्व कविता समारोह को ले कर दोनों के बीच विवाद हुआ। तो अशोक वाजपेयी ने मोदी के कंधे पर बंदूक़ रख कर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पर निशाना साधा। वामपंथियों का बढ़िया दुरूपयोग किया।
वामपंथी पैदा ही हुए हैं इस्तेमाल होने के लिए। क्रांति करने के लिए नहीं। अशोक वाजपेयी ने भी इस्तेमाल किया। वामपंथी माहौल बनाने में बहुत निपुण होते हैं। आग हो , न हो वह धुआं उड़ा कर दिखा देते हैं। लेकिन मामला टांय - टांय फिस्स हो गया। न विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हटे साहित्य अकादमी से , न मोदी भारत सरकार से। और तो और तमाम ऐलान के बावजूद आज तक किसी एक ने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस नहीं किया। ख़ैर , तमाम और बातें हुईं। पर विष्णु नागर से कोई मुश्किल नहीं हुई। कुछ समय जाने क्या हुआ कि विष्णु नागर ने मुझे ले कर एक अप्रिय पोस्ट लिखी। तमाम लोगों को उस पोस्ट पर उछल - कूद करते देखा। वीरेंद्र यादव जैसे और भी लोगों ने विष - वमन किया। शुरू में तो चुप रहा। पर एक लेख हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले की कैफ़ियत लिख कर प्रतिवाद किया। विष्णु नागर ने उस पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। न फ़ेसबुक पर कभी ब्लॉक या अनफ्रेंड किया। संवाद बना हुआ है। मतभेद के बावजूद उन के प्रति मन में पहले जैसा ही सम्मान है। रहेगा। मोदी विरोध की महामारी का शिकार हो कर वह अपने रचनाकार को नष्ट कर रहे हैं , यह देख कर दुःख ज़रूर होता है। पर यह उन का अपना चयन है। फिर भी विष्णु नागर से पूछने का मन होता है कि सत्ता विरोध में ही हरिशंकर परसाई व्यंग्य लिखते थे। वह कांग्रेस का सत्ता समय था। पर पढ़ कर लगता है जैसे परसाई ने आज ही लिखा हो , मोदी सरकार के ख़िलाफ़। धूमिल भी सत्ता के ख़िलाफ़ ही लिखते थे। आज भी उन की कविताएं वर्तमान सत्ता को चिकोटती हैं , चिढ़ाती हैं , प्रहार करती हैं। दुष्यंत कुमार के शेर आज भी मौजू हैं। खौलते हुए। ऐसे जैसे सरकार को कड़ाही के गर्म तेल में डाल दिया हो। 1975 में दुष्यंत का साये में धूप ग़ज़ल संग्रह छपा था। कांग्रेस के इंदिरा गांधी की सरकार थी। इमरजेंसी थी। मुक्तिबोध भी कांग्रेस युग में ही लिख रहे थे , तोड़ने ही होंगे मठ ! अदम गोंडवी भी कांग्रेस और सपा काल के ही शायर हैं। और अब जैसा कि आज के कुछ लेखक , कवि , पत्रकार आए दिन बल्कि सोशल मीडिया पर तो रोज ही कुंटल-कुंटल भर मोदी के फासिज्म की धज्जियां उड़ाते रहते हैं। ऐसे में मोदी के फासिस्ट काल में कोई एक शेर , कोई एक व्यंग्य , कोई एक रचना अभी तक ऐसी क्यों नहीं आ सकी है जो जनता - जनार्दन की जुबान पर चढ़ जाए। जैसे परसाई , धूमिल , दुष्यंत , अदम की रचनाएं झकझोर कर रख देती हैं। या तो मोदी की तानाशाही में कमी है या फिर रचनाओं के रचनाकारों को वह यातना नहीं मिल या दिख रही। कुछ तो कमी है , कहीं न कहीं।
एक और बात जनादेश का निरंतर अपमान इस तरह करना किसी भी सूरत कितना उचित है। लेखक और पत्रकार का काम है सत्ता के ख़िलाफ़ लिखना और बोलना। डट कर लिखिए। डट कर बोलिए। ईंट से ईंट बजा दीजिए। पर अपनी मनोकामना और थोथी विचारधारा के लिए जनता और जनादेश का अपमान क्यों किया जाए , इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। विरोध की लफ्फाजी और पाखंड की उम्र ज़्यादा नहीं होती। आज के ज़्यादातर रचनाकार जनता से कट गए हैं।
और वामपंथ ?
