क्या कहूँ,
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती--
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
अंधेरे में शीर्षक लंबी कविता में जब मुक्तिबोध यह लिख रहे थे तब वह भला क्या जानते थे कि उन की इस कविता पंक्ति का लफ्फाज और हिप्पोक्रेट साहित्यकार हद से अधिक दुरूपयोग करेंगे और कि इस कविता पंक्ति की आड़ में यह लफ्फाज और हिप्पोक्रेट साहित्यकार नित नए-नए गढ़ और मठ बनाते जाएंगे । मुक्तिबोध तो तब यह भी नहीं जानते थे कि साहित्य की ज़मीन कभी सोशल मीडिया की भी जद में आ जाएगी । और यह सोशल मीडिया इन बेगैरत लफ्फाजों और हिप्पोक्रेट साहित्यकारों की दुनिया तहस-नहस कर , उन के सारे मठ और गढ़ ध्वस्त कर देगा । सच सोशल मीडिया ने वह काम कर दिया है जो लोगों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था । फेसबुक , ब्लाग और साइट ने बड़े-बड़े महारथियों की पैंट उतार दी है , नींद उड़ा दी है । साहित्यिक परिदृश्य को तानाशाही , हिप्पोक्रेसी और लफ्फाजी से मुक्त कर नई खिड़की और नई ज़मीन परोस दी है । वह एक नारा था न कभी कि कमाने वाला खाएगा ! की तर्ज पर साबित हो गया है कि लिखने वाला ही पढ़ा जाएगा , गैंगबाज मारा जाएगा !
इस लिए भी कि साहित्यिक परिदृश्य में गुटबाजी और गैंगबाज़ी बहुत होती है । इतनी कि इन का कमीनापन देख कर अपराधियों के बड़े-बड़े गैंग भी शर्मा जाएं । पुरुषों के अलग गैंग हैं , महिलाओं के अलग गैंग । हां , इन गैंगबाजों के पास रचना या आलोचना नहीं है , एक जहर है , नफ़रत और छुआछूत है । इन के पास पत्रिका है , संगठन हैं, पालतू पत्रकार हैं , अख़बारों में इन के ही फ़ोटो , इन के ही भाषण हैं । सभा , सेमिनारों में इन का ही कब्जा है । यही नहीं तमाम नए-पुराने सशक्त रचनाकार इन गैंगबाजों की जहरीली और बदबूदार हवा में नाक पर रुमाल रख कर किनारे हो गए हैं । महिला गैंगबाज़ भी हैं तो इन पुरुष गैंगबाजों का बगल बच्चा ही लेकिन उन की महत्वाकांक्षा और आपसी डाह उन्हें पुरुषों से कहीं ज़्यादा जहरीली और बदबूदार बना गई है । अमृतलाल नागर अपने समय की गुटबाजी के मद्देनजर मुझे समझाते हुए कहते थे , रचा ही बचा रह जाएगा । तो मैं ने तो रचने पर ही सर्वदा ध्यान दिया है और इन गैंगबाजों को सर्वदा जूते की नोक पर रखा है । कभी इन की परवाह नहीं की ।
फिर सोशल मीडिया की अकूत ताक़त ने इन गैंगबाज़ों की हवा निकाल कर , इन्हें इन की औक़ात बता दी है । पहले भड़ास ने फिर मेरे ब्लाग सरोकारनामा ने जो असंख्य पाठक दुनिया भर में मुझे दिए हैं , कोई पत्रिका , अख़बार या कोई प्रकाशित किताब भी मुझे अभी तक नहीं दे पाई । सोने पर सुहागा फेसबुक है , जहां पाठकों से रुबरु न सिर्फ़ संवाद हो जाता है , अपनी औक़ात समझ में आ जाती है बल्कि दुनिया भर को , दोस्त-दुश्मन हर किसी को सूचना देने का सब से बड़ा प्लेटफार्म भी मिल जाता है । सच यह है कि सोशल मीडिया ने साहित्य के बड़े-बड़े माफ़ियाओं को धूल चटा दी है , उन की सत्ता को तहस-नहस कर सर्व सामान्य को भी सभी अवसर उपलब्ध करवा दिए हैं , मुफ्त में । बस यही है कि जिस बीज में ताक़त होगी , वह पत्थर फोड़ कर , कड़ी ज़मीन तोड़ कर भी उग आएगा और वृक्ष बन जाएगा । फूल और फल से सर्वदा लदा रहेगा । जिस बीज में कुछ नहीं होगा , वह तमाम सुविधाओं और बैसाखी के भी खिल न सकेगा , उग न सकेगा । यह भी सोशल मीडिया ने बता दिया है । यह भी कि रचना का सूरज तो उगेगा और पूरब से ही उगेगा । नेट पर लोग खोज ही लेते हैं अपना-अपना सूरज । कोई बादल , कोई पर्वत , कोई माफ़िया , कोई गैंगबाज़ , कोई तानाशाह , कोई लफ्फाज , कोई हिप्पोक्रेट उसे रोक नहीं पाता । उस के सारे मठ और गढ़ अनायास टूट जाते हैं । टूटते ही जाते हैं । इस लिए भी कि सोशल मीडिया वह नदी है जहां बहता पानी ही काम आता है , ठहरा और सड़ा जल नहीं ।
बहुत खूबसूरत लेख, बधाई, सचमुच आपने भी गैंगबाजों की अच्छे से पेंट उतार दी।
ReplyDeleteआपकी तार्किकता और लेखन का मैं मुरीद हो गया हूं
ReplyDeleteअफसोस मैं आपसे बहुत देर में जुड़ा
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