Sunday, 24 November 2013

चंचल बी एच यू के बहाने कुछ फ़ेसबुकिया गुफ़्तगू

फ़ेसबुक पर हमारे एक मित्र हैं चंचल जी। फ़ेसबुक पर बेहद सक्रिय रहते हैं। पुराने समाजवादी हैं। चुनाव वगैरह भी लड़ चुके हैं। हार चुके हैं। कलाकार हैं। पर राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। एक समय हम उन्हें बी एच यू के छात्र संघ के अध्यक्ष के रुप में जानते थे। जानते क्या थे, सुनते थे। गोरखपुर के इलाहीबाग मुहल्ले में हमारे एक पड़ोेसी रहे हरिकेश प्रताप बहादुर  सिंह जो हमें बड़े भाई की तरह तब प्यार करते थे, बचपन में। खेलते भी थे हम लोग साथ में। हालां कि वह बड़ी गोल के थे और हम छोटी गोल के। मतलब बहुत सीनियर थे तब हम से वह उम्र में। वह भी बी एच यू के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं और राजनीति में भी। गोरखपुर से दो बार सांसद भी रहे हैं। अब वह भी कांग्रेस में हैं। लेकिन साफ-सुथरी राजनीति के चलते परिदृष्य से भी बाहर हैं। कभी जब मैं दिल्ली में रहता था तो वह भी मीना बाग में रहते थे। उस इलाके में किसी भी शाम  वह टहलते हुए मिल जाते थे। संसद भी बस से जाते थे। अच्छे पार्लियामेंटेरियन के रुप में जाने जाते थे। सादगी में लिपटे, ईमानदार और सिद्धांतों की गांठ के पक्के इस पीढ़ी के राजनीतिज्ञ मैं ने बिरले ही देखे हैं। हरिकेश प्रताप बहादुर  सिंह को याद कर के भी मन सादगी से भर जाता है। उन के कई किस्से हैं मेरे पास। मेरा एक उपन्यास है वे जो हारे हुए। उस उपन्यास में वह एक राजनीतिज्ञ के चरित्र में उपस्थित हैं। अपनी पूरी गरिमा के साथ। लेकिन उस चरित्र की छाप देखिए कि रांची में प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जी ने जब वह उपन्यास पढ़ा तो मुझ से पूछ लिया उन्हों ने कि क्या यह चरित्र हरिकेश बहादुर का है? मैं ने बताया कि हां, वही हैं। पर आप कैसे जान गए? तो वह बोले कि मैं भी बी एच यू का ही पढ़ा-लिखा हूं, जान गया। फिर वह हरिकेश जी के झारखंड के कांग्रेस प्रभारी होने के ज़िक्र पर आए और बताने लगे कि जो भी कांग्रेस का प्रभारी यहां आता है, अरबपति बन कर लौटता है। पर हरिकेश ने एक पैसा नहीं छुआ। हरिकेश जी, एक बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस में भी उपाध्यक्ष थे। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के दफ़्तर में एक बार एक स्त्री के साथ कुछ अराजक तत्वों ने रात का फ़ायदा उठा कर कुछ अप्रिय किया तो हरिकेश बाबू ने तुरंत इस्तीफ़ा दे दिया था, इस घटना के विरोध में। यह कह कर कि जिस पार्टी के प्रदेश कार्यालय में एक स्त्री के साथ कुछ अराजक तत्व ही सही कुछ अप्रिय कर देते है और हम अपने कार्यालय को सुरक्षित नही रख सकते तो हमें अपने पद पर रहने का क्या अधिकार है? खैर यह भी बहुत पुरानी बात हो गई।
बी एच यू के एक और छात्र संघ अध्यक्ष हुए हैं शतरुद्र प्रकाश। उन से तो मित्रता ही है। उन की पत्नी क्या उन की भी दोस्त ही हैं अंजना प्रकाश। वह भी उपाध्यक्ष रही हैं बी एच यू की। वह भी मेरी बहुत अच्छी मित्र हैं। मेरी कहानियों और उपन्यासों की बेबाक प्रशंसिका भी। हर दुख-सुख में खड़ी हो जाने वाली मित्र भी। वर्ष १९९८ में जब मैं एक बड़ी दुर्घटना के बाद जीवन और मृत्यु से जूझ रहा था तो शतरुद्र जी और अंजना जी कैसे तो संबल बन कर मेरे उस दुख में दिन रात एक किए थे। मैं वह कैसे भूल सकता हूं। अंजना जी के बड़े भाई आनंद कुमार जी मुझे इतना स्नेह देते हैं, छोटे भाई आलोक जी भी कितना चाहते हैं यह सब यहां बताने का विषय नहीं है। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश आंदोलन की बात भले स्थगित है पर शतरुद्र प्रकाश और अंजना प्रकाश के उस संघर्ष को समय दर्ज किए हुए है। यह सब फिर कभी।
खैर वे जो हारे हुए में बी एच यू के एक और छात्र संघ अध्यक्ष का ज़िक्र है। उन को भी लोगों ने पहचान लिया। लेकिन उन का ज़िक्र एक लतीफ़े के तौर पर है। सो उन को पहचानना भी आसान था, है। उन की एक अंगरेजी बहुत मशहूर हुई थी तब, आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! तो वह पहचान लिए गए। लेकिन एक बार मिले वह लखनऊ में गलती से। हुआ यह कि तब अटल जी लखनऊ आए हुए थे और मैं उन का इंटरव्यू करने पहुंचा हुआ था। माल एवेन्यू के एक गेस्ट हाऊस में वह ठहरे हुए थे। बाहर के कमरे में मुरली मनोहर जोशी भी अटल जी से मिलने के लिए बैठे हुए थे। और भी कुछ लोग प्रतीक्षारत थे। मैं भी बैठ गया। कि तभी एक जनाब आए और जब जाना कि मैं मीडिया से हूं, अटल जी से मिलूंगा तो लपक कर वह मुझ से हाथ मिलाते हुए मिले और बोले, माई सेल्फ़ भरत सिंह फ़्राम बलिया ! मैं ने छूटते हुए उन से कहा कि आप को मैं जानता हूं, भले मिल आज रहा हूं। तो वह ज़रा अचकचाए। तो मैं ने उन से कहा कि बी एच यू वाले भरत सिंह जी हैं न आप? तो वह कुछ खिले और बोले हां, हां ! मैं ने कहा कि आप को कौन नहीं जानता? आप की अंगरेजी इतनी मशहूर है कि कौन नहीं जानता। फिर मैं ने उन की अंगरेजी आई टाक तो आइयै टाक का बखान शुरु किया। वे जो हारे हुए में भरत सिंह की अंगरेजी का हुनर देखें फिर बात आगे की होगी:

