Sunday, 18 January 2015

लेकिन जीतन राम मांझी कतई किसी भी सूरत में नीतीश के भरत नहीं हैं

कुछ फेसबुकिया नोट्स 


  • नीतीश कुमार तो अब लद गए । पहले नरेंद्र मोदी से मोर्चा खोल कर मुंह की खाए ही थे , अब उन के खड़ाऊं राज के प्रतीक जीतन राम मांझी ने भी उन्हें जोर का झटका धीरे से दे दिया है। नीतीश नाम की माला फेर-फेर कर ही उन को बड़ा सा दर्पण दिखा दिया है। अभी एक न्यूज चैनल पर उन का इंटरव्यू देख कर यह तो पता चल ही गया है कि जीतन राम मांझी न सिर्फ़ घुटे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं बल्कि बहुत शातिर भी हैं। नीतीश ने उन्हें अपना खडाऊं भले दिया हो कभी लेकिन जीतन राम मांझी कतई किसी भी सूरत में नीतीश के भरत नहीं हैं , न कभी साबित होंगे । उन्हों ने बिना तलवार निकाले नीतीश कुमार को चुनौती भी दे दी है। उन के निशाने पर नीतीश ही नहीं , लालू प्रसाद यादव भी हैं। उन का दलित कार्ड ही उन की तलवार है। बहुत मुश्किल है जीतन राम मांझी को मूली की तरह किसी के द्वारा उखाड़ पाना। जीतन राम मांझी बहुत परिपक्व और बहुत घाघ राजनेता हैं । नीतीश से हर हाल में बीस हैं जीतन राम मांझी । और बिहारी नेताओं की तरह बड़बोलेपन में भभक कर बुझ जाने के लिए वह पैदा नहीं हुए हैं। उन का इंटरव्यू बताता है कि वह लंबी रेस के घोड़े हैं। बिहार में इतनी समझदारी से बात करने वाला कोई मुख्यमंत्री बहुत दिनों बाद दिखा है। सच बताऊं मैं तो जीतन राम मांझी का फैन हो गया हूं इस इंटरव्यू को देखने के बाद। अपने दलित एजेंडे पर सख्ती से कायम रहते हुए भी अतिशय सदाशयता से बात करने वाले दलित नेताओं में जीतन राम मांझी मेरी जानकारी में मौजूदा दौर में इकलौते हैं।


  • वैसे देखना दिलचस्प होगा कि अरविंद केजरीवाल अभिमन्यु साबित होते हैं कि अर्जुन ! चक्रव्यूह तो चौतरफा रच दिया गया है। कांग्रेस , भाजपा और अपने ' आप' के लोग भी नित नए चक्रव्यूह रच रहे हैं । भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस उन पर हमलावर हो गई है। जाने दिल्ली की जनता उन के साथ क्या सुलूक करने वाली है !

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तुम्हें नहीं मालूम
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं
तो योग और क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशायी
और कौन है
जिसकी पताका ऊपर फहराई
कन्हैया लाल नंदन की यह कविता आज के राजनितिक परिदृश्य के मद्दे नज़र बड़ी शिद्दत से याद आ रही है । बाक़ी विमर्श का कोई मतलब या कोई हासिल नहीं है। सिर्फ़ टाइम पास है।


  • किरन बेदी के भाजपा में आ जाने से अरविंद केजरीवाल और उन की पार्टी आप से ज़्यादा, दिल्ली भाजपा नेताओं से ज़्यादा बाक़ी लोग ज़्यादा परेशान हैं। बहुत ज़्यादा परेशान हैं । लेकिन क्यों परेशान हैं यह लोग ?


