बहुत कम लोग हैं हमारे जीवन में जिन की भाषा पर मैं मोहित हूं । संस्कृत में बाणभट्ट और कालिदास । रूसी में टालस्टाय । हिंदी में कबीरदास , तुलसीदास , हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय , निर्मल वर्मा , अमृतलाल नागर , मोहन राकेश , मनोहर श्याम जोशी । धूमिल और दुष्यंत की कविता पर अलग से मोहित रहता हूं । अंगरेजी में खुशवंत सिंह पर फ़िदा हूं । उर्दू में मीर , ग़ालिब पर फ़िदा हूं । फैज़ और मंटो भी भाते हैं । ब्रेख्त भी । यह फेहरिस्त कुछ लंबी है । और भी भाषाओँ में और लोग हैं । फ़िलहाल कुछ युवा लेखकों को फ़ेसबुक पर पढ़ा है और उन पर मर-मर मिटा हूं । अविनाश मिश्र , अतुल कुमार राय , आलोक शायक ऐसे ही कुछ युवा हैं ।
पर इन दिनों एक और युवा लेखक ने मुझे अपनी भाषा की ताजगी और तुर्शी से मोहित कर रखा है वह हैं सुशोभित सक्तावत। सुशोभित की भाषा में जैसे नदी बहती है । एक नदी से दूसरी नदी के मिलने के जाने कितने प्रयाग हैं , संगम और उस के ठाट हैं । सुशोभित की भाषा में बांकपन है , आग है , नदी है , उस की रवानी और रफ़्तार है । उन की कहन में , तर्कों में ऐसा ताप है , तथ्यों के ऐसे तार हैं कि आप उन्हें पढ़ते ही उन की भाषा के जादू में खो जाएंगे । अलग बात है , कुछ फ़ासिस्ट लोग उन की इस भाषा की आग में झुलस गए हैं तो कुछ लोग भस्म हो गए हैं । अफ़सोस कि भस्म हो कर फ़ेसबुक पर इन फ़ासिस्टों ने सामूहिक शिकायत कर दी है । सो फ़ेसबुक ने महीने भर के लिए उन का अकाउंट ब्लाक कर दिया है ।
इस लिए कि भारतीय जनतंत्र की तरह फ़ेसबुक भी संख्या बल और तकनीक पर ही यकीन करता है , सत्य , तथ्य और तर्क पर नहीं। किसी जिरह की तलब नहीं रखता फ़ेसबुक । भीड़तंत्र की यह भूख और प्यास है । संख्या बल के आगे झुकना ही पड़ता है । कोई भी हो । ठीक है यह भी । यह उस की अपनी परंपरा है , व्यवस्था है । लेकिन फ़ेसबुक फिर भी एक हद तक जनतांत्रिक है । तभी तो पूंजीवाद के प्रबल विरोधी भी पूंजीवाद द्वारा संचालित इस फ़ेसबुक पर पूरे दमखम से उपस्थित हैं । खैर , नए अकाऊंट के साथ सुशोभित फिर से उपस्थित हैं । उन का फिर से स्वागत है । इस लिए भी कि सुशोभित के सवालों की सुलगन समाप्त नहीं हुई है। कभी समाप्त नहीं होगी । सवालों और मुद्दों का अंबार है जैसे सुशोभित के पास । सुशोभित ने अभी अपनी एक पोस्ट में लिखा था :
कई लोग कह रहे हैं कि आप कला-संस्कृति पर लिखते हैं, वही अच्छा है, इन बातों में मत आइए। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस तरह की "पेट्रोनाइज़िंग" बातें करने की वैधता वे कहां से प्राप्त कर पाते हैं? यह लगभग "पितृसत्तात्मक" आग्रह है कि आप यह तय करें कि किस व्यक्ति को कला पर लिखना है, किसको राजनीति पर लिखना है और वामपंथी पाखंड के "कौमार्य" को भंग करने के अधिकार से किस-किसको वंचित रखना है!