‘चुप बे बकलोल।’ विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘बोलने भी दोगे।’ फिर ज़रा रुका और जब देखा कि पूरी सभा शांत है तो बोलना शुरू किया, ‘क़िस्सा बी.एच.यू. का है। वहां छात्र संघ का अध्यक्ष अंगरेज़ी नहीं जानता था। चुनाव जीतने के बाद वह जब भी कोई मेमोरेंडम ले कर वाइस चांसलर के पास जाता। वाइस चांसलर उसे देख कर पहले तो मुसकुराता फिर कहता, ‘यस मिस्टर प्रेसिडेंट।’ कह कर वह अंगरेज़ी में ही कुछ गिटपिटाता और यह तुरंत वापस आ जाता। अपनी कोई बात कहे बिना, कोई मेमोरेडंम दिए बिना अंगरेज़ी की हीनता में मार खा कर लौट आता पांच मिनट में। बाहर खड़े छात्रों की ओर भी नहीं देखता और आंख चुरा कर भाग लेता। अंततः कुछ लवंडों ने रिसर्च की कि आखि़र मामला क्या है? रिसर्च में पता चला कि अपना अध्यक्ष अंगरेज़ी का जूता खा कर भाग आता है। फिर अध्यक्ष को अंगरेज़ी में बात करने की डट कर प्रैक्टिस कराई गई। प्रैक्टिस क्या बिलकुल रट्टा लगवा दिया गया। लेकिन बेचारा अध्यक्ष हिंदी मीडियम का होनहार था जा कर वहां लथड़ गया। पर ऐसा लथड़ा कि वाइस चांसलर की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई।’
‘क्या गाली वाली बक दी?’
‘गाली?’ पान की पीक थूकते हुए विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘इससे भी बड़ा काम कर दिया। गाली वाली क्या चीज़ होती है?’

