कुछ और फ़ेसबुकिया नोट्स
- एक समय दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल जैसे कांग्रेसी अहंकारियों ने अन्ना के नेतृत्व में चल रहे इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोगों को ललकारा कि ऐसे ही देश बदलना है तो राजनीति में आ कर देखें। आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा। अन्ना हजारे कांग्रेस की इस शकुनी चाल को समझते थे । सो साफ कह दिया कि राजनीति की गंदगी में नहीं जाना। ममता बनर्जी के साथ जाने वाली क्षणिक फिसलन को छोड़ दें तो वह अभी तक इस पर कायम हैं । लेकिन अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा ज़ोर मार गई और वह अन्ना को धता बता कर आम आदमी पार्टी बना बैठे। एक आंदोलन का गर्भपात हो गया । तो भी अरविंद को क्षणिक सफलता मिली जिस को वह अपनी अति महत्वाकांक्षा में संभाल नहीं पाए। अब इस चुनाव में दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल की तरह भाजपा को ललकारने लगे कि आप के पास दिल्ली का चेहरा कौन है ! अब किरन बेदी चेहरा बन कर आ गईं तो उन को मुश्किल हो गई। राजनीति में ही क्या ज़िंदगी में भी ललकार और चुनौती की भाषा एक हद तक ही चलती है। क्यों कि इस का परिणाम घातक होता है । मिटटी पलीद हो जाती है । आदमी तो आदमी पार्टी की पार्टी मटियामेट हो जाती है। किस्मत कांग्रेस हो जाती है , अरविंद केजरीवाल हो जाती है ! इतनी कि घर में कलह हो जाती है। शांति भूषण की जिरह सामने आ जाती है ।जनार्दन द्विवेदी की घुटन सामने आ जाती है , बिन्नी और शाजिया इल्मी की बगावत सामने आ जाती है। सतीश उपाध्याय की फज़ीहत सामने आ जाती है। सोचिए कि अरविंद की ज़रा जल्दबाज़ी देखिए कि बिजली कम्पनियों वाला सतीश उपाध्याय पर आरोप अगर वह उन के नामिनेशन के बाद लगाए होते तो क्या सीन होता ? लेकिन हर बार वही बनारस जाने की हड़बड़ी , तिस पर अहंकार और तानाशाही के नित नए आरोप उन्हें इतना मुश्किल में दाल देते हैं कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण जैसे पिता-पुत्र आमने सामने आ जाते हैं। अरविंद केजरीवाल ने सचमुच भारतीय राजनीति को एक दिलचस्प बना कर एक नया आस्वाद दे दिया है। तो भी काश कि अरविंद केजरीवाल , दिग्विजय सिंह या कपिल सिब्बल जैसे लोग कबीर का यह कहा भी जान लेते कि :
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
- दिल्ली विधान सभा चुनाव में इस बार टी वी चैनल खुल्लमखुल्ला अरविंद केजरीवाल की आप और भाजपा के बीच बंट गए हैं। एन डी टी वी पूरी ताकत से भाजपा की जड़ खोदने और नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने में लग गया है। न्यूज 24 है ही कांग्रेसी। उस का कहना ही क्या ! इंडिया टी वी तो है ही भगवा चैनल सो वह पूरी ताकत से भाजपा के नरेंद्र मोदी का विजय रथ आगे बढ़ा रहा है। ज़ी न्यूज , आज तक , आई बी एन सेवेन , ए बी पी न्यूज वगैरह दिखा तो रहे हैं निष्पक्ष अपने को लेकिन मोदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने में एक दूसरे से आगे हुए जाते हैं। सो दिल्ली चुनाव की सही तस्वीर इन के सहारे जानना टेढ़ी खीर है। जाने दिल्ली की जनता क्या रुख अख्तियार करती है।
- पत्रकारिता में गीदड़ों और रंगे सियारों की जैसे भरमार है। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। जब लोगों की नौकरियां जाती हैं या ये खा जाते हैं तब तक तो ठीक रहता है। लोगों के पेट पर लात पड़ती रहती है और इन की कामरेडशिप जैसे रजाई में सो रही होती है। लेकिन प्रबंधन जब इन की ही पिछाड़ी पर जूता मारता है तो इन का राणा प्रताप जैसे जाग जाता है।
देखिए कि आईबीएन सेवेन के
पंकज श्रीवास्तव कैसे तो अपनी मुट्ठी तानने का सुखद एहसास घोल रहे हैं।
लेकिन जब अभी बीते साल ही जब सैकड़ो लोग आईबीएन सेवेन से एक साथ निकाल
दिए गए थे तब इनकी यह तनी हुई मुट्ठियां इन के लाखों के पैकेज में विश्राम
कर रही थीं। कमाल है! ऐसे हिप्पोक्रेसी के मार पर कौन न कुर्बान हो जाए!