फैक्ट्रियों , किसानों , मज़दूरों , सड़कों से ग़ायब है। ड्राइंगरूम में बैठ कर ए सी में स्कॉच पी कर , एन जी ओ द्वारा आयोजित सेमिनारों में उपस्थित है वामपंथ। अशोक वाजपेयी के रज़ा फाउंडेशन के बैनर तले बैठ कर भैंस की तरह पगुराने से फ़ासिज्म और बढ़ता है। हिप्पोक्रेसी से कोई फ़ासिस्ट नहीं डरता। न कोई सत्ता। जनता से कट कर रचना नहीं होती। न राजनीति। न कोई लड़ाई। पत्रकार खुल्लमखुल्ला दलाल बन चुके हैं। कोई सत्ता पक्ष का दलाल है , कोई प्रतिपक्ष का दलाल। लेखकों की स्थिति तो और भी बुरी है। बहुत बुरी है। विचारधारा के नाम पर कुछ लेखक राजनीतिक दलाली पूरी बेशर्मी से करने लगे हैं। वीरेंद्र यादव से लगायत विष्णु नागर तक अब इसी राजनीतिक दलाली के लिए कुख्यात हैं। लेखकों के भीतर इस राजनीतिक दलाली ने लेखकीय स्वयत्तता को चुनौती दे कर नष्ट कर दिया है। एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं यह लोग। प्रतिपक्ष के नाम पर दरबारी लेखक बन कर रह गए हैं। याद रहे कि अमीर खुसरो और ग़ालिब भी अपने समय के दरबारी लेखक थे। लेकिन वामपंथी आइडियोलॉजी के नाम पर इन लोगों ने अपनी लेखकीय आत्मा को मार कर खुल्लमखुल्ला राजनीतिक दलाली का धंधा शुरू कर दिया है। जो कोई असहमत हो , इन से वह भाजपाई और संघी है इन राजनीतिक दलालों की राय में। बौद्धिक दलाल भी कह सकते हैं इन्हें। पोलिटिकली करेक्ट के नाम पर राजनीति के पीछे - पीछे चलने वाले दलाल हैं यह लोग। रवींद्रनाथ टैगोर की मूर्तियां जब पश्चिम बंगाल में मॉस लेबिल पर तोड़ी गईं , नक्सल मूवमेंट के दौरान, ऐसे लोग सिरे से ख़ामोश थे। आज भी ख़ामोश हैं। जाने कितनी माताओं के बेटों की हत्या कर उन के खून में भात सान कर माताओं को खाने के लिए विवश किया गया। इस पर भी लंबी ख़ामोशी है। कश्मीर में लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार कर आरा मशीन में चीर कर आधा - आधा कर दिया गया। कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर , दिल्ली में सिखों के नरसंहार पर जैसी अन्य अनेक घटनाओं पर इन की ख़ामोशी इन का गहना बन चुकी है। फिलिस्तीन के हमास आतंकियों के लिए इन की छाती में दूध उतर आता है। पर बंगलादेश में हिंदुओं के नरसंहार और बलात्कार , लूट पर इन राजनीतिक , बौद्धिक दलालों के लब सिले रहते हैं।
प्रलेक प्रकाशन का जितेंद्र पात्रो धूर्त टाइप का आदमी है। एक समय घर पर आ कर मेरे पैरों पर पड़ जाता था। कहता था आप मेरे पिता समान हैं। 'कथा - लखनऊ' की योजना जितेंद्र पात्रो के प्रलेक के लिए ही बनाई थी। फिर 'कथा - गोरखपुर' की भी। काम शुरू भी किया। दिन - रात काम किया। बीच कोरोना में। उन दिनों नोएडा में रह रहा था। सब ठीक - ठाक चल रहा था। एक दिन फ़ोन पर कहने लगा 'कथा लखनऊ' में मैं सह - संपादक रहूंगा। मैं ने पूछा , किस ख़ुशी में ? तो चुप रह गया। अचानक जितेंद्र पात्रो ने कहा कि लेखकों से कहिए कि अपनी कापियां बुक कर दें। कि किस को कितनी