‘तो क्या पीट दिया?’ एक दूसरा छात्र उकता कर बोला।

‘पीट दिया?’ विश्वविद्यालय नेता बोला, ‘अरे इस से भी बड़ा काम कर दिया।’

‘गोली मार दी?’

‘नहीं भाई इस से भी बड़ा काम किया।’ वह बिना रुके बोला, ‘हुआ यह कि जब अपना अध्यक्ष पहुंचा वाइस चांसलर के पास तो रवायत के अनुसार वाइस चांसलर मुसकुराते हुए ज्यों स्टार्ट हुआ कि, ‘यस मिस्टर प्रेसिडेंट।’ तो अपना अध्यक्ष भी फुल टास में बोल पड़ा, ‘यस मिस्टर वाइस चांसलर!’ वाइस चांसलर ने कुछ टोका टाकी की तो अपने अध्यक्ष ने मेज़ पीटते हुए कहा, ‘नो मिस्टर वाइस चांसलर! ह्वेन आई टाक तो आइयै टाक, ह्वेन यू टाक तो यूवै टाक! बट डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर!’ और फिर मेज़ पीटा। अध्यक्ष ने इधर मेज़ पीटा, उधर वाइस चांसलर ने अपना माथा। फिर अपना अध्यक्ष हिंदियाइट अंगरेज़ी बोलता रहा, वाइस चांसलर सुनता रहा। जो अध्यक्ष  दो मिनट में वाइस चांसलर के यहां से भाग निकलता था, एक घंटे बाद बाहर आया। और बाहर तक वाइस चांसलर सी ऑफ़ करने आया। फिर तो छात्र एकता ज़िंदाबाद से धरती हिल गई।’ वह रुका नहीं, बोलता रहा, ‘तो आनंद अगर कहो तो तुम्हें भी अंगरेज़ी का रट्टा लगवाने का इंतज़ाम किया जाए।’ वह बोला, ‘लगे हाथ दो काम हो जाएंगे। अंगरेज़ी की भी ऐसी तैसी कर देंगे और छात्र संघ ज़िंदाबाद भी।’

