किताबघर प्रकाशन , दिल्ली की पत्रिका समकालीन साहित्य समाचार के संपादक
सुशील सिद्धार्थ ने बढ़ता संपर्क , घटती आत्मीयता विषय पर एक परिचर्चा में
मुझ से भी शिरकत करने को कहा और जून अंक में उसे प्रकाशित किया। प्रस्तुत है
समकालीन साहित्य समाचार की उक्त परिचर्चा में प्रकाशित मेरी टिप्पणी :
मेरे एक पड़ोसी वकील थे ।
प्रैक्टिस कुछ ख़ास नहीं थी । पर मार्निंग वाक उन का बहुत ख़ास था । वह रुट बदल-बदल कर
मार्निंग वाक करते थे । आई ए एस अफ़सरों और मंत्रियों के रुट पर ही वह टहलते ।
प्रणाम-प्रणाम करते हुए । मार्निंग वाक करते-करते वह हाई कोर्ट में स्टैंडिंग
काउंसिल बन गए । देखते ही देखते वह हाई कोर्ट में जस्टिस बन गए । मार्निंग
वाक के बहाने दलाली की दुकान उन की फिर भी बंद नहीं हुई । वह चीफ जस्टिस हो
कर अवकाश प्राप्त हो गए हैं । पर क़ानून किस चिड़िया का नाम है , वह यह भी नहीं जानते । क़ानून जगत के लोग
भी उन्हें
नहीं जानते । उन के ज़्यादातर निर्णय सुप्रीम कोर्ट में पलट जाते थे । पर उन को शर्म नहीं
आती थी । वह
तरस जाते हैं अब एक सलाम भर के लिए । क़ानून भले नहीं जानते थे पर क़ानून बेचना उन्हें
ख़ूब आता था । बेचा और ख़ूब पैसा कमाया । पर
अपने घर में भी वह अब अजनवी हैं । उन के परिजन भी उन से कतराते हैं । हां उन के फार्म हाऊस और कोठियां बहुत
हो गई हैं । दिल्ली और मुंबई जैसी जगहों पर भी उन के आशियाने हैं ।
बाक़ी किसी की बात क्या
करूं , अपनी ही बात करता
हूं। बहुतेरे ऐसे लोगों से साबक़ा पड़ता रहता है । अकसर पड़ता रहता है
। अगर फला जान गए कि मुझ से उन का काम बन सकता है तो वह मेरा चरण धो कर
पीने लगते हैं । लेकिन काम हो जाते ही वह न सिर्फ़ भूल
जाते हैं बल्कि सामने पड़ने पर भी पहचान नहीं पाते । बिना देखे निकल जाते हैं । और जो फिर कोई काम
पड़ गया तो मैं फिर उन का भगवान । रिपीट अगेन एंड अगेन की यह चिरंतन कथा
है । और जो आप ने भूल कर भी कभी उन की बात को नज़र अंदाज़ कर दिया तो वह क्या
क्या न कह और कर गुज़रेंगे।
गिव
एंड टेक की इस दुनिया में इसी लिए मैं या मेरे जैसे लोग चारो खाने चित्त हैं । बेईमान बहादुरों की
इस दुनिया में पानीदार आदमी पागल घोषित है ।
मंज़र तो यह है कि आप जितने
बड़े दलाल हैं , जितने
बड़े हिप्पोक्रेट हैं , जितने बड़े कमीने , कांईयां और भ्रष्ट हैं उतने ही बड़े आदमी
हैं , उतने ही सफल आदमी हैं । यह दुनिया
आप की ही है । आप की योग्यता , आप
की असफलता की बहुत बड़ी कुंजी है ।
जीवन में पहले छोटी-छोटी
इच्छाएं थीं । पूरी हों तो भी न पूरी हो तो भी पहाड़ी झरने सी आत्मीयता तो समुद्र सी आत्मीयता
भी थी । मां की तरह आंचल फैलाए आत्मीयता में डूब जाने का सुख भी
अनिर्वचनीय था । अब बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं । इन
महत्वाकांक्षाओं के आगे आत्मीयता का झरना सूख गया है । संपर्क का कातिलाना वार तारी है । दिक्कत यह है कि आप हर किसी
को जानते हैं लेकिन कठिन यह कि आप को कोई नहीं जानता। उस से भी कठिन यह कि कोई किसी को नहीं
जानता। निदा फाजली का वह जो एक शेर है कि
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
आप कभी सोशल साईट पर फोटुओं की भरमार का मंज़र
देखिए। कोई पिद्दी जैसा
मसखरा भी सेलिब्रेटी बना बैठा है । फ़ोटोशाप के कमाल से आप दुनिया भर के
राष्ट्राध्यक्षों के साथ अपनी फ़ोटो चिपका कर छाती फुला सकते हैं । अगला आप को
जानता है या नहीं जानता है तो क्या हुआ उस फला के साथ आप की फ़ोटो तो है। बेकल उत्साही का एक शेर याद
आता है।
बेच दे जो तू अपनी जुबां अपनी अना
अपना जमीर
फिर तेरे हाथ में सोने के
निवाले होंगे
मंज़र तो यही पेश है हमारे सामने । आप के सामने क्या नहीं है ?
[ समकालीन साहित्य समाचार से साभार ]
सहमत. "उसके दुशमन हैं बहुत, आदमी अच्छा होगा, वो भी मेरी तरह शहर में तनहा होगा" -- निदा फाजली
ReplyDeleteबेच दे जो तू अपनी जुबां अपनी अना अपना जमीर
ReplyDeleteफिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे-
बहुत सुन्दर