Sunday, 17 August 2014

हमारे डियर गौतम चटर्जी के साथ लेकिन ऐसे ही है

दयानंद पांडेय 


गौतम चटर्जी मेरा  पुराना  मित्र है । बहुमुखी प्रतिभा का  धनी । धुन का  पक्का  । वह लेखक भी है, पत्रकार भी, रंगकर्मी और फ़िल्मकार भी, फोटोग्राफर भी  । और जाने क्या - क्या । मैथमैटिक्स में पी एच डी है बी एच यू से । लेकिन बी एच यू में ही पत्रकारिता पढ़ाता है । इस के पहले काशी विद्यापीठ में थिएटर पढ़ाता था । नाटक तो गौतम ने कई सारे लिखे ही हैं अब  घूम - घूम कर नाटक करता भी  हैं , फिल्म बनाता  और दिखाता  है । संगीत पर लिखना उस  का प्रिय शगल है । भाषा जैसे उस  की गुलाम है । उस  की भाषा की लय, गति और मिठास महसूस कर कई बार मैं उस  से कह चुका हूं कि, ' डियर तुम्हारे जैसी भाषा और सूचना जो मेरे पास होती तो मैं निर्मल वर्मा से बड़ा कथाकार होता !' वह यह सुन कर मुसकुरा भर देता है । तो इतनी समृद्ध भाषा और सूचना से भरपूर गौतम चटर्जी को भाषाएं भी बहुतेरी आती हैं । हिंदी, अंगरेजी , संस्कृत , बांग्ला , मराठी आदि जाने कौन - कौन सी भाषा । और यह भाषाएं उसे  न सिर्फ़ आती हैं बल्कि इन सभी भाषाओं पर उस  का पूरा अधिकार भी है। गौतम न सिर्फ़  भला  आदमी है , मुहब्बत से लबरेज , ऊर्जा से भरपूर यारबास आदमी है ।

घुमक्कड़ी में उस्ताद गौतम कब किस पर फ़िदा हो जाए, कब किस पर न्यौछावर हो जाए , वह खुद भी नहीं जानता  । लेकिन वह कब किसी से अचानक किस बात पर कतरा जाए , यह भी उस  के वश में नहीं होता लगभग । यायावरी जीवन का  कायल गौतम चटर्जी बाहर से बहुत बिखरा  - बिखरा  दीखता  ज़रूर हैं पर भीतर से वह बहुत ही व्यवस्थित , बहुत ही अध्ययनशील और बहुत ही भावुक व्यक्ति है । अमूमन रातें उस  की जगी और सुबह सोई होती हैं । इस तरह सुबहे-बनारस को धता बताते हुए वह बनारस में ही रहता  है । बनारसी फक्क्ड़ई उस  की सांस-सांस में समाई दिखती है , जैसे उस  की धमनियों में बहती रहती है यह बनारसी फक्क्ड़ई ! गौतम के पास बनारस में शिष्यों और विद्यार्थियों  की एक लंबी फौज है । वह कब और कहां अपनी क्लास शुरू कर दे और बच्चे पढ़ने लगें यह कोई नहीं जानता । एक समय हिंदू अख़बार में वह  एक कल्चरल कालम लिखता था । हर हफ्ते शुक्रवार के दिन छपता था । अद्भुत लिखता था । कोई पांच साल से ज़्यादा समय तक वह लिखता रहा । अचानक लिखना बंद कर दिया । अब वह कहीं भी नहीं लिखता । अंतिम पीस मैं ने उस का लिखा पंडित रविशंकर पर पढ़ा था । ऐसी अनूठी श्रद्धांजलि भी गौतम ही लिख सकता है ।  कई बार कुछ मित्र लोग उसे तंज में टैगोर भी कह देते हैं । शायद वह लोग नहीं जानते कि टैगोर पर भी गौतम का अध्ययन लाजवाब है । और टैगोर पर उस का व्याख्यान भी । कम लोग जानते हैं कि  गौतम के दादा सुनीति चटर्जी संस्कृत के विद्वान तो थे ही टैगोर के भी  साथी रहे हैं । उन के साथ कई विदेश यात्राओं के साक्षी । गौतम का अध्ययन इतना विशद है कि  वह किसी भी सभा में बड़े - बड़े विद्वानों को ललकार सकता है और बात अपनी तरफ मोड़ सकता है । नामवर सिंह जैसे लोगों की नामवरी भी वह एक क्षण में अपने अध्ययन और तर्क के बूते मटियामेट कर सकता है । आचार्य रजनीश जैसे दार्शनिक की लाजवाब बातों को भी वह बड़े  लाजवाब ढंग से काट सकता है । 