खैर यह आई टाक तो आइयै टाक वाली अंगरेजी जब वहां बैठे लोगों ने सुनी तो सब के सब हंसने लगे। मुरली मनोहर जोशी भी। लेकिन तभी जोशी जी को भीतर से अटल जी का बुलावा आ गया। वह हंसते हुए ही गए। अब भरत सिंह फिर मेरे साथ बतियाने लग गए। कहने लगे कि यह या ऐसी अंगरेजी कभी नहीं बोली मैं ने। यह सब चंचलवा ने हम को बदनाम करने के लिए किस्सा गढ़ दिया था बी एच यू में तब ! वह बोले इस मज़ाक को छोड़िए और आगे की बात कीजिए। मैटर गंभीर है और कि मैं यह चुहुल छोड़ दूं। और यह सब भूल जाऊं। वह चाहते थे कि मैं किसी भी तरह अटल जी से उन के होनहार होने की चर्चा कर दूं। ताकि उस समय तैयार हो रही कल्याण सिंह की मंत्री परिषद की सूची में भरत सिंह का नाम भी जुड़ जाए। कल्याण सिंह तब शपथ लेने वाले थे। राजनीतिक गहमागहमी बहुत थी। तो हर कोई अपने-अपने जुगाड़ में था। भरत सिंह भी। वह बता रहे थे कि उन का बायोडाटा भी तगड़ा है और साथ ही शाम को अपने पार्क रोड स्थित आवास पर शाम को लिट्टी-चोखा की दावत पर आमंत्रित करते जा रहे थे। कि तभी भीतर से अटल जी ने मुझे भी बुलवा लिया। मै जाने लगा तो भरत सिंह ने फिर मुझ से लगभग चिरौरी की कि येन-केन-प्रकारेण मैं उन का नाम ज़रुर ले लूं अटल जी के सामने। वह जैसे जोड़ते जा रहे थे कि आप के कहने से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। खैर मैं गया भीतर तो अटल जी, जोशी जी हंसते जा रहे थे। अटल जी मुझ से हंसते हुए ही बोले, इंटरव्यू तो बाद में पहले आप वह आई टाक वाली पूरी बात सुनाइए ! हुआ यह था कि जब जोशी जी अटल जी के पास गए तो हंसते हुए गए। सो अटल जी ने उन से पूछा कि माज़रा क्या है। तो जोशी जी ने आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! वाली बात बताई। तो अटल जी आमोद-प्रमोद के क्षण में आ गए। कहा कि पूरी बात बताइए। जोशी जी ने कहा कि मुझ से क्या पूछ रहे हैं सीधे सही आदमी से फ़र्स्ट हैंड सुनिए। और मेरा ज़िक्र कर दिया। सो मैं बुला लिया गया। तो मैं ने अटल जी से कहा कि फ़र्स्ट हैंड ही सुनना है तो मुझ से क्यों सीधे जिस की अंगरेजी है यह उसी से सुनिए, उसी को बुला लीजिए। अटल जी ने पूछा कि वह कौन है? मैं ने बताया कि आप की पार्टी के विधायक है। नाम है, भरत सिंह। बाहर वह बैठे हैं आप के सामने आने और मिलने के लिए लालयित भी हैं। मंत्री पद के प्रार्थी हैं। यह सुन कर अटल जी ने माथे पर थोड़ा जोर डाला। खैर बुलाए गए भरत सिंह भी। अब अटल जी, लाख कहें कि भरत सिंह जी,  वह अंगरेजी सुनाइए। पर भरत सिंह अंगरेजी तो बोले पर, कभी यस सर, कभी नो सर, कभी सारी सर !  बस यही तीन शब्द। इस के आगे उन की घिघ्घी बंध-बंध गई। और अंतत: वह बाहर चले गए।
बाद में मैं जब अटल जी का इंटरव्यू कर के बाहर निकला तो भरत सिंह बाहर मेरी प्रतीक्षा में खड़े मिले। बिलकुल आग्नेय नेत्रों से देखते हुए। उन का वश चलता तो वह मुझे शर्तिया गोली मार देते। जो व्यक्ति लिट्टी चोखे की दावत पर थोड़ी देर पहले मुझे न्यौत रहा था, वही अब आग्नेय नेत्रों से देख रहा था। मैं ने माहौल को हलका बनाने की गरज़ से कहा कि भरत सिंह जी, आप का तो अटल जी से इंट्रोडक्शन हो ही गया अब तो ! भरत सिंह गोली की ही तरह बमक कर बोले, हां बहुत इज़्ज़त करवा दिए हमारा आप ! धन्यवाद ! कह कर उन्हों ने दोनों हाथ कस कर जोड़े ऐसे कि बस मुझे मार ही देना चाहते हैं। कहने लगे ऊ चंचलवा के चक्कर में आप हम को कहीं का नहीं छोड़े हैं ! और वह तेज़-तेज़ कदमों से चले गए। खैर कारण जो भी रहा हो उस बार मंत्री नहीं बन पाए भरत सिंह। लेकिन बाद के दिनों में वह मंत्री पद की शपथ पा गए थे।