कापियां चाहिए 'कथा - लखनऊ' या गोरखपुर की। मैं समझ गया कि वह पैसे चाहता है लेखकों से। मैं ने साफ़ मना कर दिया कि मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगा। वह फिर ज़िद पर आ गया। कहने लगा कि लेखकों के फ़ोन नंबर दे दीजिए। मैं ख़ुद लेखकों से बात करता हूं। मना करते हुए मैं ने कहा कि यह भला कैसे हो सकता है कि लेखक कहानी भी दे और किताब भी ख़रीदे। जब कि पहले तय हुआ था कि हर लेखक को न्यूनतम मानदेय एक हज़ार रुपए और किताब की दो प्रति प्रकाशक देगा। जितेंद्र पात्रो इस बात से पलट गया। मैं ने कहा कि अब पहले एग्रीमेंट होगा तभी काम आगे बढ़ेगा। पात्रो ने मेल पर एग्रीमेंट भेजा। एग्रीमेंट में लेखकों को मानदेय और किताब देने का ज़िक्र नहीं था। मैं ने ऐतराज किया फोन पर तो वह कहने लगा , यह अंडरस्टुड है। मैं ने साफ़ मना कर दिया। तब तक कोई चालीस कहानियां जितेंद्र पात्रो कंपोज करवा चुका था। इन कहानियों को पी डी एफ में भेजा। जो बिना एक्सेस के फ़ाइल खुल नहीं रही थी। मैं समझ गया कि इस आदमी की नीयत ख़राब हो गई है। मैं ने उस से कहा कि मेरी भेजी हुई कोई कहानी अब इस्तेमाल नहीं करें। जब तक कि एग्रीमेंट न हो जाए , मैं और कहानी नहीं भेजूंगा। जितेंद्र पात्रो आदत के मुताबिक माफी मांगने लगा। बात फिर भी एग्रीमेंट पर उलझी रही। इस बीच पता चला कि वह लखनऊ और गोरखपुर में संपादक खोज रहा है।
लेखकों से बात कर रहा है। बता रहा है कि फला - फला का आशीर्वाद है। फिर मैं ने जितेंद्र पात्रो को मेल लिख कर अपनी भेजी कहानियों को इस्तेमाल करने से मना किया। और कि अपने ब्लॉग सरोकारनामा पर एक लंबा लेख लिख कर जितेंद्र पात्रो का काला चिट्ठा खोल दिया। एक - एक कर के पांच छ लेख लिखे क्रमशः। जितेंद्र पात्रो बौखला गया। एक रात कोई बारह बजे हमारे घर आ गया। 112 डायल कर पुलिस बुला लिया। कहा कि हमारी बीवी को इन्हों ने अश्लील मेसेज भेजा है। हम ने कहा कि वह कौन सा अश्लील मेसेज है , ज़रा हम भी तो देखें। वह नहीं दिखा सका। उलटे पुलिस से हमारी बातचीत का वीडियो लाइव करने लगा। हम ने पुलिस के साथ जाने से साफ़ इंकार कर दिया। और दरवाज़ा बंद कर लिया। फिर देखा कि सड़क पर पुलिस खड़ी है। दो - तीन वकील मित्रों को फोन किया। किसी का फोन नहीं उठा। रात के एक बज रहे थे। एक मित्र अफ़सर को फोन किया। तो हज़रतगंज थाने के इंस्पेक्टर आए। जितेंद्र पात्रो को घसीट कर ले गए। थाने ले जा कर हवालात में बंद कर दिया। दूसरे दिन वह ज़मानत पर छूटा। माफ़ीनामा लिखा। फिर तो सारा क़िस्सा सब को मालूम है। लोगों को यह भी मालूम होना चाहिए कि प्रलेक प्रकाशन ने अभी तक न 'कथा - लखनऊ' , न 'कथा - गोरखपुर' छापा है। सिर्फ़ कवर बना कर फ़ेसबुक पर चिपकाया। अब यह जितेंद्र पात्रो चोरों की तरह रहता है। बहुतेरे लेखकों से पैसे ले कर चंपत है।
प्रश्न - आप साहित्य की अनेक विधाओं में लिखते आ रहे हैं, किस विधा में लिखना आपको सहज लगता है ,और क्यों ?