अच्छा संगीत सुनने , अच्छा कुरता पहनने , अच्छी और बढ़ी दाढ़ी का शौक फ़रमाने वाला  गौतम कुछ समय शामे-अवध यानी लखनऊ में भी नौकरी करते हुए गुज़ार चुका  है । लेकिन लखनऊ कभी उस  पर तारी नहीं हो पाया तो सिर्फ़ इस लिए कि वह ज़िंदगी अपने ढंग से जीता है , अपनी शर्तों पर जीता  है । हानि-लाभ से दूर गौतम अपने ही मन मर्जी का  मालिक है , अपना ही गुलाम है, किसी व्यक्ति , किसी नौकरी , किसी विधा से वह बंध कर रहने वाला  जीव नहीं है । रमता जोगी , बहता पानी वाला  संत सरीखा  गौतम लेकिन काशी नहीं छोड़ता , न कभी छोड़ेगा । लिखने-पढ़ने की दुनिया में ऐसा बैरागी, ऐसा जानकार और ऐसा बेपरवाह आदमी मैं ने अभी तक नहीं देखा । हम या हमारे जैसे लोग जानते हैं कि गौतम चटर्जी अनमोल आदमी है लेकिन खुद गौतम को लगता है कि वह दो कौड़ी का आदमी है । बिहार के एक गांव से बनारस आ कर बस जाने वाले परिवार के गौतम ने एक नहीं , अनेक बेमिसाल काम किए हैं । उस  की थिएटर और संगीत पर लिखी मानीखेज टिप्पणियां तो अपनी जगह हैं ही , पेंग्विन से आई किताब शिखर से संवाद तो अब खासी चर्चा में है । जिस में सत्यजीत राय , हजारी प्रसाद द्विवेदी , जयदेव सिंह , उत्पल दत्त , बादल सरकार, ब व कारंत, बिस्मिल्ला खान से लगायत   कुंवर नारायन  आदि के दिलचस्प इंटरव्यू भी उस  की शान में चार चांद लगाते हैं । मशहूर नाटकार बादल सरकार की आत्मकथा का बंगला से हिंदी में अनुवाद तो किया ही है हमारे गौतम ने , मशहूर तबलावादक किशन महराज की जीवनी भी लिखी है । गौतम के लिखे नाटकों में मृत्यु जिस तरह मछली की तरह छटपटाती हुई रह-रह कर उपस्थित होती है वह कई बार डराती सी चलती है ।  लगता है कि जैसे गौतम हम से बिछड़ता जा रहा है ।  लेकिन जब पलट कर उस से मिलता हूं तो वह तो उतनी ही मज़बूती  से अपनी ज़िंदगी के दरवाज़े पर खड़ा दोनों  हाथ फैलाए मिलने के लिए बेताब दीखता है । गंगा किनारे के इस बेताब बैरागी के अंदाज़ जुदा - जुदा हैं ।

तो आप क्या समझते हैं कि  यह सब अनायास ही है ? हमारे गौतम के पुरखों ने भी गौतम को रचा है । प्रसिद्ध  समाज सुधारक और क्रांतिकारी ईश्वरचंद्र विद्यासागर की नातिन मीरा बनर्जी का  बेटा  है गौतम चटर्जी। गौतम के दादा सुनीति कुमार चटर्जी भी  गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के साथी थे , संस्कृत के विद्वान थे , गुरुदेव  के साथ विदेश यात्राओं पर जाते थे । तो इन  पुरखों का खून का भी गौतम की परवरिश और माहौल में बहुत योगदान है । यह भी अनायास नहीं  है कि  गौतम को इतनी कम उम्र में बड़े - बड़े सम्मान भी मिल गए हैं । फ्रांस का विजडम आफ इंडिया और ड्रामा का सर्वोच्च सम्मान भारत सम्मान भी हमारे डियर गौतम को मिल चुका है । सच यह है कि  गौतम को जितने सम्मान मिले कम हैं । क्यों कि  यह दुर्भाग्य ही है हमारा कि गौतम की प्रतिभा जिस सम्मान और यश की हकदार है वह उसे अभी तक नहीं मिला है।  समय और समाज ने अभी उसे वह मुकाम नहीं दिया है जिस कि वह सही अर्थों में हक़दार है ।