बहरहाल, मेरी बौद्धिक चिंताओं का आधार इधर सुस्पष्ट रहा है।
मैं दुनिया के इतिहास में इस्लामिक परिघटना के उदय के साथ ही संघर्ष और विभेद की एक प्रवृत्ति को भी एक सुस्पष्ट विचलन की तरह लक्ष्य करता हूं। वैसे ही विचलन साम्राज्यवाद, फ़ासीवाद, साम्यवाद, माओवाद के भी रहे हैं, किंतु किसी और को इतना प्रश्रय नहीं दिया जाता है, जितना कि इस्लाम को, और यह मेरी चिंता के मूल में है।
इस्लाम में निहित आक्रामकता, क्रूरता, असहिष्णुता कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो किसी की नज़र से छिपी हो और पूरी दुनिया में व्याप्त "इस्लामोफ़ोबिया" इसकी बानगी है। अगर आप इस्लाम की समीक्षा करते हैं तो इससे आप दक्षिणपंथी नहीं हो जाते। अगर आप बहुत पढ़े-लिखे इंसान हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि आपको इस्लाम को मौन प्रश्रय देना चाहिए। बहुत ही "प्रोग्रेसिव" क़िस्म के लोग, जैसे अयान हिरसी अली इन दिनों यह कर रही हैं। वह एक अफ्रीकी महिला है, जो जाने किन भीषण संकटों से उभरकर सामने आई हैं। हिंदी साहित्य के अघाए हुए मठाधीश तो उन संघर्षों का अनुमान भी नहीं लगा सकते। नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल ने इस्लाम के चरित्र पर किताबें लिखी हैं। सैम्युअल हटिंग्टन ने सभ्यताओं के संघर्ष के मूल में इस्लाम की असहिष्णुता बताई है। वैसे अनेक विमर्श आज उपलब्ध हैं और सर्वमान्य हैं।
कई लोग कह रहे हैं कि आप कला-संस्कृति पर लिखते हैं, वही अच्छा है, इन बातों में मत आइए। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस तरह की "पेट्रोनाइज़िंग" बातें करने की वैधता वे कहां से प्राप्त कर पाते हैं? यह लगभग "पितृसत्तात्मक" आग्रह है कि आप यह तय करें कि किस व्यक्ति को कला पर लिखना है, किसको राजनीति पर लिखना है और वामपंथी पाखंड के "कौमार्य" को भंग करने के अधिकार से किस-किसको वंचित रखना है!
बहरहाल, मेरी बौद्धिक चिंताओं का आधार इधर सुस्पष्ट रहा है।
मैं दुनिया के इतिहास में इस्लामिक परिघटना के उदय के साथ ही संघर्ष और विभेद की एक प्रवृत्ति को भी एक सुस्पष्ट विचलन की तरह लक्ष्य करता हूं। वैसे ही विचलन साम्राज्यवाद, फ़ासीवाद, साम्यवाद, माओवाद के भी रहे हैं, किंतु किसी और को इतना प्रश्रय नहीं दिया जाता है, जितना कि इस्लाम को, और यह मेरी चिंता के मूल में है।
इस्लाम में निहित आक्रामकता, क्रूरता, असहिष्णुता कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो किसी की नज़र से छिपी हो और पूरी दुनिया में व्याप्त "इस्लामोफ़ोबिया" इसकी बानगी है। अगर आप इस्लाम की समीक्षा करते हैं तो इससे आप दक्षिणपंथी नहीं हो जाते। अगर आप बहुत पढ़े-लिखे इंसान हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि आपको इस्लाम को मौन प्रश्रय देना चाहिए। बहुत ही "प्रोग्रेसिव" क़िस्म के लोग, जैसे अयान हिरसी अली इन दिनों यह कर रही हैं। वह एक अफ्रीकी महिला है, जो जाने किन भीषण संकटों से उभरकर सामने आई हैं। हिंदी साहित्य के अघाए हुए मठाधीश तो उन संघर्षों का अनुमान भी नहीं लगा सकते। नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल ने इस्लाम के चरित्र पर किताबें लिखी हैं। सैम्युअल हटिंग्टन ने सभ्यताओं के संघर्ष के मूल में इस्लाम की असहिष्णुता बताई है। वैसे अनेक विमर्श आज उपलब्ध हैं और सर्वमान्य हैं।
