रामचरन भंगी जैसे लाखों हैं जो घमंड की निद्रा में चल रहे हैं, और उन्हें यह पता भी नहीं है कि वे बीमारग्रस्त हैं। अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद का मतलब ही नहीं जानते हैं। शीलवाद और मानववाद का अर्थ ही नहीं जानते हैं। पढ़ा-लिखा और प्रबु्द्ध वर्ग क्या है उन्हें तो यह भी नहीं पता है।
यह एस के पंजम की आत्म-कथा का एक अंश है और कि यह रामचरन ही वास्तविक कालीचरन स्नेही हैं। दरअसल कालीचरन स्नेही जैसे अज्ञानी,
घमंड में चूर हो कर कैसे तो दलित अस्मिता की दुकान सजा कर दलित अस्मिता पर
भी दाग बन गए हैं यह जानना हो तो दलित चिंतक और लेखक-अध्यापक एस के पंजम की
आत्म-कथा रक्त कमल ज़रुर पढ़ें। कालीचरन स्नेही के तमाम अंतर्विरोध, उन की
झख, हठवादिता और अहंकार को प्याज की परत दर परत जैसे उतरती है, वैसे ही
पंजम ने उतारी है। इसे पढ़ कर पता चलता है कि कालीचरन इतना जहर आखिर कैसे
उगल लेते हैं? सिर्फ़ सवर्णों, ब्राह्मणों के लिए ही उन के मन में जहर नहीं
है कम्युनिस्टों और दलितों के लिए भी वह सांप की तरह फन काढ़े बैठे हैं।
बताते हैं कि इन दिनों वह रिटायर्ड आई ए एस और कांग्रेस नेता पी एल पुनिया
के पोतड़े धोते हैं और इसी दंभ में सार्वजनिक समारोहों में जहर उगलते हैं।
कई बार उन की बातों से पंजाब के कुख्यात आतंकवादी भिंडरावाले की बू आती है।
दलित हितों के लिए राष्ट्र के खिलाफ़ जाने की बात इस बात का तसदीक करने के लिए काफी है। इसी लिए सहिष्णुता या तार्किक बातों के वह हामीदार नहीं हैं। पंजम की आत्मकथा रक्त कमल में उन का विवरण पढ़ कर लगता है कि जैसे वह दलित के नाम पर एक नया आतंकवाद रचना चाहते हैं। दलित आतंकवाद। दलित आतंकवाद उन का इतना चटक है कि पूछिए मत। दलित हितों के लिए वह राष्ट्र के खिलाफ़ भी जाने की बात अब करने ही लगे हैं। और कि पूरी धौंस से। वह कहीं भी किसी भी को कुछ भी अप्रिय कह सकते हैं। वह अब पूरी तरह बेलगाम हैं। उन के बोलने में विवेक और संयम कोसो दूर हैं। सूर, तुलसी को पढ़ कर और उन्हीं के बूते आरक्षण की बैसाखी पकड़ कर नौकरी पा कर फिर उन्हीं सूर, तुलसी को पढ़ाते हुए सार्वजनिक समारोहों में उन्हीं को गालियां दे कर कालीचरन स्नेही रंगे सियार हैं कि गिरगिट यह आप तय कीजिए। दिक्कत यह है कि सार्वजनिक मंचों पर उन की बात का लोग जवाब इस लिए नहीं देते कि सामाजिक कटुता बढ़ेगी। और इसी को वह अपनी ताकत समझ बैठे हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग चले जाइए। कालीचरन स्नेही के आचरण और अध्यापन की खसरा खतियौनी मिल जाएगी। विश्वविद्यालय में बहुतेरे दलित अध्यापक हैं। लेकिन जो कुख्याति कालीचरन स्नेही ने हासिल की है, जुबानी गुंडई में जो कुख्याति कालीचरन स्नेही ने अर्जित की है किसी एक ने नहीं। शिष्टाचार और संसदीय शब्दावली में न तो यह लोगों से बात करते हैं और न छात्र इन से सभ्यता से बात करते हैं। छात्रों के साथ गालीगलौज तक इन की होती है। आलम यह है कि अन्य शिक्षक इन से कतराते हैं। यह कह कर कि एक साल हो गया, दो साल और काट लो विभागाध्यक्षी, फिर देखेंगे। खैर यह सब तर्कातीत और वर्णनातीत है। अभी तो इस दलित भिंडरावाले के बारे में एक दलित चिंतक और लेखक-अध्यापक एस के पंजम का लिखा पढ़िए जो उन की आत्म-कथा रक्त कमल से साभार यहां प्रस्तुत है। रक्त कमल का प्रकाशन लखनऊ के ही दिव्यांश प्रकाशन ने किया है। बस एक फ़र्क यह है कि यहां इस आत्म-कथा में एस के पंजम ने अपनी सुविधा के तौर पर कालीचरन स्नेही को प्रोफ़ेसर राम चरन लिखा है। लेकिन आप मित्र लोग राम चरन को कालीचरन के रुप में ही पढ़ें। एस के पंजम से भी मैं ने पूछा कि यह प्रोफ़ेसर राम चरन कौन हैं? क्या कालीचरन स्नेही हैं? तो वह छूटते ही बोले हां, यह चरित्र तो उसी का है !
