दयानंद पांडेय
आज सुबह महीने भर बाद नोएडा से लखनऊ लौटा। 36 बरस से अधिक हो गए लखनऊ में रहते। लेकिन इतना बेबस , इतना लाचार और इस कदर रोते , बिखरते और झुलसते लखनऊ को कभी नहीं देखा था। जैसे और जैसा आज देखा। शिया-सुन्नी दंगे बार-बार देखे। हिंदू-मुस्लिम दंगे भी। तमाम राजनीतिक उठा-पटक , आंदोलन और कर्फ्यू देखे हैं इस लखनऊ में मैं ने। लक्ष्मण टीले पर सीवर लाइन खुदते भी देखा मुलायम राज में। सरकारों का गिरना , गिराना , घात-प्रतिघात देखते लखनऊ को बारंबार देखा है। पर आज जैसा देखा कभी नहीं देखा।
लखनऊ का यह विलाप , यह संत्रास और यह सांघातिक तनाव देखने आया ही क्यों। हर किसी ने मना किया था कि नोएडा से लखनऊ लौटने का यह समय बिलकुल ठीक नहीं है। लेकिन एक पारिवारिक व्यस्तता के कारण आना बहुत ज़रूरी था। छोटे भाई का गृह प्रवेश का शुभ अवसर है। छोटे भाई सब पिता की तरह मानते हैं और सम्मान करते हैं तो कैसे न आता। सब ने कहा कि जाइए तो ट्रेन से तो बिलकुल न जाइए। पर आया भी ट्रेन से। कोई 36 बर्थ वाले डब्बे में बमुश्किल 8 या 10 लोग थे। हर डब्बे का कमोवेश यही हाल था।
गाज़ियाबाद स्टेशन पर जब डब्बे में चढ़ा और अपनी बर्थ पर बैठा तो अचानक दो युवा लड़कियां फुदकती हुई आ गईं। बारी-बारी। दिल्ली से आ रही थीं यह लड़कियां। बिना पानी की मछली की तरह छटपटाती हुई। हड़बड़ा कर इन लड़कियों ने पूछा मुझ से कि , हम लोग भी यहीं कहीं किसी बर्थ पर लेट जाएं? मैं ने सिर हिला कर अपनी सहमति दे दी। पत्नी के अलावा और कोई स्त्री नहीं थी पूरे डब्बे में। और डब्बा लगभग खाली। जो भी यात्री थे , युवा ही थे। सो इन लड़कियों को हम दोनों को देखते ही जैसे सांस मिल गईं। उन की मुश्किल मैं ने समझी। एक लड़की हमारे ऊपर की बर्थ पर चली गई। एक सामने की ऊपर की साइड बर्थ पर। दोनों लड़कियां साथ-साथ नहीं थीं। परिचित नहीं थीं आपस में। न हम से परिचित थीं। लेकिन हमारी सुरक्षा में सफर काटना चाहती थीं। जब मैं ने उन दोनों को बेटी कह कर संबोधित किया तो दोनों न सिर्फ सहज हो गईं बल्कि बेफिक्र भी हो गईं। ऐसे जैसे कवच और कुण्डल पा गई हों। सचमुच ही हमारी बेटी हो गई हों। और जैसे भी हो हमारी आंख के सामने ही रहना चाहती थीं। मास्क लगा कर ट्रेन में सोना भी अजब था।
सुबह लखनऊ स्टेशन पर उतरे तो स्टेशन पर लखनऊ स्पेशल से उतरने वालों के सिवाय तीन-चार पुलिस वाले ही थे। हरदम भगदड़ से भरपूर रहने वाला , कभी न सोने वाला पूरा स्टेशन सांय-सांय कर रहा था। सवारियों से ज़्यादा सवारियां थीं। बाहर भी पूरा स्टेशन भक्क ! एक टैक्सी से जब घर की तरफ चले तो सारा रास्ता खामोश मिला। न कोई आदमी , न कोई और सवारी। डिवाइडर के दोनों तरफ की सड़कों में भी जैसे संवादहीनता थी। अजब खौफनाक मंज़र था। बापू भवन से हज़रतगंज जाने वाली सड़क बैरिकेट लगा कर रोक दी गई थी। सचिवालय की तरफ मुड़े। जी पी ओ से हज़रतगंज जाने वाली सड़क भी बैरीकेट लगा कर बंद थी। सिविल अस्पताल की तरफ मुड़े। सिविल अस्पताल के पास दो-चार लोग दिखे। फिर लोहियापथ पर दो-चार सवारियां भी आती-जाती दिखीं। खैर , घर आया। नहा , खा कर बैंक गया।
बैंक का रास्ता भी बदहवास था। गोमती नदी का जल वैसे भी ठहरा हुआ रहता है। आज लग रहा था जैसे यह जल भी ठहरे-ठहरे सो गया था। अम्बेडकर पार्क , लोहिया पार्क भी जैसे ऊंघ रहे थे। हरदम भरा रहने वाला बैंक भी बदहवास था। सिर्फ दो कर्मचारी और एक सिक्योरिटी गार्ड। एक आदमी चेक या बाऊचर पास कर रहा था। दूसरा , कैश दे रहा था या जमा कर रहा था। गज़ब की खामोशी तारी थी बैंक में भी। बैंक के बाहर लिखा था , पांच लोगों से ज़्यादा लोग बैंक में एक साथ नहीं प्रवेश कर सकते। पर भीतर भी दो ही कंज्यूमर थे। तीसरा मैं था। अजब मंज़र था।