फिर तो कुछ लोगों ने बलात सुशोभित के हिंदू होने की , संघी होने की बाकायदा सनद जारी कर दी । आरोप पहले से लगाते रहे थे । अदभुत है यह भी कि आप किसी से असहमत हों , उस के सवालों से मुठभेड़ न कर पाएं तो आप उसे फ़ौरन से पेश्तर हिंदू और संघी होने की सनद जारी कर दें । ऐसे गोया गाली दे रहे हों । फिर कतरा कर अपने वैचारिक राजमार्ग पर स्वछंद विचरण करें । गुड है यह तरकीब भी । खुदा बचाए ऐसी तरकीबों से । क्यों कि किसी जातीय या मज़हबी नफ़रत से भी खतरनाक है यह वैचारिक नफ़रत । इस वैचारिक नफ़रत और स्खलन से तौबा करना बहुत ज़रुरी है ।
सुशोभित उन दिनों अभिनेत्री दीप्ति नवल पर लिख रहे थे , लिख कर गोया उन के अभिनय का नया सिनेमा रच रहे थे । उन की भाषा पर मैं तो क्या दीप्ती नवल भी मर मिटीं । सुशोभित की भाषा में जो सुबह की ओस सा टटकापन है , उन की सूचनाओं में जो दर्प है , उन की कहन में जो ठाट है , तथ्य और तर्क है उस के जाल में आ कर आप उन से बच नहीं सकते । वह स्थापित चीज़ों में तोड़-फोड़ बहुत करते हैं । यही उन की ताक़त भी है । हो सकता है आप उन्हें पूरी सख्ती से नापसंद करें पर अगर आप स्वस्थ मन और दिल दिमाग के मनुष्य हैं तो उन की किसी बात से असहमत भले हों , विरोध भले करें , उन का तुरंत जवाब देना आप के वश में नहीं रह जाता । यह ताकत मैं ने आचार्य रजनीश में पहले देखी थी , अब सुशोभित सक्तावत में देख रहा हूं । रजनीश को भी आप नापसंद कर सकते हैं , असहमत हो सकते हैं लेकिन पलट कर उन के तर्कों को आप उसी शालीनता से उन्हें निरुत्तर नहीं कर सकते । तो सिर्फ़ इस लिए कि रजनीश कुतर्क नहीं करते , अपने अध्ययन की बिसात पर , अपने तथ्य और तर्क पर आप को ला कर खड़ा करते हैं । और अगर आप अध्ययन में विपन्न हैं , तर्क में दरिद्र हैं , कुछ ख़ास पहाड़ा रट कर सारा गणित निपटा लेना चाहते हैं तो माफ़ करें आप को अभी नहीं तो कभी तो खेल से बाहर निकलना ही पड़ेगा । आऊट होना ही पड़ेगा । सुशोभित भी रजनीश की तरह न सही जबलपुर के , उज्जयनी के हैं , इंदौर में रहते हैं । अध्ययन , भाषा , तर्क , तथ्य और सत्य की पूंजी है सुशोभित के पास । जिरह की उन की ख़ुशबू ही और है । तो सुशोभित के तर्क के कंटीले तार में जब लोग घिर जाते हैं तो हिंदू और संघी कह कर भागने की पटकथा रचते हैं और हुवां हुवां करते हुए भाग लेते हैं । फ़ेसबुक पर सामूहिक शिकायत कर अपना फ़ासिस्ट चेहरा दिखा देते हैं ।