एक बार बनारस गया था। गौतम चटर्जी ने बी एच यू के पत्रकारिता के छात्रों की कापियां जांचने को बुलाया था। एक शाम अस्सी घाट पर बैठे-बैठे मैं ने अपनी पहली बनारस यात्रा का ज़िक्र किया और हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलने का विस्तार से वर्णन किया। तो गौतम उछल गया। और मुझ से पूछा कि, ' अभी तक सब कुछ याद है?'मैं ने बताया कि, ' हां, मुझे तो उन का मकान नंबर ए-१५ रवींद्रपुरी तक याद है।'

'अच्छा?' उस ने पूछा,'उन का मकान आज भी पहचान सकते हो?'

'हां, बिलकुल !'

'अच्छा !' कह कर वह उठ कर खडा हो गया। बोला, 'आओ तुम्हें एक अच्छी जगह ले चलते हैं।' फिर वह घाट-घाट की सीढियां चढते-उतरते अचानक ऊपर की तरफ आ गया। बात करते-करते, गली-गली घूमते-घुमाते अचानक एक सडक पार कर के एक जगह खडे हो कर बिलकुल किसी फ़िल्म  निर्देशक के शाट लेने की तरह इधर-उधर हाथ से ही एंगिल लेते हुए बोला, 'यह एक,दो,तीन,चार!' और मेरी तरफ़ देख कर बोला, ' बताओ इस में से हजारी प्रसाद द्विवेदी का मकान कौन सा है?'

यह सुनते ही मैं अचकचा गया। मैं ने कहा कि,'उन के घर के सामने एक बडा सा पार्क था।'

'तो यह है न वह पार्क। यह पीछे।' उस ने पीछे मुड कर दिखाया। सचमुच हम उस पार्क के सामने ही खडे थे। जो हडबडाहट में मैं देख नहीं पाया। लेकिन मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह १९७६ में देखा गया घर पहचान नहीं पाया। तब उन के घर में बाहर बडा सा लान था। आम के पेड थे। ऐसा कुछ भी किसी भी मकान में नहीं था। तो भी मैं ने अनुमान के आधार पर एक मकान को चिन्हित कर दिया और कहा कि, 'यह मकान है।'

'बिलकुल नहीं।' गौतम किसी विजेता की तरह एक मकान दिखाते हुए बोला,'यह नहीं बल्कि यह मकान है।'

'पर इस में तो लान भी नहीं है, आम का पेड भी नहीं है और कि मकान भी छोटा है।' मैं भकुआ कर बोला।

'मकान वही है। छोटा इस लिए हो गया है कि मकान का बंटवारा हो गया है, उन के बेटों में। और उन्हों ने आगे लान के हिस्से में भी निर्माण करवा लिया है सो न पेड़ है आम का, न लान है।' कहते हुए उस ने जैसे पैक-अप कर दिया। बोला, 'अभी भी कुछ विवाद चल रहा है सो बंद है मकान।' और हाथ से इशारा किया कि अब चला जाए। हम लोग चलने लगे। मैं उदास हो गया था। एक तनाव सा मन में भर गया। ऐसे जैसे कोई तनाव टंग गया मन में। लगा कि जैसे चलते-चलते गिर पडूंगा। सोचने लगा कि कहां तो हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस घर को, इस घर की याद को साझी धरोहर मान कर संजोना चाहिए था, और कहां उस का मूल स्वरुप ही नष्ट नहीं था, विवाद के भी भंवर में लिपट गया था। दिल बैठने सा लगा। पर इस सब से बेखबर गौतम अचानक रुका और पीछे मुडते हुए बोला, 'ऐसी ही बल्कि इसी कालोनी में मैं भी एक छोटा सा मकान बनाना चाहता हूं। ताकि जहां शांति से रह और पढ-लिख सकूं।' गौतम के इस कहे ने मुझे जैसे संभाल सा लिया। मैं थोडा सहज हुआ। हम लोग अब वापस बी एच यू की ओर पैदल ही बतियाते हुए लौट रहे थे।

