[सिनेमा से संबंधित आलेख और इंटरव्यू]
-अब की पुस्तक मेले में मेरी तीन नई किताबें -
१-ग्यारह पारिवारिक कहानियां
[कहानी-संग्रह]
२-सात प्रेम कहानियां
[कहानी-संग्रह]
३-सिनेमा-सिनेमा
[सिनेमा से संबंधित लेखों और इंटरव्यू का संग्रह]
यह सभी किताबें जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।
दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली के स्टाल पर
आप को यह किताबें मिल सकती हैं।
सिनेमा के सच और समाज के सच जैसे एक दारुण सच बन गए हैं।
लगता ऐसे है जैसे सिनेमा न हो तो जीवन न हो। जीवन का एक विकट सच यह भी है
कि हमारे भारतीय समाज में, दुनिया में हिंदी अगर आज तमाम दुश्वारियों के
बावजूद सर उठा कर खड़ी है तो उस में हिंदी सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है।
सोचिए कि अगर हिंदी सिनेमा हिंदीमय और बाज़ार न हो तो हिंदी कौन बोलेगा? कौन
सुनेगा? रोजगार से हिंदी गायब है, अदालतों से, विधाई कार्यों से,
ज्ञान-विज्ञान से और तमाम हलकों में हिंदी का नामलेवा कोई नहीं है। ऐसे में
हिंदी सिनेमा और उस का संगीत हिंदी की अप्रतिम ताकत है। गरज यह है कि
सिनेमाई सरोकार हमारे जीवन की धड़कन बन चले हैं। खाना, ओढ़ना, पहनना, रहना,
जीना यानी जीवन के सारे रंग, रस और रोमांच जैसे सिनेमाई सरोकारों ने ज़ब्त
कर लिए हैं। अमिताभ बच्चन बताते हैं कि उन के बाबू जी हरिवंश राय बच्चन
कहते थे कि हिंदी फ़िल्में पोयटिक जस्टिस देती हैं। कहीं सच भी लगता है।
क्यों कि सेल्यूलाइड के परदे पर अन्याय की सारी इबारतों को मिटा कर नायक
सत्यमेव जयते एक बार लिख तो देता ही है। जीवन में यह संभव हो, न हो लेकिन
सिनेमा में सब कुछ संभव है। इस किताब में सिनेमा के कुछ नायकों, नायिकाओं
का बड़े मन से ज़िक्र किया गया है। उन के काम को ले कर चर्चा की गई है। उन की
अदा, उन के अभिनय में सराबोर कुछ लेख यहां अपने पूरे ताप में उपस्थित
हैं। तो कुछ लेखों में सिनेमाई सरोकार, उन की प्रवृत्तियां और उन के लाग
लपेट का व्यौरा है। जैसे सिनेमा हमारे जीवन की धड़कन है, फैंटेसी होते हुए
भी हमारे जीवन का एक सच है, सच होते हुए भी हमारे जीवन का मनोरंजन है,
मनोरंजन होते हुए भी हमारे जीवन का रंग और रस है। ठीक वैसे ही इस किताब में
उपस्थित तमाम लेखों में सिनेमा का सच, सिनेमा का जीवन, सिनेमा का रस और
उस का सौंदर्य, उस का संघर्ष बार-बार रेखांकित हुआ है। जैसे समाज में सब
कुछ अस्त-व्यस्त और पस्त है वैसे ही सिनेमा और सिनेमाई व्याकरण भी अब
अस्त-व्यस्त और पस्त है। कभी बनती थी दो आंखें बारह हाथ, मदर इंडिया या
मुगले आज़म, लेकिन अब दबंग, गैग्स आफ़ वासेपुर, डेढ इश्किया और जय हो जैसी
हिंसा और सेक्स से सराबोर फ़िल्में हैं। कभी बनती थीं उमराव जान और लोग उस
की गज़लें गुनगुनाते थे पर अब तो फ़िल्में जैसे हिंसा और सेक्स की चाश्नी
में लथपथ हैं, सराबोर हैं। गीत-संगीत जैसे नदी के इस पार, उस पार बन गए
हैं। गुलज़ार, श्याम बेनेगल, शेखर कपूर, मुज़फ़्फ़र अली, गोविंद निहलानी, केतन
मेहता, एन. चंद्रा, भीमसेन, सागर सरहदी, सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशक अब
जाने कहां बह-बिला गए हैं। अब तो कुछ और ही है। संजीव कुमार, सुचित्रा सेन,
नूतन जैसे लोगों की अदायगी की याद अब बस याद ही रह गई है। सब कुछ
करिश्माई सिनेमा, हिंसा और क्रूर गीत-संगीत में डूब गया है। मुज़फ़्फ़र अली ने
डेढ़ दशक पहले ही मुझ से एक इंटरव्यू में कहा था कि हम व्यावसायिकता की मार
में खो गए हैं। और अब तो परिदृश्य बहुत बदल चुका है। समाज और सिनेमा दोनों
का। ऐसे में जब हमारा सिनेमा 100 साल का हो गया है तो इस किताब के मायने
बढ जाते हैं। सिनेमा की बात हो और बोलना-बतियाना न हो यह भला कैसे संभव
है? तो कई सारे इंटर्व्यू भी हैं इस किताब में। इस में गायक भी हैं,
संगीतकार भी और अभिनय की दुनिया के सरताज भी। जिन से आप मुसलसल रूबरू हो
सकते हैं। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर है, 'आंख अपना मज़ा चाहे है, दिल अपना
मज़ा चाहे है।' तो इस किताब के मायने इस अर्थ में भी भरपूर हैं। यानी आलेख
भी और इंटरव्यू भी।
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