सुशोभित उन दिनों अभिनेत्री दीप्ति नवल पर लिख रहे थे , लिख कर गोया उन के अभिनय का नया सिनेमा रच रहे थे । उन की भाषा पर मैं तो क्या दीप्ती नवल भी मर मिटीं । सुशोभित की भाषा में जो सुबह की ओस सा टटकापन है , उन की सूचनाओं में जो दर्प है , उन की कहन में जो ठाट है , तथ्य और तर्क है उस के जाल में आ कर आप उन से बच नहीं सकते । वह स्थापित चीज़ों में तोड़-फोड़ बहुत करते हैं । यही उन की ताक़त भी है । हो सकता है आप उन्हें पूरी सख्ती से नापसंद करें पर अगर आप स्वस्थ मन और दिल दिमाग के मनुष्य हैं तो उन की किसी बात से असहमत भले हों , विरोध भले करें , उन का तुरंत जवाब देना आप के वश में नहीं रह जाता । यह ताकत मैं ने आचार्य रजनीश में पहले देखी थी , अब सुशोभित सक्तावत में देख रहा हूं । रजनीश को भी आप नापसंद कर सकते हैं , असहमत हो सकते हैं लेकिन पलट कर उन के तर्कों को आप उसी शालीनता से उन्हें निरुत्तर नहीं कर सकते । तो सिर्फ़ इस लिए कि रजनीश कुतर्क नहीं करते , अपने अध्ययन की बिसात पर , अपने तथ्य और तर्क पर आप को ला कर खड़ा करते हैं । और अगर आप अध्ययन में विपन्न हैं , तर्क में दरिद्र हैं , कुछ ख़ास पहाड़ा रट कर सारा गणित निपटा लेना चाहते हैं तो माफ़ करें आप को अभी नहीं तो कभी तो खेल से बाहर निकलना ही पड़ेगा । आऊट होना ही पड़ेगा । सुशोभित भी रजनीश की तरह न सही जबलपुर के , उज्जयनी के हैं , इंदौर में रहते हैं । अध्ययन , भाषा , तर्क , तथ्य और सत्य की पूंजी है सुशोभित के पास । जिरह की उन की ख़ुशबू ही और है । तो सुशोभित के तर्क के कंटीले तार में जब लोग घिर जाते हैं तो हिंदू और संघी कह कर भागने की पटकथा रचते हैं और हुवां हुवां करते हुए भाग लेते हैं । फ़ेसबुक पर सामूहिक शिकायत कर अपना फ़ासिस्ट चेहरा दिखा देते हैं ।
लेकिन विमर्श की भाषा शिकायत की नहीं होती । हिंदू और संघी कह कर कतराने की नहीं होती । यह बात हमारे तमाम दोस्त नहीं जानते । एन जी ओ फंडिंग का विमर्श चलाना या किसी पूर्वाग्रह और ज़िद में फंसे रहना और बात है , सत्य , तथ्य और तर्क और बात है । सुशोभित सच्चा विमर्श जानते हैं , गिरोहबंदी नहीं । सेक्यूलरिज्म का यह नव फासीवाद मत खड़ा कीजिए दोस्तों । हर हिंदू , संघी नहीं होता । आप यह एक नया हिंदू रच रहे हैं , इस से बचिए । कुतर्क , फासिज्म और फ़ेसबुक से आगे भी दुनिया है । समय की दीवार पर लिखी इबारत को पढ़िए और अपने इस छल-कपट से भरसक बचिए । सुशोभित सक्तावत जैसे लेखकों की यातना को , उन के बिगुल को , उन के मर्म को समझने की कोशिश कीजिए । सुशोभित की बातों का तार्किक जवाब बनता हो तो ज़रुर दीजिए । नहीं ए सी चला कर कंबल ओढ़ कर सो जाईए । फ़ेसबुक पर सामूहिक शिकायत कर ब्लाक करने का फासिज्म बंद कीजिए । आप अपने इस अभियान में खुद नंगा हो रहे हैं । हो सके तो ख़ुद को नंगा होने से बचा लीजिए । सुशोभित के सवालों की आग बहुतों को जला रही है , इस आग से हो सके तो मोर्चा लीजिए नहीं , बच लीजिए वरना जला डालेगी । अपने से असहमत लोगों को भी सुनना सीखिए दोस्तों । कोई विमर्श तभी बनता है जब सहमत और असहमत दोनों साथ हों । नहीं मैं तेरी पीठ खुजलाऊं , तू मेरी पीठ खुजला । तू मेरे लिए ताली बजा , मैं तेरे लिए ताली बजाऊं वाला आप का आज का विमर्श आप में खालीपन भर देगा । खोखला बना कर आप को एक गिरोह में बदल देगा । बल्कि बदल चुका है । आप खाप पंचायत बनने से , वैचारिक तालिबान बनने से भरसक बचिए । सुशोभित की बातों से , सवालों से मुठभेड़ कीजिए न । तू तकार और हिकारत की भाषा नफ़रत की भाषा है , इस से बचिए । आप का बड़प्पन डूब जाता है इस तू तकार और नफ़रत में । सुशोभित की बात के ताप को महसूस कीजिए । सुशोभित कम बोलते हैं , उन की बात ज़्यादा बोलती है । शमशेर की कविता याद आती है :