ऐसे ही एक बार फिर अस्सी घाट पर हम लोग बैठे थे ।  वहीं संस्कृत नाटक हो रहा था पास के एक पांडाल में । हम लोग सीढ़ियों पर बैठे थे । रात हो गई थी । उधर नाटक संस्कृत में हो चल रहा था । माइक से संस्कृत में संवाद सुनाई दे रहे थे । इधर गौतम उस को हिंदी में समझाता - बताता जा रहा था । अचानक उठ कर वह खड़ा हो गया । बोला, ' अब नाटक देखने लायक हो गया है ! चल कर देखा जाए !' हम लोग पांडाल में पहुंच गए । अदभुत नाटक था । संस्कृत में इतनी तैयारी और इतनी  नई तकनीक के साथ देखना एक नया अनुभव था । नाटक कर्ण  और परशुराम प्रसंग पर था ।  तमिलनाडु से आया नाट्य दल उसे प्रस्तुत कर रहा था । इस से पहले यह नाटक बनारस में खेला नहीं गया था । फिर भी गौतम को सारे नाटक की जानकारी थी तो सिर्फ इस लिए की उस ने संस्कृत में वह नाटक पढ़ा हुआ था । यही क्या गौतम कब और किस भाषा की कौन सी रचना नहीं पढ़े होता । हां , पर वह लंबे समय तक अख़बार में काम करने के बावजूद अख़बार नहीं पढता ।  एक बार क्या हुआ कि  बनारस में आतंकवादी घटना हुई ।  घाट पर भी हुई थी । गौतम अकसर घाट - घाट घूमता रहता है । तो मुझे खबर सुन कर चिंता हुई । फ़ोन  किया तो पता चला कि  उसे तो घटना के बारे में पता ही नहीं था । मैं ने बताया कि  अखबारों में खबर है । पर वह बेफिक्र बोला , ' चलो मैं सुरक्षित हूं ! अब खुश !' अखबारों के बारे में उस की राय वैसे भी कभी अच्छी नहीं रही । न ही तमाम लोगों के बारे में । अमूमन लोग व्यवस्थित ज़िंदगी जीना चाहते हैं ।  कि  एक अच्छी सी नौकरी हो, बीवी बच्चे हों , सुविधाएं आदि हों । हेन - तेन हो । पर गौतम यहां भी बादशाह है अपनी मर्जी का । वह किसी से बंध कर नहीं रह सकता । अपनी किसी माशूका से भी । आप यह सब जान कर अफना जा रहे हों तो अफना जाइए । 

हमारे डियर गौतम चटर्जी  के साथ लेकिन ऐसे ही है ।

कई बार उस के मेसेज भी संगीतमय होते हैं । वह किसी शाम बारिश में भीगते हुए लिख सकता है कि  फला घाट से भीगते हुए । या फला रास्ते में ट्रेन से । चांदनी रात में तुम्हें सोचते हुए । निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए । रविशंकर का संगीत सुनते हुए भोर में । सुबह सोने जाते हुए शुभ असवारी प्रभात भी वह लिख सकता है । ऐसा या वैसा वह कुछ भी लिख सकता है । गोया मैं उस का दोस्त नहीं महबूबा होऊं ! अब अलग बात है कि मैं खुद उस का आशिक हूं ।

एक बार वह एक नाटक ले कर लखनऊ आया । आता ही रहता है । राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में नाटक किया। एक तो नाटक अलग हट कर था ही । दूसरे  बीच नाटक में शास्त्रीय संगीत शुरू हो जाता । लोग उठ -उठ कर जाने लगे । बाद में मैं ने उसे इस बात पर टोका । तो वह बोला, ' जिस को नाटक देखना हो देखे, न देखना हो तो न देखे । लेकिन मैं तो नाटक ऐसे ही करूंगा । क्यों कि नाटक ऐसे ही होता है । और नाटक ही क्यों गौतम तो ज़िंदगी भी इसी तेवर और इसी ज़िद के साथ जीने का आदी है । अपनी ही शर्तों पर ज़िंदगी जीना आसान नहीं होता । लेकिन गौतम ने यह संभव कर दिखाया है । साला पता नहीं किस चक्की का आटा खाता  है । हां , यह ज़रूर है कि गौतम बनारस का जैसे आशिक है । बनारस उस में बोलता है । कि बनारस में गौतम बोलता है ?

पता नहीं ।

पर यह ज़रूर पता है कि गौतम मुझ में बोलता है । तो क्या मैं भी गौतम में बोलता हूं ?

क्या पता ?