उत्तर - अब तो उपन्यास लिखना ही , लिखना मानता हूं। बाक़ी सब फिलर है। पर लिखता बहुत कुछ हूं। लिखने को तो रेडियो नाटक भी कई सारे लिखे हैं। क्यों कि रेडियो नाटक लिखने के लिए पैसे भी थोड़ा ज़्यादा मिलते थे। कहानी , कविता की अपेक्षा। इधर चालीस रुपए तो उधर डेढ़ सौ रुपए। यह विद्यार्थी जीवन की बात है। फिर अख़बार की नौकरी हर विषय पर लिखने को बाध्य कर देती थी एक समय। आप उस विषय पर जानिए , न जानिए। लिखना है तो लिखना है। विज्ञान , अर्थ , खेल आदि हमारे कभी विषय नहीं रहे। पर लिखा इन विषयों पर भी। इंडिपेंडेंट इंचार्ज रहे इन विषयों के पन्नों के। कभी किसी ने कोई ग़लती नहीं निकाली। कोई बहुत चाह कर भी नहीं निकाल पाया ग़लती। यह सब नौकरी का हिस्सा था। नौकरी बचाने का क़िस्सा था। लिखना नहीं। लिखना तो सर्वदा दिल की कलम से ही होता है। कोई भी लिखे। हम चाहे आप। लिखना कई बार निजी होता है। अंतत : उसे सार्वजनिक भी हो जाना होता है। पर वह सार्वजनिक तभी होता है जब वह सब की धड़कन में शुमार हो जाए।जीवन में शुमार हो जाए। कहूं कि लोगों के दिलों को छू जाए। कि अरे , यह तो हमारी ही बात है। हमारा ही अनुभव है। रचना तभी लोकप्रिय होती है। जब सब की जुबान बन जाए।
प्रश्न - ग़ज़ल आपने कब लिखनी प्रारम्भ की ? यह किसी से प्रेरित होकर शुरू की या स्वतः स्फूर्त ही शुरू हो गई ?
उत्तर - जब आप प्रेम करते हैं तो कविता , गीत और ग़ज़ल लिखने के लिए किसी से पूछने या सीखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। प्रेम किया तभी कविता लिखी। ग़ज़ल लिखी। प्रेम नहीं किया होता तो कुछ नहीं लिखा होता। लेखक या पत्रकार भी नहीं हुआ होता। जाने क्या हुआ होता। जाने क्या कर रहा होता। अब तो लिखना ही प्रेम है। प्रेम ही लिखना है।
प्रश्न - किस शायर ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया ?
उत्तर - मीर , ग़ालिब , फ़िराक़ गोरखपुरी , जिगर मुरादाबादी , मजाज लखनवी , साहिर लुधियानवी , दुष्यंत कुमार , अदम गोंडवी , निदा फाजली और वसीम बरेलवी आदि बहुतों ने।
प्रश्न - आपने सम्पादन के साथ-साथ अनुवाद भी किया। बरसों पहले क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर की पुस्तक माय आइडल्स का मेरे प्रिय खिलाड़ी नाम से। लेकिन इसके बाद अनुवाद का कोई कार्य अभी तक सामने नहीं आया। इसे अनुवाद कार्य से आपकी विरक्ति ही न समझा जाए ?
उत्तर - न , न। बात विरक्ति की नहीं है। अंगरेजी हमारी सीमा है। सुनील गावस्कर की किताब का अनुवाद मात्र एक घटना मान लीजिए। अनुवाद नहीं। संपादन और रिपोर्टिंग में तो ख़ैर ज़िंदगी गुज़री है। अख़बार और पत्रिका के अलावा कई सारी किताबों का संपादन किया है। कुछ क्लासिक किताबों का भी। जैसे एक उपन्यास है 'एलेक्स हेली का रूट'। ग़ुलाम नाम से हिंदी में छपा था। पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन भी। 'कथा - लखनऊ' के 10 खंड तथा 'कथा - गोरखपुर' के 6 खंड का संपादन। प्रेमचंद पर भी एक किताब का संपादन किया है।
प्रश्न - आपने डायरी विधा में एक पुस्तक लिखी ' एक औरत की जेल डायरी ' इस पुस्तक के बारे में कुछ बताईये, इसे लिखने का ख़याल कब आया ?
