देवेंद्र आर्य
साहित्य, सिनेमा, क्रिकेट, राजनीति, बाल-साहित्य, इण्टरव्यू, संस्मरण, पत्रकारिता, गरज़ कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिस पर दयानंद पांडेय की कलम न चली हो। अभी वे 60 के नहीं है परंतु उन के पास 30 प्रकाशित पुस्तकों
की सौगात है। कहानी-उपन्यास के बाद अभी उन का ताजा कविता
संग्रह आया है- यह
घूमने वाली औरतें जानती हैं। विद्यार्थी जीवन में वे कवि भी थे, यह जिन्हें न भी
मालूम हो, वे
भी मानते हैं कि कवि-हृदय और लिख्खाड़़ हैं। प्रमाण स्वयं यह
कविता संग्रह है। ये वो कविताएं नहीं हैं जो उन्होंने विद्यार्थी जीवन में या
किशोरावस्था में लिखी थीं। वे कविताएं तो किताबों के कबाड़ में कहीं दबी पड़ी होंगी । उनमें से सिर्फ़ दो गीतनुमा कवितायें - ‘बंसवाड़ी में बांस नहीं है’ और ‘मेंहदी
नहीं रचेंगी भउजी भरे असाढ़ में’ इस संग्रह में हैं। बाकी की तैंतीस कवितायें एकदम
इधर लिखी, दो-चार महीनों में रची कविताएं हैं। लिख्खाड़ वे हैं हीं। आभासी दुनिया में लगातार बने रहते हुए भी कविता
लिखने का जुनून चढ़ा तो 6 महीने में संग्रह तैयार। भावनाओं का
उद्रेक, संवेदनाओं
का ज्वार। कहानी उपन्यास की रचना-प्रक्रिया में वे कितने ड्राफ्ट के
लेखक हैं, मुझे
नहीं मालूम, परंतु कविताओं में वे फर्स्ट और फाइनल ड्राफ्ट के कवि हैं। जो आया मन में, लिख डाला। बच्चों
की सी मासूमियत के साथ, बतकही के टोन में। ज़ाहिर है जहां एक
तरफ ये कवितायें नितांत मौलिक भावनाओं की फर्स्ट हैण्ड कविताएं हैं, वहीं इनमें अराजक
दुहराव भी है। गेहूं के खेत में बथुए की पैदावार सी। अब आप चाहे जितना भी बथुआ-बखान कर लें, वह गेहूं का मोल तो
पा नहीं सकता। काश ! कवि ने कविताओं की सर्जरी, थोड़ा संपादन भी
किया होता। परंतु तब शायद इन कविताओं में वह दुद्धापन, वह अनगढ़ता नहीं रह पाती जिस का अल्हढ़पन
आकर्षित करता है। तब वे होतीं भी तो संभ्रांत कविताओं में शामिल होतीं। व्हाइट
कॉलर्ड कविताओं की तरह। यह कच्चापन ही उनकी मौलिकता है और सीमा भी।
दयानंद पांडेय की अधिकांश कविताएं रागात्मक अनुभूतियों की कविताएं हैं। पत्नी और पुत्रियों के प्रेम में पगी
कविताएं। मांसल सौंदर्य की कविताएं जो इरोटिक होने से बची रहती हैं। ये कविताएं अर्चना की सुलगती अगरबत्ती सी महकती पवित्र कविताएं हैं, शरीर वर्णन के
बावजदू। दयानंद पचास पार की उम्र में पत्नी को प्रेमिका के रूप में देखते/महसूसते हैं। मगर
जोशो-जुनून
वही किशोरों वाला है, मौके पर फाट पड़ने वाला। शायद इसी लिए
कहा जाता है कि शरीर बूढ़ा होता है, मन नहीं। प्रेम हमेशा जवान रहता है। दयानंद का यह प्रेमी कवि
चिर युवा है। प्रेम उम्र के साथ सिरा जाने पर कब सम्मान में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता।
मेरा तुम्हें चूमना