अब इस आई टाक तो आइयै टाक, यू टाक तो यूवै टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर ! मामले में कितना योगदान भरत सिंह का था, कितना चंचलवा का, हम नहीं जानते। पर चंचल जी को मैं ने पहली बार दिल्ली के १० दरियागंज  स्थित दिनमान कार्यालय में ही देखा था। मैं उन दिनों दिनमान नियमित जाता था। वह चुपचाप बैठते थे। खादी के सफ़ेद कपड़ों में। कभी पैंट बुशर्ट में, कभी कुरता -पायज़ामा में। चुपचाप सिगरेट फूंकते हुए। शायद उदय प्रकाश जी ने कि राम सेवक जी ने पहली बार उन से मिलवाया। पर बहुत खुले नहीं चंचल जी। तब बहुत सब से बोलते भी नहीं थे। शायद राजेश खन्ना जैसों से दोस्ती का नशा रहा हो। खैर तो जब दिनमान जाता तो उन्हें देखते हुए ही चला आता। फिर जब अचानक वह दिखना बंद हो गए तो पूछा लोगों से। तो बताया गया कि अब वह नौकरी छोड़ कर चुनाव लड़ने गए हैं। शायद मछली शहर से वह श्रीपति मिश्र के खिलाफ़ चुनाव लड़े थे। ठीक याद नहीं। फिर मैं दिल्ली छोड़ कर लखनऊ आ गया। पर अब यही चंचल जी फ़ेसबुक पर 
कुछ दिनों से मिल गए हैं। खूब बोलते हुए, खूब बतियाते हुए। धकापेल। अकसर कांग्रेस का जयगान करते हुए। सारी दुनिया एक तरफ़, कांग्रेस एक तरफ़। कांग्रेस न हो उन की माशूका हो। कि होंगे उस में हज़ार ऐब ! पर हम तो उस की गाएंगे !  कहा ही गया कि दिल तो आखिर दिल है, गधी पर भी आ जाए तो आप को क्या ! लैला काली थी कि गोरी, मजनू हिसाब कर लेगा उस का, आप से क्या? कुछ-कुछ ऐसी ही तबीयत है इन दिनों चंचल बी एच यू की फ़ेसबुक पर। सोचता हूं कि बी एच यू छात्र संघ की आबोहवा भी कितने-कितने रंग में रही है। हरिकेश बहादुर प्रताप सिंह भी है, शतरुद्र प्रकाश भी। चंचल जी भी हैं और भरत सिंह भी। मदन मोहन मालवीय का तो खैर वह सपना ही है। और कि कांग्रेस का पानी भी कितने रंग का है। कि एक तरफ़  हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह है कि एक घटना घट जाती है प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में और वह पद से इस्तीफ़ा दे देते है, जिस में उन का कोई दोष नहीं। बस नैतिकता का तकाज़ा है। और नेपथ्य में चले जाते हैं।  दूसरी तरफ़ हमारे चंचल जी भी हैं तो नेपथ्य में ही और कि दबी ज़ुबान मानते भी हैं कि कांग्रेस में खामी है। पर साथ ही पूछते भी फिरते हैं कि कौन सी डगर जाऊं फिर? और इस सवाल के साथ कांग्रेस का उन का जयगान जारी रहता है। उन की यह यातना हिला कर रख देती है। बहुत कठिन है डगर पनघट की चंचल जी, यह तो हम भी जानते हैं। पर क्या करें हम सब एक आग में हैं। और यह कोई आग का दरिया भी नहीं है कि जिस में डूब कर भी जाया जा सके ! बहरहाल  आज उन से उन की एक पोस्ट पर कई बार गुफ़्तगू हुई तो सोचा कि ब्लाग पर इस बतकही के अपने हिस्से को तो डाल ही दूं। और भी बतकही हुई है कई बार चंचल जी से फ़ेसबुक पर। पर वह बहुत खोजने पर भी नहीं मिली। या तो चंचल जी ने वह पोस्टें मिटा दी हैं या मैं खोज नहीं पाया। कहना बहुत कठिन है। पर मैं ने खोजा बहुत इस लिए भी कि वह सब भी ब्लाग पर सरिया दूं। आखिर सरोकार की ही बाते हैं। तो सरोकारनामा पर नहीं होंगी यह बातें तो और कहां होंगी भला?
