कर्णन मसले पर आज एक अखबार में एक लेख लिख कर जस्टिस पालोक बसु ने तजवीज दी है कि कर्णन अगर सुप्रीम कोर्ट में पेश हो कर माफ़ी मांग लें तो जेल जाने से बच सकते हैं । उन्हों ने बिना नाम लिए जस्टिस काटजू का हवाला दिया है जिन्हों ने कंटेम्प्ट के मामले में माफ़ी अभी हाल ही में माफ़ी मांगी थी । बसु ठीक ही कह रहे हैं । क्यों कि ज़्यादातर अवमानना मामलों में अदालतें एक माफ़ी भर से मोमबत्ती की तरह पिघल जाती हैं और माफ़ कर भी देती हैं । इसी लिए अब अदालतों के आदेश को लोग बहुत गंभीरता से नहीं लेते ।
मैं खुद कंटेम्प्ट के एक मुकदमे में इस का भुक्तभोगी हूं । यह नब्बे के दशक की बात है । संयोग से मेरा वह कंटेम्प्ट का मुकदमा जस्टिस पालोक बसु ने भी सुना था और पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ बहुत तेजी दिखाई थी । मुझे लगा था कि अब न्याय मिल जाएगा और कि पायनियर मैनेजमेंट और तब के पायनियर के मालिक मशहूर उद्योगपति एल एम थापर अब जेल जाएंगे । जस्टिस पालोक बसु की छवि तब एक सख्त और ईमानदार जस्टिस की थी भी । पर अदालती पैतरेबाजी के तहत एक नई और युवा बंगालिन वकील के पेश होते ही जस्टिस पालोक बसु की सारी तेज़ी और सख्ती भहरा गई । और वह अगली तारीख दे कर इस कंटेम्प्ट केस को कूड़ेदान में डाल गए । अब वह बंगालीवाद में फंसे कि उस युवा वकील के रूपजाल में फंसे या किसी और मामले में यह वह ही जानें । पर मुझे बहुत उम्मीद दिला कर मेरा केस खराब कर गए । खैर इस का विस्तार बहुत है । अपने-अपने युद्ध उपन्यास में इस की थोड़ी तफ़सील दी भी है मैं ने । बताऊं कि मेरे द्वारा दायर उस अवमानना मामले में कई साल तक कुछ नहीं हुआ । पायनियर और स्वतंत्र भारत अखबार बिक गया पर मेरा मुकदमा खत्म नहीं हुआ । और हार कर पायनियर लिमिटेड ने अदालत से बाहर मुझ से समझौता कर लिया । यह कह कर कि भागते भूत की लंगोटी भली । मैं भी लड़ते-लड़ते थक चुका था । तारीख पर तारीख लेते हुए थक चुका था । और फिर जब पायनियर कंपनी ही अंतिम सांस गिन रही थी तो किस से लड़ता भला । समझौता कर लिया । समझौते में मुझे कुछ पैसे तो मिल गए पर जो मेरा समय , मेरा कैरियर और मेरी जवानी जो बरबाद हुई न्याय की आस में उस का क्या । उस की भरपाई तो इस जीवन में नामुमकिन है । इस सिस्टम में न्याय की मृगतृष्णा में इसी लिए किसी को नहीं पड़ना चाहिए यह मैं लोगों को किसी अनुभवी की तरह अकसर समझाता हूं । कुछ मान जाते हैं , कुछ नहीं मानते ।
लेकिन फिर अपने-अपने युद्ध उपन्यास में जब इस मामले की तफ़सील विस्तार से लिखी तो मुझ पर भी कंटेम्प्ट का मुकदमा हो गया । हुआ मेरे भी खिलाफ कुछ नहीं । तब जब कि उपन्यास में मैं ने हाईकोर्ट की बाकायदा मा-बहन तक की थी और पूरी न्यायपालिका पर सवाल उठाते हुए स्टैब्लिश किया था कि इस न्याय व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है । ढाई साल मुकदमा चला और एक चेतावनी दे कर कि आगे से ऐसा लेखन नहीं करेंगे और उपन्यास का नया संस्कारण संशोधित कर छापें , मुकदमा निस्तारित कर दिया गया । बाद में वकील ने बताया कि कानून की भाषा में चेतावनी भी सजा होती है , सुन कर मैं हंस पड़ा ।
अब सवाल है कि कर्णन क्या माफ़ी मांग कर व्यावहारिकता दिखाएंगे या फिर दलित अस्मिता के नाम पर जेल जाना पसंद करेंगे । पालोक बसु ने इस लेख में जस्टिस लोगों से जुड़े और भी कई मामले रखे हैं , नेहरु के समय से लगायत अब तक के और बताया है कि न्यायपालिका जाति , क्षेत्र , धर्म देख कर निर्णय नहीं लेती । पालोक बसु से पूछने का मन होता है कि फिर कर्णन ने जो फैसले दिए हैं क्या उस में से जातीय बू नहीं आती ? और फिर जिस तरह कर्णन ने अभी चीफ जस्टिस आफ इंडिया समेत सुप्रीम कोर्ट के सात जजों को सजा देते हुए जेल भेजने का आदेश दिया है , क्या वह जातिगत फैसला नहीं है ? जो भी हो पालोक बसु का यह लेख बहुत सूचनात्मक है , पठनीय भी और एक नई खिड़की भी ।
सवाल फिर भी शेष है कि क्या कर्णन जेल जाएंगे या सुप्रीम कोर्ट से माफ़ी मांग कर चैन का जीवन जिएंगे । मेरा अनुमान है कि वह सुप्रीम कोर्ट से माफ़ी मांग कर चैन का जीवन जिएंगे । हां , अगर अपने दलित एक्टिविस्ट मित्रों के बहकावे में आ गए तो जरूर जेल जा कर अपनी मिट्टी पलीद करवाएंगे , जिस की उम्मीद बहुत कम है । फ़िलहाल तो बंगाल पुलिस उन्हें यहां वहां तलाश रही है और वह कानून की भाषा में फरार हैं ।
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