दलित हितों के लिए राष्ट्र के खिलाफ़ जाने की बात इस बात का तसदीक करने के लिए काफी है। इसी लिए सहिष्णुता या तार्किक बातों के वह हामीदार नहीं हैं। पंजम की आत्मकथा रक्त कमल में उन का विवरण पढ़ कर लगता है कि जैसे वह दलित के नाम पर एक नया आतंकवाद रचना चाहते हैं। दलित आतंकवाद। दलित आतंकवाद उन का इतना चटक है कि पूछिए मत। दलित हितों के लिए वह राष्ट्र के खिलाफ़ भी जाने की बात अब करने ही लगे हैं। और कि पूरी धौंस से। वह कहीं भी किसी भी को कुछ भी अप्रिय कह सकते हैं। वह अब पूरी तरह बेलगाम हैं। उन के बोलने में विवेक और संयम कोसो दूर हैं। सूर, तुलसी को पढ़ कर और उन्हीं के बूते आरक्षण की बैसाखी पकड़ कर नौकरी पा कर फिर उन्हीं सूर, तुलसी को पढ़ाते हुए सार्वजनिक समारोहों में उन्हीं को गालियां दे कर कालीचरन स्नेही रंगे सियार हैं कि गिरगिट यह आप तय कीजिए। दिक्कत यह है कि सार्वजनिक मंचों पर उन की बात का लोग जवाब इस लिए नहीं देते कि सामाजिक कटुता बढ़ेगी। और इसी को वह अपनी ताकत समझ बैठे हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग चले जाइए। कालीचरन स्नेही के आचरण और अध्यापन की खसरा खतियौनी मिल जाएगी। विश्वविद्यालय में बहुतेरे दलित अध्यापक हैं। लेकिन जो कुख्याति कालीचरन स्नेही ने हासिल की है, जुबानी गुंडई में जो कुख्याति कालीचरन स्नेही ने अर्जित की है किसी एक ने नहीं। शिष्टाचार और संसदीय शब्दावली में न तो यह लोगों से बात करते हैं और न छात्र इन से सभ्यता से बात करते हैं। छात्रों के साथ गालीगलौज तक इन की होती है। आलम यह है कि अन्य शिक्षक इन से कतराते हैं। यह कह कर कि एक साल हो गया, दो साल और काट लो विभागाध्यक्षी, फिर देखेंगे। खैर यह सब तर्कातीत और वर्णनातीत है। अभी तो इस दलित भिंडरावाले के बारे में एक दलित चिंतक और लेखक-अध्यापक एस के पंजम का लिखा पढ़िए जो उन की आत्म-कथा रक्त कमल से साभार यहां प्रस्तुत है। रक्त कमल का प्रकाशन लखनऊ के ही दिव्यांश प्रकाशन ने किया है। बस एक फ़र्क यह है कि यहां इस आत्म-कथा में एस के पंजम ने अपनी सुविधा के तौर पर कालीचरन स्नेही को प्रोफ़ेसर राम चरन लिखा है। लेकिन आप मित्र लोग राम चरन को कालीचरन के रुप में ही पढ़ें। एस के पंजम से भी मैं ने पूछा कि यह प्रोफ़ेसर राम चरन कौन हैं? क्या कालीचरन स्नेही हैं? तो वह छूटते ही बोले हां, यह चरित्र तो उसी का है !
[ दिव्यांश पब्लिकेशंस एम आई जी-222, फ़ेज़-1 एल डी ए टिकैत राय कालोनी, लखनऊ से प्रकाशित एस के पंजम की आत्म-कथा रक्त कमल से साभार]
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काफी रोचक पोस्ट...
ReplyDeleteKalicharan snehi jaise daliton ne hi poore samaj ko baant diya hai. kalicharan snehi ke dimag ka Zala saaf karne liye Aap ko sadhuwad!!!!
ReplyDeleteप्लाट अच्छा है । भाषागत अशुद्धियाँ बहुत हैं । `चूतिया' नहीं `सूतिया ' जाति है असम की,बंगाल की नहीं । असमिया में देवनागरी के `स' वर्ण का उच्चारण `च ' होता है । और भी बहुत सी त्रुटियाँ हैं ।
ReplyDeleteमाननीय बुद्धिनाथ मिश्र जी सादर प्रणाम .
ReplyDeleteआपकी समीक्षा से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है सुतिया शब्द कई पुस्तकों को पढ़ने के बाद मुझे मिला नहीं जहां भी मैंने पढ़ा है डॉक्टर अंबेडकर जे एच हटन तथा और भी कई लेखकों को लेकिन सुतिया शब्द कहीं नहीं मिला .भाषागत अशुद्धियों को सुधारने की मैं पूरी कोशिश करूंगा आप द्वारा दिखाए गए अच्छे मार्ग का निश्चय ही पालन करूंगा .
बहुत-बहुत धन्यवाद .
एस के पंजम