  • चंचल जी, आप पुरानी बातें लिखने में तथ्यों की बड़ी गड़बड़ी कर जाते हैं। राजेश खन्ना, राज बब्बर के नाम ले कर उन के बारे में कुछ भी लिखिए कोई बात नहीं। लोग हजम कर लेंगे। कांग्रेसी चश्मा लगा कर मोदी को भी आप कुत्ता बनाए रखिए लोग बर्दाश्त कर लेंगे। अच्छा यह भी ज़रुरी है कि आप अपनी बात में वज़न डालने के लिए फ़िल्मी लोगों की हरदम टेर लेते ही रहें? जो सिर्फ़ पैसे के लिए ही जीते-मरते रहे हैं? अपने आप पर भरोसा नहीं है? यह सब समाजवादी होने की आड़ में आप कहते हैं। किसी समाजवादी को यह शोभा नहीं देता। खैर, सारिका जब मुंबई से दिल्ली आई थी तब कमलेश्वर को हटाने की मुहिम में आई थी। यह १९७७-७८ की बात है। जब कमलेश्वर ने एक संपादकीय लिखा था कि यह देश किसी मोरार जी देसाई, किसी चरण सिंह, किसी जगजीवन राम भर का नहीं है। यह जनता पार्टी के पतन काल का दौर था। टाइम्स मैनेजमेंट ने सारिका का वह अंक जलवा दिया था। सारिका को दिल्ली शिफ़्ट किया कमलेश्वर को खाली करने के लिए। अवध नारायण मुदगल तब उप संपा्दक बन कर ही आए थे, संपादक बन कर नहीं। बाद में जब कमलेश्वर के चक्कर में रह कर आनंद प्रकाश सिंह भी मुंबई छोड़ कर दिल्ली नहीं आए तब मुदगल जी को उप मुख्य संपादक बनाया गया। संपादक नंदन जी बनाए गए थे। जो पहले से पराग के संपादक थे। रघुवीर सहाय को जब दिनमान से हटाया गया तब दिनमान के भी वह संपादक बना दिए गए। फिर बाद के दिनों में नंदन जी के ही प्रयास से सर्वेश्वर जी, जो तब दिनमान के मुख्य उप संपादक थे को , सहायक संपादक बना कर पराग के संपादन की ज़िम्मेदारी दी गई। लेकिन संपादक नहीं बनाया गया। आप पराग की पुरानी फ़ाइलें देखिए उस में संपादक की जगह संपादन लिखा मिलेगा। यह १९८२- १९८३ की बात है। हां, जब नंदन जी के भी बुरे दिन आए और उन्हें नवभारत टाइम्स में शिफ़्ट किया गया तब मुदगल जी को सारिका का सहायक संपादक बना दिया गया। संपादक नहीं। तो मुदगल जी ने भी सारिका के प्राण ले कर ही छोड़े। देह कथा विशेषांकों की झड़ी लगा दी। और जाने क्या-क्या किया। यह कथा फिर कभी। और जो बार-बार आप राज बब्बर का नाम रटते रहते हैं तो एक बात और नोट कर लीजिए और जान लीजिए कि राज बब्बर ने दलाली भी की है, करते ही हैं। राजनीतिक पार्टियों की भी और कारपोरेट सेक्टर के लिए भी। इसी लिए, इसी नशे में वह मुंबई में बारह रुपए में भरपेट खाना पाने का बेशर्म बयान भी दाग लेते हैं। और आप जैसे वाचाल लोग इस पर चुप रहते हैं। राज बब्बर, राजीव शुक्ला जैसों से किसी भी अर्थ में अलग नहीं हैं। बस कैरेट अलग है। हैं एक ही धातु के।
  • चंचल जी, मैं तो समाजवादियों को उन की लोकतांत्रिकता के लिए जानता हूं। कम्युनिस्ट साथियों को अलबत्ता अपने से असहमत होने वालों को दरकिनार करते देखता-भुगतता रहता हूं।भला-बुरा कहते या असंतुलित भाषा का प्रयोग करते भी यह लोग मिल जाते हैं। बहरहाल, अमिताभ बच्चन के ज़्यादा क्या बिलकुल करीब नहीं हूं। और जो मिल बतिया लेने से ही कोई करीब हो जाता है किसी से तो राज बब्बर से भी कई दफ़ा मिला हूं इसी लखनऊ में। अमिताभ बच्चन और राज बब्बर दोनों ही लोग बड़ी मुहब्बत से मिलते हैं। अमिताभ बच्चन के साथ तो नहीं लेकिन राज बब्बर के साथ मयकशी भी की है। लेकिन अब जब देखता हूं कि वह बारह रुपए में मुंबई में भरपेट भोजन करवा देते हैं तो तकलीफ़ होती है। वैसे अमिताभ बच्चन और राज बब्बर अभिनेता दोनों ही जन अच्छे हैं। बाकी कारोबार में दोनों एक हैं। चाहे अमर सिंह के साथ रहें या लड़ कर रहें। राही उसी राह के हैं। हां, भाषा मेरी कलक्टरी नहीं है, यह मैं ज़रुर अर्ज करना चाहता हूं। रही बात घटिया मानने न मानने की यह आप के अपने विवेक पर मुन:सर है। आप हमारे आदरणीय हैं, हक है आप को। हां, चिखुरी बिचारे की बात क्यों यहां इन सब के बीच ला रहे हैं, वह तो आप का मुल्ला नसिरुद्दीन है ही और आप की ताकत भी।
