• अजब मंजर है इन दिनों। मोदी विरोध और मोदी समर्थन में ही दुनिया जी रही है। और भी गम हैं जमाने में मोदी के सिवा !
 
  • इधर मैं ने कुछ लोगों के अंतर्विरोध नोट किए हैं। जैसे कि बहुत से ऐसे लोग हैं जो जुबान से तो वामपंथी हैं पर जेहन से भाजपाई! ऐसे ही कुछ दलित हैं जो जुबान से तो अंबेडकरवादी हैं पर जेहन से बसपाई, सपाई या भाजपाई हैं। कांग्रेसी भी। कुछ मुस्लिम हैं जो जुबान से इस्लाम-इस्लाम करते हैं पर जेहन से सपाई, कांग्रेसी, बसपाई हैं। कुछ भाजपाई भी। मतलब सब के सब अगर कुछ हैं तो सिर्फ़ मौकापरस्त ! अभी नाम नहीं ले रहा हूं। ले लूंगा तो भारी बवाल हो जाएगा। ज़रुरत पड़ी तो ज़रुर ले लूंगा।

  • अब की के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस सब से बड़ी लूजर होगी यह तो तकरीबन तय है। पर जद यू के नेता और बिहार के मुख्य मंत्री दूसरे सब से बड़े लूजर साबित होने जा रहे हैं। और कि आज की चुनावी रिपोर्ट यह भी बताती है कि मोदी की लहर छोटे परदे पर ही ज़्यादा है। कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार में मतदान का इतना कम प्रतिशत इसी बात की चुगली खाता है। लेकिन नेताओं की हुंकार और लफ़्फ़ाज़ी जारी है। शायद इसी लिए मेरे मित्र बालेश्वर एक समय गाते थे कि हार गया चुनाव लेकिन हार नहीं मानता ! खुदा खैर करे !

  • का चुप साधि रहा बलवाना !
चंचल जी, आप ने कुछ समय पहले ऐलान किया था अपनी ही वाल पर कि आप बनारस से चुनाव लड़ेंगे। तो अपनी उस इच्छा का सम्मान कीजिए। अपने समाजवादी शस्त्रों के साथ उतर आइए काशी के चुनावी मैदान में। हार-जीत की चिंता किए बिना और कि इन तानाशाहों को चुनौती दे डालिए और बता दीजिए दुनिया को कि हम सिर्फ़ फ़ेसबुक पर जुगाली करने ही के लिए पैदा नहीं हुए हैं। तय मानिए आप का साथ देने आप के तमाम साथी तो आएंगे ही, आप अनुमति देंगे तो हम भी अपने दस-बीस साथियों के साथ अपने खर्चे पर आएंगे। आप के प्रचार में। छोड़िए उस चोर, बेइमान सलमान खुर्शीद का फरुखाबाद और उस का प्रचार। और निर्दलीय ही सही, प्रतीकात्मक ही सही जूझ जाइए। भले बिल्ली की तरह ही सही इन बाघों से बाज जाइए। अभी समय शेष है। और कि समर भी शेष है। नहीं बाद मे पछताइएगाऔर गाइएगा कि चड़िया चुग गई खेत ! तब कोई फ़ायदा नहीं होगा। फिर काशी के आप पुराने वीर हैं। का चुप साधि रहा बलवाना !

  • ऐ दिले नादां ! आरजू क्या है, जुस्तजू क्या है !
 
कहां तो अपने बड़बोले राजनीतिक लबार लालू प्रसाद यादव इन के गालों जैसी चिकनी सड़क बनाने का ख्वाब देख रहे थे एक समय। कहां ये गुलाबी गाल आ गए मथुरा की पगडंडियों में अपना स्वप्न जैसा सौंदर्य ले कर। यह औचक सौंदर्य इस तरह खेतों में गेहूं की बाल कटवाए, हैंड्पंप चलवाए ! मथुरा की यह पगडंडियां और यह हमारी रुपसी संसद के द्वार जाने के लिए इस चैत मास में इतना कंट्रास्ट भर रही है। ताहि अहीर की छोकरियां, छछिया भरि छांछ पे नाच नचावैं! तो सुना था पर कोई स्वप्न सुंदरी भी ऐसे नाचेगी, वोटरों के वोट के छांछ पर। यह भी भला कौन जानता था? हाय रे यह राजनीति! और ऐ दिले नादां! आरजू क्या है, जुस्तजू क्या है ! क्या इसी दिन के लिए लिखा गया था मेरी जान ! तेरे सदके जाऊं ! हे नंदकिशोर, यह कौन सी लीला है, जो इस रुपसी को आप इस तरह अपनी गलियों में मीरा बनाए भटका रहे हैं?