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!
सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।
दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।
सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।
दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का - अमर वर :
एकता का स्वर।
-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति।
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!
सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।
दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।
सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।
दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का - अमर वर :
एकता का स्वर।
-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति।
बहुत सी बातें जो हमें भावना के स्तर पर सही लगती हैं, सुशोभित जी उसका भी तार्किक पक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। अद्भुत विश्लेषण करते हैं।
ReplyDeleteYes, he is certainly a good thinker..
ReplyDeleteवाह, भै, सशक्तीकरण का स्वागत
ReplyDeleteसहमत
ReplyDeleteI wanna to meet you sir...realy u r amazing writer...u make me learn from what u right..
ReplyDeleteस्वागत है !
Deleteसुशोभीत ..
ReplyDeleteभेडिए हमेशा समुह में अाक्रमण करतें हैं ।
एक एक लफ्ज सही...
ReplyDeleteअगर आप अध्ययन में विपन्न हैं , तर्क में दरिद्र हैं , कुछ ख़ास पहाड़ा रट कर सारा गणित निपटा लेना चाहते हैं तो माफ़ करें आप को अभी नहीं तो कभी तो खेल से बाहर निकलना ही पड़ेगा । आऊट होना ही पड़ेगा ।.....सहमत
ReplyDeleteइस पोस्ट के पढ़ने के बाद कल से सुशोभित को पढ़ना शुरू किया है।
ReplyDeleteSIR, I WANT TO MEET YOU.YOU ARE FROM GORAKHPUR AND I AM ALSO FROM GORAKHPUR.RIGHT NOW STUDYING IN LL.B FROM DDU UNIVERSITY....YOU ARE A GREAT PERSONALITY AND I FOUND MYSELF TO BE INSPIRED
ReplyDeleteआप जब चाहें मिल सकते हैं , स्वागत हैं !
DeleteGajab
ReplyDeleteजे ब।त
ReplyDeleteachha kiye ......... bhaiji.............ek akela "sushobhit" is waqt pure "wam" ka kam tamam kiye hue hai.........abhar........pranam.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअच्छा .............
ReplyDeleteबेहतरीन लेखनी .......
ReplyDeleteएक लेखक के लिए एक लेखक का बढ़िया विश्लेषण।
ReplyDeleteएक लेखक के लिए एक लेखक का बढ़िया विश्लेषण।
ReplyDeleteअच्छा लिखा सर ! सुशोभित संघी नहीं ओ के ,
ReplyDeleteहर हिन्दू संघी नही होता ? ये संघ की चर्चा अपराधबोध से क्यों ? सफाई किसको ओर कायको ? पूर्वाग्रह जैसा कुछ नहीं लगता ?