Friday, 12 September 2014

और कई दिन तक मुनमुन मेरे दिल- दिमाग में चहलक़दमी करती रही

 दिव्या शुक्ला

आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं । ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाने भी न ले सकूं।   मैं  पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं ! तल्खी भरे यह सख़्त  वाक्य --अपने स्वार्थी भाइयों को दो टूक जवाब एक करार तमाचा सा था । मुनमुन के पास स्वाभिमान से जीने का यही तो एक हथियार था । और साथ ही गांव , कस्बों और शहरों में भी दोहरा जीवन जीती उन हज़ारों औरतों के लिए संदेश भी ---और फिर मां  के टोकने पर - बेटी सुहाग के यह चिन्ह मत छोड़ो । चलो पहनो चूड़ी।  सिंदूर लगाओ । बोल पड़ी मुनमुन मन का दबा ज्वार फूट पड़ा --जिस चूड़ी सिंदूर की न तो छत है न छांव , न सुरक्षा उसे लगा कर भी क्या करना --अगर यह सुहाग चिन्ह है तो जो पुरुष अपना न हो वो कैसा सुहाग ? उस के चिन्ह क्यों धारण करना -जो हमारे लायक़ नहीं उसे झटक फेंक देना ही उचित --क्यों ढोना उसे ? जिस चुटकी भर सिंदूर ने उस की दुनिया ही नर्क कर दी उसे तिलांजलि देना ही उचित ।

मुनमुन की पहचान पहले बांसगांव के नामी वकील की बेटी फिर उच्च पदों पर आसीन भाइयों की बहन के रूप में सम्मानित बहन बेटी की । फिर जल्दी  ही लोगों की निगाहों में ललक भी झलकी परंतु शीघ्र ही वह एक सताई हुई औरत हो गई । लोगों की आंखों में दया करुणा या अकसर उपेक्षा झलकने लगी । पर समाज और परिवार की सताई औरतें मुनमुन में अपनी मुक्ति भी तलाशने लगी उस से सलाह लेती वह इन सब का आदर्श बन गई और अपना रास्ता अपनी मंजिल खुद तलाशी और अपना मुकाम हासिल किया। अपने संघर्ष के बारे वह यही कहती है कि सब कुछ बदलता है कुछ भी स्थाई नहीं न सुख न दुःख न समय। मुनमुन की यह कहानी समाज में संयुक्त परिवार के विघटन और उनमे पनपते स्वार्थो का उदाहरण है । बेटियां मां बाप का सुख दुःख अपने कलेजे में ले कर जीती  हैं । वहीं अधिकांश बेटे सफल होते ही उपेक्षित कर देते है अपने माता पिता को । 

दयानंद पांडेय जी का यह उपन्यास गांव कस्बों की तसवीर आईने की तरह सामने लाता है बांसगांव की मुनमुन के रूप में। परिवारों में आगे निकलने की होड़ कितना पतित बना देती है --संयुक्त परिवार का विघटन , पैसा कमाने की होड़ में जहां आगे बढ़ते गए पीछे अपने रिश्तों को दफ़न करते गए । लाचार बेबस माता पिता भले ही दवा और दाने को तरसे परंतु बेटे के ऊंचे  पद की चर्चा मात्र से आंखें गर्व से चमक जाती हैं । वहीं बुढ़ौती  में पुत्रों पर आर्थिक रूप से निर्भर पिता कितना लाचार होता है। यह उपन्यास पढ़ते हुए मानो कितने मुनक्का राय हमारे इर्द-गिर्द नज़र आने लगते हैं । तो क्या सफलता स्वार्थ भी साथ ले कर आती है? 

कभी-कभी अभाव खून का रंग सफ़ेद कर देता है । जिस बहन को बचपन में नन्ही परी चांदनी के रथ पर सवार/ गुनगुनाते हुए झुलाते थे उसे जीवन की उबड खाबड़ राहों में धकेल दिया। विवाह का बोझ उतार कर विदा किया और निशचिंत हुए।अपनी लड़ाई लड़ना, अपने घाव से टपकते रक्त को अपनी जिह्वा से चाटना कितना पीड़ादायक है यह वह स्त्री ही जानती है । तब जन्म लेती है एक दूसरी स्त्री जो अपने प्रति किए  सारे अपराधों  का दंड स्वयं तय करती है। यह उस की अपनी अदालत, अपना मुक़दमा और हाक़िम वही । कटघरे में है कुछ रक्त से जुड़े नाते तो कुछ समाज द्वारा तय किये गए जन्मांतर के नाते, जो कांटे की तरह चुभने लगे ! यह एक नया रूप था पति परमेश्वर की महिमामंडित छवि की खंडित करती नकारती नारी का, जिसे पुरुष समाज पचा नहीं पा रहा था। पर सफलता के आगे सदैव स्वार्थ झुकता है।  

समाज ने अंतत स्वीकार किया । पर नायिका का तो प्रेम और रिश्ते नातों से विश्वास उठ गया । लेखक ने इसे बड़ी बखूबी से दर्शाया है । ऐसा लगता है पात्रों के मस्तिष्क में चल रही हलचल भी पाठकों तक पहुंच रही है । यही सफलता होती है एक अच्छे लेखक की। जातिवाद भी है।  राजनीति  के पहलुओं को भी छुआ है। कुल मिला कर गांव कस्बों के जीवन और एक स्त्री के संघर्ष पर आधारित यह पुस्तक पठनीय है । यह उपन्यास इतना रोचक है कि इसे मात्र तीन दिन में पढ़ा । और कई दिन तक मुनमुन मेरे दिल-दिमाग में चहलक़दमी करती रही। 

[ दिव्या शुक्ला अपनी फेसबुक वाल पर ]




समीक्ष्य पुस्तक :


बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012




1 comment:

  1. samiiksha padhkar upanyas padhane ki utkat ichchha hui .. badhayi lekhak ko aur samiikhsakaar divya shukla ko ..

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