Tuesday 11 January 2022

स्वामी प्रसाद मौर्य और भाजपा का संबंध वैसे भी कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग वाला ही था

दयानंद पांडेय 

गुप्त गुंडा शब्द सुना है कभी ? तो स्वामी प्रसाद मौर्य गुप्त गुंडा ही हैं। सामाजिक न्याय की आड़ में गुंडों की तरह तेजाबी बोली भी उन की देखने लायक़ है। ओमप्रकाश राजभर की गुंडई जल्दी ही खुल गई थी। वह गुप्त गुंडा नहीं हैं। सो पानी मिले दूध की तरह उफन कर गिर पड़े। रात दो बजे मुख्य मंत्री के घर पहुंचे। किसी क्लर्क को अपना इस्तीफ़ा रिसीव करवा दिया। क्यों कि परिवारीजनों को राज्य सभा और विधान परिषद भिजवाने की ब्लैक मेलिंग में सफल नहीं हुए थे। फिर पांच साल में पांच मुख्य मंत्री और दस उप मुख्य मंत्री का नुस्खा ले कर ओवैसी से हाथ मिलाते हुए कहने लगे अखिलेश यादव को बरबाद कर दूंगा। अब उसी अखिलेश यादव का अर्दली बन कर उपस्थित हैं। 

स्वामी प्रसाद मौर्य , ओमप्रकाश राजभर से बड़े उस्ताद हैं। पूरी मलाई काट कर अब योगी सरकार में खामियां बताने लगे हैं। तब जब कि बेटी को भाजपा सांसद बनवा चुके हैं। सचाई यह है कि मायावती की पीठ में छुरा मार कर भाजपा में एक भी दिन वह मन से नहीं रहे। कारण यह है कि उन की विचारधारा राम के विरोध की है। सवर्ण विरोध की है। भाजपा की विचारधारा उन्हें कभी रास नहीं आई। मिले मुलायम , कांशीराम , हवा में उड़ गए जय श्री राम जैसा नारा लगाने में स्वामी प्रसाद मौर्य आगे रहे हैं। तिलक , तराजू और तलवार , इन को मारो जूते चार जैसे नारे को तन-मन से जीने के आज भी हामीदार हैं , स्वामी प्रसाद मौर्य। ऐसे विषयों पर बोलते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य शब्द नहीं , तेज़ाब उगलते रहे हैं। समझ नहीं आता कि अमित शाह और योगी ने जाने कौन सा केंचुआ , अपनी कंटिया में लगा कर , स्वामी प्रसाद मौर्य को अभी तक मछली बना कर भाजपा में फंसाए रखा। समग्र हिंदू की अवधारणा में उन्हें समायोजित कर के रखा। भाजपा यहीं गच्चा खा गई। सब का साथ , सब का विकास , सब का विशवास , सब का प्रयास के खोखले नारे में जैसे निरंतर गच्चा खा रही है। 

रही बात स्वामी प्रसाद मौर्य तो सिर्फ़ सत्ता की मलाई चाटने के लिए भाजपा में निभा रहे थे। कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग। वाली स्थिति थी भाजपा और स्वामी प्रसाद मौर्य की। इस चुनाव में जब उन्हें लगा कि भाजपा उन्हें अब और बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। तो क्रांतिकारी बनते हुए भाजपा छोड़ बैठे। अरे इतनी असहमति थी तो यह बताने में इतना समय क्यों लगा। ऐन चुनाव की चौखट पर ही क्यों असहमति का कांटा चुभा। बाक़ी कुछ और लोग भी भाजपा छोड़ेंगे। कुछ लोग बसपा , सपा , कांग्रेस छोड़ेंगे। कई सपाई भी भाजपा में आए हैं। कुछ बसपाई भी सपा में। यह आना-जाना हर चुनाव में , हर पार्टी में होता है। सामान्य बात है। 

भगदड़ मचती ही है हर चुनाव में , हर पार्टी में। इसी लिए राजनीति सांप , सीढ़ी का खेल बन गया है। कब किस को कौन डस ले , कौन निगल ले , कौन सीढ़ी बन जाए किसी की , किसी को पता नहीं। कहा ही जाता है कि राजनीति में कोई दोस्त नहीं होता , कोई दुश्मन नहीं होता। जब कि लोहिया कहते थे कि बड़े बदमाश को मारने के लिए , छोटे बदमाश से दोस्ती कर लेना चाहिए। और अब तो लोग छोटे दुश्मन को मारने के लिए बड़े दुश्मन से दोस्ती कर लेते हैं। कौन कब किस का दोस्त हो जाए , कौन दुश्मन , कोई नहीं जानता। 

रही बात स्वामी प्रसाद मौर्य की तो वह अब बसपा में लौट नहीं सकते थे। कभी मायावती के पैरों में रहते थे पर अब मायावती उन्हें फूटी आंख भी नहीं देखना चाहतीं। तो सपा ही उन के लिए विकल्प थी। अब शायद अगला पड़ाव कांग्रेस हो , स्वामी प्रसाद मौर्य का। क्यों कि सपा में भी बहुत समय तक वह नहीं चलने वाले। वैसे भाजपा अगर उन्हें , उन के बेटे और चमचों को टिकट दे दे तो क्या पता , भाजपा में ही लौट आएं। सत्ता सुख बहुत ही शर्मनाक खेल होता है। गुप्त गुंडा लोगों का खेल और भी शर्मनाक। स्वामी प्रसाद मौर्य वैसे भी बदबू मारने वाली जातिवादी राजनीति के सौदागर हैं। जातीय नफ़रत और सवर्ण विरोध , ख़ास कर ब्राह्मण विरोध ही उन की सारी ताक़त है। जहां भी रहेंगे , सामाजिक न्याय की आड़ में आग मूतते रहेंगे , जातिवादी बदबू फैलाते रहेंगे। अब अलग बात है कि अपनी जाति में भी उन के पास कोई आधार नहीं है। लेकिन होता यह है कि उखाड़ी टाइल जाती है , बदनाम टोटी होती है। पर मक़सद दोनों का एक ही होता है। आप ही यह बताइए कि दुनिया में कौन सी ऐसी टाइल है , जो उखाड़ने के बाद फिर लग जाती है। फिर इत्र की तरह बदनाम हो कर बदबू मारने लगती है।

वैसे स्वामी प्रसाद मौर्य ने योगी सरकार से इस्तीफ़ा दे कर भी एक चाल चली है। अभी भी वह भाजपा को ब्लैक मेल कर , भाजपा में अपना स्पेस खोज रहे हैं। जानने वाले जानते हैं कि मंत्री इस्तीफ़ा मुख्य मंत्री को दिया करते हैं। मुख्य मंत्री अपनी संस्तुति के साथ राज्यपाल को भेजते हैं। फिर राज्यपाल इस्तीफ़ा स्वीकार करते हैं। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपना इस्तीफ़ा सीधे राज्यपाल को भेज दिया है। देखिए क्या होता है। लेकिन तकनीकी पेंच तो है। मुख्य मंत्री की सिफारिश के बिना राज्यपाल द्वारा किसी मंत्री का इस्तीफ़ा मंज़ूर करने की परंपरा फ़िलहाल नहीं है। फिर इस्तीफ़ा राज्यपाल को संबोधित है। मुख्य मंत्री उस में कुछ नहीं कर सकते। सामाजिक न्याय के बिगुल बजाने के लाभ हैं यह। 

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