उत्तर - एक औरत की जेल डायरी वस्तुत: उपन्यास है। शिल्प उस का डायरी है। संबंधित औरत ही जेल में थी। हम मिलने जाते थे। हमारी मित्र थी। पति के साथ जेल में थी। विवरण उसी के हैं। हम ने तो परोस भर दिया है। लिखने का खयाल उस औरत का ही था। वह अपने विवरण बता कर , अपने अवसाद से मुक्ति चाहती थी। कुछ मुक्त हुई भी वह अपने अवसाद से। हम तो उस औरत का नाम भी उपन्यास में देना चाहते थे पर उस औरत की अपनी कुछ और सीमाएं थीं। ज़्यादातर औरतों के लिए सीमा तोड़ना बहुत कठिन होता है। इस लिए नाम नहीं दिया। उस औरत के दिमाग में कहीं यह भी था कि ख़ुदा न खास्ता फिर कभी उसी जेल में जाना पड़ा तो मुश्किल हो सकती है। यह समस्या भी थी।
प्रश्न - आपने दस उपन्यास लिखे, कौन सा उपन्यास ह्रदय के सबसे ज्यादा करीब है और क्यों ?
उत्तर - दस नहीं , अभी तक तेरह उपन्यास हैं। चौदहवां लिख रहा हूं। सभी हृदय के क़रीब हैं। पर हां , पाठकों के बीच सब से ज़्यादा 'अपने - अपने युद्ध' पढ़ा जाता है। 'बांसगांव की मुनमुन' और 'लोक कवि अब गाते नहीं' भी ख़ूब लोकप्रिय है। बहुत पढ़ा जाता है। 'अपने - अपने युद्ध' पर विवाद भी बहुत हुए। हाईकोर्ट में कंटेम्प्ट आफ कोर्ट भी हुआ था। कुछ न्यायमूर्ति और वकील लोग बहुत नाराज हुए। और भी लोग नाराज हुए। कुछ पत्रकार भी। कवि भी। सब को अपना चेहरा 'अपने - अपने युद्ध' के दर्पण में दिखा। इसी तरह 'बांसगांव की मुनमुन' से असल मुनमुन ही नाराज हो गई। बेहद नाराज। मुनमुन का पूरा परिवार ही नाराज। बेतरह नाराज। सारे पात्र नाराज। दुश्मनी की हद तक। जब कि हमारा बड़ा कोमल रिश्ता था। अपनापन और आत्मीयता थी। अभी भी वह आत्मीयता महसूस करता हूं। लेकिन वह लोग दूर , बहुत दूर हो गए। तब जब कि मुनमुन का चरित्र बहुत पॉजिटिव है। ऐसे ही 'लोक कवि अब गाते नहीं' पर हमारे मित्र बालेश्वर बहुत नाराज हुए। हमारा सुबह - शाम का मिलना था। इस उपन्यास के कारण तीन - चार साल तक बोलना बंद हो गया। पर अचानक एक दिन सुबह वह हमारे घर आए। पैर पकड़ कर बैठ गए। कहने लगे , आप ने तो हम को अमर कर दिया ! कहने लगे कि हम तो पढ़ नहीं पाता एतना मोट किताब। कुछ चेला लोग हम को भड़का दिए। पर अब हम एक दूसरे पढ़वइया से एक - एक लाइन पढ़वा कर सुना हूं। समझा हूं। मनन किया हूं। तो अब आप के पास माफी मांगने आया हूं। माफ़ कर दीजिए। मैं ने उन्हें उठा कर गले लगा लिया।
हमारी दोस्ती पहले से ज़्यादा प्रगाढ़ हो गई। 'मैत्रेयी की मुश्किलें' की मैत्रेयी भी आज तक ख़फ़ा है। बहुत ख़फ़ा। 'एक औरत की जेल डायरी' की सूत्रधार भी दूर हो गई। 'मन्ना जल्दी आना' के शफ़ी भी नाराज हुए। मन्ना न ख़ुश हुए , न नाराज। ऐसे तमाम चरित्र हैं जो काग़ज़ पर छपने के बाद बुरा मान गए। दूर हो गए। बहुत कम चरित्र हैं जो काग़ज़ पर छपने के बाद भी पहले की तरह सामान्य रहे हैं। कुछ चरित्र बहुत ख़ुश भी हुए। जैसे 'वे जो हारे हुए' के एक चरित्र राकेश प्रताप बहादुर सिंह। उपन्यास छपने के कई साल बाद एक प्रोफेसर के हाथ लगा वह उपन्यास। तो उन प्रोफ़ेसर साहब ने उन्हें बताया। फिर फ़ोन