हां , यह ज़रूर पता है कि आज हमारे इसी डियर गौतम चटर्जी का जन्म-दिन है । वह गौतम चटर्जी जो आजकल फेसबुक पर गौतम फकीर के नाम से उपस्थित है । तो शायद इस लिए भी कि उस के मूड की तरह उस के शेड्स भी बहुत हैं । बहुत बधाई डियर ! तुम्हारे फकीर को भी । इस लिए भी कि भोगी ही जोगी बन सकता है । मेरे जोगी , मेरे प्रिय , मेरे बाबू मोशाय , माई डियर गौतम तुम ऐसे ही मस्त और प्रसन्न रह कर सर्वदा अनूठा ही रचते रहो । ईश्वर ने तुम्हें इसी लिए रचा है ।


7 comments:

  1. हैपी वर्थ डे बाबू मोशाय़।

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  2. बहुत अच्छी याद !

    गौतम जी गज़ब इंसान हैं. उनके पास इस दुनिया के भीतर एक दुनिया है. उनका ज्ञान उन्हें कभी बेसुरा नहीं होने देता. कितनों को उन्होने आपसी बैठक में या फोन पर कुछ समझाया और वही समझाईश कभी किसी किताब की थीम, किसी किताब की भूमिका या कभी कभी तो पूरी किताब ही बन गई है. आपको ताज्जुब होता है जब सोनारपुरा की चाय दुकान पर बैठकर वो सत्यजीत राय से अपनी मुलाकात के बारे में बताते हैं. उनकी कई कहानियों / रचनाओं को फिर से प्रस्तुत करने का समय है.

    मेरा उनसे ऐसा नाता है कि निभा चला जाता है. जब अपने पर नहीं गुजरी थी तो लगता था कि व्यस्तताओं का हवाला मूर्ख दिया करते हैं. मतलब घनिष्ठ तो हैं पर गुरु शिष्य़ वाली दूरी के साथ. उनका ज्ञान और अनुभव ऐसा है कि अगर आप उनसे कुछ सीखना चाहते हैं तो विनम्रता से मिलिए. मुझे याद नहीं कि जो पत्रिका ( सांस्कृतिक उपहार ) उन्होने निकाली, उस स्तर की कोई भी एक पत्रिका या किसी भी पत्रिका का कोई एक अंक हिन्दी में निकल पाया. उसके सारे अंक संग्रहणीय हैं.

    जब तक बनारस रहा तब तक रोजाना ही मिलते रहे. एक समय था जब शाम एक साथ गुजरती रही. उनकी यामाहा थी जिस पर बैठकर रोज सोनारपुरा जाना फिर रात के दस बजे कमच्छा वापस आना. और एक समय यह है कि फोन भी कभी कभी हो पाता है. उनके साथ मैने एक नाटक खेला था: बहुरि अकेला. उनका ही लिखा. उनका हास्यबोध उसमें खिल के आया था. बाद में पता चला कि वही नाटक उन्होने दूर दूर तक और नई नई टीम्स के साथ खेला.

    जब वो बंगलौर आए थे तो संक्षिप्त मुलाकात हुई थी.

    उनकी खूबसूरत याद के लिए आपको धन्यवाद.

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  3. मेरा एक साथी था। वो अपने नाम के आगे ‘गगन’ लिखा करता था। मैं उसको गौतम चटर्जी ‘मगन’ कहने लगा तो उसने गगन लिखना बंद कर दिया। मैं उससे कहा करता था कि तुम घनचक्कर हो, तुम्हारा लिखा आम आदमी को समझ नहीं आता। यह जान का चकित हूं कि वो गणित में डाक्टर है। वो गणित का झोलाछाप डॉक्टर तो नहीं? वैसे असली वाला भी हो तो आश्चर्य नहीं, गणित वाले तो घनचक्कर होते ही हैं।

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  4. अरे ...कितने सारे रूप इस मौसम के .....सोरी रे बाबू मोशाय ..जाने क्या क्या बोल गयी ..कितना छुपा रुस्तम ये ..है ना पांडे जी !!!भीशोन सुन्दोर !!

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  5. क्या बात है दयानन्द जी गौतम पर इतना बढ़िया काव्यात्मक आख्यान क्या बात है ? गौतम जी को तो उपहार मिल गया बहुत याद आती पुराने दिनो की उनका नंबर एसएमएस कर दे तो बात हो जाय ।

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  6. Happy birth day gautam ji ko aur aapko bhi ...

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  7. Happy birth day gautam ji ko aur aapko bhi ...

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