  • अफ़सोस तो चंचल जी इसी बात का है कि हम सभी सापनाथ -नागनाथ से घिर गए हैं। कोई इन की नकेल कसने वाला हम में से ही निकलना चाहिए। बतर्ज़ दुष्यंत इस आकाश से कोई गंगा निकलनी चाहिए !
  • मुझे किसी चश्मे से चिढ़ नहीं है। न किसी चश्मे की ज़िद है। जिस को जो नंबर फिट लगे, लगाए ! हम कोई फ़ासिस्ट थोड़े ही हैं। कि यही चाहिए, और यह नहीं चाहिए का पहाड़ा पढ़ें। बात बस तार्किक हो और आसानी से गले उतर जाए।
  • कोई एक नहीं। अब सारे अखबार छक्के हो गए हैं। बेहतर होगा कि आप अपने ब्लाग पर ही लिख डालिए। बस एक बात का खयाल रखिएगा कि इस लिखे में कांग्रेसी नज़रिया मत घुसेड़िएगा। कांग्रेसी नज़रिए के साथ आप का लिखना बेईमानी भरी लफ़्फ़ाज़ी हो जाती है !
  •  चंचल जी, आप तो भैया हो कर भी भौजी की तरह कोंहा गए ! यह गुड बात नहीं है। मैं ने किसी का मज़ाक नहीं उड़ाया है। भरत सिंह का भी नहीं। सिर्फ़ एक वाकया बताया है। अंगरेजी मुझे भी नहीं आती। मैं तो हिंदी का भी नहीं, भोजपुरी का आदमी हूं।भोजपुरी ही हमारी मातृभाषा है। भोजपुरी में ही खाता, पहनता, रहता, जीता हूं। भोजपुरी में ही सांस लेता हूं। हिंदी तो हमारी रोजगार की भाषा है। बहुत छोटा था तब अंगरेजी हटाओ आंदोलन में कूद गया था। इस के लिए किशोरावस्था में ही पुलिस की लाठियां भी खाई हैं और पिता की थप्पड़ और डांट भी। मैं ने अंगरेजी पढ़ना छोड़ दिया था। पिता जी कहते थे कि अंगरेजी जान कर, अंगरेजी छोड़ो, अंगरेजी हटाओ आंदोलन चलाओ तब ठीक लगेगा। लेकिन तब मै ने पिता जी की बात नहीं मानी थी। अब पछताता हूं। गोरखपुर में रवींद्र सिंह तब हमारे इस आंदोलन के नेता थे। कुछ समाजवादियों और कम्युनिस्टों की सोहबत हो गई थी। उन्हीं दिनों मार्क्सवाद का सौंदर्य शास्त्र और लोहिया को साथ-साथ पढ़ा है। लोहिया ही कहते थे, अंगरेजी छोड़ो। दाम बांधो, डेरा डालो, हल्ला बोल ! हम इसी में पले-बढ़े और पढ़े हैं। और जब हम पढ़ते थे तब गोरखपुर विश्वविद्यालय नाम होता था। दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय नही। यहां यह कहने का मतलब हरगिज़ नहीं है कि दीनदयाल जी कोई मामूली आदमी थे। उन का एकात्म मानववाद भी मैं ने पढ़ा है। और वह भी बड़े विचारक हैं।  
  • चंचल जी, आप की बात पर अब एक गंवई जुमला याद आता है कि पंचों की राय सर माथे लेकिन खूंटा वहीं रहेगा ! ठीक है यह आप की अपनी सुविधा है। लेकिन बहस मुबाहिसे में एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई से काम चलता नहीं है। सभी जानते हैं कि राजबब्बर छात्र जीवन से समाजवादी हैं। आप को यह बताने की ज़रुरत नहीं है। लेकिन अब वह क्या कर रहे हैं इसे बताने की ज़रुरत है। बारह रुपए में आप का पान भी नहीं आता और वह भोजन भरपेट करवा देते हैं। समाजवाद अब उन के लिए सिर्फ़ सुविधा है, एक औज़ार है, विचार नहीं। व्यवहार तो कतई नहीं। और जो आप में समाजवादी धैर्य का तेल कुछ शेष रह गया हो, कांग्रेसी होने में चुक न गया हो तो थोड़ा दूसरों को सुनने-समझने की भी कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है। कर लिया कीजिए। आप तो एक बहुत बड़े आदमी महामना मदन मोहन मालवीय की बनाई यूनिवर्सिटी के पढ़े हैं। बता दूं कि हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी जिस का नाम अब दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय है उस के संस्थापकों में एक आचार्य नरेंद्र देव भी हैं। खैर लीजिए उदय प्रकाश की एक कविता का पाठन- वाचन कीजिए। शायद बात के मर्म तक आप को पहुंचने और एकतरफ़ा बहस से बचने में मदद करे। कविता का शीर्षक है न्याय :