कर के उन्हों ने मुझ से बात की। ख़ुशी भी जताई और दुःख भी। यह राकेश प्रताप बहादुर सिंह कोई और नहीं , गोरखपुर से दो बार सांसद रहे हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह हैं। एक रात हरिवंश जी जो अब राज्यसभा में उपसभापति हैं , ने फ़ोन कर 'वे जो हारे हुए' के लिए बधाई दी। बड़ी देर तक उपन्यास पर बात करते रहे। फिर अचानक पूछा कि यह राकेश प्रताप बहादुर सिंह कहीं हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह तो नहीं हैं ? बड़ी कहानियां हैं हमारे उपन्यास और कहानियों के पात्रों की। किसिम - किसिम की कहानियां। कुछ पात्रों को लगा कि उन को लिख कर हम ने बहुत पैसा कमा लिया है। इस में उन का भी हिस्सा बनता है। यह पढ़े - लिखे लोग हैं। इन के बारे में क्या ही कहें।
प्रश्न - आपकी पहली कहानी कौन सी थी ? अबतक लिखी समस्त कहानियों में कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है , और किस कारण ?
उत्तर - सब से पहली कहानी तो 'टूटत मचान' भोजपुरी में लिखी थी , आकशवाणी के लिए। आकाशवाणी , गोरखपुर पर भोजपुरी में पढ़ी थी। अब गुम हो गई है। अब भी पुराने काग़ज़ों में कभी-कभार खोजता रहता हूं पर नहीं मिलती। हिंदी में मेरी पहली कहानी 'सुंदर भ्रम' है। प्रेम कहानी है। अपनी लिखी कहानियों में सभी पसंद हैं। किसी एक का नाम नहीं ले सकता। कुछ कहानियां तो अभी भी पढ़ता हूं तो रुला देती हैं। लोग तो रोते ही हैं।
प्रश्न -पड़ोसी देश बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हो भीषण अत्याचार हो रहे हैं,सामूहिक हत्याओं सहित महिलाओं,बालिकाओं का अपहरण, बलात्कार , उनकी निर्मम हत्या ,सरकारी नौकरी में जो हिन्दू हैं उनसे कट्टरपंथी जेहादी जबरन इस्तीफा लिखवा ले रहे हैं। मगर भारत के पूरे साहित्य जगत में सन्नाटा छाया हुआ है,जबकि तस्लीमा नशरीन वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार पर लिख रही हैं, उस भारतीय साहित्य जगत को आइना दिखा रही हैं जो फिलिस्तीन ,सीरिया आदि की हिंसा पर तो मानवता के नाम पर खूब कागज रंगता,सोशल मीडिया पर नरम गरम होता है लेकिन पड़ोस में हो रहे अमानवीय अत्याचारों से बेखबर सो रहा है। इस स्थिति पर बतौर लेखक आप क्या कहना चाहेंगे ? क्या यह शर्मनाक नहीं है ?
उत्तर - बहुत शर्मनाक स्थिति है। पर ऐसी इस्लामिक हिंसा कोई नई बात नहीं है। इस्लाम का सारा इतिहास ही नरसंहार , हिंसा , बलात्कार और लूटपाट से भरा पड़ा है। जब कहीं मारकाट , अत्याचार , लूटपाट और हिंसा होती है उस में दखल सैनिक , सेनापति और शासक की ही होती है। लेखक की नहीं। लेखक , इतिहासकार का नंबर बहुत बाद में आता है। वह भी विवरण और दृष्टि परोसने के लिए। मुहावरा पुराना है साहित्य समाज का दर्पण है। दर्पण में दिखा ही तो लिखा जाएगा। चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान। कहने वाले कवि चंद्र बरदाई कम ही हुए हैं। पृथ्वीराज चौहान भी कम ही हुए हैं जो कवि की बात इस तरह सुन सकें।
प्रश्न - बतौर लेखक क्या आप कोई पहल करने का इरादा रखते हैं ?