दूध , सब्जी मिल गई थी सुबह ही। पर एक कागज़ की फोटोकॉपी नहीं हो पाई। सब कुछ , सब कहीं बंद था। कार में ब्रेक , क्लच की अनिवार्यता जैसे कहीं गुम हो गई थी। लगा जैसे हवा भी बंद हो जाना चाहती है। घबरा कर घर भाग आया। घर में सब ठीक है। बाहर थोड़ी देर अगर मैं और रहता तो मैं भी गोमती के जल की तरह कहीं रास्ते में सो गया होता। सन्नाटा भी अच्छा लगता है मुझे। पर यह वह सन्नाटा तो नहीं था। घर भले लौट आया हूं पर लगता है अगल-बगल जैसे कोई रहता ही नहीं है। न लोग , न वनस्पतियां। सब के दरवाज़े बंद , सब लोग बंद। सब के घर में कोई न कोई मुश्किल। सब ने कुछ न कुछ खोया है। इतना कि सभी संवादहीन हो गए हैं। संवेदनहीन भी। सर्वदा की तरह कोई किसी का हालचाल नहीं ले रहा। सीढ़ियां भी सांस रोके बिछी पड़ी हैं। कोई आ-जा नहीं रहा। करें भी तो क्या करें बिचारी।
ट्रेन की लड़कियों की तरह यह सीढ़ियां भी बिन पानी की मछली की तरह छटपटा रही हैं। लड़कियों को मेरी और पत्नी की उपस्थिति मात्र से सुरक्षा मिल गई थी। सांस मिल गई थीं। पर यह सीढ़ियां सांस नहीं ले पा रहीं। शायद नीचे उतरते ही वीरान सड़क से उन का कुछ रिश्ता बन गया है। सड़क सन्नाटे और दहशत में है तो सीढ़ी भी कैसे दहशत में न रहे। मैं ने भी तो बार-बार आना-जाना छोड़ कर घर का दरवाज़ा बंद कर लिया है। ऐसे जैसे लखनऊ ने खुद को सब तरफ से बंद कर लिया है। लखनऊ का यह विलाप देखा नहीं जाता। दम घुटता है। शामे-अवध गोमती के सड़े हुए जल और ध्वस्त हो चुके सिस्टम में जैसे दफ़न हो गया है।
सुबहे-बनारस का हाल भी खबरें ठीक नहीं बता रहीं। बनारस में मेरी एक फुफेरी बहन वेंटीलेटर पर है। जाने कितनी बहनें , भाई , मित्र , परिजन लोग रोज विदा हो रहे हैं। कहीं न कहीं हर कोई वेंटीलेटर पर है। गोरखपुर में तो एक मित्र की मां विदा हुई। एक दिन गैप दे कर पिता भी विदा हो गए। कल पता चला तो फोन किया। वह बिचारा रोने के अलावा कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। गांव से भी कई लोगों के परिजनों की विदाई की खबरें निरंतर आ रही हैं। किसी का दामाद , किसी का बेटा , किसी की मां , किसी का पिता , किसी का भाई , पत्नी , किसी का पूरा परिवार।
लखनऊ में भी हमारे कई लोग चले गए हैं। ऐसे कि किसी के घर भी नहीं जा पा रहा , पुछारो करने के लिए। कई लोग बीमार हो गए हैं। परिवार का परिवार बीमार है। किसी को देखने भी नहीं जा पा रहा। नोएडा में था तो कहता था , क्या करूं , नोएडा में हूं। लखनऊ आ गया हूं। किसी से क्या कहूं कि डर गया हूं। डर गया हूं , लखनऊ के इस नि :शब्द विलाप से। कोरोना क्या आया है , हमारा लिखना-पढ़ना छूट गया है। कितने मित्रों की कितनी किताबें रखी हैं। नहीं पढ़ पा रहा। किसी को कोई राय नहीं दे पा रहा। डर गया हूं , लखनऊ के इस नि :शब्द विलाप से मैं। तो क्या किताबें भी डर गई हैं। मैं कायर हो गया हूं ? कि चुक गया हूं , लिखने और पढ़ने से। लोगों से मिलने से। यह कौन सा विलाप है भला !
वाकई यह बहुत ही अजीब समय है, दहशत भरा समय, पर वक्त कैसा भी हो उसे गुजरना ही होता है, यह समय मजबूत बने रहने का भी है. मार्मिक और हृदय विदारक चित्रण किया है आपने इस कोरोना काल का.
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ReplyDeleteसुंदर, सामयिक
ReplyDeleteलखनऊ का विलाप ,आपके शब्दों में सुना।हम सब जहाँ भी हैं एक अनवरत विलाप से घिरे हैं ,भीतर भी और बाहर भी।यह विलाप शीघ्र विदा ले और हम अपने अपने बैरकों(घरों) से बाहर निकल कर कुछ बोलें बतियाये ।
ReplyDeleteDar ko dwigunit karne wala tathyatmak lekh.
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