    उन्होंने कहा हम न्याय करेंगे

    हम न्याय के लिए जांच करेंगे

    मैं जानता था

    वे क्या करेंगे

    तो मैं हंसा

    हंसना ऐसी अंधेरी रात में

    अपराध है

    मैं गिरफ़्तार कर लिया गया.
     
  • चंचल जी, कोई भी विश्वविद्यालय हर किसी का है। तेरा-मेरा की कोई बात ही नहीं है। रही बात बी एच यू की तो उस पर भी मुझे नाज़ है। मैं वहां का पढ़ा भले नहीं हूं पर बी एच यू में पढ़ाने और परीक्षक होने का सौभाग्य भी मुझे है। बहस को और बात को भटकाइए नहीं गोविंदाचार्य की तरह। रही बात दस-बारह रुपए में भोजन की तो आप के एक कांग्रेसी नेता राशीद मसूद तो पांच रुपए में भी भोजन करवा कर जेल चले गए हैं। लोग तो भूखे भी इस देश में सोना जानते हैं। वैसे भी दुष्यंत यों ही तो नहीं लिख गए हैं कि, 'न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए । और जिस मुख्तार अनीस की बात आप कर रहे हैं, डालीबाग में मैं रहता हूं, मेरे पड़ोसी रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्री रहे हैं। सीतापुर के उन के क्षेत्र में चुनावी दौरे भी मैं ने किए हैं। अब वह नहीं हैं सो उन के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। 
  • अब तो मान लीजिए चंचल जी कि आप की भाषा एक तानाशाह की भाषा हो गई है। आप जो लिख रहे हैं कि, 'राजनीति कविता की जड़ के बाहर एक व्यवस्था है . और वह इतनी छूट देती है के कविता भी उस पर लांछन लगा सके !' यह कौन सी राजनीति है जो कविता को छूट देती है? और यह राजनीति होती कौन है किसी को छूट देने वाली? माफ़ कीजिए राजनीति सिर्फ़ बेईमानों को लूट की छूट दे सकती है, देती ही है। कवि और कविता तो राजनीति और सत्ता की छाती पर चढ़ कर अपना काम कर लेते हैं। ब्रेख्त से लगायत नेरुदा, नाज़िम हिकमत, बिस्मिल, नज़रुल इस्लाम, फ़ैज़, पाश आदि की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। और 'वह कवि' जी कौन हैं जो राजनीति से रोटी की मांग कर रहे थे। नाम का खुलासा कीजिए। इस लिए भी ज़रुरी है कि बिना नाम के तो कोई किसी को कुछ कह सकता है। और फिर रोटी मांगना कोई अपराध भी नहीं है। और वही राजनीति गरीब की बीवी होती है, देश को गरीब बनाती है, जो भ्रष्ट होती है। जैसे कांग्रेस, जैसे भाजपा, जैसे सपा, जैसे बसपा, जैसे द्रमुक, जैसे अन्ना द्रमुक आदि। इन्हीं की राजनीति गरीब की बीवी होती है। और कोई भी गरिया सकता है। क्यों कि यह भ्रष्ट और बेईमान राजनीति है। और यही राजनीति जब कोई बचाव, कोई तर्क नहीं पाती तो तानाशाही में तब्दील हो जाती है। तानाशाही की भाषा से इस की शुरुआत होती है। यह बहुत खतरनाक होती है।
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3 comments:

  1. सही बात यह है कि चंचल जैसे लोग आपके मित्र बनने की औकात ही नहीं रखते। खेमेबंदी और एकतरफा नजरिया उन्हें इस लायक भी नहीं रखता कि सम्मान दिया जा सके। मैंने उन्हें अपनी फ्रेंडलिस्ट से इसीलिए निकाल दिया।

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