Monday, 7 January 2019

मुज़रिम हाज़िर है !


हे पाठक मित्रों, आप का मुज़रिम, आप का गुनहगार हाज़िर है। यह यशवंत जी की भलमनसाहत है कि उन्होंने श्वेता रश्मि और राजमणि सिंह जी का नाराजगी भरा पत्र मेरी तरफ़ बढा दिया। नंगई का, अश्लीलता का आरोप मुझ पर है तो ज़ाहिर है जवाब भी मुझे ही देना होगा। कुछ बातें मैं पहले ही साफ कर दूं। थिएटर, पत्रकारिता और न्यायपालिका पर आधारित उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ उस दौर में लिखा गया था जब मैं अपने आस-पास की दुनिया से सख्त नाराज़ था। खुद एक रिपोर्टर होने के नाते अखबारनवीसी की दुनिया बहुत करीब से देखी-भोगी थी। और यकीन मानिए, इस कहानी में जितनी अश्लीलता आप मित्रों को दिख रही है, उस से कहीं अधिक अश्लीलता मैं ने अपने इर्द-गिर्द महसूस की। आप कह सकते हैं कि मैं ने अपने पत्रकारीय जीवन में एक नंगे यथार्थ को भोगा है और उसे कलमबंद करने की हिम्मत जुटाई। अदालत में जज के चैंबर से ले कर संपादक के केबिन तक, मैंने पूरे सिस्टम में एक खास तरह का नंगापन देखा। अगर मैं वह सब लिख देता तो बेशक मैं भी लोकप्रिय लेखकों में शुमार हो गया होता। कहीं ज़्यादा मशहूर होता। इस उपन्यास को ले कर मुझ पर अश्लीलता के ये आरोप नए नहीं हैं। इस उपन्यास पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में मुझ पर मुकदमा भी चल चुका है। अखबारों- पत्रिकाओं में बहुत कुछ छप चुका है। और अब कई साल बाद सोचता हूं तो पाता हूं कि कसूर मेरा ही था, है। मुझे कोई हक नहीं था कि मैं अपने अंदर की कुंठाओं और ज़माने के प्रति अपनी नाराज़गी को एक उपन्यास की शक्ल देता।

उपन्यास के ज़रिए पत्रकारिता से ले कर थिएटर और विधानसभा से ले कर न्यायपालिका तक जिन गंभीर सवालों को मैं उठाना चाहता था, उठाया भी, पर अश्लीलता की आड़ में उन की हत्या कर दी गई। मैं तो सिर्फ़ आइना ले कर खड़ा था और मुझ पर पत्थरों की बारिश शुरू हो गई। तब भी, अब भी। श्वेता रश्मि और राजमणि सिंह जैसे निहायत शरीफ़ लोग अगर इस तरह के नंगे यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ज़ाहिर है कि यह दुनिया उन के लिए नहीं है। हाल के महीनों में जो खबरें सामने आई हैं, उससे मैं यह भी नहीं कह सकता कि आशाराम बापू जैसे संतों के आश्रम भी उन के लिए सब से महफूज़ जगह है।

साहित्य में अश्लीलता पर बहस बहुत पुरानी है। यह तय करना बेहद मुश्किल है कि क्या अश्लील है और क्या श्लील। एक समाज में जो चीज़ अश्लील समझी जाती, वह दूसरे समाज में एकदम शालीन कही जा सकती है। यह जो एस.एम.एस. पर नान वेज़ जोक्स का ज़खीरा है, उस से कौन अपरिचित है भला? श्वेता जी और राजमणि जी क्या इस सच से भी परिचित नहीं हैं? भाई जो इतने शरीफ़ और नादान हैं तो मुझे फिर माफ़ करें। अभी ‘अपने-अपने युद्ध’ के जिस हिस्से पर यह दोनों लोग आहत हुए हैं, वह एक नानवेज़ लतीफ़ा ही तो है! खैर!

ऐसे तो हमारे लोकगीतों और लोक परंपराओं में कई जगह गज़ब की अश्लीलता है। मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां शादी व्याह में आंगन में आई बारात को भोजन के समय दरवाज़े के पीछे से छुप कर घूंघट में महिलाएं लोक गीतों के माध्यम से जैसी गालियां गाती हैं उसे राजमणि जी घोर अश्लील कह सकते हैं। श्वेता रश्मि जी तो खुद महुआ चैनल की प्रोडयूसर हैं। पता नहीं उन के कार्यक्रम भौजी नंबर वन को बनाने में उन की क्या भूमिका है। इस कार्यक्रम में भौजियों की भाव-भंगिमा और उनके शरीर के कुछ विशेष अंगों का विस्फोटक प्रदर्शन एक खास तरह की भदेस अश्लीलता का दर्शन कराता है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में यह कार्यक्रम मशहूर है क्यों कि उन का समाज इस में रस लेता है और ऐसे शो की स्वीकृति देता है। पर मेट्रो के दर्शकों को यह कार्यक्रम अश्लील लग सकता है। फ़र्क सिर्फ़ हमारे सामाजिक परिवेश का है।

एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है–का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इस के लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इस की शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आ कर। तो सखियां समझाती हुई कहती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इस में इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपना भड़ास निकालती हुई कहती हैं—का वर्षा जब कृषि सुखाने !

यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन हैं। हिंदुस्तान में शिवलिंग आदि काल से उपासना गृहों में पूजनीय स्थान रखता है। श्रद्धालु महिलाएं शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपना माथा उस से स्पर्श कराती हैं। यही शिवलिंग पश्चिमी समाज के लोगों के लिए अश्लीलता का प्रतीक है।

कालिदास ने शिव-पार्वती की रति क्रीड़ा का विस्तृत, सजीव और सुंदर वर्णन किया है। कालिदास ने शंकर की तपस्या में लीन पार्वती का वर्णन किया है। वह लिखते हैं—- पार्वती शिव जी की तपस्या में लीन हैं। कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिर जाती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के कपोल पर आ गिरती है। कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के स्तन पर गिर जाती है। और स्तन इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है, धराशाई हो जाती है। कालिदास के लेखन को उन के समय में भी अश्लील कहा गया। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ले कर मध्ययुगीन काव्य परंपरा है। डीएच लारेंस के ‘लेडीज़ चैटरलीज़ लवर’ पर अश्लीलता के लंबे मुकदमे चले। अदालत ने भी इस उपन्यास को अश्लील माना लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि साहित्य में ऐसे गुनाह माफ़ हैं। ब्लादिमीर नाबकोव की विश्व विख्यात कृति ‘लोलिता’ पर भी मुकदमा चला। लेकिन दुनिया भर के सुधि पाठकों ने उन्हें भी माफ़ कर दिया।

आधुनिक समकालीन लेखकों में खुशवंत सिंह, अरूंधति राय, पंकज मिश्रा, राजकमल झा हिंदी में डा. द्वारका प्रसाद, मनोहर श्याम जोशी, कृश्न बलदेव वैद्य उर्दू में मंटो, इस्मत चुगताई आदि की लंबी फ़ेहरिश्त है। मैं कालिदास, लारेंस या ब्लादिमीर जैसे महान रचनाकारों से अपनी तुलना नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ़ उन की तरह अपने गुनाह कबूल कर रहा हूं।

साहित्यिक अश्लीलता से बचने का सब से बेहतर उपाय यह हो सकता है कि उसे न पढ़ा जाए। यह एक तरह की ऐसी सेंसरशिप है जो पाठक को अपने उपर खुद लगानी होती है। श्वेता जी ने ठीक कहा इस तरह की सामग्री एक विशेष वर्ग को ही पसंद हो सकती है। लेकिन यथार्थवादी पाठकों का एक बड़ा वर्ग है जो काल्पनिक परी कथाओं की दुनिया से ऊब चुका है। मेरी कथा का नायक संजय और उस का सहयोगी चरित्र अजय शेक्सपियर के डायलाग्स सुनाता है। दुष्यंत कुमार की शायरी पर बात करता है। वह सेक्स पर भी बात करता है, नानवेज़ लतीफ़े सुनाता है और ऐसा करते वक्त वह ठेठ युवा भी बन जाता है। उस की आंखों के सामने ब्लू फ़िल्मों के कुछ उत्तेजक दृश्यों के टुकडे़ होते हैं, जवानी के दिनों की कुछ संचित कुंठाएं होती हैं और इसे प्रकट करने के लिए उस के पास कुछ प्रचलित शब्दावलियां हैं–तो बस कबड्डी-कबड्डी। गया और आया। उस के पास दिल्ली के खुशवंत सिंह जैसे खूबसूरत शब्द नहीं जो वह कहे— मैं दाखिल होते ही खारिज़ हो गया!

खैर इसे जाने दें। असल बात मैं कहना चाहता हूं कि अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनलों और अखबारों से शुरू कीजिए। जहां पचासों लोगों को बिना नोटिस दिए मंदी के नाम पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं आप को लूट रहे हैं। हर जगह एम आर पी है लेकिन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर क्यों? कार के दाम घट रहे हैं, ट्रैक्टर महंगे हो रहे हैं। मोबाइल सस्ता हो रहा और खाद-बीज मंहगे हो रहे हैं। एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम में बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।

तो मित्रों अश्लीलता यहां है, अपने-अपने युद्ध में नहीं। वैसे भी आप इस के छोटे- छोटे हिस्से पढ़ रहे हैं। जब इसे समग्रता में पढ़ेंगे तो यह उपन्यास आप को जीवन लगेगा। हां, अगर हमारा जीवन ही अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या?

आप का,

दयानंद पांडेय

लेखक

‘अपने-अपने युद्ध’

30 अगस्त , 2009 को भड़ास पर चल रहे एक विमर्श में

अपने-अपने युद्ध पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक कीजिए 

1 . अपने-अपने युद्ध 

2 . गुजिस्ता अपने-अपने युद्ध 

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