Friday, 28 August 2015

बहन की राखी के रंगीन धागे

दयानंद पांडेय 




 [ अर्चना श्रीवास्तव  , अलका , आरती और शन्नो अग्रवाल दीदी के लिए ]



पहले बड़े ठाट-बाट से आता था रक्षा बंधन
मिठाई की खुशबू में तर
बहन के मान में मस्त

अब तो
चुपके से डाकिये के साथ
आता है रक्षा बंधन

यह रक्षा बंधन का रंग
इतने चुपके से क्यों इतराता है
होली की तरह ठुमकता
दिवाली की तरह दमकता हुआ
क्यों नहीं आता है

नहीं आता है करवा चौथ
और तीज की व्याकुलता में सन कर
जिवतिया , तिनछट्ठ , गणेश चतुर्थी
या बाक़ी घरेलू त्यौहारों और व्रत की तरह
लचक और मचल कर भी नहीं आता
आज़ादी के तिरंगे की तरह
लहराता हुआ भी नहीं आता है

जैसे डोली में जाती थी बहन
रोती-बिलखती , सिसकती
नईहर की राह से गुज़रती

वैसे ही आती है राखी
बहन की ख़ामोश सिसकी में सन कर
विवशता की शांत चादर ओढ़ कर

ससुराल के गांव और शहर को फलांग कर
सरहद और बंदिशों को लांघ कर
डाकिये की थैली में बंद
उस की साइकिल पर चढ़ कर
आता है राखी का बंद लिफ़ाफ़ा

बंद लिफ़ाफ़ा खोलती है पत्नी
बहन के आशीष भरे पत्र को बांचता हूं मैं
आंसुओं में भीग जाती है पत्र की इबारत
भीगी इबारतों की मेड़ पर बैठ कर
बांधती है बेटी दाएं हाथ की कलाई पर
अक्षत-रोली-हल्दी और चंदन का टीका लगा कर

बहन की राखी के रंगीन धागे
मन में बंध जाते हैं
बचपन में उस की किलकारी की तरह
जैसे फूटता है धान गांव में
मन में फूटता है बहन का नेह 
बरसता है घर में उस का स्नेह मेह की तरह
जैसे बहती है गंगा किसी उमंग की तरह
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद में

कानपुर , इलाहाबाद से बलिया जाती हुई गंगा
राखी के दिन हमारे लिए बहती है
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद से
अर्चना दी , अलका और आरती के लिए

वैसे ही जैसे बहती है टेम्स नदी
लंदन के किनारे से
सुदूर परदेस से शन्नो दीदी भेजती हैं 
आशीष के अग्रिम आखर

जैसे बहती है राप्ती
गोरखपुर के शहर और कछार में
सुदूर गांव में बिरहा गाता हुआ
जैसे कोई बेरोजगार जलता है बेगार में
इस तपिश में सुलग कर
स्नेह का फाहा
अनुराग और आंसू के आसव में सान कर
बहनें भेजती हैं दुःख का पहाड़
राखी की आड़ में

भेजती हैं राखी
अपने अरमानों की राख में दाब कर
ऐसे जैसे उस में संबंधों की
स्नेह की चिंगारी दबी हो
सुख में सुलग-सुलग जाने के लिए
दुःख में दहक-दहक जाने के लिए

इन सारे शहरों में बसी
हमारी बहनें भी बहती हैं
यादों के साथ , लहरों के साथ
अपने सारे सुख-दुःख
अपने पूरे वैभव के साथ
स्नेह के सरोवर में बसे सुख के साथ
भेजती हैं अपनी यादों की गठरी
भाई की देहरी पर
नेह के रेशमी धागों में लपेट कर

ऐसे जैसे यादों की बाढ़ आई हो
गंगा में , राप्ती में , टेम्स में
बलिया , कानपुर , इलाहबाद 
गोरखपुर और लंदन में

ऐसे ही आता है रक्षा बंधन
इतराते हुए कलाई पर राखी बंधने के बाद
बहन के नेह में दमकता और इतराता हुआ
बहन के आशीष में जगमगाता हुआ
बहन के सुख में
इस भाई का सिर ऊपर उठाता हुआ

अब हर साल ऐसे ही आता है रक्षा बंधन

इस साल भी आया है



[ 29 अगस्त , 2015 ]






3 comments: