शोहरत के लिए इतनी बेताबी क्यों है
उन के हाथ में तुम्हारे देह की चाभी क्यों है ?
जैसी कविताएं लिखने वाले मेरे प्रिय कवि, अभिनेता, छोटे भाई मनोज भावुक कल लखनऊ आए थे । हमारे घर भी आए अजयश्री , राजेश पांडेय और साथियों के साथ । बतकही और कवितई भी खूब हुई । भोजपुरी में भी और हिंदी में भी । उन की ही कविताई में जो कहूं तो :
हमरा डर बा कहीं पागल ना हो जाए ‘भावुक’
दर्द उमड़त बा मगर आँख लोराते नइखे !
जैसी स्थिति थी । और हाल भी ऐसा ही था कि :
रिश्ते अगर मजबूत होगे
न कोई फांक होगा, न कोई सांप होगा !'
और सुख-दुःख भी ऐसा ही कि :
बर पीपर के छाँव के जइसन बाबूजी
हमरा भीतर गांव के जइसन बाबूजी
छूटल गांव, छिटाइल लावा भुंजा के ,
नेह लुटाइल साथी रे एक दूजा के ,
शहर-शहर में जिनिगी छिछिआइल, माँकल
बंजारा जिनिगी , धरती धीकल, तातल
पाँव पिराइल मन थाकल रस्ता में जब
मन के भीतर पाँव के जइसन बाबूजी
दुःख में प्रभु के नांव के जइसन बाबूजी !
लेकिन भावुक तो भावुक ही हैं। उन की कविता में ही कहूं तो :
मंदिर मंदिर मै गई मिटा न मन का पाप
भावुक से जैसे मिली, दूर हुआ संताप !
जैसी बात भी हुई । अपने सिनेमाई और धारावाहिकों के गीतों की भी कई बानगी पेश की । लेकिन सब कुछ के बावजूद जब वह जाने लगे तो , ' तुम उन चिठ्ठियों में हो जो तुम्हें दे न सका!' वाला भाव भी वह बो गए । बल्कि दोनों तरफ ऐसी ही स्थिति थी । आखिर एक तो मनोज दूसरे भावुक तो वह करते भी तो क्या करते ! गए पर फिर जल्दी ही आने का वादा कर के ।
tathyapooran sahityik samikchha---vyakti ko samazane bhavo ki abhivyakti ka aur vishayo ko gaharai se parakhane ki adbhud chhamata-----sadar aabhar-------"AJAYSHREE"
ReplyDeleteभावुक जी भावों और मूल्यों के कवि हैं। इनकी कविताएं, गजल, गीत अंतर्मन के सभी छोरों को स्पंदित करती हैं। भावुक जी शहरी जीवन और आधुनिकता के छिछलेपन को तंज क साथ बेनकाब करते हैं। ग्रामीण जीवन की खुबसूरती एवं रिश्तों की सजीवता इनके रचना संसार चारों तरफ छिटकी पड़ी है। शहर में गांव की तलाश की जो बेचैनी है वह विस्थापन का दर्द झेल रहे लोगों की अपनी आवाज बनकर उभरती है....
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