  • अब अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनें या किरन बेदी। ठप्पा तो अन्ना हजारे का ही रहेगा ! आम आदमी या भाजपा का नहीं। इन दोनों की सामाजिक जीवन में पहचान तो अन्ना के समर्थक के तौर पर ही है । भले आज की टी वी पत्रकारिता के दौर में अन्ना सीन से बाहर हों ।


  • अब अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनें या किरन बेदी। ठप्पा तो अन्ना हजारे का ही रहेगा ! आम आदमी या भाजपा का नहीं। इन दोनों की सामाजिक जीवन में पहचान तो अन्ना के समर्थक के तौर पर ही है । भले आज की टी वी पत्रकारिता के दौर में अन्ना सीन से बाहर हों ।

जिस तरह से नामी गिरामी लोग बीजेपी के साथ जा रहे है, मुझे लगता है कि कहीं 26 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा भी लाल किले से पार्टी में शामिल होने की घोषणा न कर दें..पार्टी और साहिब की नीतियों से प्रभावित हो कर...


  • बताइए कि तब भी दलितोत्थान के मारे कुछ मूर्ख पंडित मदन मोहन मालवीय को ब्राह्मणवादी और दलित विरोधी बता कर उन्हें गरियाते हुए नहीं थकते ।


महामना मालवीयजी आरा[बिहार] गये।जगजीवनराम प्रतिभाशाली छात्र थे, इसलिये मालवीयजी को मानपत्र जगजीवनरामजी से दिलवाया गया।मालवीयजी प्रतिभा के पारखी तो थे ही,पहचान गये ,बोले >तुम आगे की पढाई के लिये काशीहिन्दू विश्वविद्यालयमें आजाओ!जगजीवनराम विश्वविद्यालयमें दाखिल हो गये,छात्रावास में भी जगह मिल गयी।लेकिन बरतन-वाले ने कहा कि > हम इस निम्न के बरतन नहीं धोयेंगे! नौकरी जाये तो जाये! बात मालवीयजी तक पंहुची ,वे बोले >जगजीवनराम हमारे घर पर रहेगा,और इसके जूठे बरतन मैं धोऊंगा।जगजीवनराम गद्गद हो गये ,बोले घर पर तो अपने बरतन मैं धोलूंगा छात्रावास में धोना तो अपमान है!यहां तो सब बराबर हैं! बात बरतन-वाले तक पंहुच गयी।वह आकर बोला> इया नाईं हुइ सकति हमारी अकड ते महाराजजी को ऐस दुख पंहुचै।हम बरतन ध्वावैं मां कौनिउ आनाकानी न करब।मालवीय जी ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर शाबाशी दी।


  • पहले राऊंड में तो किरन बेदी ने अरविंद केजरीवाल को बैकफुट पर ला दिया है। खुदा न खास्ता अगर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ वह चुनाव लड़ गईं तो केजरीवाल चुनाव भी पक्का हार जाएंगे। वैसे नरेंद्र मोदी इतने मूर्ख नहीं हैं । वह किरन बेदी को केजरीवाल के खिलाफ उतारने का रिश्क शायद ही लें । रही बात भाजपाइयों की तो भाजपा के बड़े-बड़े लोकल नेताओं को तो किरन बेदी ने जैसे नाथ ही दिया है। सब चुप-चाप ताली बजाने में मशगूल हो गए हैं । विजय कुमार मल्होत्रा , हर्षवर्धन , विजय गोयल , सतीश उपाध्याय , आरती मेहरा आदि सब के सब मुंह बाए भकुआ गए दीखते हैं। किरण बेदी दिल्ली की पुलिस कमिश्नर भले नहीं बन पाईं, दिल्ली भाजपा की कमिश्नर तो फ़िलहाल बन गई है।


  • अब बताईए भला कि सुबह शाम अकलियत की बात करने वाले अमर सिंह और उन की सखी जयाप्रदा भी भाजपा की ओर पेंग मारते हुए मोदी की प्रशंसा करने लगे हैं। यह वही अमर सिंह हैं जो एक समय बटाला हाऊस इनकाऊंटर को फर्जी बताने में दिग्विजय सिंह के साथ कंधे से कंधा मिला कर आग मूत रहे थे। अकलियत की बात करने में वह एक समय सपा में आजम खान के भी कान काट रहे थे। अब वह भाजपा में जाने के लिए जयाप्रदा को अग्रिम आशीर्वाद दे रहे हैं ।


