हां, मैं यह बात पूरे मन से स्वीकार करता हूं और कि पूरी विनम्रता से स्वीकार करता हूं कि मुझे एक बहुत बड़ी बीमारी है । लाइलाज बीमारी । अगर इस का इलाज , दवा या कोई हिकमत किसी मित्र या दुश्मन के पास भी हो तो ज़रूर बता दे । बीमारी मैं बताए देता हूं । वह बीमारी यह है कि मैं जब किसी के बारे में कोई बात करता हूं या कुछ लिखता हूं तो मेरी बातों और यादों के दर्पण में वह आदमी, आदमी ही बना रहता है मैं उसे देवता नहीं बना पाता । तो शायद इस लिए भी कि मैं अपनी तरफ से कुछ कहने के बजाय दर्पण में जो दिखता है उसी के हिसाब से बोल या लिख देता हूं । जस की तस धर दीनी चदरिया वाली बात होती है । फिर भी लोग बुरा मान जाते हैं । अपने को बड़ा-बड़ा विद्वान मानने वाले लोग बुरा मान जाते हैं । तो कुछ अन्य लोग चुहुल में ही सही मुझे दुर्वासा या ऐसा ही कुछ और कहने , बताने लग जाते हैं । तो क्या करूं ? यह दर्पण फोड़ दूं कि यह लिखना छोड़ दूं ? क्यों कि दर्पण तो भले उसे सोने के फ्रेम में ही सही कैद कर दीजिए, वह तो सच ही बोलेगा। और मैं लोगों को देवता बना नहीं पाऊंगा । जब कि अब अधिकांश लोगों की तमन्ना देवता बनने की ही है, होती ही है । और यह मुझ से हो पाता नहीं । होगा भी नहीं कभी । कृष्ण बिहारी नूर लिख गए हैं :
सच घटे या बढे तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं ।
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आइना झूठ बोलता ही नहीं ।
तो मैं क्या करूं ? मित्रों , कुछ तजवीज दीजिए । लाचार हो गया हूं । बिछड़े सभी बारी-बारी की नौबत आ गई है। तमाम मित्र लोग मुझ से विदा तो लेते ही जा रहे हैं, दुश्मन की निगाहों से भी देखने लगे हैं मुझे । समझ रहे हैं न आप लोग कि मैं क्या कह रहा हूं ? आदमी को आदमी कहना भी बताइए कि पाप हो गया है । दुखवा मैं कासे कहूं ? क्यों कि बहुत लोग तो बहुतों को देवता बना रहे हैं । तू मुझे खुदा कह , मैं तुझे खुदा कहता हूं ! का बाज़ार अपनी पूरी रवानी पर है ! खुदा निगेहबान हो तुम्हारा, धड़कते दिल का पयाम ले लो ! शकील बदायूनी ने इन हालात के लिए तो नहीं ही लिखा था !
bebak batchit,aapka srorkarnama padhna jaise lgta hai.aap se bat ho rhi.amezing
ReplyDeleteहर आलेख पर फ़िदा
ReplyDelete