उत्तर - लेखक की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ है। लेखक के लिखे का असर भी बहुत बाद में हो पाता है। दस्तावेज बन कर रह जाता है लेखक का लिखा। ग़ालिब कहते ही हैं :
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
तो यह सिर्फ़ इश्क़ के लिए ही मौजू नहीं है। लिखे को ले कर भी मौजू है। एक बात और आप कह सकते हैं कि इस शेर का रदीफ़ "होने तक" है , होते तक नहीं। पर अफ़सोस कि असल रदीफ़ होते तक ही है। ग़ालिब के दीवान में यह होते तक ही है। लेकिन गाने वालों ने इसे "होने तक" कर दिया है। तो लोग यही जानते हैं। पढ़ते कम , सुनते ज़्यादा हैं लोग। लेखकीय पहल की बहुत अहमियत नहीं रही अब। वह ज़माना और था , वह तुलसीदास और थे जिन की लेखकीय पहल की अहमियत थी। बहुत थी।
प्रश्न - कट्टरपंथी जेहादियों को लेकर ही प्रेम चंद ने एक कहानी लिखी थी 'जिहाद' उसके सौ वर्ष बाद तक ऐसी कोई कहानी नहीं आई फिर बीते २०२३ में मेरी एक कहानी आई 'जेहादन' जो ब्रिटेन,कैनेडा से पब्लिश हुई, फिर इसी शीर्षक से इसी विषय पर केंद्रित मेरी ग्यारह कहानियों का संग्रह भारतीय साहित्य संग्रह से आया। जिसे देख कर कई सेकुलरिस्ट लेखकों ने नाक भौं सिकोड़ ली, यहाँ तक कि एक वरिष्ठ साहित्यकार ने व्यक्तिगत बातचीत में दबे स्वर में आपत्ति भी प्रकट कर दी। मेरा कहना है कि कटरपंथी जेहादी हमारे समाज की एक कड़वी सचाई हैं,यह सचाई साहित्यकार नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा। बांग्लादेश को ध्यान में रखते हुए आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर - प्रेमचंद की कहानी जेहाद भी जेहादियों के पक्ष में है। प्रेमचंद की एक और कहानी है क्षमा। क्षमा में भी इस्लामिक हिंसा का विवरण बड़ा लोमहर्षक है पर कहानी अंतत : इस्लामिक हिंसा के पक्ष में चली जाती है। प्रेमचंद ही क्यों हिंदी की तमाम ऐसी कहानियां , फ़िल्में इस्लामिक हिंसा के पक्ष में हैं।ऐसे लेखकों और फिल्मकारों को भय लगा रहता है कि अगर वह इस्लामिक हिंसा के विरोध में खड़े हुए तो सांप्रदायिक घोषित हो जाएंगे। या फिर सिर तन से जुदा के शिकार बन जाएंगे। भीष्म साहनी का तमस पढ़ कर एक बार तो लगा कि इस्लामिक हिंसा की वह धज्जियां उड़ा देंगे। पर बाद में तमस में वह बैलेंस करने में लग गए। भाईचारा निभाने में लग गए। तमस पर बाद में दूरदर्शन पर धारावाहिक बना। उस ने भाईचारा की अति कर दी। ऐसे जैसे सारे दंगे की जड़ में हिंदू ही थे। भीष्म साहनी अमृतसर आ गया कहानी में भी यह कमज़ोरी भरपूर है। तब जब कि लाहौर से लाशों से भरी ट्रेनें आ रही थीं। हिंदुस्तान - पाकिस्तान बंटवारे के समय जितनी लाशें पाकिस्तान से आईं ट्रेनों में और कि पाकिस्तान में जिस तरह बेगुनाह हिंदुओं और सिखों का नरसंहार हुआ , उस पर आज तक ईमानदारी से नहीं लिखा गया। खुशवंत सिंह ने ज़रूर अंग्रेजी में 'ए ट्रेन टू पाकिस्तान' में खुल कर इस्लामिक