  • कभी टेनिस की राष्ट्रीय चैम्पियन रहीं देश की पहली महिला आई पी एस किरन बेदी के राजनीति में आने को मैं शुभ मानता हूं। पढ़े-लिखे , बहादुर और ईमानदार लोगों का राजनीति में आना बहुत ज़रूरी है । देश और राजनीति में सार्थक बदलाव इसी तरह आएगा। अब यह भाजपा का मास्टर स्ट्रोक है या दिल्ली के नए मुख्यमंत्री की आहट यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी। तो भी दिल्ली का मुख्यमंत्री चाहे अरविंद केजरीवाल बनें या किरन बेदी दिल्ली और देश की राजनीति के लिए यह बहुत शुभ होगा। दोनों ही ईमानदार हैं और बहादुर भी। अब यह तो दिल्ली की जनता जनार्दन के हाथ है। लेकिन मैं किरन बेदी को नंबर एक पर रखना चाहूंगा। अरविंद को नंबर दो पर रखूंगा । इस लिए कि उन में लड़ने की क्षमता तो है , लेकिन सत्ता संभालने और प्रशासन की समझ नहीं है उन में । झख से आंदोलन तो चल सकते हैं प्रशासन नहीं । मैं उन दिनों दिल्ली में ही रहता था जब किरन बेदी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की कार भी क्रेन से उठवा लिया था । क्यों कि कार गलत जगह पार्क थी । तब वह एस पी ट्रैफिक हुआ करती थीं दिल्ली की। उन दिनों उन का नाम किरन बेदी से बदल कर क्रेन बेदी रख दिया था दिल्ली की जनता ने। बाद में कांग्रेस के हरिकिशन लाल भगत जैसे लोगों ने किरन बेदी के लिए लगातार मुश्किलें खड़ी कीं लेकिन किरन बेदी कभी झुकीं नहीं । किसी पुलिस अधिकारी का किसी सत्ता के साथ लड़ना बहुत आसान तो नहीं होता । पर किरन बेदी आख़िरी दम तक लड़ती रहीं । कभी झुकीं नहीं । बाद के दिनों में किरन बेदी को केंद्रित कर एक फिल्म बनी तेजस्विनी। जो चली भी और चर्चित भी खूब हुई । किरन बेदी जब तिहाड़ जेल में तैनात की गईं परेशान करने के लिए तो इस मौके को भी उन्हों ने अवसर बना लिया । तिहाड़ के कैदियों का जीवन बदल दिया । कई लोकप्रिय और कल्याणकारी योजनाएं कैदियों के लिए बनाईं । उन को सुधारने के लिए भी कार्यक्रम बनाए। लेकिन उन को कांग्रेस लगातार परेशान करती रही थी और अंतत: उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया। उन को अपमानित करते हुए उन से दो साल जूनियर को पुलिस कमिश्नर बना दिया। आज़िज आ कर किरन बेदी ने वी आर एस ले लिया और बाद में अन्ना आंदोलन में कूद गईं । अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा में अन्ना आंदोलन बिखर गया। किरन बेदी घर बैठ गईं। आज वह घर से बाहर निकल कर राजनीति में आ गई हैं तो भाजपा से अपनी तमाम असहमतियों के बावजूद किरन बेदी का राजनीति में आना मैं शुभ मानता हूं ! किरन बेदी को बधाई देना चाहता हूं।