  • मुंबई के बलात्कारियों के बाबत मुलायम सिंह यादव का यह कहना कि बच्चों से गलती हो जाती है, फांसी की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए, बेहद शर्मनाक है। खास कर तब और जब वह अब की चुनाव में प्रधान मंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं। असल में इस बयान के पीछे मुस्लिम वोटों का तुष्टीकरण तो है ही मुलायम की मानसिक बुनावट भी है यह। याद कीजिए कि जब दिल्ली जा रही उत्तराखंड की आंदोलनकारी महिलाओं के साथ मुजफ़्फ़र नगर में एक रात पुलिस ने बलात्कार किया था तो तब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे उत्तर प्रदेश के। वहां के तत्कालीन ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह ने भी ऐसा ही गैर ज़िम्मेदराना बयान दिया था। और कि बतौर मुख्य मंत्री मुलायम ने अनंत सिंह का बचाव किया था। यह अनायास नहीं था कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब वह दस्यु उ्न्मूलन अभियान के तहत न
  • सिर्फ़ मुलायम के परिवारीजनों को तबाह किए थे बल्कि मुलायम को पुलिस मुठभेड़ में मरवाना चाहते थे। पर तब मुलायम ने चौधरी चरण सिंह की शरण में जा कर अपनी जान बचाई थी। लोग भूल गए हैं पर जानने वाले जानते हैं कि मुलायम की आपराधिक पृष्ठभूमि भी है। एक समय उन की हिस्ट्रीशीट भी थी। और कि उन पर तीन दर्जन मुक्दमे दर्ज थे। एक समय एक नारा चला था, नाम मुलायम है, गुंडई कायम है। तो कहने का मतलब यह कि अभी उन की मानसिक बुनावट नहीं बदली है। वही अपराधी बुनावट रह-रह कर उभर आती है। मुस्लिम वोटों का लोभ अलग है। क्यों कि बलात्कार में फांसी पाए मुंबई के वह लड़के मुस्लिम हैं।

  • इमर्जेंसी में लालू प्रसाद यादव जब मीसा के तहत जेल में बंद थे तब उन की एक बेटी हुई। उन्हों ने उस का नाम रखा मीसा। अब वही मीसा चुनाव लड़ रही हैं उसी कांग्रेस के समर्थन से जिस ने उन के पिता को मीसा कानून के तहत गिरफ़्तार किया था। रात गई, बात गई की रवायत राजनीति में कुछ ज़्यादा ही है। कोई क्या कर लेगा भला?

  • लफ़्फ़ाजों ने सेक्यूलर शब्द को चंदन की तरह घिस-घिस कर इतना चपटा बना दिया है कि अब की चुनाव में यह सेक्यूलर शब्द सिर्फ़ मजाक बन कर रह गया है। इतना कि इस की प्रासंगिकता खतरे में पड़ गई है। बेमानी सा हो गया है यह।
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सर्द लहू है क्या मुस्काऊं
सोच रहा हूं अब बिक जाऊं।
-हमदम गोरखपुरी


  • मोदी के प्रधान मंत्री पद की राह में सिर्फ़ तीन अड़ंगे हैं। एक उन का सांप्रदायिक चेहरा, दूसरे अरविंद केजरीवाल, तीसरे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। बा्की दो से वह पार भले पा लें पर राजनाथ सिंह उन के दुर्योधन पर शकुनी की तरह सवार हैं। लगता है उन को कहीं का नहीं छोड़ेंगे। आडवाणी की आह अपनी जगह है। जसवंत सिंह, सूर्य प्रताप शाही तक खुले आम रोते,आंसू बहाते घूम रहे हैं। दल बदलुओं के लाक्षा्गृह अलग हैं।

  • तो क्या सामाजिक न्याय और धर्मनिर्पेक्षता की दुहाई सिर्फ़ और सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी नहीं है? अगर नहीं है तो यह तमाम-तमाम राजनीतिक दल भाजपा और मोदी से लड़ने के लिए एक क्यों नहीं हो जाते? इस बिना पर दक्षिण में करुणानिधि-जयललिता, पश्चिम बंगाल में वाम और ममता, उत्तर प्रदेश में मायावती-मुलायम, बिहार में लालू-नीतीश आदि-आदि क्यों नहीं एक हो जाते? आखिर इन सब की धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक न्याय की हुंकार तो एक ही है। और हां, कांग्रेस से भी यह सब एक साथ क्यों नहीं मिल जाते और मिल कर चुनाव लड़ते। साथ में आम आदमी पार्टी और उस के नेता केजरीवाल को भी जोड़ लेते। सब का एजेंडा भी एक है। यह सब जो एक हो जाएं तो मोदी और उन की भाजपा से मुकाबला दिलचस्प हो जाए। आखिर सांप्रदायिक शक्तियों से देश को बचाना बहुत ज़रुरी है। बहुत मुमकिन है मोदी का रथ तो क्या एक पहिया भी न हिल पाए, आगे बढ़ना या विजय की तो बात खैर नहीं ही हो पाएगी। लेकिन इन लफ़्फ़ाज़ों को तनिक भी शर्म नहीं आती। खाने के और दिखाने के बहुतेरे हैं। इन का पाखंड और इन पाखंडियों का कुछ तो प्रतिकार और इलाज होना ही चाहिए।