पढ़िए ये क्या लिख रहे हैं अपने फेसबुक वॉल पर...
''बहरहाल मेरे सामने इस्तीफा देकर चुपचाप निकल जाने का विकल्प भी रखा गया
था। यह भी कहा गया कि दूसरी जगह नौकरी दिलाने में मदद की जाएगी। लेकिन
मैंने कानूनी लड़ाई का मन बनाया ताकि तय हो जाये कि मीडिया कंपनियाँ मनमाने
तरीके से पत्रकारों को नहीं निकाल सकतीं। इस लड़ाई में मुझे आप सबका साथ
चाहिये। नैतिक भी और भौतिक भी। बहुत दिनों बाद 'मुक्ति' को महसूस कर रहा
हूं। लग रहा है कि इलाहाबाद विश्वविदयालय की युनिवर्सिटी रोड पर फिर मुठ्ठी
ताने खड़ा हूँ।''
http://bhadas4media.com/edhar-udhar/3407-kachra-pankaj
http://bhadas4media.com/edhar-udhar/3407-kachra-pankaj
- ज़माने बाद आज अन्ना हजारे खबरों में दिखे तो इस पुराने लेख की याद आ गई। इसी नाम से मेरे राजनीतिक लेखों की किताब भी दो साल पहले आई थी। अन्ना अब कह रहे हैं कि जनलोकपाल की लड़ाई अब अकेले लड़ेंगे। दिल्ली विधान सभा चुनाव के बाद।
- देख लेना,कबूतरबाज,तीतरबाज,पतंग उड़ाने वाली जहनियत रखने वाले लोग विश्वविद्यालयों में आचार्य बन जायेंगे।विश्वविद्यालय का नमक खाया है,इस लिए दुख होता है।
- आज टी वी पर दिल्ली में किरन बेदी को लाजपत राय की धूल लगी प्रतिमा को साफ करते देख फिराक गोरखपुरी की याद आ गई। एक बार तब की इलाहबाद नगर पालिका ने फ़िराक की प्रतिमा लगाने की ठानी। फ़िराक जीवित थे सो उन से अनुमति मांगने के लिए एक पत्र ले कर नगरपालिका का एक कर्मचारी गया उन के पास। फ़िराक उस समय अपने घर से रिक्शे से कहीं जा रहे थे । रिक्शे पर बैठे-बैठे फ़िराक ने कर्मचारी ने से पूछा कि काम क्या है ? प्रतिमा लगाने की बात सुनते ही फिराक गुस्से से फट पड़े। बोले , क्या पक्षियों को बीट करने के लिए मेरी प्रतिमा लगाओगे ? गुस्से से लाल-पीले होते हुए वह चले गए। यह दृश्य सरदार ज़ाफरी द्वारा फ़िराक पर बनाई डाक्यूमेंट्री में बहुत दिलचस्प ढंग से फिल्माया गया है । पूरी तल्खी और तुर्शी के साथ।
क्या खूब विश्लेषण किया है दयानंदजी।
ReplyDeleteमुझे एक नया मुहावरा थमा दिया आपने- किस्मत कांग्रेस हो जाती है.
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