तुम्हें सिर्फ प्यार करना भर नहीं है
तुम्हारे सम्मान में बिछ जाना भी है।
क्योंकि
सम्मान विहीन प्यार सिर्फ सनसनी होता है। शरीर का, मन का, वय का एक रोमांच। एक सिरहन जो कब प्रेम
से भय में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता।
जानती हो
जब हम क्लास बंक कर
तुम्हारे साथ सड़क पर होते हैं
लाइब्रेरी या सिनेमाघर में होते हैं
तो हम तुम्हारा साथ तो पा रहे होते हैं
लेकिन भीतर ही भीतर मर रहे होते हैं।
प्रेम में एक तरफ
भरना और दूसरी तरफ मरना, दरअसल प्रेम के समाजीकरण का भी प्रश्न
है। दयानंद प्रेम की उस दुनिया की प्रत्याशा में हैं जहां प्रेम छुप-छुप के, नजरें बचाके न करना
पड़े। प्रेम में पड़के आप स्वयं को शर्मिन्दगी में पड़ा न महसूस करें।
दयानंद पांडेय की इन कविताओं में कुछ
अनछुए, अद्भुत
दृश्य-बिंब ध्यान आकर्षित करते हैं। ‘जेब में मेरे एक अमरूद है/तुम नमक लेकर आना/हम दोनों काट-काट कर खायेंगे।’
वे गांव-जवार
से जुड़े कवि हैं। उन की प्रेम कविताओं में अभी-अभी उग रही गेहूं की डीभी और आग में
भूनी उम्मी का स्वाद उभरता है। प्रेमपूर्ण स्मृतियां कवि के भीतर गुलमोहर की तरह
दहकती हैं और रात के जग जाने का खतरा पैदा हो जाता है। यादों के सेक्स में
परिवर्तित होने का यह नितांत नया मुहावरा है।
मेरे भीतर गुलमोहर की तरह
आहिस्ता आहिस्ता इतना मत दहको
नहीं तो रात जाग जाएगी।
रात का जगना, अरमानों का जगना
है। अरमानों का जगना मन का जगना है। मन का जगना जिस्म का जगना है और जिस्म का जगना
प्यास की अगन का जगना है। रात जग जाएगी तो कुछ सुलग उट्ठेगा। कवि की भाषा ऊपर से
दिखने मेें जितनी आसान लगती है, दरअसल होती नहीं। फिर भी उन की भाषा का
घरेलूपन जगह-जगह
दिखाई पड़ता है। वहां दुलरूआ बेटा है, ‘ए बाबू’ गोहराती मां है, सेल खत्म हो गये खिलौने
से उदास बच्चे हैं, दांत चियारती दुनिया है तो आग मूतता
अमरीका भी है। कैंसर ग्रस्त स्तन पर लिखी अनामिका की कविता को छोड़ कर मुझे और कोई
कविता याद नहीं जो उरोज के दर्जनों काल्पनिक बिंबों को ले कर रची गई हो। ‘यह
तुम्हारे विशाल उरोज’ कविता में कहीं उरोज आकाश है तो कवि पंछी , उरोज समुद्र है तो
कवि मछली, उरोज
रोड रोलर है (एक
अजीबोगरीब कल्पना) तो कवि बनती है हुई सड़क, उरोज गांव है तो
कवि गांव किनारे खड़ा पीपल का पेड़, उरोज पृथ्वी है तो कवि बादल, उरोज हिमालय है तो
कवि पिघलती हुई बर्फ की नदी, उरोज रजाई है तो कवि ठंड।
तुम्हारे यह विशाल उरोज
काश कि एक मंदिर होते
और उस मंदिर में मैं एक जलता हुआ
दिया।
कवितायें मांसल हैं
तो सात्विक भी। पत्नी सी मांसल और बेटियों सी सात्विक। दयानंद लड़कियों को बेटी के
रूप में देखने की तजबीज पेश करते हैं ताकि इस स्त्री-विरोधी समाज दृष्टि में परिवर्तन हो