हिंसा पर लिखा। लेकिन भाईचारे की बीमारी से वह भी नहीं बच सके। अंतत: ट्रेन टू पाकिस्तान को साज़िशन दबा दिया गया। अमृता प्रीतम ने 'पिंजर' में इस्लामिक हिंसा का लोमहर्षक विवरण दर्ज किया है। लेकिन फिर वही भाईचारा की बीमारी डस गई है उन्हें भी। लेकिन चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने जब 'पिंजर' पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई तो वह भाईचारे की बीमारी में नहीं फंसे। पर 'पिंजर' की कहानी तो नहीं बदल सकते थे। मिल्खा सिंह फ़िल्म में भी पाकिस्तान में सिखों पर हिंसा का जलता हुआ प्रसंग है पर एक छोटा सा हिस्सा भर है यह इस फ़िल्म का बस।
हिंदी में इस्लामिक हिंसा के ख़िलाफ़ लिखने का साहस अभी नहीं आया है। अलबत्ता कुछ फ़िल्में हैं जो प्रो टेररिस्ट हैं। जैसे हैदर , मुल्क , रईस , दाऊद की बहन हसीना पारकर पर इसी नाम से बनी फिल्म। अभी एक आइसी-814 द कंधार हाइजैक नाम से ओ टी टी कंधार बनाया है अनुभव सिनहा ने। वास्तव में सभी अपहरणकर्ता मुस्लिम थे और पाकिस्तानी थे। पर अनुभव सिनहा का भाईचारा देखिए कि इस ओ टी टी में दो अपहरणकर्ताओं के नाम भोला और शंकर हैं। ख़ैर अब थोड़ा सा भाईचारे को आइना दिखाने वाली कुछ फ़िल्में आने लगी हैं। जैसे 'कश्मीर फाइल्स' , 'केरल स्टोरी' और अब गोधरा नरसंहार पर 'साबरमती रिपोर्ट' फ़िल्म आई है। हो सकता है कहानी या उपन्यास भी अब आएं। शुरुआत फिल्मों से ही सही हो गई है। अमरीका में ट्रंप की जीत के बाद बांग्लादेश को ले कर लोगों का रुख भी बदला है। हो सकता है कुछ फ़िल्में कहानियां इस पर भी आएं। असल में एक बड़ा संकट यह है कि हिंदी या मुख्य धारा के सभी साहित्य पर वामपंथियों का एकाधिपत्य है और यह वामपंथी न तो ख़ुद स्वस्थ ढंग से सोचते हैं , न किसी को सोचने का अवकाश देते हैं। उन के इस शिकार का सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन ज्वलंत उदाहरण हैं। यह वही वामपंथी हैं जो पश्चिम बंगाल में नक्सलाइट मूवमेंट के दौरान जगह - जगह टैगोर की मूर्तियां तोड़ते हैं और माताओं को उन के बेटों के रक्त में सान कर भात खिलाते हैं। साहित्य और फ़िल्म बाक़ी और मीडियम पर अभी वामपंथियों का कब्ज़ा है। पाठ्यक्रम से लगायत फ़ेसबुक तक पर यही काबिज हैं। सभी अकादमिक जगहों पर अभी भी इन्हीं का वर्चस्व है।
प्रश्न - आपने विभिन्न विधाओं में बहुत कुछ लिखा है, क्या अब यह मानते हैं कि आप अपना सर्वश्रेष्ठ लिख चुके हैं ? यदि हाँ तो वह कृति कौन सी है ?
-उत्तर - श्रेष्ठ भी नहीं लिख सका हूं , ऐसा लगता है। सर्वश्रेष्ठ तो बहुत दूर की बात है। बहुत साधारण आदमी हूं।
आप निकट भविष्य में शीघ्र ही अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति लिख सकें, मेरी अशेष शुभकामनाएं। बातचीत के लिए इतना समय देने के लिए आप को बहुत धन्यवाद।
Vyanjanaa.com
[व्यंजना से साभार ]
No comments:
Post a Comment