  • तेजेंद्र जी , पूरी तरह सहमत। नौकरी तो बहुत लोग करते हैं। पर बृजेंद्र त्रिपाठी साहित्य अकादमी की नौकरी ही नहीं साहित्य को जीवन की तरह जीते हैं। वह न सिर्फ़ बहुत अच्छे कवि हैं बल्कि बहुत अच्छे अनुवादक भी हैं। मैं ने उन का काव्यपाठ तो सुना ही है , उन के द्वारा अनूदित कविताओं का पाठ भी सुना है । बृजेंद्र त्रिपाठी बहुत अच्छे आयोजक भी हैं और कार्यक्रमों के संचालक भी । वह प्रेक्षक भी बहुत शार्प हैं । उन के पास इतने अनुभव , इतनी यादें और इतनी सूचनाएं हैं , लोगों की कहानियां हैं कि अगर वह रचें तो जाने कितनी पुस्तकें तैयार हो जाएं। इतनी सहिष्णुता , सहनशीलता और शालीनता बहुत कम लोगों को प्रकृति देती है , जितनी बृजेंद्र त्रिपाठी को दी है । सौ बात की एक बात यह भी कि वह बहुत अच्छे और सरल आदमी हैं। मैं नहीं जानता कि बृजेंद्र त्रिपाठी से कभी कोई नाराज भी हो सकता है। बताते हुए ख़ुशी होती है कि गोरखपुर में मेरे गांव के बहुत पास ही उन के पुरखों का गांव सोहगउरा है । और वह आज से नहीं बहुत समय से आचार्यों का गांव है। पंडित विद्या निवास मिश्र , राम दरश मिश्र , मन्नन द्विवेदी और जीवन जी जैसे आचार्यों के गांव भी आस-पास ही हैं । Brajendra Tripathi


मित्रो (सहनशीलता-श्री कौन)
पिछले दिनों किसी से बातचीत चल रही थी कि सहनशीलता की सीमा क्या हो सकती है। कोई मानता है कि पत्नी जितना जीवन भर में सहती है शायद ही कोई और उसका मुक़ाबला कर सकता है।
मैनें भी इस विषय पर गहन विचार किया। मेरे हिसाब से हिन्दी साहित्य जगत में यदि हम किसी को सहनशीलता-श्री का सम्मान देने के बारे में सोचें तो केवल एक ही नाम सामने आता है - बृजेन्द्र त्रिपाठी Brajendra Tripathi। यह व्यक्ति साहित्य अकादमी में हर कहानीकार की कहानियां सुनने को अभिशप्त है। स्वयं कवि हो कर भी अन्य कवियों की कविताएं सुनने की मजबूरी है। साहित्य चाहे देसी हो या प्रवासी इस बन्दे की नियति केवल और केवल सुनना है।
चेहरे पर बिना कोई भाव लाए हल्की सी मुस्कुराहट लिये बस सुनता रहता है। किसी के प्रति बदले की भावना नहीं रखता। अपनी सहज सरल मीठी भाषा में बात करता है। - क्या आप मेरी बात से सहमत हैं......


  • शेर अगर पिंजड़े में हो तो कोई कुत्ता भी उसे ललकार सकता है !


  • यह तो शार्ली आब्दी का सरासर अपमान है !
हमारे भारतीय समाज में ही नहीं पूरी दुनिया में ही लेखक वर्ग अपनी सहिष्णुता , अपने प्रतिरोध और न झुकने के लिए जाना जाता है । इस के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं । भारत में भी , दुनिया में भी। लेखक टूट गए हैं , बर्बाद हो गए हैं पर झुके नहीं हैं । अपनी बात से डिगे नहीं हैं । व्यवस्था और समाज से उन की लड़ाई सर्वदा जारी रही है । हर कीमत पर जारी रही है । इसी अर्थ में वह लेखक हैं । लेकिन इधर कुछ लेखकों में पलायनवादिता की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है । इन लेखकों में एक सब से बड़ी दिक्कत आई है तानाशाही प्रवृत्ति की । इस तानाशाही ने लेखक बिरादरी का बड़ा नुकसान किया है । तानाशाही इस अर्थ में कि हम जो कहें वही सही । अगर भूले से भी कोई असहमत हो जाए उन के कहे से या लिखे से तो यह लेखक बलबला जाते हैं । ऐसे गोया उन पर कितना बड़ा अत्यचार हो गया हो ! भाई वाह ! आप का विरोध , विरोध है दूसरे का विरोध अत्याचार ! इतनी भी सहिष्णुता शेष नहीं रह गई है कि आप किसी का विरोध भी न सह सकें अपने लिखे को ले कर तो आप लेखक हैं किस बात के ? ऐसे ही समाज से और व्यवस्था से लड़ेंगे और कि उसे बदलेंगे ? इस तरह छुई-मुई बन कर ? इतनी भी रीढ़ आप में अगर बाकी नहीं रह गई है कि किसी का विरोध न सह सकें आप तो क्या डाक्टर ने कहा है कि आप लेखक बने रहिए ? बात यहीं तक नहीं है अंगुली कटवा कर शहीद बनने कि ललक भी लेखकों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है । तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन का मामला ताज़ा-ताज़ा है । मैं ने मुरुगन कि कोई रचना नहीं पढ़ी है । लेकिन उन के बाबत फेसबुक पर भेड़िया धसान देख रहा हूं। सुना है अंग्रेजी चैनलों पर भी चर्चा कुचर्चा है । लेकिन सब से ज़्यादा हैरतंगेज है मुरुगन कि तुलना शार्ली आब्दी से कर देना । लोगों को इतनी तमीज भी नहीं है कि शार्ली आब्दी को बरसों से धमकियां मिल रही थीं , इस्लामी संगठनों से लेकिन उस टीम ने अपनी जान दे दी पर अपना काम, अपना विरोध नहीं छोड़ा। मारे जाने के बाद भी उन का वह काम उन के साथी पूरी ताकत से जारी रखे हैं । बिना डरे और बिना झुके । और मुरुगन कि बहादुरी देखिए कि एक विरोध का प्रतिकार वह फेसबुक पर अपने लेखक के मरने की कायराना घोषणा कर के देते हैं । और उन के अंध समर्थक जो उन्हें कभी पढ़े भी नहीं हैं , उन्हें शार्ली आब्दी घोषित कर देते हैं । यह तो कोई बात नहीं हुई दोस्तों ! यह तो शार्ली आब्दी का सरासर अपमान है !


  • दिल्ली विधानसभा चुनाव में मौलाना लोग बहुत तेज़ी से लामबंद हो रहे हैं । इन के पास ज़रा भी अकल नहीं है । अगर खुदा न खास्ता भाजपा के खिलाफ मुसलामानों से आम आदमी पार्टी को वोट देने का फतवा जारी कर दिया इन मौलाना लोगों ने तो जो अरविंद केजरीवाल अभी तक बढ़त बनाए दिख रहे हैं , औंधे मुंह गिरेंगे। यह मौलाना लोग कहीं हिंदू वोटों को पोलराइज करने के लिए नरेंद्र मोदी के ट्रैप में तो नहीं फंस गए हैं ? इस लिए भी कि भाजपा दिल्ली में पांच से अधिक मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने जा रही है । इन में से कुछ पूर्व आपिये भी हैं। नरेंद्र मोदी जैसा बहेलिया अभी तक भारतीय राजनीति में तो नहीं देखा गया। मुसलमानों की खिलाफत ने ही इस बहेलिये को इतना ताकतवर बनाया है यह मौलाना लोग अभी तक नहीं समझ पाए , यह तो हद्द है !


  • यह भी अजब अंतर्विरोध है कि जो लोग शरीयत के नाम पर चार पत्नी रखने की पैरवी करते हैं और औरतों को जीते जी नरक के सिपुर्द कर देते हैं वह लोग भी इन इन साक्षी और साध्वियों जैसे मूर्खों के चार बच्चों वाले बयान पर घायल हुए जा रहे हैं। जनसंख्या विस्फोट समूची दुनिया के लिए सरदर्द है। सवाल यह भी है कि धर्मांतरण के मुद्दे पर क़ानून बनाने की बात करने वाली भाजपा दो बच्चों से अधिक बच्चे न पैदा करने के बाबत क़ानून क्यों नहीं बना देती ? और ऐसे अराजक बयान जारी करने वाले साक्षियों और साध्वियों का कान ठीक से क्यों नहीं गरम कर देती कि इन की बोलती बंद हो जाए !

1 comment:

  1. आपका ब्लॉग नियमित पढता रहता हूँ सर.

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