सके। ‘बेटियां दुनिया की सबसे सुंदर नेमत हैं’ इसी लिए दयानंद दुनिया की सारी
बेटियों के पिता होना चाहते हैं।
वे लोग अभागे होते हैं
जिनके बेटियां नहीं होतीं
जो बेटियों का सुख नहीं जानते
कवि बेटियों को
आत्मनिर्भर बनाना चाहता है। उन के हाथों में कापी किताब कलम ही नहीं, लैपटाप और इंटरनेट थमाना चाहता है, ताकि
वे दुनिया से लड़ सके,
आगे बढ़ सकें। स्वयं
को ही नहीं, दुनिया
को भी सुंदर बना सकें। उन के सामने मां और पत्नी के रूप में मध्यवर्गीय स्त्री की
वह खुली-ढंकी
पीड़ा है जहां औरत के भीतर की हरियाली लगातार कम पड़ती जाती है और वह प्रतिरोध में
हरे-भरे
वृक्षों के बीच फोटो खिंचवाना चाहती है ताकि खुद भी हरी भरी दिख सके। उनके यहां स्त्री की बगावत पर कवितानुमा एक लंबा लेख मिलता है। घूमने वाली औरतें (इस के पीछे कवि का
कोई हिकारत भाव नहीं होगा, यह मानते हुए)
मिलती हैं जो चुप रह के भी पुरुष को
अपनी तराजू पर तौल लेती हैं और उन्हें बेच कर पकौड़ी खा जाती हैं।
संग्रह की कुछेक कविताएं यदि कविता के
लिए टांके गए नोट्स की तरह हैं, तो कुछ बेहद कसी हुई कविताएं भी हैं।
‘महुए की उस इकलौती माला की सौगंध ’ जैसी अनावश्यक विस्तार वाली कविताएं हैं तो
‘तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी’ और ‘प्रेम एक निर्मल नदी’ जैसी सधी
कविताएं भी हैं। ‘पिछवाड़े का घर गिर रहा है’ जैसी आलेखनुमा कविताएं हैं तो ‘इस नए साल पर मैं तुम्हें बधाई कैसे दूं ’ सरीखी गीत-संवेदना की कविताएं भी हैं। संग्रह
में मोदी-ओबामा, पाकिस्तान और
उग्रवाद पर भी कविताएं हैं। सत्ता व्यवस्था से सीधे टकराने वाली, खतरा मोल लेने वाली
( परंतु बड़बोली नहीं ) कविताएं
-
तुम दोनों जो अपनी दोस्ती का दाना
बिछा कर
दुनिया को फरेब की चाशनी में चाभ कर
मीडिया को अपनी लंगोट में बांध कर
अपने अपने जादू का तमाशा दिखा रहे हो
तुम दोनों को क्या लगता है कि समूची
दुनिया एक कबूतर है
और तुम दोनों बहेलियों के जाल में फंस जाएगी
हिंदी काव्यालोचकों के बीच इस संग्रह की क्या हैसियत बनेगी, यह नहीं मालूम, परंतु सामान्य पाठकों के बीच जहां कविता
की पहली शर्त समझ में आना है, ये कविताएं सराही जाएंगी, भले इन में कुछ
अभूतपूर्व न हो, न
शिल्प में न कथ्य में।
[ राष्ट्रीय सहारा , 23 अगस्त , 2015 में प्रकाशित ]
समीक्ष्य कृति:
यह
घूमने वाली औरतें जानती हैं
कवि : दयानंद पांडेय
अरुण प्रकाशन
प्रथम संस्करण : 2015
पेंटिंग : बी प्रभा
आवरण - प्रवीण राज
मूल्य - 250 रुपए , पृष्ठ - 128
ई - 54 , मानसरोवर पार्क
शाहदरा , दिल्ली -110032
प्रथम संस्करण : 2015
पेंटिंग : बी प्रभा
आवरण - प्रवीण राज
मूल्य - 250 रुपए , पृष्ठ - 128
ई - 54 , मानसरोवर पार्क
शाहदरा , दिल्ली -110032
Nice Line
ReplyDeleteThanks for sharing
Ebook Publisher