Tuesday, 23 September 2014

पुस्तक मेले में आज़ादी की लड़ाई की किताबें खोजते नारायण दत्त तिवारी


 

आज लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में नारायणदत्त तिवारी जी से मुलाक़ात हो गई। मिलते ही वह भाव विभोर हो गए । हालचाल पूछा और उलाहना भी दिया कि, ' मैं इतने दिनों से लखनऊ में हूं लेकिन आप कभी मिलने आए ही नहीं।' मैं संकोच में पड़ गया । फिर भी धीरे से कहा कि  , 'आप ने कभी बुलाया ही नहीं । ' लेकिन वह सुन नहीं पाए । अब वह ज़रा ऊंचा सुनने लगे हैं । तो मैं ने फिर ज़रा ज़ोर से यही बात कही तो  उन्हों ने मेरा हाथ पकड़ लिया और धीरे से बोले , 'आप बिलकुल नहीं बदले !' वह बोले , ' अब से आप को बुला रहा हूं ,  '  आप माल एवेन्यू आइए !'  वह ह्वीलचेयर पर थे सो मैं खड़े-खड़े उन से बात कर रहा था तो वह कहने लगे , 'आप विद्वान आदमी हैं मेरे सामने आप इस तरह खड़े रहें अच्छा नहीं लग रहा।' फिर उन्हों ने अपने एक सहयोगी से कह कर बग़ल की दुकान से एक कुर्सी मंगाई  और कहा कि , 'अब बैठ कर बात  कीजिए । '

 फिर वह अचानक पूछने लगे कि , ' आज़ादी को ले कर कोई किताब मिलेगी , आज़ादी की लड़ाई के बारे में ?' मैं ने कहा कि , ' हां लेकिन घर पर है , लानी पड़ेगी !' वह कहने लगे , ' यहां मेले में ? ' तो मैं ने बताया कि , मिलेगी तो !' तो पूछने लगे , ' कहां ?' बताया फला -फला  के स्टाल पर मिल सकती है । फिर उन्हों ने कागज़ मंगवाया और कहने लगे , ' कुछ किताबों के नाम लिख दीजिए । ' मैं ने लिख दिया । तो वह बोले , 'अपने घर का पता और फोन नंबर भी लिखिए । ' वह भी लिख दिया । बात ही बात में मैं ने उन्हें अपने ऊपर किए गए उन के उपकारों को गिनाना शुरू किया और याद दिलाया कि कैसे वह मेरे एक्सीडेंट में भी मुझे देखने आए थे और मेरी मदद की थी तो वह बोले , ' यह तो मेरा धर्म था । ' जब भी कोई बात कहूं  तो हर बात पर वह  यह एक बात दुहराते , ' यह तो मेरा धर्म था !' बतौर मुख्यमंत्री , उद्योग मंत्री , वाणिज्य मंत्री , वित्त मंत्री के अपने दिनों को भी याद करते रहे । भीड़ बढ़ने लगी तो कहने लगे कि , 'अब घर आइए । ' अचानक फ़ोटो  खिंचती देखे तो कहने लगे , ' हमारे साथ आप की भी एक फ़ोटो  जैसी फ़ोटो  खिंच जाए !' फिर जब चलने लगा तो उन के एक सहयोगी बोले , ' मैडम से भी  मिलते जाइए !' मैं ने पूछा ,  ' कौन मैडम ?'  सहयोगी ने पीछे की दूकान पर बैठी किताबें देख रही उज्ज्वला जी की तरफ़ इशारा किया ।  मैं ने कहा कि , उन्हें अभी किताबें खरीदने दीजिए और तिवारी जी को नमस्कार कर उन से विदा ली । सचमुच  इतने विनम्र, मृदुभाषी  और संवेदनशील राजनीतिज्ञ मैं ने कम ही देखे हैं और तिवारी जी उन में विरले हैं ।  हालां कि अब वह बिखर से गए हैं और वह जो कहते हैं न कि वृद्ध और बालक एक जैसे होते हैं ! तो हमारे तिवारी जी उसी पड़ाव पर आ गए दीखते हैं ।



 


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