Friday, 24 January 2014

खुदा बचाए इन अदाओं और इन बलाओं से !

टेलीविजन राजनीति की भी यह कौन सी ज़मीन है भला?

भेद-मतभेद, सहमत-असहमत सब अपनी जगह है। लेकिन अरविंद केजरीवाल में कुछ तो है जो वह सभी स्थापित राजनीतिज्ञों को एक सुर से खटकने लगे हैं। और सब के सब उन पर एक साथ पिल पड़े हैं। अरविंद के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस समेत तमाम दल एक साथ हो गए हैं। अब देखिए न कि राखी सावंत से उन की तुलना शिव सेना ने सामना में कर दी तो शरद पवार की पार्टी के प्रवक्ता डी पी त्रिपाठी ने शिव सेना की इस राय से फ़ौरन सहमति जता दी। चैनलों को एक मसाला मिल गया, इस पर बहस चला दी। गुमनामीं में डूबी राखी सावंत को भी झाड़ पोछ कर यह चैनल वाले सामने ले आए ज़माने बाद। और यह देखिए कि राखी सावंत ने भी अपने अहंकाराना अंदाज़ में अरविंद केजरीवाल को आइटम ब्वाय बता दिया और खूब जली कटी की झड़ी लगा दी। रात में सड़क पर उन के सोने पर भी सवाल उठा दिया। संकेत यह कि सड़क पर रजाई में कोई और सोया था अरविंद केजरीवाल नहीं। गज़ब है यह आदमी भी। टेलीविजन राजनीति की भी अदाएं अजब-गज़ब हैं। कि राखी सावंत तक को लगा दिया । सोचिए कि कहां अरविंद केजरीवाल और कहां राखी सावंत ! टेलीविजन राजनीति की भी यह कौन सी ज़मीन है भला? खुदा बचाए इन अदाओं और इन बलाओं से !

  • हे अरविंद केजरीवाल, दिल्ली प्रदेश सरकार का जन लोकपाल बिल कहां गुम है? उसे तो २८ जनवरी तक लाने का वादा था। आम आदमी और भ्रष्टाचार , महगाई, बेरोजगारी का ताना-बाना कब आखिर तार-तार होगा भला?

  • यह देश भी अजब है। यहां उद्योगपति उद्योग लगाने की जगह रिटेल मार्केट में आ जाते हैं। नमक, तेल, आटा दाल, चावल, सब्जी आदि बेचने लगते हैं। राजनीतिज्ञ एन जी ओ चलाने लगते हैं, स्कूल खोलने लगते हैं, बिल्डर तक बन जाते हैं। ठेका-पट्टा करने लग जाते हैं। अपनी जन सभाएं इवेंट मैनेजमेंट के मार्फ़त करने लगते हैं। वकील वकालत छोड़ दलाली करने लगते हैं। न्यायाधीश न्याय करने की जगह न्याय बेचने लगते हैं। रिटायर होने के बाद भी किसी आयोग में जगह पाने के लिए सरकारों के तलवे चाटते फिरते हैं। आई ए एस, आई पी एस अफ़सर कारपोरेट कंपनियों की चाकरी बजाने लगते हैं। पत्रकार पेड न्यूज़ करने लगते हैं। लेखक लिखना छोड़ लफ़्फ़ाज़ी झोकने में प्रतिभा निसार किए बैठे हैं। वाद, विवाद संवाद की फ़ितरत छोड़ कर खेमेबाज़ी और फ़ासिज़्म का विरोध करते-करते कुद फ़ासिस्ट हुए अपने-अपने अहंकार में न्यस्त हैं। लोकप्रिय और मंचीय कविता अब लबारी का दूसरा नाम हो गया है। जोकरई इन के आगे फेल है अब। सामाजिक कार्यकर्ताओं की तो हालत और बुरी है। ज़्यादातर अब एन जी ओ के बंदर हैं। एन जी ओ ही उन्हें नचाते-उठाते-बैठाते हैं। सिनेमा बनाने वाले सिनेमा में नकली समाज उपस्थित कर चार सौ बीसी वाली दो कौड़ी की फ़िल्में बना कर नंबर दो का पैसा नंबर एक का बनाने में लग जाते हैं। धारावाहिक बनाने वाले सास बहू, लंपटई और अपराध की कबड्डी खेल-खेल कर खुश हैं। खेल के नाम पर क्रिकेट की दुकान सजी है। फूहड़ लाफ़्टर शो अब घर-घर में घुस गया है। कपिल इस के चैम्पियन। और तो और एक मुख्य मंत्री अपना काम काज भूल कर, शपथ आदि भूल कर, संघीय व्यवस्था को धूल चटा कर धरना-प्रदर्शन करने लगता है। तिस पर तुर्रा यह कि आम आदमी है ! अब बिचारा आम आदमी करे तो क्या करे ? मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तो जैसे उस के सहोदर ही हैं। तिस पर यह सब झमेला भी ! बेचारा आम आ्दमी ! जाए भी तो जाए कहां, करे भी तो क्या !

  • खोदा पहाड़, निकली चुहिया ! अरविंद केजरीवाल क्या इसी को जीत कहते हैं? कि दो थानेदार छुट्टी पर भेज दिए गए ! आप तो निलंबन मांग रहे थे? एक मुख्यमंत्री की यही हैसियत है ? अति की भी एक सीमा होती है। संविधान कानून और संसदीय परंपरा भी कोई चीज़ होती है। अरविंद केजरीवाल तो खैर घाघ राजनीतिज्ञ हो चुके हैं, बेशर्म और अतिवादी हो चुके हैं। उन पर अब कोई टिप्पणी कोई बहुत मतलब नहीं रखती। धरना-प्रदर्शन की जो गरिमा महात्मा गांधी ने बनाई थी, अभी-अभी अन्ना हजारे ने उस की प्रासंगिकता सिद्ध किया था, अरविंद केजरीवाल ने अभी-अभी उसे लज्जित कर दिया है। अरविंद तो गणतंत्र की पवित्रता पर भी आज सवाल खड़ा कर दिया। जो भी हो अरविंद केजरीवाल की हालत पर गालिब का एक मिसरा याद आ गया है, बड़े बेआबरु हो कर तेरे कूचे से हम निकले ! दिल्ली की जनता की जीत बता कर इसे जनता की तौहीन बना दिया है। आम आदमी के विश्वास को इस तरह खंडित और दुरुपयोग करना इतिहास भी दर्ज कर रहा है। व्यवस्था परिवर्तन क्या ऐसे ही होना चाहिए? ऐसे ही बदलेगी व्यवस्था? यह तो आप लालू प्रसाद यादव की जोकरई की राह पर चल पड़े हैं। संसदीय परंपरा और एन जी ओ चलाना दोनो दो बातें हैं। लेकिन अरविंद केजरीवाल तो अरविंद केजरीवाल, हिंदी के कुछ लेखकों की इस बाबत जो लिजलिजी भाऊकता फ़ेसबुक पर दिखी, उस पर भी तरस बहुत आया। साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल अब क्यों नहीं है, यह भी समझ में आ गया। जय हो !
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